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विकास नहीं अपितु निज गुणों का संहार होता है और नाना प्रकार के दुःखों से व्याप्त दुर्गति में जाना होता है। अतः सुखेच्छुओं को विरुद्ध धर्म विरोधी आचरणों का त्याग कर आत्मोत्थान करना चाहिए ।। १८ ।।
• जाति विरुद्ध आचार
उच्च सनातन जाति के, जो विरुद्ध व्यवहार । विधवा आदि विवाह तज, कर संस्कार प्रचार ॥ १९ ॥
अर्थ - उच्च का अर्थ हैं उत्तम वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ण । सनातन से अभिप्राय है कुल क्रम से आर्षमार्गानुसार जाति, कुल, वंश, परम्परा की शुद्धि । एक प्रकार या जाति में शुद्धता रहती है। जहाँ विजाति वस्तुओं का मिश्रण होता है वहाँ अशुद्धि उत्पन्न हो जाती है। उसका नाम, धाम, काम सब कुछ विपरीत, वचन अगोचर, निंद्य और हीन कहलाने लगता है।
उदाहरणार्थ यदि गेहूँ, जौ आदि धान्य एक ही जाति के बोये जाते हैं। तो उनसे उत्पन्न अनाज उसी जाति का होता है यदि मिश्रकर वपित किया तो गोचर होता है। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न जाति या विधवा विवाह करने पर दोनों के मिश्रण से किसी भी जाति की शुद्ध सन्तान नहीं होगी। यथा कोई खण्डेलवाल
१८. उत्तमक्षमामार्दवार्जव शौच सत्यसंयमतपस्त्यागा किंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः अर्थ - उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव शौच सत्य संयम तप त्याग आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दस धर्म हैं।
२. धृति क्षमादमोस्ते यशौचमिन्द्रिय निग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यम क्रोधो दशकं धर्म लक्षणं ॥
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१० धर्मों की अन्य प्रकार विवक्षा करते हुए यहाँ बताते हैं - १. धैर्य, २. क्षमा, ३. इन्द्रियों का दमन, ४, अचौर्य, ५. शौच, ६. इन्द्रियों को वश में रखना, ७. बुद्धिपूर्वक कार्य करना - विवेकशील होना, ८. विद्या, ९. सत्य, १०. अक्रोध-क्षमा भाव रखना ये १० प्रकार के धर्म हैं ॥ १८ ॥ SASAMARAVATARAMANAGAGAGAGAMENTOEGETALESE,
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निन्द श्राकार ६२
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