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* अथ द्वितीय अध्याय * • धर्म का लक्षण
जग के दुःख से जीव को, सुख मग धारे धर्म ।
आत्म स्वभाव है रत्नत्रय, नष्ट करे वसु कर्म ॥१॥ अर्थ - धर्म क्या है ? प्रथम अध्याय में इसका स्वरूप वर्णन हो चुका है। फिर भी विशेष रुचि वाले शिष्यों पर अनुग्रह कर कृपालु आचार्य देव पुनः समझा रहे हैं। अतः जो संसार दुःख सागर के जलधि की अनन्तों तरंगों के समान अनन्त दुःखों से भरा है और जीव निरंतर उनसे महापीड़ित हो रहा है, उसे उन असह्य कष्टों से निकाल कर चिर सुख साधक मुक्ति पथ पर आरूढ़ करें वह धर्म है । वह स्वयं आत्मा का स्वभाव है। वह स्वभाव रत्नत्रय है। रत्नत्रय आत्मा और आत्मा रत्नत्रय है। आचार्य परमेष्ठी श्री नेमिचन्द्रजी सिद्धान्त चक्रवर्ती ने द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ में लिखा है -
रयणतं ण वट्टइ अप्पाणं मुयत्तु अण्णदवयम्हि। तम्हा तत्तिय मइयो होदि हु मोक्खस्स कारणं आदा ॥४१॥
अर्थात् आत्मद्रव्य के अतिरिक्त अन्य द्रव्य में रत्नत्रय नहीं रहता, अतः आत्मा ही मोक्ष का कारण है। क्योंकि रत्नत्रय और आत्मा एक स्वरूप ही है। यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि रत्नत्रय स्वभावोपलब्धि अष्ट कर्मों के विनाश से ही होती है क्योंकि वे आत्मा स्वभाव नहीं विभाव है। दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं। प्रत्येक भव्यात्मा को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र धारण कर अष्टकर्मों को नष्ट कर आत्म सुख प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए ॥ १॥
१. (क) संसार दुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे।
यह रत्नकरण्ड श्रावकाचार का श्लोकांश है। जो संसार के दुःखों से मुक्त कर प्राणियों को उत्तम सुख में स्थापित करे वह सच्चा धर्म है।... NAGARUETTussaeksheneaetaMANAMEarasandasanasasarsana
धक्षमिन्द प्रावकाचार -७८