Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acha Shaan yang
છooooooooooooooooooooooooooooooooooo
श्रीमद्-अजितसागरसूरिप्रणीतम्શિeદત નં- ૨૩૭ રન - teતા
20 તરંગવતી કથા (પ)
અજિત સાગરસૂરિજી .
ઉત્તર:
છેoooooooooooo
છે.oooooooooooooo
મુળ ક્રાંતિન.
છે$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$
For Prve And Personale my
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradh
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
वीर सं. २४७७
www.kobatirth.org
प्रतिसागरसूरि ग्रन्थमाला प्रन्थकम् २२
तरंगवती कथा ॥
प्रसिद्ध वक्ता कविकोविदशास्त्रविशारद - जैनाचार्यश्रीमद्- अजितसागर सूरिविरचिता
प्रकाशक्रम
श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि-जैनज्ञानमंदिरम् विजापुर - (गुजरात)
विक्रम सं. २००७
68
संशोधकः उपाध्याय श्री हेमेन्द्रसागरः
मूल्यम् रु. ६-०-०
For Private And Personal Use Only
बुद्धि सं. २६
प्रतय: ५००
Acharya Shri Kaassagarsun Gyanmandir
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
प्रकाशकम् - श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजैन ज्ञानमन्दिरम् विजापुर (गुजरात)
सगम्भीरया स्वामिनाथ
पुण्या पुनाति गांगेव गां तरंगवती कथा ॥ १ ॥ ( महाकविधनपाल
मुद्रक:- आनंद प्रीन्टींग प्रेस-शेठ गुलाबचन्द देववन्द कुंडलाकर
भावनगर ( सौराष्ट्र )
For Private And Personal Use Only
Acharya Shri Kallissagarsun Gyanmandir
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धिपत्रकम्
पृष्ठम्
| पृष्ठम्
पंक्ति
अशुद्ध
अशुद्ध योगनिष्टा-1 चेतसागू। प्रकृतानाम्
शुद्धः योगनिष्ठा चेतसाम् प्रारुतानाम् मदत
दृष्टव्या पपुच्छ
प्रष्टव्या पप्रच्छ
चेत
चेतू
SEXEEEEEEEEEEEEEEEEEEE.
मद्भुत
विश्रम्य
विश्राम्यता
-
स्तुपा:
स्तूपाः
शृणु
दासीभिः
___४१ | "
२
*"
दयादचेतो दयाद्रचेता तपः श्रेण्या तपःश्रेण्या सौर्य चकिता सौन्दर्यचकिता पणक्षन्ते गोक्षन्ते
दासिभिः सव साध्य पृष्टव्य पुंगवा
साध्व्याः प्रष्टव्य
.
For Private And Persone
n
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya hasarten Gym
शुद्धिपत्रकम्
पृष्ठम् ५।१ ५),
पंक्ति ११ १३
॥१॥
श्री:
| पृष्टम् पंक्ति अशुद्ध शुद्ध
नायनु संगताः नार्यनुमंगताः । ९।२ २ स्वर्ग नारी समानाऽऽभं स्वर्गनारोसमानाऽऽभं | ९| २ ३ गन्तु
सौन्दय सौन्दर्य १०॥ २ १ चाह
चाहमवतीयेच १०२ १४ समाकुष्टुं समाक्रष्टुं
भनंगाबाणा अनंगबाणा
१/२ | ६।१
अशुद्ध शुद्ध
धर्म। श्री सालभनि
सालभंजी अपेक्षिष्ट अपैक्षि च मशिक्षं मशिक्षे सखि भिः सखीभिः भूपर्ण भूषणं ताभिरस्वदेमद्भुतं रद्भुतमस्वदे स्वच्छया स्वेच्छया शरत्समा गते शरत्समागते सितीभत सितमत
चिकीर्षुः
१२ १
EEEEEEEEE
दष्टु
७१ ९
वृन्दोषु नानुभृता शीला
१२॥ १ ३ १२।१ १० १३।१४
वृन्देषु नानुभूता शिका श्रोतुं
८१७
श्रोतु
॥१
॥
For Private And Personale Only
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArachanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
पृष्ठम् पंक्ति १४१ ११ १४॥ २ २ १४। २ ३
सेन्दुरी
१४२ ९ १४॥२ १२ १५।१ ६
अशुद्ध
| पृष्ठम् पंक्ति अशुद्ध शुद्ध बतीर्ण ञ्च वतीर्णञ्च
१६१ २ विलोभ्यसे विलोम्यसे आपगावा पगायास्त १६१६ व्याघ
व्याध सेन्दुरी
१६ ,१२ तूर्ण शमश्रुरभद्रत शमश्रुरमहद्रकं १६। २ २ बलिष्टां समधि बलिष्ठांसमधितिष्ठितम्
मम ध्रुव मम-ध्रुवम् । राक्षसाकारह राक्षसाऽऽकारः १७) १ १३ रुचिगा रुचिरा मद्भतुं मद्भर्तु
१८ १ १० संसारसागरं तर्नु संसार सिन्धुं तरितुं पद्ममिकाअग्रतया पद्ममिवैकाग्रतया
"" १० धर्मः भेरुशिखरं मेरुशिखरं
" " " शश्वतः হাম্বন नो भाव्यं मे भाव्यं तद,
विम्माण्य होः। विस्मामाणहो तच्छीरीरके तच्छरीरके
१८।२५ निस्कृत्य निःसृत्य वह्नि
| १९| १ २ सकलोऽत्यज्यत् सककोऽत्यज्यत
南澳州州情州開開開開開開開開開開開心
१५॥२
१.
६
बहि
For Private And Personlige Only
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir Jain ArachanaKendra
Acharya:sha.KailassagarsunGvanmandir
बद्ध
पत्रकम्
BAKKASEXXXXXXKAKKKKKK*
पृष्ठम् पंक्ति अशुद्ध १९॥ १ ११ ऽहमितौ
ऽहमितो १९। २ १ महयामास जुहावाशु २ लघुहस्त
लघुहस्तः "१४ तथss
तथाऽऽगन्तु
" " व्याख्यान्ति स्यन्ति व्याख्यातास्ते चिकित्सकैः ___", ३ यदिः
यदि
" " "" ५ वचनानन्तरं पचनानन्तरं। " " ९ तंद्रालस्य
तंद्राऽऽळस्य
२२॥ २ १२ नूनम् नूनं
२३॥ १ २० २ २ धारयते
धारयते
" " ११ वादिनी: वादिनी
२३॥ २ १४ किचिद्भोज्यादिकं किंचिद्वक्त्यादिकं |,
पंक्ति अशुद्ध १ गच्छेपु- पच्छेयु७ वृक्षो वृक्षौ १३ मित्त्राणि मित्राणि १४ सर्वाऽऽन्द सर्वाऽऽनन्द १ भवेद् स्याद्मव्यानां। ३ दयाप्रधानोऽनुप दयामयोऽप्रत्यु
सद्य सद्यः
बारिमिः वारिभिः , श्रद्दधाना-1 श्रद्दधानो जघन्य११ नव्योऽपेक्ष्यो नव्यपेक्ष्यो १ बच
वचः । ३ जन्ममानव जन्म मानव
XXXXXXXXXXXX*********
॥
२
॥
For Private And Personlige Only
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
पिं
५
19 19
२३/ २ ७
२४। २
११
१२
केन्द्र
१३ यस्मिन्न गरे
१३
सुद्धात्मा
पृष्ठम्
. "
२४। १
" "
19
"
२४। १
२४। १
२५।१
२५।२
२६। १
= 2
१३
१३
९
२
७
अशुद्ध विधायिभ्यो
वदनेऽपि
कटंब
नूत
वदनेऽपि
मद्ऽऽङ्कुः ख
एवं विध
प्रमात
श्रतो
शुद्ध
विधायिभ्यस्त
वदनोऽपि
कुटुम्ब
केनेन्दुः
शुद्धात्मा
सूना
वदनोऽषि
मदुःख
एवंविधं
प्रभात
श्रुतो
www.kobatirth.org
पृष्ठम्
२६। २
19
19
" "
39
२७ / १
, "
" "
"" "
२८ । १
२९ । २
For Private And Personal Use Only
पंक्तिः अशुद्ध
७ पोडितः
< स्वप्नो
११
प्रमाते
स्वप्नं
19
(ब)
१२
१
"
३
१३
२
८
हे च
स्पेश
स्वप्नं
9114
नान्यत्र
भासपानाऽऽभं
सूचनं
सुहद
शुद्ध
पोडिते!
सप्नः
प्रभाते
स्वप्नः
ताम्चैव
द्धे च विकृताः
स्येतादृशः
स्वप्नः
गम्यनेविह
भासमानाऽऽभं
सूचनैः
सुहृदस्त्वे
Acharya Shri Kassagarsun Gyanmandir
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धि
पत्रक
मदीयो
बदन्ति
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
| पृष्ठम् पंक्ति अशुद्ध शुद्ध
| पृष्ठम् पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ३०१ १३ ज्ञेयं ज्ञात
३४) १ ६ वेपमानांगुली मिव वेपमानांगुलि यथा मदीयः ३४ २ १०
कर्मपन्न
कर्मबले पृच्छकामुत्तरं प्रच्छकायोत्तरं ३५/ १४ संघर्षस्तत्र
तत्रसंघर्ष श्रेष्टिनः पुत्रो गृहे श्रेष्ठिन: गेहे पुत्री
"" ६ असीति । अस्मीति ३१ १ १४ ऽपसह्यत्तरं ऽसह्यत्तरं
३१/ २ १०
बदन्ती ३१॥ २ करिष्यामि करिष्यामि
१२ नौष्ठी
नोष्ठो ३२। १ ६ दृटे
३१/२ १३ गोत्रे मानसा
३६। १ १ तबाह तैरहं ब्राह्मणवृवैः ३२ २ पूर्ण वृतान्ते पूर्णवृत्तान्ते
दुर्गुणै जित दुर्गुणौर्जितखान्त भनवयं मनवद्य
२ तिगति
तिरति ३३/ १ १ जिच्चेव जिच्चैव
यदि १. अपानयं अपानयंच | ३७/
१ ७ थार्थ
यथाथ
MEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
दृष्टे
गोत्रेण
For Private And Person
Only
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
BEEEEER
SRRRI
पृष्ठम्
३७। १
३८। २
" "
"""
३८८ "
" "
३९ । २
33 93
४०/१
95 29
४०।१
पंकि
१.
२
५
६
७
११
९
१२
अशुद्ध
निगमात्
इदशः
माहि
सभाऽभवम्
मिष्टवाकूरत
तदवरजाभा
स्मिस्ते न
नवपुः
मापेदि
समाऽभवम्
मियाकूतब
कार्य
५ कार्यों
शुद्ध नर्गमात्
९ सुधियत्
११
निजेहि
ईटस:
तद्वल्लभा
स्मिंस्तेन
सूची
निजेष्टे
www.kobatirth.org
पृष्ठम् ४०।१
29 19
४० | २
31 99
४० । २
४१ । १
४१।१
"
"
"
39
४१।२
"
४१ "
"
For Private And Personal Use Only
पंक्ति
६
६
११
१३
१
२
७
<
३
""
अशुद्ध विधित्सुभिः
हरोल
सहचराऽस्तु
जनैमार्ग
प्रिय
तु
पूरि ते
मत्सखिभिः
Sस्वीकृत्य
कुशलपरम्
रश्रप्रवाह
संहात्र
शुद्ध विभि
राि सहवास्तु
जनैर्मार्गे
मां प्रियं
अहंतु
पूरिते
सायलीमि
स्वीकृत्य
कुशलपरं
रश्रप्रवाह संहत्रि
Acharya Shri Kallissagarsun Gyanmandir
3888888888
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir Jain ArachanaKendra
Acharya:sha.kaithssagarsunGvanmandir
शुद्धिपत्रकम्
पृष्ठम्
॥४
॥
४१ २ ४२।१ "
४१/१
PARRIERRRRREKKKRKAKKKKA
४२।२ ४३।१ ४३।२
पंक्ति अशुद्ध शुद्ध १४ कमलभाष्टकमकभासं रमयैव । ४५/
२ कटुंब कुटुम्ब
१५/१ " स्वाकृत्य स्वीकृत्य
मौदमपन्नी मीदमापन्नो विक्षाय वीक्षाय
४५/२ प्रदायित्री यस्मान् ।
४५/२ क्षिपणोकरः
क्षेपणीकरः ४६।१ भ्राम्यन् भ्राम्य भया
" " दुखं दुखिं | ४६।
२ शरन्शयां
सुरनद्यां। महदूभुतम् महद्भुतम् । | " ७ नभोदीप नभो दोप
" "
पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ५ विच्छाया विच्छाया १२ स्वस्तुभषादि स्ववस्त्रभूषादि
भृश। चित्तमुत्सुकम् गृहीतुं ग्रहीतुं क्षिप्रमुतारयिष्ये क्षिपमुत्तारयिष्ये नैवाह वाह
अश्रु ११ गृहीध्वम् गृढोध्वम् ५ भागिरथी भागीरथी १. मंद मंद रहोरुदम् । रहोडोदं शनैः शनै । ११ रोधनध्वान रोदनावान११ ओष्टप्रान्तं
मोष्ठपान्त
KIXXXXXREAKERarwwwxxx
४११२ ४११२ ४४१२ ४५।१
॥
१
॥
For Private And Personlige Only
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArachanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
पृष्ठम् ४७/ १
शुद्ध
केचिज़
बहिः
पंक्ति अशुद्ध १ द्युत
बहि ७ प्युचैगर्जति ११ उमे १३ आवामैक
"
स्तनो
XKHAKKAXXXXKAKKARMA
पृष्ठम् पंक्ति
केच्चि ४८ ३
नेत्रयौ नेत्रयो
वन्य येस्त्व ४९।
२ ४ रस्मामिरि रस्माभिरिष्टयर्थं ५०२५
स्मान्नाशये ५०१
दुःख
श्वदुष्टः श्च दुष्टः ५०॥ २ ५ येध्ध्रवम्
द्भुत्रम् "" १२ वक्षश्च
অম্বঘ্ন ५११
सुखद
मवेद्या मवेद्यत ८ आशानियोक्त्री आशा नियोक्त्री
प्यचर्गति उभे आरादेवक स्ततो प्रदो निरीक्षेता मोहिताः मेखला दृष्टि सिकतातटम् नेत्रया:
।
३ प्रदो १२ निरीक्षेताऽऽ १२ मेखलादृष्टि १३ सिकतातटो ३ नेत्रयोः
४८१
सुस्वनं
४८, " "
य स्खत्वन्य
For Private And Personlige Only
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठम् ५११
पंक्ति
| पृष्ठम्
पंक्ति
शुद्ध दुःखिताः। मतं नः। दन्जिताः
॥५॥
अशुद्ध दुःखिता मतं न दञ्चिता। मांस तदन्तस्थ
५
४ १.
५३/ १ "
७
अशुद्ध ६३३५
शक्ति स्मृतः मजा निश्चत युताऽस्ति सुधोया क्षिप्तबाणा कृतं । दुखिता
११।
२ ६१।
२ ५१२ ५२। २
शुद्ध १३३५ शक्तिः स्मृतः भानां निश्चिते मुताऽस्ति सुधिया क्षिप्तो बाणः कृतो दुखिताः
१
निश्नास्य
तदन्तस्थः नि:श्वास्य मगमत्तदा
भगमत्त
।
५४। १
१
५२।१ ", ""
२ ४ ९
दुखिना
दु:खिना
भरुहां
मल्हां कदाचन् भ्राम्यान
कदाचन भ्राम्यायो
५३।
भुखावहे
मुआंबहे
For PrivateAnd Personale Only
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kalumagmoun Granmands
पंक्ति
पृष्ठम् ११/१ ",
१०
州南洲開開開開開開開開開開
अशुद्ध कुर्वनया पृष्टतः कुर्वन्त्या सुभगं सरः
। पृष्ठम् ५६।
१ ५६। श ,,
"" ५७।१।
पंक्ति ८
२ ३ ६ १३
५५/ २ ५५११
ऽभिऐ
कारक शुमा भङ्गया
शुद्ध कुर्वन्ता
पृष्ठतः कुर्वन्ती सुभगं वरं ऽभीष्टे कारकम् शुभा मइया वरम् नोऽभीष्टे कारकम् माविङय
अशुद्ध शुद्ध युवती पावै युवतीपार्थे मृङ्गो
भङ्गो न्मुच्चैः न्युचैः तत्पृष्टे तत्पृष्ठे कणाम् कणान् प्रग्नभते प्रगल्भते समीरिता समीरितो मसाका: मस्तका अष्टास
अष्टन संस्थिताः
संस्थिता चेतः चेत प्रेक्षणे
प्रक्षते सत्
४१॥ २ ५५/
२ १ . ५५।२ ५६। १२
東南與東南東来就来素六六六六
"" ""
,
डमिटे कारक समावेश्य
""
|
""
****
For Private And Personale Only
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kalumagmoun Granmands
शुद्धि
पत्रकम्
पृष्ठम् पंक्ति ६७१३
पृष्ठम् ६०।
१
पंक्ति ३
॥६॥
१०
कृताः
१२
स्तरणे
५८।२ ५८०२ ५९।१
स्मती
" ६०१२
अशुद्ध शुद्ध कुतस्त्वममागतो कुतस्त्वमागतो व्यवहन व्यवहारन दुःखिताः दुःखिना: वृत्ता वृत्ता स्मृति विहतश्च विहिता च त्योत्सुकयाच त्यौत्सुक्यश्च दुस वि दुःख विनिर्ग विलोकतौ विलोकिती रज्या रज्ज्वा शान्त शान्तये पृष्टानुसारिणः पृष्ठानुसारिणः
अशुद्ध शुद्ध पद्मवास पद्मावास सुकृत्य सुकृत्य
तत्सु कृत्या स्तरणो विहित श्रम: विहितः श्रमः प्रदर्शय प्रदर्शश्य बुध्वमन्यतः ध्वमन्यतत कौशाम्बयाः कौशाम्बी वासिल का वासालिका हृदयान्द हृदयानन्द तदीदयम् तदीह्ययम् । सुशकुनं सुशुकुनं
६।२ " " ६११२
६०११
१२
६१।२ ६३२
॥६॥
|
९
For Private And Personale Only
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanach
sagan Gyaan
युवति
जैनसिद्धान्त: वयमुत्तमाम् आवश्यकी
2..
पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ६२।२ ९ यूति ", १० जनसिद्धान्त
वयमुत्तमा
आवश्यकी "" १२ मुक्ता
कुरभाष ६२।२ २ तैदलैः
,२६ प्राप्ताध्वमानो ६४।
१ ५ यनष्य ६४२ १३ महशी ६४।
२ १ रवामिना ६५१ ३ कृतोऽचितीम्
शुद्ध हेलमिलनाय दासीभियंत नम्रात्मकन्धरा मन्दं मया ज्ञात यथाऽस्मद मिहपरा ममिन्नमेव
.
प्रष्ट पंक्ति अशुद्ध ६५। २ ३ मेलनाय ६६।१ १२ दासीभिः ।
१४ नम्रातिकन्धरा ६६।२ २ ऽमन्दं
७ मयाज्ञान
यथास्माद ७०२७ भिहरा ७२। १ ८ भमिन्नमेव ७३/
१ ५ ऽद्यो ७३/
२ ४ धुनानः ७४।
२ ४ उपानहो ७४।२ १० लम्ब्यो । ७५।
१ ११ विकास्तमात्म
कुल्माष
१०.४.०४.१०.०४०४..........
अघो
प्राप्तावमानो धन्यस्य मोहशी स्वामिना कृतौचिती
बुनान: उपानही लम्ब्यो किकलात्म
For Private And Personlige Only
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
ऋद्धि
पत्रकम्
|| 61 ||
पृष्ठ
पंक्ति
७५। १ ११
७५।२
३
99 99
७६ १
७६/२
"
७७ / १
"
""
"
२
"
"
७९ १
19
"
"
१२
22
19
१
६
६
६
३
१२
अशुद्ध
तेऽवै
श्वापनमश्श्र
स्यात्
योनि
जरक
ग्रहकनानवस्तु
तुहे
नि
चैव बलं
मयाक्रान्त
शोकमर
शुद्ध
सबै
चोपनयश्व
स्वात,
सम्यग विज्ञायते
A
योनिं
नरक
ग्राहक मानवस्तु
हे
६ बीजानि
यैव बलं
भयाऽऽकान्त
शोकभर
www.kobatirth.org
पुष्ट
७९/१
८०/२
८२। १
८२/२
८२/२
८३। १
"
८८ "
८९| "
"
९०/२
९२। १
" "
.
For Private And Personal Use Only
पंक्ति
४
१३
८
१०
१२
३
39
"
९
५
१३
१३
अशुद्ध
समाचरन्त (१)
सोऽय
गण्डली
शुक
कर्मणा
नेशिवाय
तेव
भया
ताम्यो
स्वावन्त्यो
शुद्ध
अनावृत्यैव
शुद्ध
समाचरन्
सोऽयं
मण्डली
शुका
कमठात्
नेदीयाय
asa
मया
श्वेताप्रेम्यो
घावन्त्यो
शुद्धं
अनादृत्येव
Acharya Shri Kassagarsun Gyanmandir
॥ ७ ॥
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
पृष्ठ ९३/१
१५.१
पिरस्तु
1:*
चित्तेन
" " ९४१ ९४२ ९५१
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
....
१०११२.
