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लोक निन्दा भी होती है। इसी प्रकार सदाचार शिष्टाचार के विरुद्ध आचरण करना अन्याय है। वर्तमान युग की तो लीला ही विचित्र है। चारों ओर लूटमार, मायाचार, हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म, संचय की लालसा अपरिमित हो गई है। हर एक क्षेत्र में मनमानी धांधली मची हुई है। फलतः हर मानव दुःख दैन्य तप्त हो रहा है। टी. बी. बीडिओ का शिकार हो रहा है। हिंसात्मक खानपान, रहन-सहन, वेशभूषा हो गयी है । प्राचीन संस्कृति कृति को भूल पाश्चात्य वातावरण का अनुसरण अन्याय क्या महा अन्याय है। सुख चाहते हो तो इस अन्याय का त्याग करो ।। १७ ।।
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• धर्म विरूद्ध आचार
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क्षमा आदि दश धर्म के, घातक जे परिणाम |
क्रोध मान माया अमृत, लोभादिक तज काम ।। १८ ।।
अर्थ - पहले धर्म का लक्षण स्वरूप लिख दिया गया । "वस्तु स्वभावो धर्मः " यथार्थ में सभी परिभाषाओं का सार या निचोड़ यही है। आत्मा एक द्रव्य है, वस्तु है । आत्मा का स्वभाव उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच ( लोभ त्याग) सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य है। इन दृश धर्मो मय ही आत्मा है। इनका घातक होना आत्मा या धर्म का ही घात है। जिन परिणामों के द्वारा ये गुण विकृत किये जाते हैं, विपरीत परिणमन करते हैं वे भाव हैं -
१. क्रोध, २. मान, ३ . माया, ४. लोभ, ५. असत्य भाषण, ६. अदयाहिंसात्मक प्रवृत्ति, ७ इन्द्रिय विषय मेवन लोलुपता. ८. इच्छा और आया तृष्णा का विशेष व्यापार, ९. अब्रह्म सेवन, १०. परिग्रह संचय का आकर्षण, ११. परनिन्दा १२. स्व प्रशंसा, १३. धर्म, संघ आदि के विपरीत आचरण आदि हैं। पैशून्यादि भाव आत्म स्वभाव का घात करने वाले हैं। इन से आत्म
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LACALAURENGANAANNEMÄKELÄ NE VETELE RELATERESESATELĪTEGEMISEENESE धर्मानन्द श्रन्चार ६६