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पहला प्रकरण ।
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हे जनक ! जो देश, काल और वस्तु - परिच्छेद से रहित, नित्य और व्यापक है, वह एक ही सिद्ध होता है, और वही तेरा आत्मा है । अतएव हे राजन् ! तू ऐसा निश्चय कर ले कि मैं ही सर्वज्ञ व्यापक हूँ, और सजातीयविजातीय स्व-गत भेद से रहित हूँ, और विशेष करके शुद्ध हूँ अर्थात् अविद्या आदिक मल मेरे में नहीं हैं । जब तू ऐसे निश्चय - रूपी अग्नि को प्रज्वलित करके अज्ञान रूपी वन को भस्म कर देगा, तो फिर जन्म-मरण-रूपी शोक से रहित होकर परमानन्द को प्राप्त होवेगा || ९ ||
जनकजी कहते हैं कि हे महाराज ! पूर्वोक्त निश्चय करने से भी तो जगत् सत्य ही दिखाई पड़ता है, इसकी निवृत्ति अर्थात् अभाव स्वरूप से कदापि नहीं होती है, और जब तक इसका अभाव न हो, तब तक शोक से रहित होना कठिन है ?
मूलम् । यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत् । आनन्दपरमानन्दः स बोधस्त्वं सुखं चर ॥१०॥ पदच्छेदः ।
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यत्र, विश्वम्, इदम्, भाति कल्पितम्, रज्जुसर्पवत्, आनन्दपरमानन्दः, सः, बोधः, त्वम्, सुखम्, चर ॥
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
विश्वम् = संसार रज्जुसर्पवत् = रज्जु में सर्प भाति भासता रहता है
अन्वयः ।
यत्र = जिसमें
इदम् =यह कल्पितम् = कल्पित
शब्दार्थ |
सदृश