पंक्ति अशुद्ध शुद्ध
अशुद्ध .६ शुद्ध शुद्ध
पितुररस्तु अनावत्यैव अनाहत्यैव
म्यो म्यो ३ त्वैतत्त्वे तत्
१००१
स्वकारा स्वकरा सर्वतत्त्वा सर्वतत्वा
चितेन किंकर किंकरे
वासुदेवा वावासुदेवा १ साऽभिन्न सोऽभिन्न
स्ववशे स्वेक्शे बुद्धि विवर्द्धयति तीर्थ विलोकनं च, दुःखं विनाशयति पापमपाकरोति । याति स्वयं सुकृतीनां भवनेषु लक्ष्मीः, भव्यैश्विरादपि यथारुचिगम्यमाणः ॥१॥
नानाकलानुकलनं सुखहेतुबोधः, दुःखाद्विमुक्तिरनघ्रम्य पवित्रचेतः। चातुर्यपुरुषार्थ मतिर्भवेदै, कि न सिद्धयति विवेकिनृणां प्रवासात् ॥ २॥ प्रवासेन याति पांडित्यं, प्रवासे सुसंगतिस्तथा । अधर्मनाशो धनवृद्धिश्च, यात्रैवं सुखदा स्मृता ॥३॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
For Private And Personlige Only
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
॥ ८ ॥
तरंगवती कथा संस्कृत- श्रीमद्-अजितसागरसूरिः अनुक्रमणिका
समर्पण केन्द्रमार )
संक्षिप्त तरंगवतीकथासार
परिच
र
प्रस्तावना
तरंगवती कथामाहात्म्य: तरंगवती कथा
मंगलाचरणम्
पादाचार्य विन
कथाप्रारम्भः
www.kobatirth.org
पृ. १
१
8
६
6 ू
११
१
१
२
साध्याः पूर्वभवकथाप्रारम्भः
तस्या मनोरथसिद्धिः साधना च पूर्वमन्त
पर्वशस्तिः
प्रवास:
चौराणामाक्रमणम्
भावपूजा द्रव्यपूजा ऋषभदेवजिनेन्द्र
सकटमुख चैत्ये जिनेन्द्रस्तुतिः
संसारत्यागः आत्मसाधना च
तरंगवती च पद्मदेवमुनेः केवलज्ञानम्
प्रशस्तिः (१)
प्रशस्तिः (२)
For Private And Personal Use Only
४
१७
१९
२१
४२
४५
६७
८९
९०
९२
१०३
१०३
१०४
Acharya Shri Kallissagarsun Gyanmandir
11 6 11
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
*WEXXXXXXX******XXXXXXX
समर्पणम् ॥ माध्यस्थं यन्मनोऽब्जे स्थितमतिविलसन सदया भानुभासि, सद्विद्याकामिनीयं सुचिरमनुगता स्वेच्छया क्रीडति स्म । यस्यान्तःशत्रुवर्गः प्रशमनमगपच्छुद्धसच्चाऽनुयोगाद्-विश्रान्तिस्थानमेष श्रमणगुणगणस्यैकमाराधनीयम् ॥१॥ सौम्याकारो विनीतः स्फुरदधिकमतिधर्मतत्वात्रीगः, सोऽहंकारैकलीनः श्रुतधरविदितः सत्यवादात्मनीनः । काव्यालंकारवेदी कलितनयगणः साध्यकर्मस्वधीनो-दिव्याजन्दानुरक्तः प्रमधितमइनः शुद्धभावेष्वदीनः ॥२॥ श्रीमन्तः साधुवर्याः प्रथितगुणगणाः सेव्यपादारविन्दाः, श्लावन्ते यत्प्रताप परहितनिरतं नित्यशर्मप्रदानम् । सिद्धान्तोद्गीतत्त्वाऽद्भपगुगगुणितं लब्धसत्कर्मसिद्धि. तं वक्तारं प्रसिदं गुगनिधिमजित स्वियं नमामि ॥३॥ अभ्यस्तागमनब्धबोधकिरणैर्धस्तं यदन्तस्तमः, सच्च निरता यदीयरसनाऽप्यापति शुद्धि पराम् । यक्षेत्र सफलेऽनिशं जिनवरप्रेक्षापरे भक्तित-स्तं शुद्ध परमं मुनीन्द्रमजितं श्रीसद्गुरुं संभजे कथासु सुकथा मव्या पीयूषरसमंजूश्वा भुवि भावनया नित्यं भवरोगविनाशिनी पारम्पर्येण भविनां भवत्येवाऽतिपाविनी गंगातरंगवत्पुण्या श्रीतरङ्गवती कथा शिश्याम्भोजविकासनैकतरणे ! श्रीसद्गुरो । त्राणद !, दचा दीक्षणमाहिता मपि शुमा विद्या च सा संस्कृतिः । ध्यायस्तत्सकलं भवत्कृतिरिय संशोध्य मुद्रापिता, हेमेन्द्रेण समते विनयतः श्रीमत्पदाम्भोरुहे
For Private And Persone
Only
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
Panoraman
भीवरंगवती
करा
संक्षिप्ततरंगवतीकथासारः।
प्रजानामतीवाऽऽदरपात्रस्य महाराजोदयनभूपालस्य वत्सदेशे कौशाम्बीनामनगरी राजधानी. तत्र सकलगुणगणालंकृतो नगरश्रेष्ठी ऋषभसेनाऽभिधानो वसति स्म । तस्य शीलशोभाशालिनी कमलानाम्नी प्रियतमा आसीत, तस्या अष्टौ बलबुद्धिपराक्रमोपेताः पुत्रा बभूवुः । यमुनादेव्या उपयाचेन तरंगचित स्वप्नानुसारिणी रूपक्षावण्य लालिता तरंगवती नाम दुहिता च । पुत्रेभ्योऽप्यधिकमानलालनादिभिर्धमाना कलाकुलधर्मविविधशास्त्राम्यासं परिसमाप्य जिनपूजा-सामायिक-प्रतिक्रमणादिधर्मक्रियायां मनो योजयामास । कदाचित्प्रकटीभूते शरदृतुराजरम्पवैभवे समस्या रगपुष्पविज्ञानादिकलाविजानापितृभ्यामषिकसम्मानिता सहचरीगणपरिवृता क्रीडोधानं जगाम तत्रोद्यानपालिकया मानदानादिना सर्वव्यवस्थापरितुष्टा विहर्तुमारेभे । किंचिद्दरगमनानन्तरं सप्तच्छदपिशङ्गपुष्पावलोकनेन चकितचित्तामधुमक्षिकाभिराकान्ता लवामण्डपे प्रविष्टा तत्र सरोवरे सारसमिथुनमवलोकितवती,त दर्शनोद्भतपूर्वभवस्मृतिः स्वसखींसारसी प्रति सर्व पूर्वजन्मवृत्तान्तं कथयितुमारमत-" प्रियसखि ! जलजीवना परस्परानुरक्ता सारसीपुराऽभवं मत्पतिश्च सारसे व्याधशरताडितः सहसा मृतः । तचितायां तेन सह निजमपि वपुरदहं वर्तमानभवे । भेष्ठिकले जन्माऽऽसाद्य-स्नेहमनुभूय कौमुदिमहोत्सपादिपर्वसु जिमार्चागुम्हर्शनस्वाध्यापयाधुवामणादिदानसन्मानेन बाल्यवयो व्यतितक्ती।
關於未來表或戒六家門前表演太失内
For Private And Personlige Only
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
EEEEEEEEEEEEEEEEEES
www.kobatirth.org
॥ ४ ॥
[ पूजाकृते सत्सुमनः करण्डं कृत्वा करे मालिकिनी समागात् । बने भ्रमात् शामलदृश्यमानना प्रसूनवस्त्रा मधुरं वदन्ती ॥ १ ॥ पुष्पाणि चामीकररत्नपात्रे भावेन सा न्यस्तवती क्रमेण । गजेन्द्रगन्धीनि सप्तपर्णपुष्पाणि चासन् धवलानि तानि तेषामथैकं सुमनः प्रपीतं विचारिणां विस्मयमाददानम् । स्वयं त्यजानन्स तरंगवत्यै परीक्षणार्थ प्रददौ पिता तत् पितः प्रसूनं विषमच्छदस्य नवाऽब्ज विस्थितमाक्षिकाभिः निजांगखग्नेन रजकणेन पीतंकृतं चैतदहं तु मन्ये स्त्रीभिः सहोद्यानविहारहेतोर्विनिश्रयोऽभूद् विहतथ यत्नः । रथेन गन्ध्या सकलः समाजः गतः सहासीद् जननी तदीयाः ॥५ अनेक हर्षोल्लासनप्रसंगे अनुश्रिताभिर्मधुमक्षिकाभिः । दंष्टाऽय पेतुर्मणिमालिकाच रक्षाकते साप्यविश्वनिकुंजम् 11 & 11 अन्याः स्त्रियस्तत्र च वापिकायां स्नाने च गाने मदभाज आसन् । तत् प्रान्तकासारजले तदानीं चक्रद्वयं तद्रममाणमासोत् ॥ ७ ॥ तदर्शने तद्गतसद्विचारे जातिस्मृतिः पूर्वभवस्य जाता । चक्रद्वयं व्याघगजौ च दृष्टाः पत्या समं स्वीयमृतिश्च दृष्टा ॥ ८ ॥ शुमेन मावेन च तत्र दग्ध्वा तरंगवत्यस्म्यधुनाऽत्र जावा । लिलेख चित्रं पतिशोधनार्थं न तं विना यत्सफलं स्वजन्म ॥ ९ ॥ मल्लोकाः कौमुदीपर्वकाले देवार्चास्तुत्यादितत्पौषधं च । ध्यानं दानं कर्मसस्कृतेऽथ श्रेष्ठात्मनः कुर्वतेऽथोपवासम् ॥ १० ॥ तस्मिन्काले श्रेष्ठसौवाप्रदेशे वैद्यां नानास्थापितं चित्रराशिम्। लोकाः पश्यन्ति प्रमोदेन तस्मिन् नानाचित्रास्तत्कला वर्णयन्ति ।। तस्मिन्धन्य श्रेष्ठिनः पद्मदेवः चित्रं पश्यन् तद्विचारं च कुर्वन् । मूर्च्छा लब्ध्वा भूमिभागे पथातोत्थाय स्मृत्या पूर्वजन्माथ जज्ञे ।। मित्राणि तं चाशु गृहं नयन्ति पूर्वा कथां सोऽपि ततः करोति । सर्वे च तत्सारसिका निशम्य तरंगवत्यै सकलं ब्रवीति ॥ १३ ॥”
For Private And Personal Use Only
॥
॥
२ ॥
३ ॥
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीतरंगवती
कथा
अधुना सारसयुमलदर्शनजातजातिस्मृतिःक्षणमपि पति विना जीवितुं न शक्नोमि तचं शरणं मन मम पतिरप्यत्रैव नगरे जातो भवेत् ? । तद्गवेषणार्थ चित्रमालेख्प ते वितरामि । त्वं गत्वा चतुष्के दर्शय । तदनुरोधेन गता सारसिका प्रतिनिवृत्य पद्यदेवाभिधानस्ते पतिरिति निवेदयामास । ज्ञातवृत्ता स्वार्पणपत्रतोऽन्योन्यदृढानुरागे जातेऽपि पितृनिषद्धविवाहकौतुका, विरहमसहमाना स्वयं तमभिससार । तस्याः पतिरपि स्वानुरागिणीतामादाय सहसा जलमार्गेण देशान्तरं प्रतस्थे । तदैव गान्वर्वेण विधिना परिणीय यावद्गगाकूलमवतरति तावत्तौ लुण्टाकदलेन दृष्टौ लुण्टितौ दृढं बदौ कालिकाबलिदानाय गुहायां रक्षितौ । तत्परिचिन्त्य सदैव विचारद्वारा | तयोः पूर्वमवव्याधहस्तमारणादिविलापं श्रुत्वा रक्षकनिषादेन जातजातिस्मृतिना गुहातो विमुच्य निर्भयस्थानावधि सुखेन नीतो ग्राम्य । निवासे कृतविश्रामौ तो, कुल्मापहस्तिः सहसाऽऽगत्य मातापितृविरहदुःखं निवेद्य रथेन गृहं प्रति प्रेरयामास । वासालिके तीर्थे वटं नमस्कृत्य प्रभुवर्द्धमानं स्मरन्तौ पर्यटनेन गृहमासेदतुः । गृहमागत्य मातापितृवन्धुपरिवारमहिष्यादिमिलनानन्तरं सर्वसम्मत्या आनन्देन कालं यापयन्तौ कदाचिन्मुिनिदर्शनं प्राप्य शुद्धभावनयामुनि नवा धर्मपृष्टवन्तौ मुनिश्व गुहामोक्षानन्तरं जातनिर्वेद गृहीतदीक्षं तं निषादमेवमामवगच्छतमिति निजपूर्वजन्मवृत्तान्तं निर्वेदकरणं च सर्वजनोपदेशयोग्यं सर्वजनाय-हितं वात्वा प्रकाशितम् स चायम् । गंगोपकण्ठे रमणीया चम्पानाम नगरी । तस्याः परिसरे विकटा श्वापदसंकुला चित्रविचित्राणां पशूनामाश्रयभूताऽरण्यानी । तत्र व्यवस्थिता व्याधकुटुम्बिनः प्रतिवसन्ति स्मः विचारणीयनीतिकुलाचाराणां विविधधर्मपद्धतिप्रियाणां " परस्परोपग्रह जीवाना" मिनि नीत्याऽन्योन्यसहायमुपयुज्य रक्षणशक्तिसम्पन्नानां तेषामेको युवा बलवान्व्याध एकदिवसे
॥२॥
For Private And Personale Only
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोडच्चकवाकयुगलचके नानातडागारिवृते गंगालालङ्कारभूते महति सरोवरे गाढावगाहाऽमिलापवन्यकरिंग प्रदोषे यदा तज्ज लपातनहानिनादेन मयेनोक्रोशन्तः पक्षिगो नमस्वडयन्त तदा लयोकत्व निशिशरावात चके, स शरोव्यावस्याऽशलइस्ततया गजमस्पृश्योडीनं चकाक जवान । सायकच्छिनावश्वकागो भनौ पात । तदुपरी पानी सारसी करुगतारस्वरेण भृशं विललाप । कृष्पमाणे बाणे मृतं चक्रविहगमवगत्य व्याधरचिवायां विज्ञायां निम्त्य समपि सह पत्या मनसावकार निक्षप्यादृशं लोकोत्तररागमवलोक्प लुब्धः परं पश्चात्तापं च विललाप असह्यजीवनानुभान देवगुरुपान्तरणोकस्य तसाने विद्यापामात्मानमपि जुहोति स्म मरणकाजकृपक्षमायाचनया वाराणस्यां धीमा भेष्ठिनां गृहे जन्म लेभे पिरवद्रयमा नाम्ना परिचितः शिक्षिवसकरमजाकोला कमेग भवितव्यता याचौरादिजाताभिरुचिम्टाको बा । कदाचा राजाधिकारिगो ग्रहीतुं वमनुदुद्रुवुः माया तदा स क्षारोकवनेऽन्तर्धत्त लोके तिरस्कृतः । गत्वाष्टीं चौपालोमविविय तेषु संगत महालौधिको जातः पल्लीपतेः प्रोतिमास द्य सेनापति सोचकार । गंगातटे श्रेष्ठितनयोजनातीय देसमोः सासमाहत देवीरलिकृते रक्षा ने मुकः त्रासपीडि सतया तरंगात्या निवासासोऽन्पानु देश कयमानां सयां निशम्य करसमावोऽपि जासमूच्छनिगरं भानावनातिस्मृति: गुहात उन्मोच्य वनानिष्कास्य निभामार्गपारोप्य तौ स्थानान्तरं जगान उतारा गया शहरमुखोयाने श्रोसामजिनादर्शनं कृत्वा दर्शनबन्दनादिभिर्मुनिसमाजपानिध सेवमानः श्रादेशःराम्यापरयादी जबाइबिजारोप5. धिक पूर्व विज्ञानः सहमुनिपरिवारेण कौशाम्मा उद्याने श्रेष्ठ पादपावसात्याने तस्यौ। सवसनविहारापतबामगौ तनातोपदेश
For Private And Personale Only
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya hi
s agarten Gyomande
भीमरंगवती
कथा ॥३ ॥
REKKREENKOREAKKKKARIRKER
तदर्शनं कृत्वा भक्त्या नमताम् । धर्ममुपदिशतो गुरोरात्मबोध " प्रमाणन्याऽमितात्मसिद्धिकाटकसम्परत्वचारित्रमोक्षस्थानसम्म न्धिबोधं श्रुत्वा जातवैराग्यौ मातापित्रोरन्तिके आभूषणानि वर्गेण साकं प्रेष्य प्रेष्य सर्वविरतिचारित्रमाङ्गीचकनुः पित्रोनोहापनयनार्थ पद्मदेवमुनिगग्योपदेशं वितीर्य सम्मतिमासादयत. निरुद्देश्यं च विजहार । धर्मबोधकगुरुमहागजे। महावीरप्रभुरदहस्तलभदीक्षायाः मुख्यमाच्याश्चन्दनवालायाः शिष्यायै सुव्रतापवतिन्दै साग्रहसूचनापूर्वक समर्पिता नवदीक्षितःसाध्वीतरंभक्ती सुब्रताप्रवर्तिन्षया समं कौशाम्भ्यां नानाचारुदारुनिर्मितं स्वाध्यायसाधनभूतं नवनिनीनामध्ययनघोषप्रतिनिनादितं भव्यमुपाश्रयं जगाम जपतपःस्वाध्यायधर्मकृत्ये प्रयतमाना चरणकरणात्मिक शिक्षामासादितवती । गतेऽथ कियतिलेन ग्रामानुग्राम विद्वत्य राजगृहनगर समागतवती। अनेकश्रीमच्छद्धालुभावकश्राविकासेवितं धर्मानुरागिजन क्रियाकलापसूचितधर्मराज्य तन्नगरं राजेश्वरः (अशोकचन्द्रकोणिकः श्रीमन्महावीरस्वामिचरणावुपासीनः शास्ति स्म । तत्र नगरे षष्ठपारणाया गवेषणायै श्रद्धापरायणायाः सद्गुणानुगगिण्यामद्रिकमाविन्याः श्राविकाया धनपालश्रेष्ठिनः परन्याः सोमाया गृहमगच्छन् । संयतात्मनो धर्मवार्तामन्तरेण व्यर्थ केनाऽपि सह विकथा प्रसंगे नोत्सइन्ते तथापि धर्मोपदेशं प्राय॑माना चोपदेशं चकार । साध्व्याः शान्तौजस्विनीमाकृति देवदुर्लम सौन्दर्य सरलस्वभावं ललितलावण्यं निरीक्ष्य तज्जीवनवृत्तान्त श्रवणोन्मुख्या श्राविकया सोमया कृताऽम्यर्थना धर्मलाममवगत्य संक्षेपेण स्ववृतान्तं भावयितुं प्रवृत्ता तपटवणेन प्रबुद्धा सोमादेशवतिरूपवतानि लेमे तत्तरुणानुचयोंऽपि यथाशक्ति व्रतानुसारितामागत्य कृतसम्मक्ततत्वाधानासम्यक्त्वमासेदुः षणमात्रमपि साधुसमागमसंसारतारको भवतीति बुढ्या धर्मपरिणामम् मनसि मोदमाना।
**KKKAKKAREEK
३
॥
For Private And Personale Only
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
XXXSXEER
पश्चात साधीतरंगवती कृतेयांसमितिपूर्वकमुपाश्रयं प्राप्तवती । क्रमेण जपतपःसंयमादिषु स्वशक्तिविकासयन्ती शुक्लध्यानमारूढाकेवलज्ञानकेवलदर्भने प्राप्य सुवर्णकमलासननामध्यास्य धर्मबोधेन जनसमूहमतारयत् । वसुधामण्डले विहत्य मोक्षपदमाससाद । धर्मोपदेशक मुनिश्चः पद्मदेवोऽपि केवलज्ञानेन शिवपदं मेजे, त्रिकालं कुतधर्माराधना विशदात्मशक्तयस्तयोः मातापितरौ श्वश्रूश्वसुरी सारसिका तथा या सोमाश्राविका वासवदत्तादयः स्वर्गमलंडुर्वम् भाविभद्रं च प्राप्स्यन्ति रसदायिन्याः कथायामागः समाप्तिमगमत् । तदियं श्रेयसी कथा सर्वान् यथाऽधिकारमुत्तरोत्तरदशं नयति अलमतिविस्तरेण -
॥श्रीमत्पादलिप्तसूरीणां परिचयः॥
जयन्ति पादलिप्तस्य प्रमोश्चरणरेणवः । श्रियः संबनने वश्यचूर्ण तत्प्रणतांगिनाम् ॥ १॥ श्रीमन्तो विविधागमपारगाः परिमूर्द्धन्याः श्रीपादजिप्ताऽऽचार्याः स्वीयजनुषा कतम जनपदं मण्डयामासुः । कस्मिन् वयसि केषां पुण्यनामधेयानां महात्मनां सविधे व्रतमङ्गीचक्रुः । काँस्कान पुण्यराशिविराजितान देशान् विहरणेन पावयाम्बभूवुः । कथञ्च जैनशासनप्रभावकताञ्च समवापुः । इत्यादि विचारणायां प्रचारितायामाचार्यवर्यश्रीप्रभाचन्द्रमरिविरचितप्रभावकचरितानुसारेण एता. बदवगम्यते यत-कोशजायां फुल्लश्रेष्ठिनः प्रशस्तशील शालिनी सर्वसद्गुणैकनिधानं रूपेणाप्रतिमा प्रतिमाभिधाना पत्नी भूत्र ।
For Private And Personale Only
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanach
sagan Gyaan
भीतरंगवती
कथा ॥४॥
REXXXSEEKRKEEKKAKKEXX
तस्याः कुक्षिाक्तर्भगवत् गचनाथस्य शासनदेव्या वैरोट्याः प्रसादभूतो नागेन्द्रो नाम पुत्ररत्नमजायत । पितृम्यां गर्माष्टमेऽन्दे विद्याधराम्नायकाय श्रीनदार्यकालिकसूरिपरम्पराया जाताय विद्याधरगन्छीपश्रीमदानागहस्तिरये बालोऽयं समर्पितः । स च सूरिपुङ्गया स्त्रीयदीक्षाभ्रातः सङ्गनसिंहसरेनिकटे तस्मै व्रत दापयामास । साम्प्रतं दीक्षाकालिकं तमाम यद्यप्यशपविज्ञान तथापि मंडनगणिनः सकाशादेकस्मिन्ना वत्सरे न्यायव्याकरणसाहित्य जैन सिद्धान्तानधीत्य कदाचिद्गोचरवर्यात उपाश्रयं प्रत्यावृत्तेन तेन बालसाधुना सुशब्दारिताया xगाथाया उच्चारणे को तुष्टेन गुरुगा तदानीसौ पलिचेति (प्रदीति ) सम्बोधितः । पाश्च महाबुद्धिमता तेन शिष्यरत्नेन पकाराग्रे ऋजु रेखां निवेश सम्बोधनाय प्रार्थितो गुरुः प्रगाढप्रतिभापीपस्तं "पालित" इति नाम्ना व्याजहार । तथा पादले साध्यां गगनगमनसम्पादयित्रीं विद्यां समर्पयामास । दशवर्षमित एव वयसि आचार्यपदसमर्पणर्वक स्वीपपट्टाधिपत्यमपि ददौ । तदारम्भ लोके पाइलिवेतिनाम्ना प्रसिदिजाते ति विज्ञायते । ततस्ते महामहिमशालिसा पादलिताचार्याः पाटलीपुत्रान्मथुरामगमन । तत्र नानाप्रकारैः सक्कोप कार समाद्य पुनरपि पाटलीपुत्रं प्रत्याजग्मुः । तदा तत्र मुरुण्डो नाम नृपो राज्यासनमधितिष्ठति स । विद्याप्रमावेण विविध चमत्कारपदर्शनेन च श्रीपादलित एयस जिनधर्मानुगनिणं चक्रुः । ततो विहारक्रमेण मथुरापां श्रीसुपार्श्वजिनस्तूपे भोपार्श्व प्रगम्य लाट देशान्तर्वनियो हारारूपपुरे श्राद्वानां श्राद्धेतराणाश्च स्वप्रतिभाप्रावस्य प्रदय पश्चाच श्रीसिद्धक्षेत्रे यात्रां विधाय दक्षिणापथे वर्तमान मानखे.पुरमवासिषुः । कृष्णराजो नाम तत्पुराधिपो विद्वसंकेतस
