Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्राधनिक विज्ञान ने भी वनस्पति की सचेतनता सिद्ध कर दी है। वैज्ञानिक साधनों द्वारा यह प्रत्यक्ष करा दिया गया है कि वनस्पति में क्रोध, प्रसन्नता, हास्य, राग प्रादि भाव पाये जाते हैं। अ. बे हास्य प्रकट करती हुई और निन्दा करने से क्रोध करती हुई दिखाई दी हैं। प्रस्तुत प्रतिपत्ति में संसारी जीव के त्रस और स्थावर-ये दो भेद किये गये हैं / त्रस की व्युत्पत्ति करते हुए वृत्ति में कहा गया है कि-उष्णादि से अभितप्त होकर जो जीव उस स्थान से अन्य स्थान पर छायादि हेतु जाते हैं, वे स हैं। इस व्युत्पत्ति के अनुसार अस नामकर्म के उदय वाले जीवों की ही असत्व में परिगणना होती है, शेष की नहीं / परन्तु यहां स्थावर नामकर्म के उदय वाले तेजस्काय और वायुकाय को भी अस कहा गया है। अतएव यहाँ प्रसत्व की व्युत्पत्ति इस प्रकार करनी चाहिए जो प्रभिसंधिपूर्वक या अनभिसंधिपूर्वक भी ऊर्ध्व, अधः, तिर्यक् चलते हैं वे बस हैं, जैसे तेजस्काय, वायुकाय, और द्वीन्द्रिय प्रादि / उष्णादि अभिताप के होने पर भी जो उस स्थान को नहीं छोड़ सकते हैं, वहीं रहते हैं वे स्थावर जीव हैं, जैसे पृथ्वी, जल और वनस्पति / / प्राय: स्थावर के रूप में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति- ये पांचों गिने जाते हैं। प्राचारांग में यही कथन है। किन्तु यहाँ गति को लक्ष्य में रखकर तेजसू और वायु को अस कहा गया है। क्योंकि अग्नि का ऊर्ध्वगमन और वायु का तिर्यगगमन प्रसिद्ध है। दोनों कथनों का सामंजस्य स्थापित करते हुए कहा गया है कि अस जीव दो प्रकार के हैं-गतित्रस और लब्धित्रस / तेजस् और वायु केवल गतित्रस हैं, लब्धित्रस नहीं है। जिनके त्रस नामकर्म रूपी लब्धि का उदय है वे ही लब्धित्रस हैं जैसे द्वीन्द्रिय प्रादि उदार अस, तेजस् और वायु में यह लन्धि न होने से वे लब्धित्रस न होकर स्थावर में परिगणित होते हैं। केवल गति की अपेक्षा से ही उन्हें यहाँ त्रस के रूप में परिगणित किया गया है। पृथ्वीकाय के दो भेद किये गये हैं---सूक्ष्म पृथ्वीकाय और बादर पृथ्वीकाय / सूक्ष्म पृथ्वीकाय के दो भेद बताये हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक / तदनन्तर सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों की विशेष जानकारी देने के लिए 23 द्वारों के द्वारा उनका निरूपण किया गया है। वे 23 द्वार हैं-शरीर, प्रवगाहना, संहनन, संस्थान, कषाय, संज्ञा, लेश्या, इन्द्रियां, समुद्धात, संजी-प्रसंज्ञी, वेद, पर्याप्ति-अपर्याप्ति, दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, योग, उपयोग, पाहार, उपपात, स्थिति, समुद्घात करके मरण, च्यवन, गति और प्रागति / प्रश्न के रूप में पूछा गया है कि भगवन् ! उन सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों के शरीर कितने होते हैं ? उत्तर में कहा गया है कि उनके तीन शरीर होते हैं यथाऔदारिक, तेजस और कार्मण / इस तरह शेष द्वारों को लेकर भी प्रश्नोत्तर किये गये हैं। 1. तत्र सन्ति--उष्णाद्यभितप्ता: सन्तो विवक्षितस्थानाद्विजन्ति गच्छन्ति च छायाद्यासेवनार्थ स्थानान्तरमिति प्रसाः, प्रनया च व्युत्पत्त्या प्रसास्त्रसनामकर्मोदयवर्तिनः एव परिगृह्यन्ते, न शेषाः, अथ शेषरपीह प्रयोजनं, तेषामप्यने वक्ष्यमाणत्वात्, तत एवं व्युत्पत्तिः---त्रसन्ति अभिसन्धिपूर्वकमनभिसन्धिपूर्वकं वा ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् चलन्तीति असा:-तेजोवायवो द्वीन्द्रियादयश्र / उष्णाद्यभितापेऽपि तत्स्थानपरिहारासमर्थाः सन्तस्तिष्ठन्ती त्येवं शीलाः स्थावरा:-पृथिव्यादयः / --मलयगिरि वृत्तिः सरीरोगाहण संघयण संठागकसाय तह य हंति सनायो। लेसिदियसमुग्धाए सन्नी वेए य पज्जत्ती // 1 // दिट्ठी दंसणनाणे जोगुवप्रोगे तहा किमाहारे। उववाय ठिई समुग्धाय चवणमइरागई चेव // 2 // [ 25 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org