Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ स्थितिनिरूपण के पश्चात् स्त्री का संचिठणाकाल बताया गया है। संचिठ्ठणाकाल का तात्पर्य यह है कि स्त्री निरन्तररूप से (स्त्रीस्व को छोड़े बिना) कितने काल तक स्त्रीरूप में ही रह सकती है? सामान्य स्त्री की अपेक्षा संचिठणाकाल बताने के पश्चात् प्रत्येक उत्तर भेद की संचिठ्ठणा बताई गई है। वह भी मूलपाठ और अनुवाद से जानना चाहिए। संचिठ्ठणाकाल के अनन्तर अन्तर का निरूपण किया गया है। अन्तर से तात्पर्य है कि कोई स्त्री, स्त्रीत्व से छूटने के बाद फिर कितने काल के पश्चात पुन: स्त्री होती है ? सामान्यस्त्री और उत्तरभेद वाली प्रत्येक स्त्री का अन्तरकाल प्रकट किया गया है / अन्तरद्वार के पश्चात् अल्पबहुत्व द्वार का प्ररूपण है। अल्पबहुत्व का अर्थ है अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक का प्रमाण बताना। यह अल्प बहुत्व कई अपेक्षाओं से बताया गया है। जैसे तिर्यस्त्रियों, मनुष्यस्त्रियों और देव स्त्रियों में कौन किससे अल्प है, बहुत है, तुल्य है या विशेषाधिक है? सबसे कम मनुष्यस्त्रियां हैं, तिर्यकस्त्रियां उनसे प्रसंख्यात गुणी हैं प्रोर देवस्त्रियां उनसे भी असंख्यात गुणी हैं / तदनन्तर लेकर अल्पबहुत्व का निर्देश किया गया है। इसके पश्चात् स्त्रीवेद नामक कर्म की बंधस्थिति बताते हुए कहा है कि जघन्यतः पल्योपमासंख्येय भाग न्यून एक सागरोयम का सार्ध सप्तभाग और उत्कर्षतः पन्द्रह कोटाकोटि सागरोपम है। पन्द्रह सौ वर्ष का अबाधाकाल है और अबाधाकाल रहित कर्मस्थिति उसका कर्मनिषेक (अनूभवनकाल) काल है। जितने समय तक कर्म बन्धन के पश्चात् उदय में नहीं पाता है उस काल को अबाधा काल कहते हैं। कर्मदलिक का उदयावलि में प्रविष्ट होने का काल कर्मनिषेक काल कहलाता है। तत्श्चात् स्त्रीवेद की उपमा फुस्फुम अग्नि से दी गई है। कुम्फुम का अर्थ कारीषाग्नि (कंडे की अग्नि) है। जैसे कंडे की अग्नि धीरे धीरे जलती हुई बहुत देर तक बनी रहती है इसी तरह स्त्रीवेद का अनुभव धीरे-धीरे और बहुत देर तक होता रहता है / स्त्रीवेद के कथन के अनन्तर पुरुषवेद का निरूपण है। पुरुष के भेद-प्रभेदों का वर्णन करके उनकी स्थिति, संचिठणा, अन्तर और अल्पबहत्व का प्रतिपादन किया गया है। तदनन्तर पुरुषवेद की बंधस्थिति, अबाधाकाल और कर्म निषेक बताकर पुरुषवेद को दावाग्नि ज्वाला के समान निरूपित किया है। ___ नपुंसक वेद के निरूपण में कहा गया है कि नपुंसक तीन प्रकार के हैं---नरयिक नपुंसक, तिर्यक्योनिक नपुंसक र मनुष्ययोनिक नपुंसक / देव नपुंसक नहीं होते हैं। तदनन्तर इनके भेद-प्रभेद निरूपित किये हैं। तत्पश्चात पूर्ववत् स्थिति, संचिठ्ठणा, अन्तर, अल्पबहत्व, बंधस्थिति अवाधाकाल और कर्मनिषेक प्रतिपादित हैं। नपुंसक वेद को महानगरदाह के समान बताया गया है। तत्पश्चात् पाठ प्रकार से वेदों का अल्पबहुत्व निर्देशित किया गया है। तदनन्तर कहा गया है कि पुरुष सबसे थोड़े हैं, उनसे स्त्रियां संख्येयगुणी हैं, उनसे नपुंसक अनन्त गुण हैं / तिर्यकयोनिक पुरुषों की अपेक्षा तिर्यक्योनिक स्त्रियां तिगुनी अधिक हैं। मनुष्य पुरुषों की अपेक्षा मनुष्य-स्त्रियां सत्तावीस गुणी हैं और देवों से देवियां बत्तीस गुनी अधिक हैं।' 1. तिगुणा तिरूव प्रहिया तिरियाणं इत्थिया मुणेयब्वा / सत्ताबीसगुणा पुण मणुयाणं तदहिया चेव // 1 // बत्तीस गुणा बत्तीसरूब अहिया उ होंति देवाणं / देवीमी पण्णत्ता जिणेहि जियरागदोसेहिं // 2 // ---संग्रहणिगाथा [ 27] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org