x अंबं तं बच्छोए भमुष्फियं पुष्कतपतोए । नवसानिनिय नवबहूइ कुइएण मे दिन्नं ।
For Private And Personlige Only
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobabirth.org
Shri MahavirJanArchanaKendra
दीपशिष्येभ्योऽपि विद्याधरकुलं ख्यातिमाप | व्यतीते ५ कियति काले तेषां त्रयाणामेकस्मात्कस्याचित्स्वतन्त्रो वा विधाघरगच्छो व्यजायत । एवंविधे व्यतिकरे वर्तमाने भीमत्पादलिप्तसूरीणां सचानमयविषयका विविधा विकल्पाः सम्भवेयुस्तत्स्वाभाविकमेव । तत् न्तु बहुश्रुतगम्यम् ।
अन्यकर्तपरिचयः ।
SXEEEEEEEEEEEEKEEKKSSEX
अथेदानी समुपस्थाप्यतेऽयं भव्यभावनोदयाय मुद्राप्यमाणेतद्ग्रन्यनिर्मातॄणां भव्यतेजोविराजिनातीनां बानदर्शनचारित्रैकनिरतानां सुविख्यातव्याख्यातॄणां सुगृहीतनामधेयानां परमपूज्यतमानामाचार्यभीमदजितसागरसूरिपाशनां सक्षिप्त परिचयः । | साफल्य लम्पयामासुस्ते हि महात्मानो विक्रमाकद्विचत्वारिंशदधिकैकोनविंशतिशततमाऽन्दे(१९४२)सहस्य चक्लपञ्चम्यां सुदिने धौकरतीनां विविधपरिवारपरिवृताना लेवापाटीदारज्ञातिविभूषणानां लल्लुभाइ इत्यभिधानं दधानानां श्योत्तमानां पत्न्याः सत्य. शीलादिसद्गुणगणसुशोभितायाः श्रीसोनयाइदेव्याः कुक्षिशुक्तः शुभस्वप्नसुचितजन्मलाभेन दक्षिणभरतमध्यवर्तिरम्पगुर्जरमण्डला न्तर्गते नानावैभवविमण्डिते चारुतरप्रदेशे प्रहाद(पेटलाद )पत्तनसनिधी नार (नरसमूह) इति शुभामिधमन्वर्थ प्रामम् । अम्बिकाकृतानुग्रहघिया पितृम्याश्च प्रादीयत द्वादशेऽहनि हृदयङ्गमाऽ(अ) “म्बाल.ल" इति तेभ्योऽभिधा, अभिधानाऽमेदभावनया च तुष्ट
For Private And Personale Only
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीतरंगवती
कथा ॥ ६ ॥
www.kobatirth.org
बुध कुलपरम्परागतवैष्णव मत्यमा अपि कदाग्रहदूरगाः सर्वत्र समदर्शितो भक्तिभावमरिनेषु सर्वसम्प्रदगीतेषु भजनायेषु च समानादरा महानुभावा इमे करणारा सुस्वर नामकर्मसन स्त्रीमधुरस्वरेण वापत एव परमकारुणिकम्भगवन्तम् । समाप्य मातृभाषाशिक्षणं भक्तिमान्। वैराग्यमनायामेव मनो न्यधुः । चतुर्दशवर्ष देशीया एव वैराग्याभिनिवेशनमा भवि तव्यताव लान्मूर्तिपूजा निषेध स्थानासि ( ढुंढे )मानुपायिभिस्तस्तिसाधुश्री हीराऋ पेभिः सङ्गताः । स्वम्मतीर्थे च १९५६ तावणे मानि तेषां समीपे दीक्षित बभूवुः विजस्ततः परमेकादशापर्यन्तं नानादेशेषु । समर्विविधभाषापादयम् | सुविचारितानि विज्ञाय जननवानि, मूलभूत जैनागमा अपि सुपरिशीलि 11: । तेन च मूर्तिपूजा सर्वमुक्षूणां कृते परमावश्यकीति धीरुदेति स्म । संजय दोल (रूद्वैश्व चितोऽयं विषवोऽध्यात्मविद्वियोगनिष्ठेराचार्य श्री मद्बुद्धि लागर तू रिवरैः समं विशेषतागतये च । आगमेषु मूर्तिपूजायाः विधानं तस्याथ श्रीन्महावीरकालिकत्वं पौगलिकसावलम्बनत्वोचितमाहात्म्यञ्चेत्येतेषु हृयैः सुदृढ समाधानैस्तत्र योगनिष्ठा वार्येषु च संप्राः सतवं परमास्कम् । वि. सं. १९६५ तमे वर्षे ज्येष्ठ कादवामाचार्यवर्यश्रीमद्ध द्विसागरसूरिपादाग्रे ढुंड कमतस्थापित भागवती दीक्षायाः पुनः संस्कारं सम्पादयामासुः । तदारम्य अमीऋषीति नाम्नः स्थानेऽजितसागर इति समाsssया ख्यातिमाजो बभ्रुवुः । समनीतं सुपरिश्रमेण संस्कृतप्राकृतभाषाद्वय योगोद्वहनादि तपः क्रियापुरस्सरं समस्ताः साङ्गा जैनागमा अपि नान् प्रशस्तान् गुणान् विलोक्य पंन्यास श्री रीरविजयजीद्गणिनः १९७२ तमे वैक्रमाब्दे गणिपदेन पंन्यासपदेन च तान् समलञ्चक्रुः साणंद पुरे । दीत देइता - सुस्वर स्पष्टता-परिषत्परीक्षा -ऽऽदेषय वन वेत्यादिगुण कलावै तेषामुपदेश परणिः
For Private And Personal Use Only
Acharya Shri Kassagarsun Gyanmandir
1 哥比
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya-sankalamagranepamana
K स्कृतपादलिप्तारूपभाषाविरचनादिगुणोधेन प्रवीभूय पूजनपूर्वकं तेषु पर भक्ति प्रभार । एकदा महेन्द्रो रामायेन पाटलीपुत्रे ब्राह्म
णेभ्यो ब्रतं प्रदतम् । तेन भृगुकच्छवासिनो वित्रा जैनधर्माव बहुवा चुकधुः । तदा समस्त कलहाशमाप श्रीरादलिप्तपूरीनिमत्रितवान् । तदुररीकृत्य आकाशगामिन्या विद्या भृगुकानागतेष्वेव तेषु संत्रस्तस्तेि विद्वे पेगो ब्राझगाः पुरं सत्यम पलायितः । एवं कियन्तं कालं तत्रैव वसति विधाय धर्मदेशनां ददुः, ततश्च पुनर्मानखेटपुरं जग्मुस्ते महाप्रमावका आचार्यवर्याः । दक्षिगापयेश्वरस्य शालिवाहनस्याऽमात्यः शूद्रकाऽपरनामा गुणाढ्योऽपि तेषां शिष्योऽभवत् । अन्पदा शालिवाहनसभायां चत्वारो विद्वांसः समा. गताः तः सर्वशाखारभूतैः पादः पद्यमे के विरव्य नृपये सरस्थापितम् । राजाऽपि ते गाम कृट पारिइत्ये न तुट: सन् प्रशंसापुर:पा पुष्क लेन धनेन तान् समतोषयत् । तदा तत्रस्थिता श्रीदिलिप्तीगां दियरमा प्रगाढाण्डिसब जानती भोगाती नान वारसनिमाडल्पज्ञानां तेषां तावर्ती मिथ्याभूतां प्रशंसामसइमाना तत्स निधि श्रीसाइलितपूरीगामगायबुद्धिालावं भूपपंसदि वर्णमामा । तेन विस्सितः शालिवाहनः सादरतानामवाति स्म । तदाङ्गोकृत्य मानखेटरात् प्रतिठान समापयुः । तत्र नियन्तः पाकृत मींचमत्कारकारिणी तरंगाती कयामग्रनन् । पोंककविषु विशेषमत्सरो पाचालो नाम यः कराती तं सञ्जोवनोविद्यापनावविस्मितं कृत्वा परामदुःखादुद्धारयन्ति स्म । ततो विहत्य श्री रादलिताचार्याः सौराष्ट्रीशे ढंकापुर्यामयासितः । तत्र च रससिद्ध्यर्थ महीमण्डलं भ्रान्चाऽन्यदा स्वढं कापुरीमागतम् रसशाखवीण नागार्जुसमपि बिनधर्माऽनुरतं शिधाप तस्मै गानमामिर्नी विधामा,
१ नोर्म भोजनमात्रेयः, कपिलः पाणिनां दया । बृहस्पतिरविश्वासः, पाचालःस्त्रीषु मार्दयम् ।।
For Private And Personale Only
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achhaltung
मोदरंगवती
第老老老老老老老老老老老老老老老老老老老
ततस्तुष्टेन भक्तेन तेन नागार्जुनेन सिद्धक्षेत्रोपत्यकायां स्वपरमोपकारिणां तेषां स्मृतये-पादलिप्तं नाम पुरं (पालीताणा) निर्मापितम् । | गिरिनारोपर्यपि प्रभूतानि धर्मकार्याणि सम्पादितानि । एवं देशनया सर्वान् भव्यजन्तून बोधयन्तः परेचरणाः स्वायुषोऽल्पत्वं विज्ञाय सिद्धक्षेत्रं गत्वा द्वात्रिंशद्दिनानि यावदनशनं कृत्वा वर्जग्मुः। तेषां समयविषये तु तादृशविस्पष्टप्रमाणाऽभावेन निश्चयेन किमपि वक्तुं न शस्य तथाऽपि विक्रमस्य प्रथमशताब्दया द्वितीयचरणमारम्य द्वितीयशतान्याः पूर्वार्धाऽभ्यन्तरे तेषां स्थितिरासीदित्यनुमीयते । | यतस्ते आर्यखपुटमहेन्द्रोपाध्याय-विक्रमादित्यवाक्यविद्यमानश्रीशालिवाहनवदीयामात्यशूद्रकादीनां विक्रमप्रथमशतान्यां वर्तमानानामैतिहासिकपुरुषाणां समकालवर्तिनोऽभूवमिति प्रभावकचरितेन निश्चितमेव भवति । केचिदन्वेषकास्तु महावीरनिर्वाणतः ६१७ तमे वर्षे युगप्रधानपदभाजां ६८४ तमे वर्षे च स्वर्गजुषां वाचकश्रीमदायनागदस्तिमरीणां कुशानवंशाधिपसामन्तस्य मुरुण्डस्य च | समकालिनकत्वमपि वर्णयन्तः तेषां सामान्यतः स्थितिकालं विक्रमतृतीयश्शताब्दयाः पूर्वार्धमेव निर्दिशन्ति । परमपूज्याः महोपाध्यायाः श्रीसिद्धिमुनिपादास्तु वाचकभीमदाय॑नागहस्तिरिभ्यो विद्याधराम्नायोद्भवं नागहस्तिसूरि पृथग् मत्वा मुरुण्डमपि कुश्शानानांन किन्तु-पार्थियननृपाणां सामन्तं भूपं मन्यमाना विद्याधराऽऽम्नायोद्भवनागहस्तिसमानकालिकं पादलिमं विक्रमस्य द्वितीपशता न्यां तदनन्तरं वा न किन्तु प्रथमशताब्द्यामेव निचिन्वन्ति । एवञ्च प्रभावकचरिते प्रदर्शितं श्रीपाइलिप्तरीणां श्रीमदायखपुटादिसमकालिकत्वमपि सम्पादितं भवतीति निगदन्ति । वयन्तु तदेव सम्पगिति मन्यामहे । पुरा किल विद्याधरनामा वंशः समभवत् । तदंश. जातेभ्यः श्रीमदार्यविद्याधरगो पार सूरियोपि विद्याधरनाम्नी शाखा प्रादुर्बभूव । अथ वज्रसेगारीणां समबे विद्याधरनामकेम्पस्त
KEKKER****KKRISOR.
For Private And Personlige Only
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
प्रभूतानां भव्यदेहिनां परमोपकारमादधाति स्म । सौम्यशान्तमुखमुद्रा च शान्तिवमेव त्रिविधतापमानानां मनसि परी शान्तिमापादयति स्म । तैर्विरचितानि प्रसादगुणविशिष्टानि काव्यानि मन्यान् झटित्येव धर्मनीतिपथिकान् विवाति स्म । लेखकार्यमपि सततं धाराप्रवाहरूपेण प्राचलत् । तभिर्मिताच मुद्रिता अमुद्रिताच बनो प्रन्या विद्यन्ते । तथाहि - नीमसेन चात्रं, अजित सेनचरित्रं, 'चन्द्रराजचरित्रं स्तुतयः श्रीमनस्तु टीका, घर्मशय-नेमिनिर्वाण-विलकनखरो - शान्तिनाय वरित्रादिमहाकाव्यानां टीकाः, अन्दसिंधुः, बुद्धिप्रभाज्या करणं, सुभाषितसाहित्यं, बुद्धिसागरसूरिचरित्रं, श्री कलर सूत्रसुख तो विकाटीकांतिगीर्वाणगिरा गुम्फिता वर्तन्ते । कृविश्वषां मनोहारिणी सुनना रसमयी व वेदान्तत्वमपि प्रत्थद्वारा व्यकीकृतम्। वेदान्त रहस्यश्च काव्य-प्रबन्धेन गुर्जर गिरा वहुधा विदीत्म प्रकाशितम् । तब समयोचितमाम लासकं जनानानन्दयति । सुरविनाथ वरित्र - सुरसुन्दरी चरित्र - कुमारपालचरित्रादीनां भावान्तराणि तद्रचितानि मुद्रितानि विद्यते इत्यं तैः विरैः साहित्यविद्धिर्विशेषतो विहिता । तेपानीडर्थी शक्ति aise गुणां समुद्वीक्ष्य तुष्टेराचार्य श्रीमद्बुद्धिसागरसूरिवरेण्यैः उत्तरगुर्जरस्ये प्रान्तिजपुरेऽशीत्युवरकोनविंशतितमेदे आचार्यपदमुपहारीकृतं, सागरसंवाट करपि समर्पिता । तां धुरं चिरं वहन्यस्वेज रसूवराः श्रानां धर्मश्वप्रदर्शकाः सन्तः परोपकारं विति स्म । मुनिवृन्दे ऋतुमानाः प्रेमरन्तः समदर्शिनः धर्मार्थका आसनिति तु तेषां कार्यजातैः सुप्रसिद्धमेव । परोपकाररसिका - पटक गन्नतानपेक्ष कास्ते मुनिश्रीऋद्धिसागर - मुनिश्रीरंगविमल-मुनिश्री कोर्तिप्रागरमुनिश्री दुई मविजय - दानसागराऽऽदियो पंन्यासाई महता इर्षे वितरन्ति स्म । बहुम्पः साधुभ्यः साध्वीम्योऽपि दीक्षां महा
For Private And Personal Use Only
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
भीतरंगवती
कथा ॥७ ॥
दीक्षा समर्पितवन्तः, महत्प्रतिष्ठा-गुरुमूर्तिप्रतिष्ठो-द्यापनो-पधानवहनादिधामिकक्रियाः संसाधयन्तः शान्त्यादियतिधर्मसम्पालयन्तः पश्चाशीत्युत्तरैकोनविंशतिशततमे विक्रमसंवत्सरे (१९८५) आघिनशुक्लत्तीयायामुत्तरगुर्जरवर्तिविद्यापुरेग्रामे समाधिपूर्वक स्वर्गलोकं जग्मुः ॥ आचार्यभीमबुद्धिसागरसूरीश्वरचरणानां समाधिमन्दिरस्य पुरतः ( सम्मुखे ) तेषामग्निसंस्कारममौ स्तूपोऽधुनाऽपि दृग्गोचरीभवन महात्मनां तेषां स्मरणं कारयत्येवेति शम् ।
उपाध्याय-हेमेन्द्रसागरः -toप्रस्तावना।
EXXXXXXXXXXXXXXXXX XESI
"स्वदोषशान्त्या विहितात्मशान्तिः शान्लेविधाता धरणं जनानाम् । भूयाद् भवक्लेशमयोपशान्त्यै शान्तिर्जिनो मे भग- | वान् शरण्यः ॥ १॥" प्रकटयति विवेकज्योतिरात्मप्रदेशे, तदनु मनसि हेयाध्यदृष्टिं तनोति । निविडनिबिडकर्म-प्रन्यिभेदं करोति, दवयति कुविल्यान तच्छुतज्ञानमीडे ॥ २ ॥ सुवर्णपात्रं प्रमवेत्सुवर्णात-यथाज्यसञ्चाऽयसमाजनं भवेत् । तथैव सद्ग्रन्थविलोकनाज्जनः, श्रेष्ठत्वमाप्नोति महीतले ध्रुवम् ॥ ३ ॥ सुविदितमितिसम्यक्शेमुषी माग् जनानी जनिमृतिगइनानादुःखपूर्णे भवाऽब्धौ ।
असकृदपि वियोनौ प्राणिनो वै ब्रमन्तः, शिवसुखमधिगन्तुं सन्ति ते दृश्यमानाः ॥ ४॥ निरतिशयसुखं तत्कर्मणां मूलनाशात | नयति च परमात्माऽध्यक्षतो जोववर्गः। शिवपदमविरोढुं कारणत्वेन शाने खलु चतुरनुयोगास्तीर्थकृद्भिः प्रदिष्टाः ॥ ५॥ चरण
॥७॥
For Private And Personlige Only
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobabirth.org
888383KESERIESXXXXXX
करचनाम्ना द्रव्यनाम्ना तयेवं, विदितगणितनाम्ना वा कथासंज्ञया प-इति चतुरनुयोगा आगमे वै प्रसिद्धाः व्यवहति सुखलामे तिका संभवन्ति ॥ ६॥ प्रथम इह वरेण्योऽन्ये तदर्थप्रयासाः इति कथयति सम्यग बानदृष्ट्यादि पत्रम् । 'चरणकरणनामा तेन मुख्योपयोगी तत इति गुणपुष्टये सन्ति यूपः प्रबन्धाः ॥७॥ इतरतदनुयोगज्ञानवृद्धि विधातुं प्रखरमतिभिरायः संस्कतो अन्यराशिः अयमपि चरिताख्यः सर्वगम्यत्वहेतोः शिवमतिमिरूपादेयोऽस्ति बोधप्रदत्वात् ॥८॥ प्रकृतिनवनवानां मानवानां चरित्रं विदितमपि ततः स्यात् प्रायशो लापवेन । नसुकृतसुकृतोत्थे दुःखसौख्येऽपि विद्वान् अवगमयति लोके तारधीमिः कथामिः ॥९॥ प्रभवरहिनमिध्यात्वाऽऽश्रितानां जनानामतिशयकृशमेघारपायुषा साम्प्रतानाम् । सपदि जगति धर्माधर्मसवागमार्थ गुरुकवितकथावा साधनं नान्यदस्ति ॥१०॥ चरितविषयकानां पुस्तकानां प्रबन्धे तत इह मतिमन्तः परयो यस्नवन्तः । भवति विवि. बमेदाधर्मकामार्थमिश्रा श्रवणमननयोग्या सा कथा वै चतुर्षा ॥ ११॥ कथयति समवायाजाभिषं याच स्त्र-मिति कथनगतार्थाः पंचमेदाय ते स्युः । प्रथमचरममेदो त्याज्यकोटिपविष्टा-चतिशयविकथास्थात् हानिमात्र ददाते ॥ १२॥ तदितरमुभयं तु भेयसः सापकत्वात सुचरितपदवाच्यं घाम सदिराणाम् । चरितमपि तु मिभं बोधयधर्मतचं जनयति हृदि हर्ष तत्समर्थोपकारि ॥१३॥ अतिशयनिरवा तां का संयमी वै विमलहृदयभागः संनिर्बद्ध समर्थः । सुकृतपरिवृतात्मा येन निर्जरां प्राप्य येन क्षपितसकलकर्मा मोक्षधाम प्रयाति ॥ १४ ॥ शुम इह परिणामः श्रोतृवत्रोरवश्यं श्रवणमनननष्टान्तःकषायश्च मन्यः । अधिगतशुभतत्तत्साधनोपे मवेऽसावमृतपदसमों जायते केवली च ॥१५।। चरित त इह देशस्यापि भद्रोपकारः रचयति बुधवर्गस्तेन हृद्या कथां हि । उदयति
For Private And Personale Only
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीतरंगवती
कथा 1॥८॥
सुमतिस्तच्छु संस्कारयोगे पाहतिनिपुगवं लम्पते चापि लोके ।। १६ ।। जिसरवरित भिंगा जोनीभिः परतचिती चोधदाऽऽदर्शवृत्तः। प्रतिभृतमुकथाभिः शुद्ध संस्कार रोगो भाति सुमतिमाजामति तनिर्विवादम् ॥१७॥ भाति च शुमोशावारर. क्षाकथामिः सुपरिणतिपदाचाराऽऽदिक लम्पते च । विविवातिनिबद्धा जैन साहित्यमध्ये प्रचुरतरकवासाशनानाभान्ति ॥१८॥ चरमभगवतः श्रीवीरनाथस्यकालाइतिशशुभभावादियोचोन्मुखाश्च । बगणितसुकवास्ताः संप्रवृताः इहाऽऽपन् तदतिशयसपाना ज्ञातृधर्माख्यरत्रे ॥ १९॥ अद्यापि यासांसुलमाः किपत्यः कवादगे वैव सुदेवहिण्याम् । यावान्तदंशोऽप्युपलम्यतेऽज महोयोग्यस्ति समोऽपि तावत् ॥ २० ॥ लोको चरा श्रीनर वाहनस्य तरंगात्याच कथाविचित्रा कयाः पुनर्या माधादिसेना सुलोचनाबन्धुमतीसुमत्काः ।। २१ ॥ द्वासाति हसिंमानी कपा इमाः श्रोत्रसुवाय याश्च | प्राक्तन्य एवातिपुराणकालाचास्ताः कथाः संचलिता अभवन् ॥ २२ ॥ श्रीपादलिप्ताभिधरिपत्राट्कोतिदिगतान व्यतिलंष चासीत् । स शासनोककरः प्रभावी नानाचमत्कारगुणैः प्रसिद्धः ॥ २३ ॥ प्रबन्धकेषु प्रतिमापक विद्वद्गणेवाप सपादरं यः । आचार्यवर्षस्य सुर्वकालादासीत्पतिद्धिर्नहि तत्र शङ्का ।। २४ ॥ तमूरिगा प्राकृतभाषयेयं मिश्राकयाऽकारि तरंगलोला। सुबह कारयुताऽपि दुर्बोधत्वेन सा स. हिताय नाऽभूत् ॥ २५ ॥ गते काले किपति कमेग लुसरचारा किज सा बभूव । श्रीवाणममा विनिर्मिनायाः कादमीनामकसत्कथायाः ॥ २६ ॥ गद्यात्मिकाया अपि पूर्वमे श्रीपूरिणेयं रचिता कयाऽस्ति । प्राचीनताकारणास्तु से गृहेगृहे वाचयितुं हि योग्या ॥ २७ ॥ संस्कृतवार किक वासादचा प्राकमा च तरंगातीपम् । ते च परशालाकाणि बागरी श्रुति
XxxKEKRISEka
For Private And Personal use only
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org.
