Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पदार्थों की स्थितिमर्यादा आदि के लिए जिसका व्यवहार होता है वह प्रावलिकादि रूप काल जीव-जीव की पर्याय होने से उनसे भिन्न नहीं है। रूपी अजीवाभिगम चार प्रकार का है-स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु पुद्गल / यह पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है। यह प्रखण्ड द्रव्य नहीं है। इसका सबसे छोटा रूप एक परमाणु है तो सबसे बड़ा रूप है मचित्त समें संयोग-विभाग, छोटा-बड़ा, हल्का भारी, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान पाये जाते हैं। जैन सिद्धान्त ने प्रकाश, अन्धकार, छाया, पातप तथा शब्द को पौद गलिक माना है। शब्द को पौद्गलिक मानना जैन तत्वज्ञान की सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है। न्याय-वैशेषिक दर्शन ने शब्द को प्रकाश का गुण माना है। अाज के विज्ञान ने शब्द की पौगलिकता को स्पष्ट कर दिया है। जिस युग में आधुनिक वैज्ञानिक उपकरण उपलब्ध नहीं थे तब जैन चिन्तकों ने शब्द को पौदगलिक कहा और यह भी कहा कि हमारा शब्द क्षण मात्र में लोकव्यापी बन जाता है। तार का सम्बन्ध न होते हुए भी सुघोषा घंटा का स्वर असंख्य योजन दूरी पर रही हुई घण्टाओं में प्रतिध्वनित होता है-यह उस समय का विवेचन है जब रेडियो वायरलेस आदि का अनुसन्धान नहीं हुया था। उक्त रीति से अजीवाभिगम का निरूपण करने के पश्चात् जीवाभिगम का कथन प्राता है / आत्मा का शुद्धाशुद्ध स्वरूप जीवाभिगम के दो भेद किये गये हैं-संसार समापन्नक जीव और असंसार समापन्नक जीव / जो जीव अपनी ज्ञान-दर्शन-चारित्र की उत्कृष्ट पाराधना करके अपने विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं वे जीव असंसारसमापन्नक हैं। वे फिर संसार में नहीं पाते। जैनसिद्धान्त को मान्यता है कि---जैसे बीज के दग्ध होने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकते उसी तरह कर्मरूपी बीज के दग्ध होने पर फिर भवरूपी अंकुर प्रस्फुटित नहीं हो सकते / बौद्धदर्शन या वैदिकदर्शन की तरह जनदर्शन अवतारवाद में विश्वास नहीं करता। वह उत्तारवादी दर्शन है। संसारवर्ती प्रात्मा ही विकास करता हूआ सिद्धस्वरूप बन जाता है फिर वह संसार में नहीं पाता। . संसार-समापन्नक जीव वे हैं जो विभावदशापन्न होकर कर्मबन्ध की विचित्रता को लेकर नानाप्रकार की सांसारिक शरीर, इन्द्रिय, योग, उपयोग, लेश्या, वेद आदि स्थितियों को प्राप्त करते हैं। यह प्रात्मा की अशुद्ध दशा है। सिद्ध अवस्था प्रात्मा की शुद्ध अवस्था है और संसारवर्ती सशरीर दशा प्रात्मा की अशुद्ध अवस्था है। - आत्मा अपने मौलिकरूप में शुद्ध है किन्तु वह कब अशुद्ध बना, यह नहीं कहा जा सकता। जैसे अण्डा और मुर्गी का सन्तति-प्रवाह अनादिकालीन है, यह नहीं कहा जा सकता कि अण्डा पहले था या मुर्गी पहले ? वैसे ही संसारवर्ती प्रात्मा कब अशुद्ध बना यह नहीं कहा जा सकता। अनादिकाल से प्रात्मा और कर्म का सम्बन्ध चला पा रहा है अतएव अनादिकाल से प्रात्मा अशुद्ध दशा को प्राप्त है। इस प्रशुद्ध दशा से शुद्ध दशा की प्राप्त करना ही उसका लक्ष्य है धौर उसी के लिए सब साधनाएं और अराधनाएँ हैं। सांख्यदर्शन का मन्तव्य है कि प्रात्मा शुद्ध ही है। वह अशुद्ध नहीं होती। वह न बंधती है और न मुक्त होती है। बंध और मोक्ष प्रकृति का होता है, पुरुष-ग्रात्मा नित्य है, अकर्ता है, निर्गुण है। जैसे नर्तकी रंगमंच पर अपना नृत्य बताकर निवृत्त हो जाती है वैसे ही प्रकृति अपना कार्य पूरा कर निवृत्त हो जाती है—यह पुरुष और प्रकृति का वियोग ही मुक्ति है। ____सांख्यदर्शन की यह मान्यता एकांगी और अपूर्ण है / यदि प्रात्मा शुद्ध और शाश्वत है तो फिर साधना और आराधना का क्या प्रयोजन रह जाता है ? साधना की प्रावश्यकता तभी होती है जब प्रात्मा अशुद्ध हो / [22[ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org