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पहला प्रकरण ।
पदच्छेदः ।
एक: विशुद्धबोधः, अहम्, इति निश्चयवह्निना, प्रज्वाल्य, अज्ञानगहनम्, वीतशोक, सुखी, भव ॥
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
अहम्=मैं
एकः = एक
विशुद्धबोध: अति शुद्ध बुद्ध-रूप हूँ
इति = ऐसे
वलिया } =निश्चय रूपी अग्नि
अन्वयः ।
अज्ञान- =अज्ञानरूपी-वन को
गहनम्
प्रज्वाल्य = जला कर के वीतशोकः = शोक-रहित हुआ
+ त्वम्=नू
सुखी=मुखी
भव = हो
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शब्दार्थ |
भावार्थ ।
अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! तू इस प्रकार के निश्चय-रूपी अमृत को पी करके, मैं एक हूँ अर्थात् सजातीयविजातीय स्व-गत भेद से रहित हूँ । क्योंकि एक वृक्ष का जो वृक्षांतर से भेद है, वह सजातीय भेद कहा जाता है, और वृक्ष का जो घटादिकों से भंद है, उसका नाम विजातीय-भेद है और वृक्ष का जो अपने शाखादिकों से भेद है, वह स्व-गत भेद कहा जाता है ।
यह आत्मा तो ऐसा नहीं है, क्योंकि एक ही आत्मा सारे जगत् में व्यापक है । वह पारमार्थिक सत्तावाला है और नित्य है, इसके अतिरिक्त कोई दूसरा ऐसा नहीं है, इस वास्ते आत्मा में सजातीय भेद नहीं है । और परिच्छिन्न व्यावहारिक सत्तावालों में सजातीय-भेद रहता है, और आत्मा से भिन्न कोई भी पदार्थ पारमार्थिक सत्तावाला नहीं