भूषण आस्ताम् ||२८|| सुविहित जिनभद्राख्या गणीन्द्राः पुराणाः स्वकृत इति विशेषाऽऽवश्यकस्याथ भाष्येः । वसुखशरशशाङ्का सुपधे (१५०८ वा १५१६) । सुवाचा लिलिखुरपि तदस्या नाम सद्गौरवेण ॥ २९ ॥ श्रुत्यब्धिसंख्योत्तरश्चक्रसंख्य शतप्रबन्धान्ननु ये प्रणिन्युः ।
सूरिभिः श्रीहरिभद्रपादैरेषा || ३० || स्मृताऽऽवश्य कसूत्रमाध्ये उद्योतनेनापि च सूरिणा स्वे (कुत्रलय) मालाकथाख्ये विमल प्रबन्धे । श्रीपादलिप्ता मिघसू विर्य प्रशंसतेयं लिखितादरेण ॥ ३१ ॥ कृतं विलकमंजरीति मधुगद्यकाव्यं स्फुटं कवीन्द्रधनपालनामकमहा बुधैः । सुन्दरं तदादिकविसंस्तवे सुगुरुपादलिप्तं स्तुवन् करोत्यतिसमादरेण ननु तरंगवत्याः स्मृतिम् " ||३२|| सुपाहनाहचरियग्रन्थे प्राकृतकोविदैः । नवाङ्गशशिचन्द्रेऽसौ तरंगवती स्मृता ॥ ३३ ॥ श्रीवासुपूज्य चरियग्रन्थे वाचकपुंगवैः । श्रीचन्द्रप्रभसूरीन्द्रैः सा वरंगवती स्मृता ॥ ३४ ॥ श्रीपादलिप्तसूरीन्द्रस्वर्यानावसरे कवेः । कस्यचिदःखिनो दुःखोद्गारा एवं तदाऽभवन् ॥ ३५ ॥ जिनदासगणीन्द्रस्तु पद्येऽष्टोचरके शते । दशवैयालीयण्णिज्जुतिग्रन्थेऽपि तथा वचः ॥ ३६ ॥ श्रीनेमिचन्द्राख्यगणी समेषां सुखावबोधाय ततः प्रसद्य । संक्षेपतस्तां नवबोधपूर्णा व्यरोरचत्प्राकृतभाषयेव ।। ३७ ।। मद्रेश्वराख्यैरथ सूरिवर्वैः संक्षिप्यतां सा चतुःशताङ्क - श्लोकप्रमाणामतिसारभूतां लोकोपकाराय सुखं ससर्ज ॥ ३८ ॥ विबुधतिलकनामाऽऽयैः कवित्वप्रकाण्डैः पुनरतिसर लेयं ग्रन्थिता गद्यवाग्मिः । न नयनविषया साऽन्तर्हितैवेति मन्ये कविचन ननु लेभे ग्रन्थकृत पत्रकाणि ॥ ३९ ॥ इदमपि किल तेपां श्रीमुखाज्जातमासीत् । अभिरुचिरधिकैवं संस्कृते साम्प्रतानाम् । वितरति मुनिवृन्दं संस्कृतेनोपदेशात् अमर गिर इदानीं भूरिभूरिप्रचारः ।। ४० ।। वीक्ष्येति बोधमणिरक्षणबद्वरूक्षः स्वाध्यायकोवर विजाउ विशुद्धिमाजम् । श्रीबुद्धिसागरमहामतिमूरिराज,
For Private And Personal Use Only
Acharya Shri Kissagarsun Gyanmandir
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kalumagmoun Granmands
बीवरंगवती
कथा ॥ ९ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXX
शिष्यः समग्रनिगमाऽऽगमपारचा ॥४१॥ नानाप्रपन्धरचकः कविचक्ररलं वक्ता प्रसिद्धउदयन्सुमहाप्रभावः । श्रीमान्महानजितसागरमरिवर्यः जान्य तां सुरगिरा नवपद्यरूपाम् ॥४२॥ मनो जनानां रमणीयताया उपासकं सा रमणीयता च । प्रतिक्षणं नूतनतां दधाति प्रमोदते तेन सतां , चेतः ॥ ४३ ॥ अस्याः कथायाः खलु वाचनेन क्षणे क्षणे नूतनभावलाभः । वाल्यं तथा शिक्षणलेखने च विनीतिधर्माचरणे विवेकः ॥ ४४ ॥ विवाहशिष्टाचरणेऽनुरागो व्यापारदेशाटनलोकबोधः । कलाग्रविद्यासदसद्विवोधो भवस्य किम्बा परिवर्तनं च ॥४५॥ स्वमुक्युपायस्य गवेषणं चेत्यादि प्रकाराऽवगतिश्च सम्यक् । उद्भावयत्येव नवीनभावानेपा कथालोलतरंगतुल्यान् ॥ ४६ ॥ परस्परातिस्थिररागरक्तावुभौ विशुद्धव्यहारभावो । तरंगवत्येव च पद्मदेवोऽस्याः सत्कथाया वरनायको स्तः ॥४७॥ दीक्षानिमित्तोत्थभवान्तरीयस्वजातिदाम्पत्यवियोगदीनम् । पुनर्भवेऽन्योऽन्यसमागमेन चेतश्चमत्कारकचित्र. भूतम् ॥ ४८॥ सुश्राविकाया अतिमक्तिमत्या अत्याग्रहाम्यर्थनयाऽनुनीता । कथंचिदाश्वस्य व्रतस्थितात्र तरंगवत्यारमते स्ववृत्तम् ॥ ४९ ॥ आरम्य कौमारत एव सर्व श्रीपद्यदेवेन समं स्वपत्या । धर्मोपदेष्टुः श्रमणस्य पार्वे दीक्षान्तमेतच्चरितं प्रशस्तम् ॥५०॥ एतद्विधं वर्णितमस्ति येन प्रकाशते दुःखतया भवोऽयम् । श्रुत्वा च भव्या अचिरेण मोहात्संसारमूलाद्विरता भवेयुः ॥५१॥ तथैव दीक्षागुरुराजवृत्तं प्रवर्णितं यदि वाचकानाम् । परंपर विस्मयमादधाति प्रान्तेदिशत्येव महाविरक्तिम् ॥ ५२ ॥ कचित्कचिद्धर्षकरा प्रसंगाः संदर्मिता रोचकतत्प्रकारैः । रसातुराणां रसराजदानैः प्रीतिप्रदा दैन्यहराश्च सन्ति ॥ ५३ ।। तथाकचिद्वर्णितमस्ति वस्तुस्वारस्यतो यत्पठनैककाले । सर्व तदानीं तनवस्तुपूर्व प्रत्यक्षतुल्यं हृदि भासते च ।।५४॥ क्वचितकृतं यत्सुख
REKEEEEEEEEE.SEKXXIM
For Private And Personale Only
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
दुःखवर्णनं तज्ज्ञानतः चेतसि हर्षशोको । हास्यं च शृङ्गार मयानको च स्वरूपतः सन्ति हि तत्र तत्र ॥ ५५ ॥ रसौ तु शान्तः करुणस्तथाsत्र प्रधानरूपेण निवेशितौ स्तः । दानं च शीलं च तपथ भावो जिनेशपूजा कथिताः कचिच ॥ ५६ ॥ सम्यक्त्व सामायिकधर्ममूल चारित्रयचच्छकुनादिकं च । तथा ज्वरस्वप्नपुनर्मविनां मेदा विचारा उपदर्शिताथ ॥ ५७ ॥ अद्यापि चैतद्रसकृतकथाया अभावतः संस्कृतवाङ्मयेषु । ग्लानात्मनां भव्यदृशां जनानां श्रीसूरिणाऽकारि महोपकारम् ॥ ५८ ॥ प्राकृप्राकृते संग्रथिता कथेयं पश्चाद्बुद्धैर्जर्मणदेशजाते - रनूदिता जर्मणमाषया च तथैव सा गुर्जरमाषयाऽपि ॥ ५९ ॥ अशिक्षिताः सम्प्रति शिक्षिता वां कथामिमां वीक्ष्य समे मनुष्याः । प्रपठ्य संश्रुत्य सुदृष्टचित्ता भृशं भविष्यन्ति च धर्मलग्नाः ॥ ६० ॥ पुरःपुरे ज्ञानतरङ्गिणीयं प्रवाहयन्ती निजबोधधाराम् । संप्लावयन्ती सममव्यजीवानुद्धारिका स्थाप्यति स प्रमोदः ॥ ६१ ॥ ग्रहांकखेटेन्दुमिये च वर्षे श्रीवैक्रमे (१९९९) प्रान्तिजपत्तने च | संघाग्रहाद्भव्यदृशां पुरस्तादियं कथारम्मि च वाचनाय ॥ ६२ ॥ चित्राऽवलोकेन च पद्मदेवप्राप्तिः पुनस्तेन समं च संगः। तरंगवत्या इति वाचितायामस्यां समाऽभूत्परमप्रसन्ना ॥ ६३ ॥ मावोरसो धर्ममयोऽत्र तस्मान्मुद्राप्य चास्याः क्रियतां प्रकाशः । साध्वीजनानां भविनां तथैवं तत्राऽभवन्मे परमानुरोधः ॥ ६४ ॥ अस्त्यत्र पूर्वाऽपरपद्ययोस्तु, सम्बन्ध इष्टः सुधिया विभाव्यः । कार्या न युग्मादिककल्पना वा, स्वतंत्र काव्यं विदितं न यस्मात् ॥ ६५ ॥ भावाऽमिलक्ष्येण च वाचका स्ते कथामिमां बोधधिया पठन्तु, अलंकृतिव्याकृति द्वदृष्ट्या, विशुद्धता प्रायइहाऽऽदृताऽस्ति ॥ ६६ ॥ यदा मया दायितुमुद्रणालये संग्रामकालो विषमो झुपस्थितः । भूरिप्रयासेऽपि तदातिदुर्लभं महार्घतायाः किल कागजादिकम् || ६७ || संशोध्य
For Private And Personal Use Only
Acharya Shri Kissagarsuri Gyanmandir
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवरंगवती कथा ॥ १० ॥
www.kobatirth.org
जाsपि तथा विलम्बे तन्मुद्रणेऽकारि महान्प्रयासः । इमां पुनः संस्कृतवाचकानामग्रे निवायाऽस्मि कृतार्थ एव ॥ ६८ ॥ अनूदितागुर्जरभाषया या प्राकृते वास्ति तरंगलोला । द्वाभ्यां च संशोधनकार्यकाले कृतोपयोगोऽस्मि हि तत्र तत्र ॥ ६९ ॥ तस्माद्धि तत्कर्तुप्रकाशकानां विभर्मि शीर्षेण बहूपकारम् । गुणैकपक्षाः सदसद्विवेके तान्सरद्बुधान्संप्रति सूचयामि ॥ ७० ॥ आचार्यतामधिगतं किल शब्दशास्त्रे, श्री भाइशङ्करवुष मणिशंकरं च । एतावुभौ शुचिसहायकराविदान सद्बुद्धिगेन मनसा परिचिन्तयामि ॥ ७१ ॥ जैने किम्वा जैनशास्त्राऽतिरिक्ते, न्याये काव्ये व्याकृतौ यः प्रवीणः । तचवृत्ते सिद्धहस्तं प्रशस्तं वर्षानन्दं शत्रिणं तं स्मरामि ॥ ७२ ॥ बीतावधानादि मनुष्पदोषैर्याः कामनात्र त्रुटयो मवेयुः । गुणैकगृह्याविविबुधा विशोध्य | सम्यक् पठन्तः किल सूचयन्तु ॥ ७३ ॥ आवृत्तिकाले च यतो द्वितीये शक्यं हि तत्तत्परिवर्तनं स्यात् एतावदुक्त्वा विरमे परार्थे बुधाः सदा कारुणिका भवन्ति ॥ ७४ ॥ ऋतवन्तरिचरवकरैर्मित वैक्रमेन्दे + श्री कार्त्तिकेसि तदलैखलु पौर्णमास्याम् । हेमेन्द्र सागरसुवाचकपुंगवेन, प्रस्तावनेति विहिता सुधियः क्षमन्वाम् ॥ ७५ ॥ बुद्धिमन्तः पठिष्यन्ति संशोध्येति सुतोषतः । स्खलनायै सतो विज्ञान प्रार्थये च क्षमामपि ॥ ७६ ॥
+ " सप्तान्तरिक्षखकरे मितबैक्रमाब्दे (२००७) श्री कातिके सितदलेखलु पौर्णमास्याम् ॥ ७५ ॥ "
For Private And Personal Use Only
Acharya Shri Kassagarsun Gyanmand
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir Jain ArachanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
॥ तरङ्गवतीकथाया महात्म्यम् ।।
FREMIXEXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
इयं तरजावत्याख्या ज्ञेया मिश्राऽभिधा कथा । यस्यां व्यावर्णितः सम्यग्धमों मुख्यतयैव हि ॥१॥ यता-धर्मार्थकामा वर्ण्यन्ते यत्र मिश्रकथाऽस्ति सा । धर्मपूर्णा पुनः सैव भृशं लोकोपकरिणी ॥२॥ धर्माचार्या महात्मानो धर्म प्रापयितुं नरान् ।
धर्मप्रधानां संकीर्णा कथां कुर्वन्ति शर्मदाम् ॥३॥ कथा तरङ्गवत्या ये शृणुयुभक्तिभावतः । तेषां भव्यात्मनामात्मा नायेत | निर्मजः खलु ॥ ४ ॥ श्रोतृणां श्रोत्रचितानि सदैवाऽऽनन्दयेदियम् शुद्धमावेन तां चित्ते सरन मोक्षपदं व्रजेत् ॥ ५॥ संसार भ्रमणश्चास्याः सरणेनैव नश्यति । सज्जनानाच मूर्धन्यो जायते भुवने जनः ॥ ६ ॥ श्रद्धायाः सुविशुद्धायाः स्थिरत्वमुपजायते । जिनेन्द्रगदिते मार्गे मोहवृत्तिविनाशके ॥ ७॥ यायिनां मविता शुद्धा कथा साहाय्यकारिणी। पन्था मुख्यतमो लोके ज्ञेयः श्रेष्ठसुखाऽऽप्तये ॥ ८ ॥ युग्मम् । ज्ञानभानुप्रभापुजैर्जनतायास्तमस्ततिम् । दूरीकुर्वन्ती भद्रेयं दीपिकेति विराजते ॥९॥ तर्पयन्ती सतः सेयं जिनक्तिप्रवादिनी । मन्दाकिनीव मालिन्यं संसृतेर्नाशयत्यत्नम् ॥ १०॥ सत्कथा भावतः श्रुत्वा भावयेच्चेभिजे हदि । भूस्वाऽनन्दमयः सैप जन्मसार्थक्यमाप्नुयात् ॥ ११ ॥ शुद्धधर्मप्रदात् काव्यात चित्तहारिकथानकात् । सर्वेषां मानसं तुष्टं जायते चिन्तनक्रमात् ।। १२ । काम क्रोधं विषादं च मोहं मानं प्रमत्तताम् । मयं शोकं निराकृत्य दद्यादिमियं शुभाम् ॥ १३ ।। आत्मोमतिकरी नूनं स्मृतेयं भव्यमानः । यामनुसृत्य लोके हि सिद्धिः सम्पद्यतेऽखिला ॥ १४ ॥ वैराग्यं
For Private And Personlige Only
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.khatirth.org
कथा
॥ ११ ॥
भीतरंगवती संयमः शीलं शुभध्यानमनल्पधीः । कथया मूर्त्तिमत्या वै भवेत्साधुतया सह ॥ १५ ॥ मात्मनस्तोषदं गीतं चित्तवृत्तिविशोधकम् । चरितममृतस्यन्दि महानन्द विधायकम् ।। १६ ।। पादलिप्तस्य सूरीन्द्रो चरित्रं चारुतायुतम् । मव्यदैन्यक्षये हेतुं सिद्धिबुद्धिविधायकम् ।। १७ ।। साध्व्यास्तरङ्गवत्या हि कथानुसारतः कृता । सुगीर्वाणगिरेयं वै महोपकृतिहेतवे ॥ १८ ॥ युग्मम् ॥ शृणोति भावयत्येनां कथां यो बोधदायिनीम् । स श्रेयो भव्यजीवात्मा प्राप्नोति शाश्वतं जने ॥ १९ ॥ धर्माधिष्ठितनी तिलोकपटुता रूपाऽमृताsपायकं सम्बोधनपूर्व काऽऽचरणतः श्रद्धा गुणाधायकम् । त्यक्त्वा मानवदेहमुत्तमदशामापादयन्ते सुखं किं किं नो कुरुते कथानकमिदं भावैस्तदभ्यस्यताम् || २० || श्रेयो यतो मवति सद्य इति प्रमाय, प्राज्ञो न हीच्छति सुधां सुकथां विहाय । नानाप्रकार शुभ शिक्षणदानतोऽसौ पीयूषतोऽप्यधिगुणा महतः कथाऽस्ति ॥ २१ ॥ बुद्धस्तिलकाको ननु लिलेख गद्यात्मकं, कथानकमिदं बभ्रुत्र न च भोगयोग्यं हि नः । स्मृतिप्रमतिंकरमा तु तत् । भवेद्यदि सुरक्षितं सुखकरं ध्रुवं तद्भवेत् ॥ २२ ॥ वैदेशिकैः प्रगटितं निजभाषया तद् ज्ञात्वाऽभवन्मनसि कश्चिदभूतभावः । उत्पद्य काव्यनिति संस्कृतभाषया वा सारख्यतः प्रिरजनेऽमवदिष्टत्रम् || २३ || श्री रत्तने तदणहिल्लपुराऽभिधाने सूराश्रये महति सागरगच्छसके । भूताद्वयकरे ( २००५ ) किल कमेन्दे । मासां चतुष्टयमथो वमता सुखेन ॥ २४ ॥ देमेन्द्र सागरसुवाचकपुंगवेन संशोधितं स्मृतिकृते शुभभक्तिभाजा | भूयात्सुमंगल मिदं सुकथानकं तत् नानाप्रकार शुभ भावविबोधनाय ।। २५ ।।
For Private And Personal Use Only
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
।। ११ ।।
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
ॐ ही श्री अहम् योगनिष्ठ-शास्त्रविशारद-जैनाचार्य-श्रीमद्-बुद्धिसागरसूरिभ्यो नमः ।
॥श्रीमदजितसागररिविरचिता
॥ तरङ्गवतीकथा ॥ श्रीमोक्षलक्ष्मीः सुवृतैव येन, सम्यक्समासादितकेवलेन । सुगऽमुरैः सेवितपादप, नमामि त वीरजिनेश्वरं मुदा ॥१॥ साम्राज्यलक्ष्मीमपहाय येन, वैराग्यतो मोक्षरमावाऽरम् । सुराधिपैरचिंतपादपजं, स्तवीमि तं पूज्यतमाहवां गणम् ॥२॥ सम्प्राप्तद्याचलमोक्षशर्मणः पारं प्रयावान् भववारिराशेः। जन्मादिदुःखौष परङ्गितस्य, नमामि सिद्धानखिलान्मुदानिशम्॥३॥ सद्गुणैः शुद्धशीलेन, विज्ञानविनयेन च । सङ्घकीर्चिकरान्सर्वा-नाचार्यान् प्रणमाम्यहम्
॥४॥ सद्गुरुं ज्ञानदातारं, सर्वसिद्धिप्रदायकम् । वन्देऽहं सततं सेव्यं, सर्वमङ्गलकारकम् यत्प्रभावान्मृता लोके, जीवन्त्वपि कवीश्वराः । वाग्देवी सा प्रसमाऽस्तु शब्दार्थसिद्विदायिनी काव्यहेम्नः परीक्षायै, निकोपलसनिभाः । गुगदोषविदः सन्तु, विद्वांसः सुखिनः सदा सरीन्द्रपादलिसेन,' रचिता विस्तृता कथा । तरङ्गवत्पमिख्येयं, भव्यप्राकृतभाषपा
॥८॥
For Private And Persone
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahiyeJain AradhanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
भीतरंगवती कथा
来来来来来来来
सन्ति यस्यां दण्डकानि, विशालानि बहूनि च । सम्बन्धा विविधार्थाश्व, समासा दुर्घटास्तथा ॥९॥ श्लेषाऽलङ्कारसंमिश्र-वाक्यानि बहुधाऽभवन् । गद्यपद्यात्मका भावा-दुर्योधा मिश्रभाषया
॥१०॥ यद्यपि विदुषां बोधो-जायते कठिनात्मनाम् । ग्रन्थकारगिरां सुष्टु, दुर्ग्राह्यो मन्दचेतसाम्
॥ ११ ॥ तस्मादयं प्रयासो मे, जिज्ञासुजनताऽऽग्रहात् । आकाङ्क्षा पूरयितव्या, जिज्ञासूनां सुसाधुभिः संस्कृता सुघटाशैली, स्फुटार्था भव्यभाषया । रचितेयं सुखायैव, क्लिष्टशब्दविवर्जिता
॥१३॥ सुभाषितं सर्वत एव शस्यते, कवीन्द्रवारैर्मुदितस्वभावैः । क्लिष्टार्थमात्र रचितं सुकाव्यं, केचिद्धि जानन्ति विशेषविज्ञाः।।१४॥ विशेषावश्यके भाष्ये, निर्दिष्ट स्वेन निर्मिते । श्रीजिनभद्रगणिना, तरङ्गवतीनामकम्
॥१५॥ श्रीहरिभद्रसूर्याद्या-ग्रन्थारम्भे तदीयकम् । स्मरणं चक्रिरे लोके, तुष्टिपुष्टिविधायकम्
॥१६॥ क्लिष्टेयं प्रकृतानाच, विदुषां मोददायिनी। विस्तृतत्वाजनानां वै, सर्वेषां न हितावहा
॥१७॥ ज्ञात्वेति नेमिचन्द्रेण, मरिणा सरला नवा । रचिता प्राकृता लोके, संक्षेपागुचिदायिनी
॥१८॥ धीमद्भयो रोचते नेयं, क्लिष्टा च मन्दचेतसाम् । तस्माद्गीर्वाणवाचेय, रच्यते हितकारिणी
॥ १९ ॥ पादलिप्ताचार्यजन्मभूमिवर्णनम्। स्वर्गपुरी समानाऽस्ति, विशाला कोशलापुरी । चतुर्वर्णजना यस्यां, वसन्ति धर्मतत्पराः
॥ २०॥ जैनधर्मरताः सर्वे, देवपूजापरायणाः । गुरुणामद्भुतां भक्ति, कुर्वन्ति स्म प्रियान्विताः
।।२१।।
॥१
॥
For Private And Personlige Only
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्रत्य जनपूजाभिः, सन्तुष्टाः सर्वदेवताः । सर्वदा सम्पदा वृष्टि, कुर्वन्ति शुभदायिनीम्
॥ २२॥ तत्पुण्यभूमिजातेन, पादलिप्तेन परिणा* । रचितां सुन्दरां वार्ता, शृणुध्वं सावधानतः
॥ २३ ॥ अस्यां श्रुतायां लोकेऽस्मिन, शुद्धभावेन मानवाः । जन्ममृत्युजरादुःखै-र्मुच्यन्ते नात्र संशयः ॥२४॥
कथाप्रारम्भः समृद्धिशालिभिलोंकः, सम्भृतैर्विविधैः पुरैः । ग्रामैरनेकैः संजुष्टो-देशोऽस्ति मुगधाभिषः विजितदेववृक्षाऽऽलि- द्रुमैः पुष्पविराजितैः । गृहोद्यानैः सदारम्यै,-विहगारावसंकुलैः
॥ २६॥ यो देवलोकसम्पत्ति, विभाति वर्जयन्निव | अभंलिहा जिनेन्द्राणां, प्रासादाः सन्ति यत्र वै
॥२७॥ स्थाने स्थाने स्तुपाः प्रौढा-राजन्ते यत्र शोभिताः । नीतिमन्तः सदाचारा-जनाश्व जनवल्लभाः ॥२८॥ कृत्याऽकृत्यविवेकज्ञा-जिनमक्तिपरायणाः। निरीतयो महेभ्याश्च, मोदन्ते यत्र भूरिशः
॥२९॥ तत्राऽस्ति रम्यं प्रवरं पृथिव्यां, मनोहरारामरमामनोत्रम् । दीव्यश्रिया तर्जितदेवधाम, महर्दिकं राजगृह पुरं वरम्॥ ३०॥
*निर्वाणलिकामुख्या-ग्रन्था येन प्ररूपिनाः । बहवः शोधिताव, जैनतत्त्वाऽनुसारिणः आकाशगामिनीविद्या, तस्य साध्या बभूव व । विक्रमादित्यभूपं य-स्ती सिद्धाचनाभिधे
॥ २॥ प्रबोध्य सङ्घसहिता, यात्रा कर्तुमुपादिशत् । तस्य सिद्धगिरेस्तल-हट्टिकायामवासयत् पादलिप्तपुरं सूरेः, पवित्रनामोर्तये । पालीताणेति नाम्नेदं, साम्प्रतं श्रूयते जने
For Private And Personale Only
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir Jain Arachanaken
Ach an Gym
श्रीतरंगवती कथा
XXXXXXXX
यस्मिन् पुरवरे रम्ये, सुव्रतस्वामिनो मुनेः । कल्याणकत्रयं जज्ञे, लोककल्याणकारकम्
॥३१॥ महावीरजिमेन्द्रश्व, सशिष्यः समकासरत् । सद्धर्मदेशनां यत्र, ददौ लोकहितावहाम्
॥३२॥ निजौजसा निर्जितरिवार सस्मिन्नभूत्कोणिकमूमिपालः । प्रभूतसेनाधिक समदाढ्यः,कुलप्रदीपो जितसर्वदोषः ॥ ३३ ।। श्रीवीतरागस्य विशुद्धशासने, रक्तोऽभवद्यो विमळप्रभावः। प्रशान्तमूर्ते गरेकन-पादारविन्दस्य विशुद्धमानसः ॥ ३४ ॥ तस्मिन्नभूच्छेष्टिवरप्रधानो, ननेषु मान्यो जिनधर्मरागी। दयाईचेतो धनपालनामा, नराधिपत्यातिशवेन कल्लभः।। ३५॥ तस्य श्रेष्ठिवरस्यासी-दनुख्या पतिव्रता । भार्या सोमाभिधा भया, शीलालङ्कारभूषिता । थेष्टिनास्य हHस्य, सनिषो धर्मसाधनम् । उपाश्रयः समस्ति स्म, ज्ञानयोषेण घोषितः सुबताऽऽख्या तपोमूर्तिः, साथी साधुत्रतोद्यता । तत्राशासशिष्यामि-बहुभिः परिवारिता
॥ ३८॥ आरम्प जन्मतो भद्रा, याऽभक्द् ब्रह्मचारिणी । भनेधा ताः श्रेण्या, कृशाङ्गो तयवेदिनी आत्मन्यानपरा नित्य, विज्ञानकाक्ष्याङ्गिका । भव्यानामुपकाराय, मोक्ष मार्गदीपिका
॥४०॥ साव्यास्तस्या अनेकाच, शिष्या आसन्विनीतकाः। तापामेकाऽभात्साधी, कृपष्टतपा:मुधीः ॥४१॥ चिकीर्षुः पारणां सा तु, नवदीक्षितयाजन्यया । भिक्षा निःससाराऽमा, निजोपाश्रयतो कहिः
॥४२॥ सर्वजीवदयादक्ष, निम्नदृष्टिः सुमन्दगा । गत्वा तस्यौ प्रशस्ते सा, मिझायोग्यगृहागणे अतिध्यागमनं तत्रा-5वेक्षमाणास्तदीयकम् । कियद्दास्यः स्थिता दृष्ट्वा, सौन्दर्य चकिता भृशम् ॥४४॥
COM॥२॥
For Private And Personlige Only
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥४५॥ ॥४६॥ ॥४७॥ ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५०॥
FXXXXXCCCCEXESEXKASATES
साक्षालक्ष्मीरियं साध्वी, वार्ता चक्रुः परस्परम् । सुन्दराजकुञ्चिता मान्ति, अहो ! अस्याः शिरोरुहार मुखं चन्द्रसमाकार, जनमोहविधायकम् । अलङ्कारविहीनाऽपि, रम्पत्वं जनयत्यसो स्निग्धावपमाच्छनो, कर्णावस्था विराजतः । भ्रकृटिः कुटिजाकारा, धनुर्यष्टिरिवारा जलाभिर्यधबा पर्व, मिझायाश्च कोरलः । हस्तोवाः शोरसे वसान्निक्रामन् मासुकृतिः तस्याः शब्दं निशम्पाय, अष्ठिनी गृहतो बहः । आजगार विभूषाभिभूषिता मन्दमारिणी शस्तभावाऽतिरूचिरा,-श्वेतवस्त्रधरा वरा | करुणाकान्तचेतस्का, जैनधर्मानुरागिणी निजाङ्गणं पुनानां तां, सावी च तत्सहागताम् । निरीक्ष्य भावतः साऽपि,प्रणनाम रमासमाम् ततः पद्मसमासीन-भ्रमराभकनीनिके । मुखश्च चन्द्रवत्तस्या-एकदृष्ट्या व्यलोकमत स्वरूपेणाऽब्धितनुजा, तर्जयन्ती तपस्विनीम् । विलोक्य तर्कयामास, श्रेष्ठिती सविकल्पका नेयं स्वमगता मेऽभून, सुन्दराकृतिरङ्गना । क्वापि नेदक स्वरूप वा, वर्गने वाचित मया अद्भुतमीदृशं लोके, स्त्रीरत्नं कि भविष्यति ।। रम्यस्त्रोनिर्मितद्रव्यो-तीने विनिर्मितम् मुण्डितापि यदेदानी, साध्वीवेषविभूषिता । ईदृशीयं मनोहारि सरूपा दृश्यते तदा गृहाश्रमस्थिता यास्तु, विशिष्टरूपसम्पदः । अस्याः सौभाग्यपत्तिरमविष्यत्प्रमेतरा भनान्यस्या व्यलकारा-ग्यमन्ते धूलिमानि च । तथाऽपि मम दृष्टिस्तु, तृप्ति सम्पद्यते न बै
॥ ५२ ॥ ॥ ५३॥ ॥ ५४ ॥
RXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥ ५७ ॥ ॥ ५८॥
For
And Peso
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kasagarten Gyaan
भीतरंगवती
कथा ॥३॥
॥६०॥
॥ ६४ ॥
प्रत्यङ्गं वीक्ष्य तत्रैव, निनिमेषं विलोचनम् । पुनः पुनः परिभ्राम्य-बैव विश्राम्यति क्षणम् देवाङ्गनाः शुभं रूप-मस्याश्चित्तविनोदकम् । वाञ्छन्ति देवकन्येयं, किं वा नागकुमारिका ? संभाव्यते परं नैतत्सततं निर्निमेषिकाः । अयन्ते देववनिताः, सदापुष्पमालिकाः रजोऽपि न स्पृशत्यनं, तासामार्यास्वियं ध्रुवम् । धूलिपादाचलचक्षु-स्तस्मात्रैव सुराङ्गना मानुपी वर्तते काचित, पृष्टव्याऽतः शनैरसौ । गजे दृष्टे वृथा तस्य, पादपद्धतिशोधनम् सा श्रेष्ठिनी विचिन्त्यवं, भिक्षां दत्वा यथाविधि । पपृच्छ तां महाश्चर्यपूर्वकं-प्रीतिमत्तरा पूज्यायें ! न विवाधा चेत, क्षणं विश्राम्यतामिह । कथयस्व कृपां कृत्वा, किश्चिद्धर्मकथानकम् साध्वी ततोऽब्रवीत्सर्वहितकद्धर्मबोधने । नास्ति क्षतिर्हि केषाश्चित काऽपि कुत्रचिदुसमे ? अहिंसालक्षणो धर्मः, पुनाति श्रुतिमागतः। वक्तारमपि लोकेऽस्मिन, सर्वत्र सुखदायकः यदि कश्चित्क्षणमपि, निहिंस श्रृणुयाद् वृषम् । ततो दयामयं धर्म, सम्पक्पालयति स्वतः उपदेशस्तदैव स्या-दुपदेष्टुः फलेग्रहिः । यतोऽन्य तारयत्येष-स्वयमप्यक्षयो भवेत् धर्मोपदेशनं तस्मा-पछेष्ठं सद्भिर्मतं सदा। अतोऽहं वेनि यत्किश्चिद् , ब्रवीमि श्रुणु तच्छुमे ! निशम्प तद्वचो दास्यो-मुदितास्तालपूर्वकम् । वदन्त्यस्याः सुरम्यत्वं, दृग्गोचरीभविष्यति साऽथ साध्वी तया दत्ते, श्रेष्टिन्या साध्वीसंयुता। विष्टरेऽतिष्ठदेकान्ते, सम्यधर्मपरायणा
॥ ६८ ॥
॥ ७० ॥ ॥ ७१ ॥
For Private And Personale Only
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
दासिभिः श्रेष्ठिनी साई, प्रणम्य विनयान्विता। एतस्याः सन्निधौ धर्म-कथा श्रोतुमुपाविशत् ततः साध्वी स्फुटैक्यैिः , श्रोतृचित्तहरस्वरः । धर्म प्रोवाच सार्वज्ञ, सवजीवहितावहम् ॥ ७४ ॥ जन्ममृत्युजराव्याधि-प्रमुखातिविनाशकम् । संसारसागरोद्दाम-तरण्डसनिमं श्रुतम् चिन्तामणीयते धर्मः, कल्पद्रुम इवाऽपरः। कामकुम्मायते धर्मः, सद्गतिक्षेमदायकः ।। ७६ ॥ धर्मे सिद्धेऽखिला सिद्धिः, प्राप्यते पुण्यशालिभिः। धर्मेणैव जनाः प्राप्ता-मोक्षसौधमलौकिकम् ॥ ७७ ॥ किंकर्तव्यविमूढबुद्धिकलितो वम्भ्रम्यते संसृतौ, कर्तुं धर्मविधि न दुःखदलनं भावं विधत्ते हृदि । संसारोदधिपारगामिपुरुषो नौकां विना स्यात्कथं । धर्माराधनसाधनेन सुलभ लोकद्वयस्थं सुखम ॥ ७८ ॥ सम्यग् ज्ञानं तथा शुद्धं दर्शनं जिनभाषितम् । अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्याऽपरिग्रहो। ॥ ७९ ॥ महावतानि पश्चेत्थं विनयः संयमस्तपः। क्षमादि धर्मतत्वानि, ज्ञापितानि तया स्फुटम् अथ श्रेष्ठिन्यवोचत्ता, विनयाऽजनताऽऽजना। धर्मतचं श्रुतं त्वत्तोऽधुनाऽन्यत्कथयस्व मे ॥ ८१ ॥ वन्मुखाम्बुजसौन्दर्य, निरीक्ष्य मद्विलोचने । प्रमोदमेदुरेऽभूता, दिव्यसंपद्विजित्वरम् पर त्वज्जन्मनो वार्ता, श्रोतुं गाढतरोत्सुकौ। जातौ कर्णावुभौ चित्रा, पूज्यपादे ! ऽधुना मम ॥ ८३ :। विष्णोः कमलवत्कस्य पितुस्त्वं वल्लभाऽमवत् । जगद्वन्द्या च ते माता, किनामाऽऽसीच्छुभाशये? ॥ ८४ ॥ पितुर्गृहे सुखं कीदृक्, कीटक्च श्वशुरालये । हेतुना केन दीक्षां त्वं, प्रपन्नाऽप्ति बदाऽधुना ॥ ८५ ॥
55653 588***
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX.
