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अर्थ - आचार्य कहते हैं कि भारत में सांख्य, योग, सुगत, नैयायिक, जैन आदि अनेक प्रकार के दर्शन, मत-मतान्तर प्रचलित हैं। सभी अपनीअपनी बुद्धि के अनुसार तत्त्व स्वरूप कथन करते हैं। धर्म का रूप भी भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रतिपादन करते हैं। एक मात्र जैन दर्शन ही सर्वज्ञ प्रणीत होने से उनका आगम, वाणी पूर्वापर विरोध रहित हैं। आगम युक्ति प्रमाण से परीक्षा नहीं कर अज्ञानी मूढ़ जन सभी को समान मानकर एक ही प्रकार से मान-सम्मान, आदा.सत्कार करना विनय मिथ्यात्व है और वे जन विनय मिथ्यात्वी हैं ।। १४ ॥ • अज्ञान मिथ्यात्वका लक्षण
स्व-पर हिताहित की जहाँ, नहिं होय पहिचान। यज्ञ में पशुवध धर्म जिमि, मति अज्ञान महान ॥ १५ ॥
अर्थ - मोह तिमिर से आच्छन्न बुद्धि जन अपने हित और अहित के विचार से शून्य हो जाते हैं। धर्म में अधर्म और अधर्म में धर्म मानकर हिंमादि कर्मकर धर्म मानते हैं । पशुवत् विवेक हीन होते हैं । यज्ञ में अश्त्र, अज. मनुष्यादि का हवन करना और उनका स्वर्ग में गमन कथन करना अज्ञान है। इस प्रकार की श्रद्धा अज्ञान मिथ्यान्व है। इसका फला घोर यातनाओं से भारत नरक में ही गमन करना है जैसा कि गजा वसु और पर्वत का नरक गमन हुआ। इससे रक्षा करना चाहिए ।। १ ।।
१५. अब अज्ञान से मोक्ष होता है ऐसी मान्यता वाले अज्ञान मिथ्यात्व का स्वरूप बताते हैं -
हिताहित विवेकस्य यत्र अत्य-तमदर्शम् । यथा पशुक्यो धर्मस्तदज्ञानिकमुच्यते । ____ अर्थ - जिस मत में हित और अहित का चिल्कुल ही विवेचन नहीं है ! पशुवध धर्म है इस प्रकार अहित में प्रवृत्ति कराने का जो उपदेश है वह अज्ञान मिथ्यात्व कहलाता है।.. KARMANAMANAMKARAMMARKamargamMARATurmized
TIME श्वानकाना