Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ जेन दृष्टि से शरीरमुक्त पात्मा शुद्ध प्रात्मा है और शरीरयुक्त प्रात्मा अशुद्ध / शरीरयुक्त प्रात्मा में प्रात्मा और कर्मपुद्गल का योग है। इस योग के कारण ही प्रात्मा की अशुद्ध पर्यायें हैं। इन अशुद्ध पर्यायों के कारण ही जैनसिद्धान्त ने आत्मा को परिणमनशील कहा है / वह न एकान्ततः नित्य है और न एकान्ततः अनित्य है अपितु द्रव्यरूप से नित्य होते हुए भी पर्याय रूप से अनित्य है। नित्यानित्यत्व बौद्धदर्शन प्रात्मा को एकान्ततः अनित्य कहता है। यह मन्तव्य भी एकांगी और अपूर्ण है / प्रात्मा को एकान्त क्षणभंगुर मानने पर बन्ध-मोक्ष प्रादि घटित नहीं हो सकते / ऐसी स्थिति में उसके द्वारा मान्य कर्मवाद और पुनर्जन्मवाद भी घटित नहीं होते। बौद्धदर्शन प्रात्मा के विषय में वस्तुतः अस्पष्ट है। एक ओर वह निरात्मवादी है तो दूसरी ओर पुनर्जन्म और कर्मवाद को मानता है। जनदर्शन प्रात्मा के सम्बन्ध में बहुत स्पष्ट है / वह प्रात्मा को अनेकान्तदृष्टि से नित्यानित्य' रूप मानता है, उसका बंध और मोक्ष होना मानता है। यहां तक कि वह प्रात्मा को अमूर्त मानता हुमा भी सांसारिक आत्मा को कथंचित् मूर्त भी मानता है। संसारी प्रात्मा शरीर धारण करती है, इन्द्रियों के माध्यम से बह वस्तु को ग्रहण करती है, आहार, श्वासोच्छवास, भाषा और मनयुक्त होती है। ये सब परिणतियां होने के कारण आत्मा को कथं नित् मूर्त भी माना गया है। सांसारिक जीवों की सारी प्रवत्तियां प्रात्मा और शरीर के योम से होती हैं प्रतएव वे यौगिक हैं। अकेली आत्मा में ये क्रियाएँ नहीं हो सकती हैं और अकेले शरीर में भी ये क्रियाएँ सम्भव नहीं है। नवविध मन्तव्य संसारसमापनक जीव के भेदों को बताने के लिए नौ प्रकार की मान्यताओं का उल्लेख किया गया है। प्रथम प्रत्तिपत्ति (मान्यता) के अनुसार संसारी जीव के दो भेद किये गये हैं-अस और स्थावर / दूसरी प्रतिपत्ति के अनुसार तीन प्रकार कहे गये हैं-स्त्री, पुरुष पोर नपुंसक / तीसरी प्रतिपत्ति के अनुसार संसारी जीव के चार भेद कहे गये हैं- रयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव / चौथी प्रतिपत्ति के अनुसार पांच भेद कहे गये हैंएकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय / पंचम प्रतिपत्ति के अनुसार संसारी जीव के छह भेद हैं-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और सकाय। छठी प्रतिप्रति के अनुसार संसारी जीव के सात भेद कहे गये हैं-नैरयिक, तिर्यंच, तिर्यचिनी, मनुष्य, भानुषी, देव और देवी। सप्तम प्रतिपत्ति में संसारी जीव के आठ भेद प्ररूपित हैं. प्रथम समयवर्ती नैरयिक, अप्रथम समयवर्ती नरयिक, एवं प्रथम समय तिर्यञ्च अप्रथम समय तिर्यंच, प्रथम समय मनुष्य, अप्रथम समय मनुष्य, प्रथम समय देव, और अप्रथम समय देव / अष्टम प्रतिपत्ति में सांसारिक जीव के नौ भेद प्ररूपित हैं—पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय / नवम प्रतिपत्ति में संसारी जीव के दस प्रकार बताये हैं--प्रथम समय एकेन्द्रिय से प्रथम समय पंचेन्तिय तक पांच और अप्रथम समय एकेन्द्रिय से अप्रथम समय पंचेन्द्रिय तक पांच; कुल मिलाकर दस प्रकार के संसारी जीव बनाये गये हैं। उक्त सब प्रतिपत्तियां दिखने में पृथक्-पृथक्-सी प्रतीत होती हैं परन्तु तात्त्विक दृष्टि से उनमें कोई विरोध नहीं है। अलग-अलग दृष्टिकोण से एक ही वस्तु का स्वरूप अलग-अलग प्रतीत होता है किन्तु उनमें विरोध नहीं . होता। वर्गीकरण की भिन्नता को लेकर अलग-अलग प्ररूपणा है परन्तु उक्त सब प्रतिपत्तियाँ अविरोधिनी हैं। अनेकान्त दृष्टि की यही विशेषता है। [23] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org