For Private And Personne
Only
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्री तरंगवती
कथा
11 8 11
蛋蛋蛋蛋粥粥
www.kobatirth.org
एतद्विज्ञातुमिच्छामि ब्रह्मचर्यं विभूषिते ! तद्वृत्तान्तं निशम्याशु, मम तृप्तिर्भविष्यति रम्पनार्या नद्याथ, साधोः साध्यस्तथैव च । मूलं वाऽपि न पृष्टव्य-मिति तच्चविदो विदुः तेषामेवं कृते लोके, तुच्छत्रं जायते काचित् । असन्तुष्टिश्वापमानं, तस्मात्तचैव चर्चयेत् वेद्यहं च मुधा प्रश्नैः खेदनीया न धर्मिणः । मन्मनस्तव सौन्दर्य, प्रश्न प्रेरयते भृशम् साध्वी प्रोवाच ते प्रश्न - स्पोतरो मेऽस्ति दुःशकः । निष्फलानां यतो वार्त्ता, विषयाणां न कुर्महे गृहवासेयदानन्दोऽनुभूतः स्मर्थते न सः । तथापि भवदुःखेन, दुःखिता कर्मणः फलम् भुखाना मामकं वृत्तं लोकनिन्दां स्मरन्त्यहम् । किञ्चिद्वदामि ते श्रद्धा, धर्मकर्मयति स्फुटा इत्थं साधीगिरा तुटा, श्रेष्ठिनी निजचेटिका । प्रेरयामास तच्छ्रोतुं वृत्तान्तं ध्यानपूर्वकम् साध्यथो निजवृत्तान्तं पूर्वजन्मसमुद्भवम् । कथयामास कारुण्या लोकोपकृतिहेतवे आर्यकृत्स्वसद्भाग्य- गर्वहीना व्रतिन्यसौ । वाग्देवीव समारंभे, धर्मदृष्टिः कथानकम् वृत्तान्तं यदहं वेद्मि यच्च मे स्मृतिगोचरम् । मदीयजीवनस्येदं सारं संक्षेपतो वे साध्व्याः पूर्वभवकथाप्रारम्भः । मध्यदेशस्थितो वत्माभिवो देशोऽस्ति सुन्दरः । अमूल्यैव पदार्थोंचे, संभृतः सुखदायकैः यस्मिनेकधर्मात्म-पुङ्गवा सम्पदान्विताः । निवसन्ति सदाशंसा-धर्मार्थकामपालका:
For Private And Personal Use Only
।। ८६ ।। 11 60 11 || 66 ||
।। ८९ ।।
॥ ९० ॥
।। ९१ ॥
।। ९२ ।।
॥
९३ ॥
॥ ९४ ॥
।। ९५ ।। ॥ ९६ ॥
।। ९७ ।।
॥ ९८ ॥
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
3585881
॥ ४ ॥
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
कौशाम्बी नगरी तस्मिन् , स्वर्गपुरीव सम्पदा । वत्सदेशस्थितं मुक्ता-रत्नमिव विराजते
॥ ९९ ॥ अन्यासां नगरीणां साऽऽदर्शरूपास्ति केवला । यमुनायास्तटे सैव, रत्नभूताऽस्ति भासुरा
। १००॥ उदयननराधीश-स्तां शशास पुरीं वराम् । संग्रामे भयदोरीणां, प्रतापोर्जितविक्रमः
॥१०१ ॥ साधुसाघीमहाभक्तः, सुहृदां सुखदायकः । गजाश्वरथपत्तीनां, बलेन प्रबलो महान्
॥ १०२ ॥ प्रफुल्लवदनो नित्यं, हैहयाऽभिधवंशजः । सस्वनः सिंहगति,-विख्यातो वसुधातले रूपशीलगुणैः ख्याता, विनीता कमलानना । अभूद्वासवदत्ताख्या, महिषी तस्प बालभा
॥१०४॥ राजस्तस्य बभूवैकः, ऋषभसेननामकः । सवया नगरश्रेष्ठी, सुहृत्सर्वजनैर्मतः अर्थशास्त्रविदां मुख्यः, सपा व्यवहारिणाम् । न्यायकर्ता समानेषु, जनेषु मित्रभावनः सत्यप्रियो दयानिष्ठो-लोकानां हितकारकः । निर्दोषजीवनो जन-धर्मरक्तो वणिग्वरः
१०७॥ स्याद्वादवेदिनां मध्येऽप्यसौ सन्मानतां गतः । प्रमाणवचनं तस्य, गण्यते सर्वदा ननैः
बा १०८॥ क्षमावान् शान्तचेतस्कः, साधुपङ्गरतः सदा । आदिमो धर्मकापु, बहुधोत्तमतां गतः
॥१०९॥ यतश्चोक्तम्चेतः सार्द्रतरं वचः सुमधुरं दृष्टिः प्रसन्नोज्ज्वला. शक्तिः शान्तियुता मतिः श्रितनया श्रीदीनदैन्यापहा । रूपं शीलयुतं श्रुतं गतमदं स्वामित्वमुत्सेकता-निर्मुक्तं प्रकटान्यहो नव सुधाकृण्डान्यमून्युत्तमे ॥११०॥
BBC3333E:
For Private And Personale Only
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahiyeJain AradhanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
श्रीतरंगवती
कथा ॥५॥
तत्प्रियाऽभूद्रमारम्या, कमला शीलशालिनी, दयादाक्षिण्यसंयुक्ता, सौभाग्यगुणवत्तरा कियत्काले गते तस्याः, श्रेष्ठिन्याः कुक्षिसंभवाः । अभूवनङ्गजा अष्टौ, क्रमतः सत्वशालिनः ॥ ११२॥ यमुनाऽभ्यर्थनातोऽहं, तेषामुपरि तद्गृहे । सञ्जाता फलरूपा तत्परिवारसुखावहा
।।११३ ॥ जातायां मयि तातेन, मामकेन महोत्सवः । व्यधायि मोदमानेन, पौरलोकमुदावहः
॥ ११४ ॥ मत्पालनाय तातेन, दास्यः संरक्षिताः शुमाः । सूतिकाकर्मकुशला-चक्रस्ताः समयोचितम्
॥ ११५ ॥ नालच्छेदादिकं कृत्वा, पित्राऽऽनन्देन भोजिताः सम्बन्धिनः समाकार्य, सर्वे सपरिवारकाः ततो जन्मादिसंस्कारा-विहिता विधिपूर्वकम् । मत्तातेन प्रमोदेन, यथाशक्त्यनुसारतः यमुनातरङ्गस्वम-प्रभावेणाऽभवं ततः । जाता तरङ्गवत्याख्या, मम पित्रादिसमता
॥ ११८॥ शयने दुःखिताऽहं चेत्, करपादादिताडनम् । कुन्ती मां विलोक्याशु, धात्री मेधारयत्स्वयम् ॥ ११९ ॥ दास्यो धात्री च मां लावा, हस्तयोः सनि स्थिताः । बहुधा रमयामासुः पालयन्त्यो दिवाऽनिशम् ॥१२० ।। सुवर्णमयरम्याणि, क्रीडितुं क्रीडनानि च । आनयामास मत्तातः, शालमञ्जिमुखानि वै
॥ १२१ ।। अपेक्षिष्ट मया यद्यत, तत्त्सर्व समाहृतम् । व्यलोक्यत महानन्द-सेविन्या सुमनोहरम
॥१२२॥ सम्बन्धिनश्च मे सर्वे, निजोत्सङ्गे निधाय माम् । बहुभिर्लालयामासुः प्रमोदाल्लालनादिभिः। ॥ १२३ ॥ निरीक्ष्य मा परीवारः, पितुर्मे मुदितोऽभवत् । शनैः शनैः पदार्थेषु, दृष्टिक्षेपं व्यधामहम्
॥१२४ ॥
For Private And Personlige Only
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
॥१२५॥
॥ १२८॥ ॥ १२९ ॥
SEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
किश्चित्किश्चित्स्य वक्तु-मशिक्षं मन्दभाषिणी । ततो धरातलं पद्भयां, मण्डयामास समनि तातेत्यवादिष यहि, तदानीं मे कुटुम्बिनाम् । प्रमोदो न ममौ चित्ते, मुहर्मन्मनभाषया ततोऽभूच्चोलसंस्कारः, क्रमेण गमनागमम् । कुर्वन्तीतस्ततःस्तर, पर्याटमहमद्धतम् सुवर्णपुत्तलीभिश्च, सखिभिः सहक्रीडितुम् । लनाऽहं मोदमानाऽलं, मातृप्रेमविवर्द्विनी पांसुभिनिर्मितगैहै:, क्रीडां निर्मातुमुत्सुका । अभूवं सवयस्काभि-भवनाङ्गणभूषणम् द्वादशाब्दे मंदीया धी-त्रिपुलाऽजायत क्रमात । मदर्थ शिक्षकाः श्रेष्ठाः मत्तातेन नियोजिताः गणितवाचनोल्लेख-गीतनृत्यकलादिषु । वीणादिवादने चैव, पुष्पपादपवर्द्धने वानस्पत्येषु शास्त्रेषु, रसायनविधानके । बुद्धिप्रभावतोऽभूत्र, निपुणाचार्यशिक्षणात जैनधर्मानुरागी मे, पिताऽभूद्वन्सलो मयि । तदिच्छया मया भाव्यं, जैनतत्वप्रवीणया जैनधर्मप्रवीणांश्च, पण्डितान्प्रवरान्पिता । समाहूयाऽन्तिके तेषां, शिक्षणाय मुमोच माम् अणुव्रतानां पश्चानां, गुणवतत्रिकस्य च । शिक्षाव्रतचतुष्कस्य, श्राद्धधर्मस्य भावतः भावनानां मया सम्प-गभ्यासो विहितो दृढः। शुद्धवंशोद्भवानां हि जायते श्रेयसी मतिः ततोऽहं यौवनाक्रान्ता, सञ्जाताऽवयवैः शुभैः। स्नेहसारमबोधश्च, यूनां मोहविधायिनी तदानीं सत्कुलीनानां, धनाढयानां स्वदेशतः । सूनवः प्रार्थयामासु-र्मामुद्वोढुमभीप्सवः
॥१३२ ॥
॥ १३४ ॥
॥ १३६॥
॥ १३८॥
For Private And Personlige Only
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya hasarten Gym
श्रीतरंगवती
कथा
गुणरूपकलाभिर्म, योग्यः कोप्यमिलनहि । मत्तातेन ततः सर्वे, सुधिया विनिवर्तिताः प्रियमण्डलमध्यस्था, दिनान्यगमयं मुदा । विनोदवातया सार्द्ध, सखीभिविमलात्ममिः सारसिका सखी मेऽमृत्-विश्वासस्थानमुत्तमम् । कलानामचलं धाम, प्राणतोऽप्यधिकप्रिया वृत्तान्तं नूतनं भव्यं, सा मां नित्यमचीकथत् । समागत्य महानन्दं, बर्द्धयन्ती शुभाशया सहचर्योऽपराः काश्चि-दागमन्मम सन्निधौ । गृहस्य सप्तर्मी भूमि, नीता ताभिः सहाप्रमे होपरितने भागे, कदाचित्सहचारिणीः । नीत्वाऽऽनन्दरसं साकं, ताभिरस्सदमदद्भुतम रम्पाण्यपश्यं दूरस्था-न्यात्मतुष्टिकराणि च । दर्शयन्ती सखोः सर्वाः, नवीनकौतुकमियाः फलपुष्पाणि मिष्टानं, क्रीडायाः साधनानि च । पितरौ भ्रातरो मा, ददति स्म प्रमोदतः पितरौ विनयाचारा-दानतो मम भिक्षुकाः । बान्धवाः शुद्धतायाव, स्नेहासो मुदं ययुः लक्ष्मीदेवी तथा मेरो, यथा पित्गृहे सदा । भ्रातृपत्नी सखीभिश्व, प्रमोद प्राप्तात्यहम् पोषधस्य दिने नित्यं, सामायिकमनिन्दितम् । अकार्ष धर्मकार्याणि, विधिना व विशेषतः जैनतचानि, विज्ञातु-मगम धर्मवाच्छया । साध्वीनां गणमुख्यानां, सनिधी सेवनोत्सुकाः एवं पित्रादिभिः साक, सदाऽऽनन्दपरायणैः । सुखेन वासरा जग्मु-र्मदीयाः स्नेहबन्धनात अन्यदा मत्पिता स्नात्वा, कृतेष्टदेवपूजनः । विधाय भोजनं स्वच्छ-भव्यवस्खघरः स्थितः
॥१४ ॥ ॥१४१॥ ॥१४२॥ ॥१४३ ॥ ॥ १४४ ॥ ॥ १४५ ॥ ॥१४६॥ ॥१४७॥ ॥ १४८॥
१४९ ॥ १५०॥ ॥१५१॥ १५२॥
॥६॥
For Private And Personale Only
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobahrth.org
Achana ch
agrin Gym
॥ १५४॥ ॥१५५॥
REXXXXSEXXXXXXXXXXXX
गोविन्देन समं वाता, कुर्वन्त्यधिसुता यथा । तथैव मामकी माता, तदानीं पर्यराजत कृतस्नानाऽप्यहं तत्र समर्चितजिनेश्वरा । मातापित्रोः पदाम्भोज, भक्त्या नन्तुं समागमम् विनयेन मया माता-पितरौ वन्दितो मुदा । वाम्पामाशीर्वचो दत्तं, कल्याणं तव जायताम् उपविशात्र वत्से ! त्वं, जनन्यास्तव सन्निधौ । तातेनेति समाहाता, संस्थिताऽहमपि स्वयम् तत्क्षणं चन्द्रमाकान्त्या, भूषितेव शरविशा | कृष्णा बायप्रदेशेषु, भ्रममाव्यामगात्रका पुष्पवस्त्रधराऽस्माकं, मालाकाराङ्गनाऽऽगता । पुष्पगृहाद्विनिम्त्य, धाम्नि च गन्धवासिते विशेषतः सुगन्धं च, सारयन्ती समन्ततः । विनीतवचनाऽऽक्षापा, हस्तपुष्पकरण्डिका सदाचाररता सा मे, पितुर्नत्वा क्रमाम्बुजे । विनीतेवावदच्छिया, मुञ्चन्ती मधुरस्वरम हिमालयस्योचरस्मिन्प्रदेशे मानस सरः। प्रमोदस्याद्धयस्थानं, ग्रीष्मकालनिवासमः इदानी तत्परित्यज्य, हंसश्रेणी समागता । अत्रत्यायां वासभूमो, स्वच्छया मोदते तराम कुर्वन्ति मधुरालापं, सुस्वरं ते सितच्छदाः । शरत्समा मतेत्येवं, सूचयन्ति प्रमोदतः सितच्छद इवेयं दाग, यमुनावटपादपैः । विरलैरागर्म स्वीय, निवेदयति मानवान् नीलाम्बराणि कुरुते, क्नानि सुरमीण्यसौ । पीतवस्त्राण्यसनक-बनानि स्वप्रभावतः श्वेतवस्त्राणि विषम-च्छदारण्यानि साम्प्रतम् । भेष्ठिस्त्वयि प्रसन्नाऽस्तु,सद्भाग्यं ते तनोतु सा
॥१५७॥ ॥ १५८॥ ॥१५९॥ ॥१६॥
॥१६॥
॥१६॥
For Private And Personale Only
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवरंगवती
कथा
॥ ७ ॥
888882
www.kobatirth.org
इत्युदीर्य तथा पुष्प- स्थालः सप्तच्छदै भृतः । अनावृतः प्रमोदेन, मचातस्य करेऽर्पितः प्रासीसर चतुर्दिक्षु तस्मादाल्हादवर्द्धनः । हस्तिमदसमो गन्ध-स्तेषामासीन्महोत्कटः मत्पिता तं सुमस्थालं, प्रभुपूजनकामुकः । मूर्ध्ना स्पृष्ट्रा कियत्पुष्पा - व्यादाय मुक्तवान् पृथक् ततः किपन्ति मह्यञ्च भ्रातुभ्यः कतिचित्तथा । दत्तानि भ्रातृपत्नीभ्यो मम मात्रे कियन्त्यपि सर्वाण्येतानि शुक्लानि, गजदन्तनिभानि च। तथाऽपि मत्पितुर्दृष्टि- रेकस्मिन्कुसुमे ऽपतत् तत्पुष्पं विकसद्धव्यं, सुवासं विपुलं पिता । पीतवर्ण क्षणं किञ्चिदेकदृष्टया व्यलोकयत् द्विचारामिवृत्तः स दत्त्वा मां च तत्सुमम् । हसित्वा मां समुद्दिश्य, जगो मधुरया गिरा प्रेस्व वर्णमस्य एवं सुगन्धस्य परीक्षणे । कुसुमोत्पादने चैव दृश्यसे निपुणा सुते ! तस्माश्वमेतद् वृत्तान्तं स्फुटं जानासि कोविदे !। सितेष्वेषु कृतः पुष्प-मेकं पीतं समेष्वभ्रव कलादक्षेण केनापि, विस्मापनसमीहया । पुष्पोत्पत्ति कलादाक्ष्यं वै तदर्शयितुं कृतम् दाहकैरितरद्रव्यैः, संयुक्तैः फलपुष्पयोः । यथेष्टवर्णस्योत्पत्ति-चित्रकर्मा विधीयते यस्ता पदार्थेषु, प्रफुल्लीकृत्य पादपान् । न्यूनाधिकविधानाय, शक्तिरस्त्यद्भुता किल वर्षासु दृश्यतेऽस्माभिर्भिन्नवर्णाकृतीनि यत् । फलपुष्पाणि लोकेऽस्मिन् परीक्ष्यन्ते धरारुहैः निशम्य तत्पितुर्वाक्यं विलोक्य तत्सुमं पुरा । अबोचं निर्णयं कृत्वा, विनीता पितरं वचः
For Private And Personal Use Only
॥ १६७ ॥
॥ १६८ ॥
॥ १६९ ॥
॥ १७० ॥
॥
१७१ ॥
॥ १७२ ॥
॥ १७३ ॥
॥। १७४ ॥
॥ १७५ ॥
॥ १७६ ॥
॥ १७७ ॥
॥ १७८ ॥
॥ १७९ ॥
11 860 11
88888
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
॥ ७ ॥
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobabirth.org
॥१८१॥ ॥१८२॥ ॥१८३ ॥ ॥ १८४॥ ॥ १८५॥ ॥ १८६ ।।
भूमि वपनकालञ्च, बीजं बीजाङ्करांस्तथा । वृष्टिमुत्करमाश्रित्य, भवन्ति वृक्षजातयः इत्थं विचारणां कृत्वा, कलादशः सुमेऽखिले । समुत्पादयति स्वैरं, नवीनवर्णकाऽऽकृती: परन्स्वस्मिन्सुमे नैत-सम्भवत्यनुमानकम् । यतोऽहं निश्चयाद्वेधि, साप्तपर्णमिदं समम् पीतवर्णोऽस्य नैवाऽस्ति, परं पदरजः कणाः । संलग्नाम्तेन तत्पुष्पं, किश्चित्पीतमभृमनु तातेनोक्तं मदीयेन, वाटिकामध्यवर्तिनः । सप्तच्छदस्य कुसुमेऽब्जरजःसंभवः कुतः तात ? घेतस्य मन्धोऽयं, वर्तते बहुधाऽमलः । तत्राऽप्यम्बुजसद्गन्धो ज्ञायते बहुलः स्फुटः तस्मादनुमितिः कार्या, सितीभूतमिदं सुमम् । पङ्कजस्य रजोव्याप्त्या, पीतवर्णमभूल्पितः ? सप्तच्छदसमीपेवाऽमविष्यच जलाशयः । शरद्यस्यां पयोजानि, बहूनि स्फुटितानि वै पीतेन रजसा तत्र, रक्तेषु कमलेषु च । मधुस्वादरता भूरि-सरघाः संस्थिताः खलु उड्डीय तास्ततो यान्त्यः सप्तच्छदसुमे सिते । निजपक्षेषु संलग्नान रेणून क्षिप्त्वा गताः पुरः अनेनैव क्रमेणेदं पुष्पं पीतप्रमामयम् । जातमस्ति न चाऽन्योत्र, संभवो विद्यते पितः। मदुत.वचनस्याऽस्य, प्रतीतियों भविष्यति । अस्माकं पुष्पलाविन्याः, कथनेन पितः ? स्फुटा मदीयं वचनं श्रुत्वा, स्पृष्ट्वा करतलं पिता । माले मे प्रेमतोऽवादीच्छोभनं तदुदीरितम् । मयाऽप्यनुमितश्चैत-त्तथापि त्वां परीक्षितुम् । अयं प्रश्नो मयाऽकारि, बुद्धिसाध्योऽतिकौतुकात
॥१८८॥ ॥१८९॥ ॥१९ ॥
॥ १९२ ॥ ॥ १९३ ॥
For Private And Personale Only
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kebatirth.org
Anha
G
श्रीतरंगवती
कथा
॥ १९५॥ म १९६॥ ॥ १९७ ॥ ॥ १९८॥
BEEEEERSORRRRRRR
इदानी लग्नयोग्या त्वं, जाताऽसि निश्चितं सुते ! । तव योग्यं वरं श्रेष्ठ-मानयिष्ये गुणाकरम् अस्मिन्नवसरे माता, जमाद पितरं मम । सप्तपर्णतरं द्रष्टुं, मदिच्छा वर्चते भृशम् तातेनोक्तं रमावृन्दः, साई गच्छ यथेच्छया । बहिःसञ्चरणाल्लामो-भविष्यति तवाऽपरः गृहाधिकारिणं तात-स्ततो ज्ञापयति स्म मे । उद्यानिकायै श्वः प्रात- टिकायां गमिष्यति स्त्रीमण्डलं महानन्द, चिकीर्षु प्रीतिपूर्वकम् । तस्मात्सर्वव्यवस्था त्वं, कास्यस्त्र यथोचितम् भ्रातृपत्नीसखीदासी-भिश्चाई बहुमानिता । भोजनस्य प्रदात्री मे, दासी प्रोवाच मामिति भोजनाऽवसरो जातः, कुरुष्व भोजनं स्वसः । । निरिन्धनो यथा वहि-नश्यत्पन्न विना वपुः यथा कालं हि भोक्तव्यं, समयान्तरभोजनात् । व्याधयो विविधा देहे, संक्रामन्ति प्रमादिनाम निशाकरपयाश्वेता-क्षरेयी गुणवत्तरा । आस्वादितो मया पाको-घृतखण्डमयस्ततः हस्तप्रक्षालनं कृत्वा, गृहीत्वा मुखवासकम् । हस्ताऽऽननोपरि तैल-मईनं च मया कृतम् गमनं काटिकायां श्वः, स्मरन्त्यः पुरयोषितः । आनन्दमेदुरारम्भह, रेजिरे तुष्टमानसाः तदानीमेव विश्राम-निद्राजिघृक्षया निशा । समागता च शुद्धा सा, मया नीताऽपि मोदतः निद्रा यदा नयनयो-रागता दीपतेजसा । तदानीमेव पर्यङ्के, सुप्ताहं सुखदायके समुत्थाय प्रभातेऽहं, हस्ताऽऽननषिशोधनम् । विधामाईत्प्रणामञ्चा-स्मरं साधुगुणावलीम
॥ २० ॥ ॥ २०१॥ ॥ २०२॥ ॥ २०३ ॥ ॥ २०४ ॥ ॥ २०५॥
BREEEEEEEXXXXEXXEEEEEEEXHEN
॥ २०७॥ ॥२०८॥
॥८
॥
For Private And Personale Only
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
