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SALALACASA
• धर्म थारण की योग्यता किसमें ?
GENRAKSHANASA
धर्म ग्रहण के योग्य जिय, संज्ञी भव्य पर्याप्त । कालादि लब्धि सहित अन्य न होय कदाऽपि ॥ २ ॥
अर्थ - यद्यपि धर्म एक रूप और प्राणी मात्र का कल्याण करने वाला है । परन्तु हर एक पर्याय हर एक प्राणी में उसे प्राप्त करने की सामर्थ्य, योग्यता नहीं है। वह योग्यता क्या है ? यही यहाँ स्पष्ट किया है। जो जीव भव्य हैं, संत्री, पर्याप्त और लब्धि आदि अब्धियों को प्राप्त करने की योग्यता रखता है, उसे भी तदनुरूप निमित्त अर्थात् समर्थ कारण प्राप्त होते हैं तभी रत्नत्रय स्वरूप धर्म धारण कर सकता है। लब्धियाँ पाँच हैं - १. क्षायोपशमिक, विशुद्धि, ३. देशना, ४. प्रायोग्य और ५ करण । प्रथम चार तो सामान्य हैं जो भव्य और अभव्य दोनों के हो सकती है। परन्तु पाँचवीं करण लब्धि उसी भव्य के होती है जो सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के उन्मुख हैं ।
२.
अशुभ कर्मों के अनुभाग का उत्तरोत्तर क्षीण होना क्षायोपशम लब्धि है। परिणामों की निर्मलता विशेष होना विशुद्धि लब्धि है। योग्य सम्यक् उपदेश की प्राप्ति देशनालब्धि है। पंचेन्द्रिय, संज्ञी पर्याप्त अवस्था प्राप्त कर अनन्त . (ख) वत्थु सहावो धम्मो वस्तु का जो स्वभाव है उसे ही धर्म कहते हैं।
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अर्थात् अपना- २ स्वभाव ही उस उस वस्तु का धर्म है।
(ग) सद् दृष्टि ज्ञान वृत्तानि धर्मं धर्मेश्वराविदुः । यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भव पद्धतिः ॥
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तीर्थंकरादि ने धर्म तीर्थ के प्रवर्तक वृषभादि तीर्थंकरों ने सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र को धर्म कहा है और इसके विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्र को संसार भ्रमण का कारण कहा है।
(घ) यतोऽभ्युदय निःश्रेयमसिद्धिः स धर्मः जिससे स्वर्ग और मोक्ष की
सिद्धि हो वह धर्म है ॥ १ ॥
RASTYAVALLEREN:
SAZANACALAUREAZALDURSTEARACASÄCKA धर्मानन्द श्रावकाचार ७९