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क्षान्ति योषिति यो सक्तः सम्यग्ज्ञानतिथि प्रियः ।
स गृहस्थो भवेन्नूनं मनो दैवत साधकः ॥ १ ॥
अर्थ - जो पुरुष क्षमारूपी नारी में आसक्त, सम्यग्ज्ञानी, अतिथियों का प्रेमी अर्थात् दान देन में तत्पर, त्यागी, व्रतियों की सेवा रत और मन रूपी देवता का साधक - वश करने वाला, जितेन्द्रिय है वह निश्चय से गृहस्थ है। कुरल काव्य में भी कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं ।
धर्मराज्य के साथ में, जिसमें प्रेम प्रवाह ।
तोष सुधा उस गेह में, पूर्ण फलें सब चाह ॥ ५ ॥ परिच्छेद ५ ॥ अर्थात् जिस घर में स्नेह, प्रेम और धर्म का निवास है, धर्म साम्राज्य ही प्रवर्तता है, हर परिस्थिति में सन्तोषामृत वर्षण होता रहता है वही सफल गृहस्थाश्रम है । उस गृह में निवासियों के गृहस्थों के समस्त मनोरथ सिद्ध होते हैं ॥ २ ॥
वानप्रस्थ आश्रम - वानप्रस्थ से तात्पर्य है " वनवासी" । परन्तु वन में निवास करना मात्र ही वानप्रस्थाश्रम नहीं है। अपितु नीति विरुद्ध, अश्लील प्रवृत्तियों हिंसा, असत्य भाषण, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहाशक्ति का त्याग
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करना तथा उत्तम सम्यक् चारित्र धारण कर, वीतराग पूर्वक वन में निवास करना है । तात्पर्य यह है कि जो पंच महाव्रत धारण कर संयम पूर्वक, निमर्मत्व हो एकाकी वन में विचरण करता है, आत्मानुभव का प्रयत्न करता है वह वानप्रस्थाश्रम है। इसके विपरीत कुटिया बनाकर स्त्री, बाल-बच्चों, कुटुम्ब को लेकर वन में रहना वानप्रस्थ नहीं है ॥ ३ ॥
जिन महात्माओं ने सम्यग्ज्ञान द्वारा विवेक रूपी नेत्रोन्मीलन कर लिया है, सद्-असद् विचार से मानसिक विशुद्धि की है, चारित्र पालन द्वारा दीप्ति और नियमों का पालन कर जितेन्द्रियता प्राप्त की है उसे तपस्वी कहते हैं। किन्तु बाह्य वेषधारी को तपस्वी नहीं कहा जाता ।
जिनागम के अनुसार श्रावक की ११ प्रतिमाएँ होती हैं, इनमें उत्तरोत्तर
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KALACAKASTEAZASACHUACALABASASASAGASACERACASARASAGA धर्मानन्द श्रावकाचार ७६