संक्षेपतस्ततः कृखा, प्रतिक्रमणमुत्सवात् । कृताऽऽवश्यकसत्कृत्या, व्यस्मरं दुरितक्रियाम् बहूनां योषितां रात्रि-दुर्लध्याऽभूत्ततो निशाम् । शपन्ति स्म व्यलीकञ्च, बदन्ति स्म परस्परम् कतिचिच्च खलद्याने, दध्युरेवं वराङ्गना । किं किं विलोकयिष्यामः, सरःस्नानात कियान्मदः इत्यादिकं वदन्त्यस्ता-योषितोऽखिलयामिनीम् । न्यवर्तयननेकेषु, विषयेषु स्थिराशयाः उद्यानिकाव्यवस्थाञ्च, विधातुं मुख्यकार्यकृत् । किङ्करानुचिताँल्लावा, यामिन्यन्तेजगमदनम् पूर्वाऽऽकाशाम्बुजं कुर्वन, प्रफुल्लं नभसि व्रजन् । सूर्योऽपि शिखरं प्रापत पूर्वाद्रः कर्मसाक्षिक: काश्चन योषितो भिन्नवर्णानि बसनान्यधुः । कार्पासानि च कौशेया-न्यतिस्निग्धानि का अपि बहुमूल्याम्बरधरा-नानाऽलङ्कारभूषिताः । नवयौवनसंपन्नाः स्त्रियो निश्वकमुबहिः मम माता तदानीं सन्मुहूर्ते सज्जिताऽभवत् । भव्यालङ्कारसद्वेष-वृद्धनार्यनु संगताः तदनु प्रमदाः सर्वाः, समानवयसः शुभाः । प्रचेलुश्वश्वलाश्वेतो-हारिण्यो हरिणीदृशः नू पुरमेखला भूषा-ध्वनिगर्जद्गृहाङ्गणम् । संघप्रयाणसमये, वायनादमिवाऽकरोत् संघप्रयाणवृत्तान्तं, मन्माता मामचीकथत् । सखीमिः सप्रमोदामिमहोत्सवचिकीर्षया अनेकरत्नभ्वामि-भूषिता अभवन्मम । सहचर्योऽहमेताम्योऽम्यधिकाऽजताऽभवम् महामूल्यैरलकार-स्ताम्यस्त्रिगुणदीप्तिका । चम्पकस्य यथा पुष्पं, कान्तिमत्यभवं तदा
। २०९॥ ॥२१ ॥ ॥ २११ ॥ ॥ २१२॥ ॥२१३॥ ॥ २१४॥ ॥२१५॥ ।।२१६॥ ॥ २१७॥ ॥ २१८॥
EXXXXXXXXXXEEEEEEEEXXXXX
॥ २२०॥ ॥ २२१ ॥ ॥२२२॥
For Private And Personale Only
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobahrth.org
Achanach
again Gyaan
श्रीतरंगवती
कथा
ततो मण्डलमध्येऽहं, सखीनां मोदधारिणी। प्रासादस्याऽङ्गणं भव्य-माश्रयं सुन्दराकृतिः विलोकितं मया तत्र, प्रमदावृन्दमुत्कटम् । स्वर्गनारी समानाऽऽमं, दीव्याऽऽभरणभूषितम् स्वकीयपरिवारेण, वेष्टितं सुसमाहितम् । अहमहमिकया गन्तुं, प्रवृत्तं वाटिका प्रति अनयरस्नराजीमिः, कलितललिताम्बरम् । वीक्षमाण चलदृष्ट्या परस्परमिवाऽसकत रथः सारथिना सज्जी-कृतोऽभूत् मत्कृते वरः । मां विलोक्य स्थितस्तत्र सोऽप्यवोचत कृतवरः भगिन्यत्र समागच्छ, त्वदर्थ श्रेष्ठिना रथः । सुन्दरोऽयं त्वदीयेन, जनकेन विनिश्चितः एवमुक्त्वैव तेनाऽऽशु, स्यन्दने विनिवेशिता । आस्तृताजयंमाणिक्यास्तरणे मन्दरध्वनी मम दासी सखी चाऽसिन्, रथे सारसिका अपि । उपविष्टाऽऽथ सा क्षुद्रघंटिकानादितोऽवजत अस्माकं रक्षकः पश्चा- भिजवेषधरोऽचलत् । पार्श्वतो योषितां वृन्दै-गिर्गोऽपि दुर्गमोऽभवत संघोऽस्माकं राजमार्ग-मध्येऽचालीत्प्रतिस्थलम् । जनास्तु वृन्दशो भूत्वा, मुहुरस्मान् व्यलोकयन योषितो निजहाणां, वातायनगताऽऽननाः । व्यलोकयन्त भूयोऽपि, तृप्तिहीनाशयाः समाः विलोक्य तत् तथाश्चर्य-चकिताऽऽसं जनाऽन्तिके । लोका अपि महामार्गे, गृहवातायनेषु च रत्नानि जडितानीव, स्थिरीभूता जडाशयाः । निरीक्ष्याऽस्मान् व्यराजन्त युगपन्न्यस्तदृष्टयः रथस्थां बजी लक्ष्मी, स्वर्गीव जनता समा। मामेव प्रेक्षितु लग्ना ह्येकदृष्ट्या त्वरान्विता
॥ २२३ ॥ ॥ २२४ ॥ ॥ २२५॥ ॥ २२६॥ ॥ २२७॥ ॥ २२८॥ ॥ २२९ ॥ ॥ २३०॥ ॥ २३१॥ ॥ २३२॥ ॥ २३३ ।। ॥ २३४॥
॥ २३६॥
॥९
॥
For Private And Personale Only
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharyasha.KailasmagarsunGyanmandir
BEEXXXXEXEEEEEEEEEEEXXXX
यूनां च नगरस्थानां, हृदयान्यदस्तिथा । विलोक्य मां रुजा ना, विषमावुधपीडया तेषां यथा प्रताऽऽधीनां जीवनाशाऽपि दुर्लभा । कामातुरा नरा लोके, किमापत्ति न यान्ति हि युवतीनां विचित्रेच्छा, समद्यदि सौभगम् । स्वर्गस्थमिष्यतेऽस्माभि-स्ताग्भिर्भाव्यमन्वहम् मदीयमुखसौन्दर्या-द्रपलावण्यतस्तथा । राजमार्गस्थलोकोपि चकितोऽभूदिवाऽखिलः अतिसुन्दरदृश्येन, मागशोभा प्रथीयसी । विहायसि विशालेऽपि, न ममो मानवर्जिता तत्राऽपि मामकीनं तु, सौन्दर्यचित्तमोहकम् । वृत्तान्तमिदमाचख्युः सख्यो माऽङ्गिमुखाच्छ्रुतम् । उद्यानद्वारमायाताः, क्रमेण वयमुत्सवात् । वतेरुः स्यन्दनात्सर्वा-योषितः स्वजनान्विताः तत्र प्राहरिकान्मुक्त्वा, वयं पर्यटितु बने । निर्गताः स्वेच्छया सर्वा-रम्यबल्लीवितानके नन्दनोद्यानवतिन्यो देव्य इव पुराङ्गानाः । विहाँ विश्वतश्वेरु-र्यथेच्छं पादपान्तरे प्रफुल्ला भूरुहोज्योऽज्य, मिलित्वा गोपुराऽऽकृतिम् । भेजिरे तदधो भूत्वा, व्रजन्ति स्म पुराङ्गनाः वृक्षाणां पुष्पिताः शाखाः, रम्याश्चिच्छिदुरुत्सुकाः । प्रमदाः स्वेच्छया क्रीडा, कुर्वन्स्यश्च पदे पदे तस्मिन्नवसरे माता, जगाद मम सोत्सवम् । मत्पुत्र्याकथितं सप्त-च्छदं वीक्षामहे वयम् सरोवरस्य तीरेऽत्र, विकसत्कुसुमश्रियम् । स्थितं सौरभ्यसंपन्या, वासयन्तं दिगन्तरम् निशम्य तद्गिरं सर्वाः, वनिता मुदिताऽऽननाः । तां दिशं गन्तुमातेनुः, प्रक्रम क्रमतः शुभाम
॥२३७॥ ॥ २३८॥ ॥ २३९ ॥ ॥ २४०॥ ॥ २४१ ॥ ॥२४२॥ ॥ २४३ ॥ ॥ २४४॥ ।। २४५॥ ॥ २४६॥ ॥ २४७॥ ॥ १४८॥ ॥ २४९ ॥ ॥ २५०॥
EXXXXEKKEEKEEEEEEEEEEEEEEX
For Private And Personale Only
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kend
श्रीवरंगवती
कथा
॥ १० ॥
www.khatirth.org
सखीभिः स्यन्दनाचा-मवतीर्य च सस्पृहम् । मुग्धचित्ता विशालाक्षी, प्रविष्टोद्यानभूमिकाम् शरदृतुमधिप्राप्यो - यानं पुष्पाण्यनेकधा । भ्रूषयामासुरुन्निद्रा-यमेयगन्धमाखि वै प्रतिपुष्पं परिभ्राम्यन्, द्विरेफ इव मुग्धधीः । परितो भ्रममाणाऽहं नाडल मे तृप्तिमुत्तमाम् विहगानां विचित्राणा-मनेकेषां निनादिनाम् । निशम्य मधुरालापान् कर्णौ मे तृप्तिमीयतुः द्यूतकारा यथा क्षीणा - विषण्णाः स्युर्निजोद्यमात् । तथाऽऽरम्भे वसन्तस्य, क्षीणवर्हा मयूरकाः संभोगविखाव्याः स्निग्धकण्ठा इतस्ततः । भ्रमन्तो भूरुदां मध्ये, दृष्टिगोचरमागताः कदलीनाश्च तालानां मण्डपा गहराणि च । बालानां क्रीडनार्हाणि, व्यलोक्यन्त विशेषतः कुसुमैः श्वेतवर्णानां सप्तच्छदधरारुहाम् । सन्निधौ नीलवाणाश्च रक्ताऽशोका बमासिरे पर्यन्त्यो वयं रम्यमेकं सप्तच्छदं तरुम् । व्यलोकग्राम पुष्पौषैर्नश्रीभूतं समन्ततः श्वेतभा समापन्नाः, शाखास्तस्य सितैः सुमैः । अब्रजनिम्नभावत्वं, सरघाणां कदम्बकैः तेनैष नीलश्रृङ्गार - भूषित इव सर्वतः । अदृश्यत मनस्तृप्ति-दायकः सर्वदेहिनाम् वायुना पतितान्यस्य पुष्पाणि भुवि वायसाः । श्वतप्रक्षणपिण्डान्वा मत्खोडीय विचक्रमुः सौगन्धिकं बृहत्पुष्पं, रजतामत्र कान्तिभाक् । मयैकं तस्य वृक्षस्यावचितं लब्धचेतसा तदैकं सरघावृन्दं, पङ्कजामोदलोलुपम् । समागतः समाकृष्टं, मदीयं मुखपङ्कजम्
For Private And Personal Use Only
।। २५१ ।।
।। २५२ ।।
॥ २५३ ॥
।। २५४ ।। ।। २५५ ।।
।। २५६ ।।
॥ २५७ ॥ ।। २५८ ।। ।। २५९ ।।
।। २६० ॥
।। २६१ ।।
।। २६२ ।।
॥ २६३ ॥
॥ २६४ ॥
Acharya Shri Kailassagarsu Gyanmandir
॥ १० ॥
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.batirth.org
मदीयं मुखमायान्त्यस्ता मया वारिता अपि । मरुञ्च ललतावन्मे करं व्याधूय संश्रिताः तत्पीडया मया चक्रे, पूत्कारस्य परम्परा । निवृत्तगमना चाहं, व्यग्रचिचाऽभवं क्षणात् सरधाध्वनिभिश्चैव, विराधैर्वयसां तथा । मदीयोद्घोषणां काऽपि नाऽशृणोत्सहचारिणी अश्वफेनाऽधिकनिग्धोत्तरीयाञ्चलतो मया । मुखमाच्छादितं तेन, निवृत्ता मधुमक्षिकाः इतस्ततः प्रधावन्त्या - रत्नालङ्कृतयो मम । विशीर्य त्रुटिताः काचित् पतन्ति स्म घरातले आरोपिताऽनङ्गाबाणा, मञ्जुला कटिमेखला । कटिभ्रष्टाऽभवत् क्वाऽपि, वनोद्देशे मनोरमे तथाऽपि वेदना व्यग्रा, भूषणान्यस्मरन्त्यहम् | कदलीमण्डपं भव्यं धावित्वा प्राविशं क्षणात्
।। २६५ ।।
॥ २६६ ॥
।। २६७ ।।
।। २६८ ।।
॥ २६९ ॥
॥ २७० ॥
॥। २७१ ॥
२७३ ॥
तत्र स्थिता सारसिका, सखी मे सहचारिणी (हृदयङ्गमा) । विलोक्य मां स्निग्धनेवाः, सान्त्वयामास सत्वरम् ॥ २७२ ॥ कथितश्च तथाऽद्याऽपि वल्गिता मधुमक्षिकाः । सखि ! चिन्ता त्वया काचित् नैव कार्या तथाविधा ॥ यं दृष्टुमागताः सर्वा वयं विस्मितमानसाः । तस्य सप्तच्छदस्याऽऽशु, सन्निधौ संगता मुदा सरोजगन्धहारिण्यो-नेकशो मधुमक्षिकाः । तस्मिन् तरुवरे तस्थु-रुत्पतन्त्यो मुहुर्मुहुः पटलं पूर्णचन्द्राभं त्यक्त्वैता मधुमक्षिकाः । शारदानि सुमान्यत्र समागत्य समाश्रिताः मत्सार्थवनिता यास्तु, पुरा तत्र गतास्तरौ । ताभिस्तत्पुष्पमुग्धाभिस्तच्छाखा अपि खण्डिताः मत्सरूपाः स्कन्धमाजग्व्य, वामहस्तेन चाग्रतः । शनैः शनैरहं याता, लक्षीकृत्य सरोवरम्
11 208 11 ॥ २७५ ॥
॥ २७६ ॥
।। २७७ ॥ ३। २७८ ।।
For Private And Personal Use Only
IXTEEEEEEEEEEEEEEERS
Acharya Shri Kasagarsun Gyanmandir
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीतरंगवती कथा
॥ २७९ ।। ॥ २८० ॥
来来来来来来来来来不重要事
अनेकजातिपुष्पाणि, व्यकसन तत्तडागके । उद्यानभूषाभूतानां सरस्तटविलासिनाम् विहगानां कलवान-नादिता सकला स्थली । सरघाभिश्च सर्वत्र, व्याप्तोद्यानधराऽभवत् ।
रक्तानि पुष्पाणि विभातकालं श्वेतानि पुष्पाणि निशाकराभाम् ।
नीलानि पुष्पाणि च वादेलानि, संस्मारयन्ति स्म मनीषिणां द्राक् सरघाणां च हंसाना-मव्यक्तध्वनिभिर्भृशम् । अन्तरिक्षमभूद् व्याप्त. समन्तादिक्षु विस्तृतैः सरस्तरङ्गवृन्दोषु, कुसुमानि मरुद्गणैः । दोलायन्ते स्म कृष्टानि, विचित्रवर्णमानि च प्रजल्पन्तश्च कारण्डा-रथाङ्गमिथुनानि च । सितच्छदधरा हंसा-अदृश्यन्त मया तदा पीताम्बुजरजोलुब्ध-सरधामण्डलानि च । सुवर्णभाजनस्थानि, नीलरत्नानि वा बभुः कार्यासस्वच्छसत्पक्षाः, सकतक्रीडनोत्सुकाः । शरद्धास्य समं स्वीयं, हास्य व्यामिश्रयभिव ततोऽहं चक्रवाकानां, स्नेहसंबद्धचेतसाम् । मिथः प्रेम्णा प्रसिद्धानां, मिथुनानि व्यलोकयम् पीतवर्णानुषङ्गेण, रक्ताङ्गाश्चक्रवाककाः । रमणीस्तनसादृश्य, दधुः कय्रवर्णकाः कासारे रक्तवर्णानि, स्निग्धपत्राणि यानि च । विष्टराऽऽभानि तेष्वेते, चक्रवाका विशश्रमुः कियन्तश्च कियत्पत्रा-सनेषु लोहिताङ्गकाः । स्थानाः स्नेहतो लुब्धाः सञ्जाता इव संस्थिताः स्वकीयवनितास्नेह, पोषयन्तः समन्ततः । श्रमदाभिः समं सङ्गो-देहिनां जायते प्रियः
॥२८१ ॥ ॥ २८२ ।। ॥ २८३ ॥ ॥ २८४ ॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥ २८६ ॥ ॥ २८७ ॥ ॥ २८८॥ ॥ २८९॥ ॥ २९ ॥ ॥ २९१ ॥
| ॥११॥
For
And Persone Oy
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ २९२॥ ॥ २९३ ॥ ॥ २९४ ॥ ॥ २९५॥
यदैतस्व तडागस्य, शोभामैक्षेऽहमद्भुताम् । तदानीं चक्रवाकानां, मियः स्नेहमनल्पकम् विलोक्य मामके चित्ते, विस्मिते व्यस्फुरन्स्वपम् । वितर्का विविधाश्चित्रा-अगम्या कतिचिन्नवाः जन्मन्यस्मिन्नानुभूता, कल्पना काऽपि चेतसि । समुद्भूताऽद्भुताकाले, मत्कर्मजनिता तदा तद्विचारनिमनायाः, पूर्वजन्मस्मृतिर्मम । साक्षाद् बभूव तत्कालं, मूळ प्राप्ता च वेगतः अचेतनशरीरेव, भपीठे पतिता क्षणात् । लुलोठ वेदना ऽहं, विनष्टदैहिकस्मृतिः यदाहं चेतना प्राप्ता, तदा मे चक्षुषोर्ममौ । अश्रुधारा न चित्तश्च भृशं विह्वलतामगात् लब्धसंज्ञा मिलन्नेत्रा, क्षणं वाग्वैभवोज्झिता । विलपन्ती विमूढात्मा, हदि पूर्णितलोचना तस्मिन्नवसरे सद्यः, सखी मे प्रियकारिणी । पद्मपत्रपुटं कृत्वा, जलमानीय शीतलम् सिपेच पीडया , हृदयं चेक्षणद्वयम् । मद्भक्तितत्परा ह्यासीत्, मदीयहितमानिनी समुत्थाय ततोऽदूरे, कदलीमण्डपस्थिताम् । नीलोत्पलसमां कृष्णां, गत्वा धीलामुपाविशम् पश्चात्सा मे सखी शुद्ध-हृदया दुःखमागिनी । स्वसः ! किं जायते दुःखं, बृहीति पृच्छतिस्म माम् भ्रान्तचित्ता कथं जाता, श्रान्ताऽसि वाऽध्वखेदतः । सरवादशतः पीडा, संजातेयं वद स्फुटम् अश्रूण्यमार्जयत्सा तु, अमान्ति मम नेत्रयोः । अतिप्रेम्णा विमुश्चन्ती, चारधारा स्वचक्षुषः भगिनि ! ते कथं मूर्छा, समायाताऽति दुःखदा। यज्जानासि वद त्वं मां, तदुपायं करोम्यहम्
॥ २९७॥ ॥ २९८॥ ॥ २९९ ॥ ॥ २० ॥ ॥२०१॥ ॥ २०२॥ ॥ ३०३ ॥ ॥३०४॥
XXXXXXXXXXXXXXSEXKESREE
For Private And Personale Only
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
Anha
G
भीतरंगवती ।
कथा ॥१२॥
॥३०७॥ ॥३०८॥ ॥३०९॥ ॥३१ ॥
8333OOOOOOOOOBSEEKERS
पीडयते न वपुस्ताव-त्रैव कार्य विलम्बनम् । व्याध्युपशमने सद्यचिकित्सा भिषजां मता अयं रोगो महानस्ति, तीव्रपीडाविधायकः । उपेक्षा नैव कर्तव्या,हितमिच्छद्भिरात्मनः यावत्साध्यो भवेद्रोग-स्तावत्कार्य चिकित्सनम् । अन्यथा क्षतजापीडा, कुठारघाततां व्रजेत सख्या योग्यं वचः प्रोक्तं, तया श्रुत्वा मयाऽपि तत् । प्रतिवाक्यं यथायोग्य, कथितं वल्गुचेतसा स्वसः ! किश्चिद्भयं नास्ति, न मे संभ्रमणाऽऽगमः । न श्रमो मेऽजनि क्लिष्टो-नदष्टा मक्षिकागणैः तावत्सा माऽवदत्तर्हि रामचापमिव चितौ । नीरङ्ग पतिता मूर्छा-मवाप्य कथमीटशीम भगिनि ! त्वं विजानासि, मदीयं सर्वचेष्टितम् । प्रियसख्यस्मि ते नून, कि वदामि तवाअतः नीलरलोपमे रम्ये, गह्वरे तरुमण्डिते । सारसिका सखी प्रोक्ता, मया विश्वासमाजनम मरुताहतवल्लीव, मच्छों प्राप्य धरातले । पतिताऽहं अविष्यामि, तद्दवृत्तान्तं निजं स्वयम् आवाल्याचं सखी मेऽसि, सुखदुःखविभागिनी । वेत्सि त्वं मम गोप्यं तत, वक्ष्ये मददयस्थितम् किन्तु कस्याऽग्रतो नैव, कथनीयमिदं त्वया । वृत्तान्तं शपथो मेऽस्ति, मोपनीयं निजात्मवत रहस्यं मामकीनं त्वा-मन्तरा वेत्ति कोऽपि नो । अतःकि गोपनीयं मे, त्वदने कापि संभवेत् ! ततः सारसिका स्पृष्ट्वा-मत्पादाविदमब्रवीत् । कथयिष्यामि नो कस्या-प्यो त्वच्छपथोऽस्ति मे ततोऽतिवल्लभां प्रोचे, सखी सारसिकामहम् । भरिकष्टं ममेदानी, वृत्तान्तं पूर्वजन्मनः
॥३१२॥ ॥३१३॥ ॥३१४॥ ॥ ३१५॥ ॥३१६॥ ॥३१७॥ ॥३१८॥ ॥३१९॥
॥१२॥
For Private And Personale Only
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achh
agan Gyaan
पूर्वजन्मवृत्तान्तम्
नयनाथप्रवाहेण, वेदनोत्पादकं महत् । बहिनि:सारितं गुप्तं, कि कुर्वे दुःखिता भृशम् मम भर्नुवियोगस्य, स्मरणं जातमस्ति मे । तदःखेनार्दिता चास्मि, हृदयोद्भेदकारिणा यादृक् स्नेहोऽनुभूतो मे, यद्दखं मुक्तात्यहम् । तत्सर्व ज्ञापयिष्यामि, सावधानमनाः शृणु सखी मे पार्श्वतोऽधोग, श्रोतु वृत्तान्तमद्भुतम् । तस्थावश्रुमुखी चाह, प्रारभे मत्कथानकम् 'भस्माकं देशतोऽद्रे, अङ्गदेशोऽस्ति वित्तवान् । शत्रुस्तेनभयं यस्मा-दरादेव पलायितम् दुष्कालजनिता पीडा, यस्मिन्न श्रयते जनैः । निरीतिभावमाश्रिस्य, राजते देशराडिव सम्पदः सर्वदा सर्वा-मिथो मित्रत्वमागताः । वसन्ति स्म मुदा यस्मिन्नकीभावगता इव विपदो न पदं यस्मिन, दधते कृशतां गताः । आरोग्य जनिताऽनन्द-मङ्गलानि पदे पदे तस्मिन् चम्पाऽभिधा रम्या, नगरी वर्तते शुभा । यस्यामनेक आरामाः पुष्पवल्लीविराजिता: सरांसि विस्तृतान्यासन्, संभृताम्बूनि भरिशः । निर्मलानि विराजन्ति येषु पङ्कजपङ्क्तयः महेभ्या यत्र राजन्ते, नाना वैभवशालिनः । जितस्वर्गिसुखा नित्यं, पूर्णीभूतमनोरथाः तद्देशमध्यतो गङ्गा, वहते जनपावनी । यस्यास्तद्वयेऽनेक-नगरपामकर्वटाः भ्राजन्ते भूतिसम्पमा-भूमिभूषणकारकाः । स्वर्गिसम्पत्तयो येषा-मग्रे विच्छापतां गताः पतत्त्रिणां च वृन्दानि, मोदमानानि नित्यशः । पवित्रां यां निषेवन्ते, कमलाकरमण्डिताम्
4॥ ३२०॥ ॥ ३२१ ॥ ॥ ३२२॥ ॥३२३ ॥ ॥ ३२४॥ । ३२५॥ ॥ ३२६॥ 41 ३२७॥ ।। ३२८ ॥ ॥ ३२९ ॥ ॥ ३३०॥
SEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
।। ३३२॥
For Private And Personlige Only
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
भीतरंगवती (8)
कथ!
॥ १३ ॥
www.kobarth.org
सागर प्रियपत्नीव, रंहसा प्रतिधावति । साऽऽपगा स्वच्छपानीया, हंसश्रेणीनिषेविता कादम्बको रम्यः, कुण्डलानीव राजते । यस्याः सितच्छद श्रेणी, रसनेव विभासते चक्रवाकयुगं यस्याः, स्तनयुग्ममिवाऽस्ति सा । रङ्गतरङ्गमानाभि- ईसन्तीव विलोक्यते यस्यास्तटेगजा मत्ता - वृषभा उज्ज्वलाङ्ककाः । व्याघ्रा वेदामृगा भूरि-भयदा सन्ति चित्रकाः जल्लोपरि तरन्तश्च पक्चरक्तघटा इव । युगलानि रथाङ्गानां, रमन्ते परया मुदा
अन्ये च पक्षिणोऽनेके, जलमध्य विहारिणः । भ्रमन्ति चिन्तया हीनाः, स्वतन्त्रा स्वेच्छयाऽनिशम् सख्यहं प्राग्भवे तत्र रक्तपीतच्छदान्विता । चक्रवाक्यभवं सौख्यं, स्वतन्त्रा मुक्तवत्यहम् चक्रवाकेषु यत्प्रेम प्रचलं स्थैर्यसंयुतम् । तादृशं नास्ति लोकेऽस्मिन्कुत्राऽपि स्नेहबन्धनम् मत्पतिस्तु चलच्छीर्षः कन्दुकाऽऽभशरीरकः । प्रसिद्धोऽभूत्समस्तेषु वयःसु जलचारिषु प्रवीणस्तरतां मध्ये, कोरण्टपुष्पसुन्दरः । नीलो रोमविहीनौ तत्क्रमी नीलाम्बुजोपम यावज्जीवं स्वभावोऽभूत् तस्य सिद्धतपस्विवत् । सरलः स्नेहसम्बद्धमानसस्य दयामयः क्रोधावेशस्तु निर्दग्धो प्रागेव तस्य मूलतः । प्रभावश्च तदीयो वै वर्ण्यते किमतः परम् प्रभाते लोहिते टेन समं वर्त्तुमना अहम् | उड्डीय स्नेहसम्बद्धा व्यहार्ष गगनाङ्गणे दाम्पत्यप्रेमतो नित्यं वियोगं सोढुमक्षमों । अवसाव सवाssवां मिथः सोख्याऽभिलाषिणौ
For Private And Personal Use Only
॥ ३३४ ॥
।। ३३५ ।।
।। ३३६ ।।
॥ ३३७ ॥
॥ ३३८ ॥
।। ३३९ ।।
॥ ३४० ॥ ॥ ३४१ ॥
॥ ३४२ ॥
॥ ३४३ ।।
३४४ ॥
॥
॥ ३४५ ॥
॥ ३४६ ॥
॥ ३४७ ॥
Acharya Shri Kasagarsun Gyanmandir
॥ १३ ॥ -
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya hasarten Gym
SEEEEEEEE
विचित्रमधुरध्वानैः श्रोत्रश्च हृदयाम्बुजम् । मोदयन्ती तथाऽजसं वीनामम्बरचारिणाम अन्योन्य सुखमिरछन्तावकैकमनुसारिणी । साध क्रीडा प्रकुर्वाणावावां न कापि विच्युतौ पागारतडागेषु सरित्सु सैकतेषु च । विपिनेषु तथा सत्यस्नेहलः सहचारिणी अकार्य क्रीडनं यत्र तत्र निर्मानताजु । विशुद्धमानसौ मन्द मन्दं क्षेमकरौ मिथः अन्यदाऽऽवां सहोत्पार्जलचारिविहङ्गमैः । गङ्गाम्बुसंभृते रम्ये कासारे मुदितौ स्थिती तावत्सूर्यातपातप्तो वनचारी मतङ्गजः । स्नातुकामो नदीतीरे वेगेनाऽऽशु समागतः नरेन्द्रमाग्यवत्तस्याऽचलता श्रवणो मुहुः मृदङ्गबद्ध्वनिश्चापि निःससार धनैः शनैः कदाचिद्राक्षसप्रख्यः सोऽतिमीतिप्रदायकम् । मेघनादसमं नादं चक्रिवान चक्रवद् भ्रमन मदवारिस्रवद्गण्डः शुण्डादण्डमितस्ततः । भ्रामयन कापि बभ्राम जलक्रीडाचिकीर्षया सप्तच्छदसमानेन मदगन्धेन सर्वतः । दिशः सुरमयामास चतस्रः स मरुद्धतात् तत्पश्चात् कुञ्जरो मत्स्तटात्तस्या रयाकुलः । वतीर्णश्च पिपासातैः पयःपानविधित्यया सैकते पादपद्धत्या गङ्गायाः कटिमेखलाम् । रचयन्निव सद्भक्या गजेन्द्रः स व्यलोक्यत उदधर्महिषी रम्या गङ्गा तस्माद्भयाकुला । कल्लोलान स्वान समादाय धावन्तीव व्यदृश्यत पीतवारिस शुप्डेन फूत्कृत्योच्छालयन जलम् । वादलाच्छादितां चक्रे सरितं तां क्षणागजा
॥ ३४९॥ ॥३५०॥ ॥३५१॥ ॥ ३५२॥ ॥ ३५३॥ ॥३५४॥ ॥ ३५५॥ ॥३५६॥ ॥ ३५७॥ ॥३५८॥ ॥ ३५९ ॥ ॥३६० ॥
E EEXXSEX
For Private And Personale Only
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीतरंगवती
कथा ॥१४॥
11३६२॥ 4॥ ३६३ ॥ ॥३६४॥
| ३६६ ॥
SEXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
ततोऽगाधे प्रवाई स प्रविष्टोऽधस्तले मुदशा । करेग निजपृष्ठे चावायत् तत्प्रवाहकम्
आपगायास्तरङ्गान स तथोड्डायितवान् महात् । अस्मदाश्रितकासारमागतास्ते समन्ततः करो/करणादोष्ठजिह्वाभिर्विवृताननम् । अञ्जनाद्रेः सुशोभायां जिगाय सैन्दुरी दरीम् मदीयस्वामिना सार्थ सावधाना नभस्तलम् । त्वरितमग त्रस्तविहगान्तवत्तदा ततो नद्या विनिःसृत्य कुञ्जरो निजामनि । यथेच्छाऽतिविश्वस्तो गच्छति मदराजितः तदानीं पुष्पमालाभिभूषिताङ्गो धनुर्धरः । यमदूतसमस्तत्र युगाऽऽखेट आगतः अनुपानक्रमो व्याघनखरो दीवटेष्ट्र कः । अतीवडगावः स ददृशे चित्रलोचनः दृढशिलातलोरस्कः प्रत्यश्चेव करावुभौ । धनुषो बचाद् दीवा भोगिभोगसमाकृती तस्य श्मश्रुग्भूद्रक्ता स्निग्धकान्तिविशेषतः । विदीष्ठियुगस्यापि बलिष्ठां समधिष्ठितम् प्रचलन्मस्तकं तस्य किञ्चिद्वक्रकचाचितम् । केशान्ता नागजिह्वाभा अलक्ष्मन्त च दूरतः तिग्मांशुरश्मिजालेन संतप्तावपुराकृतिः । तपासीच्छयापला भूरिभूरिशोथेविराजिनः तस्मात् स राक्षपाऽऽकार: पृष्ठबद्धतुणीरकः । यमदूत इस क्षुइचेष्टितोऽलक्ष्यत ध्रुवम् पर्यधत्त शरीरे म व्याघ्रचर्म भानकम् । मपीकजजरेखाभिरिव लाञ्छितमन्तरा व्याधः स तं गजं दृष्ट्वा तामेकं समाश्रयत् । धाविना विपदुन्पनी, समारोहममीहया
॥ ३६८॥ ।। ३६९ ॥ ॥ ३७०॥ ॥३७१॥ ॥ ३७२ ॥ ॥ ३७३॥ 4॥ ३७४ ॥
EXXXEXXXX
॥१४॥
For Private And Personale Only
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
ततो बाढं समाकृष्य धनुप्पारोप्य वाणकम् । लक्ष्यीनकार नागं तं सावधानतयाऽसुधीः भ्रष्टलक्ष्यः स पाणस्तु दुर्भाग्ययोगतो व्रजन् । सन्मुखमुत्पतन्तं मे भर्तारमलगद् भृशम् शरेण तेन तत्पक्षोऽच्छिद्यताम्बुजनालवत् । साध तेनापतत्सोऽपि मूर्छा प्राप्प जलान्तिके मद्भर्तुर्वेदना सोढुमक्षमाऽई धरातले । सन्निधौ पतिता तस्य मूछिना दुःखि भृशम् बदाऽदं चेतनां प्राप्ता क्षणाच्छीतेन वायुना । विदग्धहृदयाऽक्षिां तदाऽयं कियत क्षगम मद्भर्तुवटितः पक्षो वीक्षितस्तस्य समिधौ । पानेनाहतं पद्ममिकामाया मया वपुषि चालिते तस्य, लग्नस्तीक्ष्णः शरो मया। वीक्षितो व्यावनिमुक्तो वेपमानशीया स पक्षः पतितस्तस्य समीपेऽम्बुजपत्रात् । विशीर्णतां गतोऽराजदेवदृष्टिगरीयमी मजवंभसियातु भेरुशिखरं शत्रुञ्जयत्वाहवे, वाणिज कृषिसेवनादिमकला विद्या कलाः विवतु । आकाशं सकलं प्रयातु खगवत्कृत्वा प्रयत्न परं, नो भाव्यं भवतीह कर्मवशतो भाग्यस्य नाशः कुतः? रक्तपीतघटः शुद्धलाक्षारागेण चिह्नितः । तथा मत्स्वामिनो देहो रक्तबिन्दुभिश्चित: शरीरे पतितान बिन्दून बिलोक्योत्प्रेक्षयेज्जनः । चन्दनस्य रसेनाक्तमशोककुसुम खलु तथाप्यसो जलप्रान्ते पतितो मम वल्लभः । बभौ ययाऽम्तगो भानुः पलाशविपि यथा मच्चञ्च्या तच्छरीरम्धं शरं निष्कास्य यत्नतः । पक्षाभ्यां बीजनं कृन्वा ने निश्चेष्टमहं मुहुः
॥ ३७६॥ ॥३७७॥ ॥ ३७८ ॥ ।। ३७९ ॥ ॥३८ ॥ ॥ ३८१॥ ॥ ३८२ ॥ 41३८३॥
BXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
4॥ ३८५।। ॥३८६॥ ॥ ३८७॥ ॥३८८॥
For Private And Personlige Only
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्री तरंगक्ती कथा
॥ १५ ॥
www.khatirth.org
प्रियं प्राबोधयं दीनवदना साधुलोचना । स तु निश्चेतनीभूय पतितो नावदद्भुवि तथापि मुग्धया ज्ञातं मया तस्मिन् क्षणे हृदि । जीवन्नास्तेऽधुनाप्येष शरपीडातिमूर्च्छितः यदा मृतइति ज्ञातं तदाऽहं दुःखिता भृशम् । तद् दुःखवर्णनं नैव कर्त्तुं केनापि शक्यते कियत्कालमहं जाता यतो निश्चेतना तदा । दुरन्तवेदना मग्ना निर्विष्णा जीवनादपि लब्ध्वास्मृतिमहं पश्चाच्च=च्या बणि शोकतः । पर्यक्षिपं सुरम्याणि विलपन्ती मुहुर्मुहुः मद्भर्तु पक्षगुम्फेषु चञ्च्वाघाताः पुनः पुनः । कृताश्रालिङ्गनं दत्तं पक्षाभ्यां तञ्छीरीरके परितः सञ्चरन्ती तं गतासुं प्रेमबन्धनात् । अकार्ष रोदनश्चैवं विषण्णमानसा भृशम् गङ्गाया भूषणं केन पापेन निहतो भवान् । स्वामिन्! सुखेर्ष्यया केन विनाथाऽहं विनिर्मिता यतो वियोगजं दुःखं वह्निज्वालेव मानसम् । प्रज्वालयति मेऽत्यन्तं कस्याग्रे पूत्करोम्यहम् कनु मां खदधीनजीवनां प्रविकीर्य क्षणनष्टसौहृदः । नलिनीं क्षत सेतुबन्धनो जलसंघात इव प्रधावितः विधिना कृतमधेसिनं ननु मां तेऽत्र बधे विमुञ्चता । अनपायिनि संश्रये तरौ द्विपभने पतनाय वल्लरी दुःखदावानले मग्नाः प्रभूतभयदायिनि । विचारातिविमूढात्मा शुद्धिहीनाऽस्मि साम्प्रतम् स्वामिन्! सरोवरोपान्तं त्वद्वियोगव्यथार्दिता । क्रीडानन्दमहं भोक्तुं कथं शक्ष्यामि पूर्ववत् आवयोरन्तरे पद्मपत्रेचे व्यवधायकम् । चिरकालवियोगस्य दुःखं मेऽजनि शल्यवत्
For Private And Personal Use Only
॥ ३८९ ॥
।। ३९० ।।
॥ ३९१ ॥
॥ ३९२ ॥
॥ ३९३ ॥
॥ ३९४ ॥
।। ३९५ ॥ ॥ ३९६ ॥
॥ ३९७ ॥
॥ ३९८ ॥
।। ३९९ ॥
॥। ४०० ॥
॥। ४०१ ॥
॥ ४०२ ॥
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
॥ १५ ॥
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
इदानीं तु यमेनैष वियोगः शाश्वतः कृतः । अतो मेऽनन्तदुखान्तः कथं कृत्वा भविष्यति परलोकनवप्रवासिनः प्रतिपत्स्ये पदवीमहं तव । चतुरैः सुरकामिनीजनैः प्रिय ! यावन्न विलोभ्यसे दिवि विधुना सह याति चन्द्रिका ननु विद्युत्सह धूमयोनिना । वनिता पतिमार्गगा इति विदितं चेतनवर्जितैरपि पुनर्व्याधः स आयतो यत्र में पतितः पतिः । विज्ञातं तेन तं दृष्ट्वा विपरीतमिदं कृतम् तस्माद्वयथया खिनः प्रोवाच सोऽपि दीनवाक् । हा! प्रभो ! किमिदं जातं अष्टलक्ष्यस्य मेऽधुना भयङ्करमिदं वाक्यं श्रुत्वा व्याघमुखोद्गतम् । उड्डीयाऽहं कियद्दूरं गता चाऽश्रुमुखीभयात् मत्स्वामिमरणेनैष भृशं दीनमना अभूत् । कुकृत्यकरणाद्भीता भवन्ति पापिनः क्वचित् । अथाssदाय स्वयं व्याघोsस्थापयत्स्वामिनं मम । चन्द्रोज्ज्वले रजःपुञ्जेः दिधक्षुः कृपयान्वितः पश्चादीत काष्ठान्यानेतुं स प्रयातवान् । तं ज्ञात्वाऽवसरं प्राप्ता पुनर्मद्भर्तुरन्तिकम् रुद्धवं महाधिसम्पीडिताऽहं सुदीनवाक् । रुदन्त्यगा सिषं स्वल्पां मरणान्तवचस्त तिम् तात्काष्ठभरं व्याधः समानीय समागतः । पुनरुड्डीय तद्भीत्या प्राप्ताऽहं नमसस्तलम् स पापो मम भर्त्तारं दुष्कृत्यकरणोद्यतः । वक्ष्यति वह्निना तूर्णमिति ज्ञातं मया ध्रुवम तस्माद् भ्राम्यन्त्यहं तस्य मृतकस्योपरिस्थले । निराशाराक्षसीग्रस्ता व्यलपं मुक्तकण्ठतः ततस्तु तेन पीठे सतृणीरधनुर्लताम् । विमुच्य मत्पतिः काष्ठचितायामभिसत्कृतः
For Private And Personal Use Only
॥ ४०३ ॥ ॥ ४०४ ॥ ॥ ४०५ ॥
।। ४०६ ॥ 11800 11 ॥ ४०८ ॥
॥ ४०९ ॥
॥ ४१० ॥
॥ ४११ ॥
।। ४१२ ।। ॥ ४१३ ॥
॥ ४१४ ॥
॥ ४१५ ॥
॥ ४१६ ॥
Acharya Shri Kissagarsun Gyanmandir
ZXXC***********
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्री तरंगवती कथा ॥ १६ ॥
www.khatirth.org
इतस्ततः काष्ठदण्डान् संनिधाप्य स दुष्टधीः । प्राज्वालयत्प्रियस्त्राभिशरीरावयवान् समान् दावानलातिशायी सचिता निर्भयदायकः । संजातः शोकविद्यमानायाममत्रम् विचारश्रेणिकाssकृष्टा विषादायत्तमानसा । अभाषिषमहं प्राणवल्लभं मृत्युना हतम् स्वामिन्नद्यावधि प्राणप्रिय मित्र समेजले । न्यवसस्त्वं कथं शत्रुभूतम सहिष्यसि दसे बनायेन दुःसहः सोऽन्यजन्तुभिः | सहिष्यसे कथंनाथ ! चितावह्निमनल्पकम् प्रमोदशोकजनकं देवं नाद्यापि तृप्तिमाक् । आवयोर्तेन सम्बन्ध विधायैव विनाशितः रे ! रे ! मद्धृदयं नूनं विद्यते लोहनिर्मितम् । अन्यथैवं भवदुःखं कथं पश्यति वल्ल ! बियोगजन्यदुःखेन पीडिता दृरवासतः । स्वत्पार्श्वे शयनं कुर्या चितायां तद्वरं प्रिय ! इत्थं विषादवेगेन सुलभस्य रमाजने । शूरस्वस्य प्रभावेण पातित्रत्यपरमत्रम् पत्यौ दिवंगते या स्त्री भर्तारमनुगच्छति । सा लोकेऽस्मिन् यशो लब्धा परत्र सुखनाप्नु शत् इति संचिन्त्य चित्तेन पतिवर्त्मानुगामिनी । अभयं भूरिदुःखाई दुःसहं किमु दुःखिनान् आत्मानमनुगच्छद्यच्छरीरं स्वामिनः प्रियम् । वीक्ष्य तत्प्राविश चैत्यं हव्यवाहं कृतत्वरमू तरक्षणे सुखमनायाः सुप्तायाः स्वामिनोऽन्तिके । तप्ताङ्गारमयोऽप्यग्निर्हिमवत्सम्प्रजायत यतो मत्स्वामिनः पार्श्व समवाप्यातिनिर्भयम् । संस्थितायाः कृतोऽशान्तिजयते मम दुःखदा
For Private And Personal Use Only
॥ ४१७ ॥
।। ४१८ ॥
॥ ४१९ ॥
॥ ४२० ॥
।। ४२१ ।।
॥ ४२२ ॥
॥ ४३३ ॥
।। ४२४ ॥ ।। ४२५ ।। ॥ ४२६ ॥
॥ ४२७ ॥
॥ ४२८ ॥
।। ४२९ ।।
॥ ४३० ॥
Acharya Shri Kasagarsun Gyanmandir
॥ १६ ॥
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥४३१ ॥ ॥ ४३२॥
388883%BE
॥४३४॥
BARAMMEXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
सुमोघे मक्षिकेवाऽहं चितामा ज्वलिते भृशम् । निमनाऽतिमृदुस्वान्ता निजदुःखान्तकारिणि वहिना तेन मत्स्वामिमङ्गिनी च विनिर्मिता । परोपकारसंसक्ता भवन्ति हि महाशयाः यद्यप्यग्निशिखा चित्रा दहन्ती मां समन्ततः । अभ्रमत्तदपि क्षोभो नाऽभून्मे पतिचिन्तया सारसिके ! सतीभूत्वा पतिवानुसारिणी। विषमं जीवितं मत्वा देहमत्याक्षमञ्जसा ।।
(तस्या मनोरथसिद्धिः साधना च-) तरङ्गवत्यथोवाच निजवृत्तान्तमद्भुतम् । कामनासाधनासिद्धिनिदानं प्राग्भवोद्भवम् सख्यग्रेऽस्मन्मृतेर्वाता कुर्वन्ती मूञ्छिताऽभवम् । शोकेन महता तप्ता स्मरन्ती पूर्ववेदनाम् लब्धसंज्ञा पुनश्चाहं जाता गद्गदकण्ठतः । तदा तामब्र धैर्यविहीना मत्कथानकम् गङ्गातटे सती जाता दैवयोगात्ततः परम् । कौशाम्ब्यामृषभश्रेष्टिगृहे जन्म ममाभवत् धनवान बुद्धिमानासीदिम्पः स महतां मतः । देवधर्मगुरुश्रद्वाधारको व्यवहारवित् बालचंद्रकलेवाहं प्रत्यहं वृद्धिगामिनी । मातापित्रोच्दं दत्वा चेतांसि समतोषषम् अन्यदा रममाणाऽहं संगता तन्नदीतटे । कल्लोलान् वीक्ष्य वृतान्तमस्मार्ष पूर्वजन्मनः तथैव रुचिरानद्य तडागतटचारिणः । स्थानान् वीक्ष्य मे जाता पुनः स्नेहस्मृतिहदि अहो ! सत्स्नेहिनां प्रेमबन्धनं प्रबलं महत् । प्रेमपाशो दुरन्तोऽहि योगिरामपि जायते
॥ ४३६॥ ॥ ४३७॥ ।।४३८॥ ॥ ४३९॥ ॥ ४४०॥ ॥ ४४१॥ 1॥ ४४२॥ ॥४४३॥
%E3333333333338588832
For Private And Personale Only
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवरंगवती
कथा
॥ १७ ॥
www.khatirth.org
इत्थं पूर्वभवस्येदं वृतान्तं स्मृतिगोचरम् । कथं मेऽभूदिति प्रोक्तं मया सारसिके ! स्फुटम कथं च मरणं प्राप्ते पत्यों में विरोऽजनि । तत्सर्वं कथितं तुभ्यं संक्षेपात्स्नेहतो मया चक्रवाकस्य जीवोsयं प्राग्भवे मानवोऽभवत् । तस्मिन्भवे कृता तेन धर्मस्याराधना ढा किञ्चिद्विराधना तस्यामजनि तस्य तद्भवे । तेनैव चक्रवाकत्वं प्राप्तवान् विधेर्वशात् आर्त रौद्रातिदुर्ध्यानात्तिर्यङ्नारकयोनिषु । जायन्ते प्राणिनः सर्वे स्वस्वकर्मप्रभावतः " रौद्रे नारकतां व्रजन्ति मनुजा आर्चे च तिर्यग्गतिम् । धर्मेदेवगति शुभोत्तमफलं शुक्ले व जन्मक्षयम् तस्माद्वाधिगन्त के हितकरे संसार निस्तार के, ध्याने शुक्लवरे रजःप्रमथने कुर्यात्प्रयत्नं बुधः " जानेऽहं मानव जन्म प्राप्तवत्यस्मि साम्प्रतम् । तथैव सोऽपि संयातो मनुष्यत्वमनुत्तमम् मरणावसरे सूक्ष्म–कषायऋजुभावतः । पुराऽर्द्वद्- ध्यानयोगेन मनुष्यत्वं प्रपद्य
।। ४४९ ।। ।। ४५० ॥
।। ४५१ ।।
।। ४५३ ॥
येतु प्रकृत्याऽणुकपायुक्ता दानादृताः संयमशील शून्याः । गुणैर्युता मध्यममार्गभाजो बनन्ति जीवा मनुजायुरेते । ४५२ ॥ भवान्तरगति लोके विदन्ति ज्ञानिपुङ्गवाः । पशुपक्षिनरादीनां कर्मणां विषमा गतिः किन्तु मज्जीविततस्यैव विदितः शपथस्त्वया । तस्मान्मत्स्वामिनं यावन लभे पूर्वजन्मनः तावद्वार्ता मदीयेयं गोपनीया प्रयत्नतः यदा मे कामनासिद्धिस्तदा शान्तिर्भविष्यति आस सहायनान्मातापितरौ वञ्चयाम्यहम् । वितथाऽऽशासमापन्ना भर्वसंगमवाञ्छया
For Private And Personal Use Only
॥ ४४४ ॥
।। ४४५ ।। ॥ ४४६ ॥ 11 880 11 ।। ४४८ ॥
॥ ४५४ ।। ।। ४५५ ।।
।। ४५६ ।।
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
॥ १७ ॥
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
॥ ४५७॥ ।। ४५८ ॥
3I3SXEEEEEEEEEEEEEER
यदि मद्वाञ्छितं नैव सेत्स्यति चेदुपायतः । एकोऽवलम्बभूतो मे हृदयक्लेशनाशनः जिनेश्वरेण यः प्रोक्तो जगदुद्धारहेतवे । देहिनां सार्थवाहोऽस्ति मार्गः सैव सुखावहः "दहति मदनवहिर्मानसं तावदेव, भ्रमयति तनुभाजां कुग्रहस्तावदेव । छलयति गुरुतृष्णा राक्षसी तावदेव, स्फुरति हृदि जिनोक्तो वाक्यमन्त्रो न यावत् ।। तन्मार्ग साधितुं साध्वी भविष्याम्येव निश्चितम् । यतः सारतरो मार्गों जिनेन्द्रेण निरूपितः सदा संसारिणां पीडा जायन्ते विरहोद्भवाः । ता यतो विनिवर्तन्ते तन्मार्गगमनोत्सुका भवदुःखकर जन्म मरणक्लेशमुत्कटम् । त्यक्त्वाऽनन्तसुखं प्राप्तुं यतिध्ये जिनदीक्षिता संसारोऽयं विचित्रोऽस्ति भूरिदुःखाकरोऽखिलः । आपातरमणीयो हि दुरन्तपरिणामकः के संसारसुखाऽक्ता मोक्षसौधं समाश्रिताः । वैराग्यरङ्गरक्तो हि शिवमार्गमनुव्रजेत् संसारसागरं तर्नु वीतरागप्रदर्शितः । पोतायते धर्मः एव शुभः शाश्वतः शर्मदः अतिस्नेहान्मया सख्य विश्वासेन निवेदितम् । सकलं निजवृत्तान्तं मूलादारभ्य दुःसहम् सारसिका विशुद्धात्मा मयि स्नेहेन वत्सला । विलापं कुर्वती वक्तुमारेभेऽश्रुमुखाम्बुजा रे ! रे ! सखि ! वियोगस्य भर्तुरते दुःखदायिनी । श्रोतव्या हा ! ममाप्यासीद्वार्ता दुर्भाग्ययोगतः कृतकर्मविपाकोत्र फलानि विषमाण्यहोः । प्रसूते प्राणिनां नष्टचेतसां जननान्तरे
॥४५९ ॥ ॥ ४६॥ ॥ ४६१ ॥ ॥ ४६२॥ ॥ ४६३ ॥
KISROXXXXXXXXXXXXXXX338SEX
॥ ४६६ ॥ ॥ ४६७॥ ॥४६८ ।। ॥ ४६९॥
For Private And Personlige Only
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्री तरंगवती
कथा
।। १८ ।।
www.kobarth.org
भगिनि ! स्फुरितोदन्ते ! धैर्ये धेहि विशेषतः । त्वयि धर्ममनीषायां देवस्तुष्टो भविष्यति प्रसन्ने दैवते स्वामिदर्शनं ते भविष्यति । दुर्लभं कि मनुष्याणां धर्मध्यान विधायिनाम् वचांसि सान्त्वनस्यैवं कथयित्वा मदन्तिके । सारसिका प्रयत्नेन शुचमत्याजयन्मम ततोजलं समानीय प्रमार्ण्य लोचनाश्रु सा । मृदुवाक्यप्रयोगेणाकरोन्मां स्वस्थमानसाम् पश्चादहं तया सख्या समेता कदलीगृहात् । निसृत्य प्राप मन्मातुरन्तिकं श्रितयोषितः कासारस्य तटे शुद्धे संस्थिता जननी मम । व्यवस्थामकरोच्छ्रेष्ठां स्नानाय सर्वयोषिताम् तत्समीपस्थिताया में लोहिते लोचने मुखम् । विच्छायश्च विलोक्याऽऽशु साादद् व्याकुलस्वरा किमिदं पुत्रि ते जातमुद्यानानन्दमेलने । किं दुःखं तव चित्तेऽस्ति ग्लानमालासमं मुखम् विषादेन विनिष्कामदश्रक्लिभे विलोचने । मार्जयन्ती पुनश्चाहमत्रत्रं मातरं प्रति मात मस्तकं दुःखात् पीड्यते किं करोम्यहम् । माता मामवदच्छीघ्रं पुत्रि ! याहि गृह प्रति आगच्छामि स्वया सार्द्धमहमप्यात्मजे शुभे । मद्गृहस्य रमा रम्या कथमेकाकिनी वजेः मयि स्नेहवशात्तूर्णं त्यक्त्वा योषाकदम्बकम् । गृहं गन्तुं समारेमे विलम्बेऽनिष्टश किनी सामन्दस्वरतोऽवोचनितामण्डलं निजम् । स्नात भुङ्क्त यथेश्च गृह्णीत सुमसौरभम् सर्वमुद्यानिकाकार्यं समाप्यानन्दपूर्वकम् । समागच्छत सर्वेणं परिवारेण संयुताः
For Private And Personal Use Only
|| ४७० ॥ ॥ ४७१ ॥ ।। ४७२ ।।
॥ ४७३ ॥
॥ ४७४ ॥
।। ४७५ ।। ॥। ४७६ ।।
॥ ४७७ ॥
।। ४७८ ॥
।। ४७९ ॥
॥ ४८० ॥ 11 868 11
॥ ४८२ ॥
॥
४८३ ।।
Acharya Shri Kailasagarsun Gyanmandir
18188
888888888888888888
॥ १८ ॥
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achahn
sagan Gyaan
KXXXBE
किञ्चिदावश्यक कार्यमागतं दैवयोगतः । तस्मादिदानी गच्छामि गृह पुत्रीसमन्विता
॥४८४॥ एवमुक्त्वा तयाऽऽनन्दः सकलोऽत्यज्यत क्षणात् । चिन्तातुरा न जानन्ति सुखमिन्द्रियगोचरम् ॥ ४८५॥ अर्थातुराणां न सुहनबन्धु , कामातुरागां न भयं न लजा। चिन्तातुराणां न सुखं न निद्रा, क्षुधातुराणां नवपुर्ने तेजः ४८६ परन्तु प्रमदाः सर्वाः स्वस्वकर्मणि योजिताः । आनन्दाय तया तासां मद्वार्ता न प्रकाशिता
॥ ४८७॥ रक्षकान् किंकरांश्चैव कञ्चुकिनोजरोषगान् । स्वस्वकर्मणि संयोज्य स्वल्पस्वजनसंयुता
॥४८८॥ कियहाससमेता सा मां समादाय सत्वरम् । समागमनिरुत्साहा जननी स्वीयपत्तनम्
॥ ४८९॥ गृहमागत्य मद्वस्त्रालंकारांस्त्वरितं सखी । दायाऽस्थापयत् पेटामध्ये वेदनयादिता
॥ ४९.॥ ततोऽहं विमनीभूय पर्यके वस्त्रमंडिते । गृहोचितानि वासांसि परिधायाऽस्वपं स्वतः
॥ ४९१ ॥ मदीयजननी प्राह जनकं भृशदुःखिता । अस्मत्सुतां शिरःशूला गृहीत्वाऽई समागता
॥४९२॥ पीब्यते मस्तकं तस्याः, तस्मानितिधामनि । रक्षिव्याऽधुना सा तु, तेन शान्तिविपति ॥ ४९३ ॥ सप्तपर्णतरुदृष्टः प्रफुल्लकसुमो मपा । प्रयाताऽहमिती यस्मै तन्मे संपूर्णतामगात्
॥ ४९४॥ नारीगणोऽस्तु खिन्नः सन्नुत्सवाद्विरमेदिति । अनिवेद्याऽऽगताह द्राक् जाताऽस्मि व्यषिता भृशम् ॥ ४९५॥ निशम्य वचनं मात्रा गदित जनको मम | विषण्णमानसो जज्ञे, जातचिन्तो विशेषतः ।
॥४९ ॥ सुतेभ्योऽपि यतः स्नेहो द्रढोयान् मय्यवर्तत । अश्वदभित्रचित्तोऽपि दुहितृवत्सलो हि सः
॥४९७।
For Private And Personlige Only
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
Athanash
agar
Gyan
॥४९८॥
भीतरंगवती
कथा ॥१९॥
॥५०
॥
विशुद्धवंशसंजातं दक्षमेकं भिषग्वरम् । प्रसिद्धमायामास तातो मे रोगशान्तये शस्त्रवित्सोऽप्यमद्वधो लघुहस्तः शुभक्रियः । शास्त्रविद्याविदा मुख्यश्चाभवन्निखिलाऽऽतिहा रोग परीक्षितुं तावदपनेतुं च वाञ्छया । तेन मत्सन्मुखं स्थित्वा पृष्टाऽहं रोगकारणम् स्वसस्ते ज्वरतापेन किं वा मस्तकपीडया । शरीरमद्य सञ्जातं शिथिलं वद मे स्फुटम् यतस्तदुपचाराय प्रयतेऽहं विलम्पनम् । व्याधिव्युच्छेदने नैव विधेयं कुशलैनरैः प्रातस्त्वयाध कि भुक्तं तच्चाजीर्यंत सर्वथा । निशायां ते समायाता निद्रा सम्यक सुखावहा ! मौनं कृत्वा स्थिताऽहं तु सारसिका तदुत्तरम् । प्रादात् प्राभातिकं भोज्यमुद्यानगमनं च यत् पूर्वजन्मानुभूतं मद् वृतान्तमन्तरेण सा । भिषजमवदत्सर्व दक्षा समयवेदिनी प्रश्नाननेकधा पृष्ट्वा वैद्यराजोऽवदन्मम । पितरौ दुःखदावाग्निज्वालाज्वलितमानसौ दुहिता दृश्यते नून रुजाऽऽक्रान्तकलेवरा । परमत्र क्षतिर्नास्ति चिन्ता कार्या न सर्वथा पञ्चविंशतिरुद्दिष्टा ज्वरास्तद्भेद उच्यते । पृथग्दोषैस्तथा द्वन्द्वमेदेन विविधः स्मृतः एकश्च समिपातेन तद्भेदा बहवः स्मृताः । प्रायशः सभिपातेन पञ्चस्युर्विषमज्वराः सन्ततः सततवैव अन्येशुष्कस्तृतीयकः । चातुर्थिकश्च पञ्चैते कीर्तिता, विषमज्वराः तथऽऽगन्तुज्वरोऽप्येकत्रयोदशविषो मतः । अभिचारग्रहावेशशापैरागन्तुकविधा
॥५०२॥ ॥ ५०३॥ ॥५.४॥ ॥५०५॥ ॥५०६॥ ॥५०७॥ ॥५०८॥ ॥५०९॥ ॥५१०॥ ॥ ५११॥
MEHEKXEXXEEEEEEEEXXES
For Private And Persons the Only
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMaharveJain Aradhanekendra
www.kobahrth.org
Acharya th
gan Gyaan
ESEROSXX8388SEXUXXXX
श्रमाच्छेदारक्षताहाहाच्चतुर्धाऽघातकज्वरः। कामाद् मीतेः शुचो रोषाद्विषादौषधगन्धतः अभिषङ्गज्वराः षट् स्युरेवं ज्वरविनिश्चयः । भवन्ति विविधा भेदा व्याख्यास्यन्ति चिकित्सकाः भोजनान्तरं सद्यःसमायाति ज्वरो यदिः । स्नेहो हेतुर्मवेत्तत्र, कफ: सैव निगद्यते यदि पाकक्रियाकाले ज्वरातिरुद्भवेत्तदा । तद्धेतुरन्य एवाऽस्ति, तत्पित्तमिति कथ्यते वचनानन्तरं यहि ज्वरः प्रादुर्मवेत्तदा । स वातहेतुकोऽपि स्यात् त्रिधाऽयं परिकीर्तितः यद्येकीभूतमत्युग्रमिदं हेतुत्रिकं नृणाम् । तदाऽनेकान्महारोगान् जनयत्यचिरेण वै दोपत्रये तथाभूते द्वित्राणि लक्षणानि च । दृश्यन्ते रुग्णदेहेषु सन्निपात इति स्मृतः ज्वरभेदस्तथा यस्त्वागन्तुक इत्युदीर्यते । कामश्रमादितद्भेदा दोषव्याकोपकारकाः "कामजे चित्तविभ्रंशस्तंद्राऽलस्यमभोजनम् । हृदये वेदना चास्य गात्रश्च परिशुष्यति खेदो यष्टिप्रतोदादिप्रहारेणाऽस्त्रघाततः । तरुपातादि हेतोश्च प्रादुर्भवति देहिनाम् युष्मत्पुत्र्यां ज्वरस्यैवंविधानि लक्षणानि च । विनिर्णयाय नो सन्ति विगताऽऽधिर्भवाऽधुना निरामया सुता नूनम् शकटाघातदुःखिता । आरामे भ्रमणाच्छ्रान्ता तेन मन्देयमीक्ष्यते तस्माच्च ज्वरितेवासो दृश्यते मन्दचेष्टिता । श्रम एवास्ति तद्धेतुः कारणं नान्यदिष्यते कदाचिन्मानसी काऽपि घटेताज व्यथा किल । समुत्पद्येत सा जाने केनचिच्छोकहेतुना
॥५१२॥ ॥५१३ ॥ ॥ ५१४॥ ॥ ५१५॥ ॥ ५१६॥ ॥ ५१७॥ ॥ ५१८॥ ॥ ५१९॥ ॥५२०॥ ॥ ५२१ ॥ ॥ ५२२॥ ॥ ५२३॥ ॥५२४॥ ॥५२५॥
For Private And Personale Only
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवरंगवती कथा
॥ २० ॥
FESSORE
www.kobatirth.org
मां परीक्ष्य भिपमयों निदानं सत्यमूचिवान् । वञ्चनानिमुखा नैव भाषन्ते शास्त्रिणोऽनृतम् ॥ ५२६ ॥ सत्यं तपो ज्ञानमहिंसताच विद्वत्प्रणामश्च सुशोजता च । एतानि यो धारयते स विद्वान केवलं यः पठते स विद्वान् ।। ५२७ ।। वैद्य दोत्थितो गन्तुं तदा तन्मानहेतवे । प्रासादद्वारपर्यन्तं मम तातस्तमन्वगात्
।। ५२८ ।। ॥। ५२९ ।। ।। ५३० ॥
॥ ५३१ ॥ ॥। ५३२ ॥
अपराहणे जनन्या मे विहितो भोजनाऽग्रहः । शोकार्त्तया मया किञ्चिद्भुक्तं भोज्यमनिच्छपा तस्मिन्नेव क्षणे नारीवृन्दमुद्यानसङ्गतम् । आजगाम प्रमोदाढ्यं मिथो वार्त्तापरायणम् स्नानेनोद्यानिकायां च लब्धाऽऽनन्दस्य वर्णनम् । कर्तुं प्रारभत प्रेम्णा वनितामण्डलं तदा रात्रौ शय्यागतायामेन्त्याश्चिन्तया भृशम् । विभावरी सुदीर्घाऽभूद्वियुक्तानां कुतः सुखम् ? प्रातर्विलोक्य मां पूर्वदिने ये काममोहिताः । तदीयाः पितरः प्रापुर्याञ्चायै पितुरन्तिकम् यद्यप्येते धनाध्यक्षाः कीर्तिमन्तच भावुकाः । परं तेषां मनोत्राञ्छा पित्रा में विफलीकृता यतस्तेषां महेभ्यानां नैतिकी धार्मिको स्थितिः । न व्यलोक्यत तावेन विचारचञ्चु चेतसा ततो विनाशिताऽऽज्ञानां तेषां नानाविधा गिरः । निशम्य प्राग्भवीया मे स्वरूपगुणवादिनी: स्मृतिर्विस्फुरिता सद्यो नेत्राभ्यामसन्ततिः । निःसृत्य निर्भराऽऽकार्षीत् मलिनं मुखपङ्कजम् पूर्व कर्मविपाकेन स्मृतिसिन्धौ यथा यथा । न्यमज्वं भक्तपानादि तथा संत्यक्तवत्यहम् केवलं बन्धुवर्गस्य तुष्टये पीडिताऽप्यहम् । किञ्चिद्भोज्यादिकं कर्तुमैच्छं च वस्त्रधारणम्
For Private And Personal Use Only
॥ ५३३ ॥
॥ ५३४ ॥
।। ५३५ ।।
॥ ५३६ ॥ ॥ ५३७ ॥
।। ५३८ ।।
॥ ५३९ ॥
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
॥ २० ॥
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:shkailassagarsunGyanmandir
यदि जीवितकल्लोला न गच्छेयुर्ममाऽध्वनि । तर्हि मन्मानसं तेषु कथं स्थिरतरं भवेत् सप्तच्छदसुगन्धस्य तरङ्गो बलवान् पुनः । उद्बोधयेन्मम स्नेहं प्रथमं सुखदोऽपि सन् अधुना शरवत्तीवां नैव कुर्यात्कथं व्यथाम् ? मृदुपुष्पचयोद्भेदे कि सच्याः स्याद्विलम्बनम् ? रश्मयः शशिनः कामशरा इव भवन्ति चेत् । मद्वक्षसि स्थिरीभय कथं निद्रासुखे मम स्रयेचेदमृतं पुष्पात् शान्तिदा वृष्टिरापवेत् । प्रभाते च हिमोत्पत्तिस्तदङ्गारसम मम यदन्यत् सुखदं लोके तत्सर्व मम दुःखदम् । वल्लमेन विनतर्हि वक्तव्यं किमतोऽधिकम् गुरूणामुपदेशेन मन्मनोरथसिद्धये । तपश्चर्यामहं तीवां प्रारमेहार्यनिश्चया अष्टोत्तरशताऽऽचाम्लविधानेन जिनेश्वरैः । वाञ्छिनार्थप्रदा सेयं प्रोक्ता कल्मषहारिणी व्रतमेतद्विधातुं मे पिनुम्पा सम्मतिः शुमा । प्रदत्ता धर्महेतुत्वे को विरुद्धमतिर्भवेत यस्मादाचरिते तादृग्वते दुर्भाग्यतानृणाम् । विनश्यति सदा श्लाघ्य सुभगत्वं च लम्पते मदीयकामनायास्तु स्मृतिर्नासीत्तयोहृदि । गुप्तवृत्तान्तमन्येन केनापि ज्ञायते न वै प्रत्यहं क्षीणदेहाऽहमभवं निजचिन्तया । ताभ्यामेवं कथं वृत्तियिते मन्मनोगता आन्तरिकव्यथा या आकस्मिकविचारणा । दैवयोगाकामुकायाः प्रास्फुरन्नम चेतसि तामनुसृत्य चित्राणि कतिचित्सावधानया । पटेषु लिखितान्याशु चित्रकर्म कलाविदा
॥ ५४०॥ ॥ ५४१॥ ॥ ५४२॥ ॥ ५४३ ॥ ॥ ५४४॥ ॥ ५४५॥ ॥ ५४६ ॥ ॥५४७॥ ॥ ५४८॥ ॥ ५४९॥ ॥ ५५ ॥ ॥५५१॥ ॥ ५५२ ॥ ॥ ५५३ ॥
For Private And Personlige Only
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवरंगवती
कथा
॥ २१ ॥
BEESSO
www.batirth.org
प्राग्जन्मनि मया भत्र साकं योऽनुभवः कृतः । तं प्रकाशयितुं चित्राण्यङ्कितानि पटोपरि कथं भर्त्रा सहावात्सं कथं च व्यचरं वने । कथं शरेण विद्धः स कथं व्याधेन दुर्धिया विहिताग्रिसंस्कारो जाताऽहं च सती कुतः । समग्रमतिं दृश्यमद्भुतं तत्पटोपरि गङ्गा तदीयकल्लोला: कासारश्चाऽतिसुन्दरः । तत्र संचारिविहगाश्चक्रवाका विशेषतः कार्यज्ञया मया स्पष्टं चित्रिता सकला अपि । गजेन्द्रमनुधावँश्च व्याधश्चापधरस्तथा विकसत्पङ्कजं वारिसंभृतं च सरोवरम् । विविधर्त्तसमुत्पन्न कुसुमोल्लासितैर्वनम्
वृक्षोधैर्वासितं सम्यक् चित्रितं च मयाऽऽदशत् । विचित्रचित्रमालानां स्थापनैकत्र कल्पिता तत्सम्मुखमुपस्थाय मन्मनोमन्दिराधिपम् । चक्रवाकं चिरं ध्यायन्त्येकदृष्ट्या व्यलोकयम् कार्तिकी पूर्णिमा तावत् संप्राप्ताऽऽनन्ददायिनी । कौमुदीपर्व सा लोके मन्यते मोदवासरः || पर्वप्रशस्तिः ॥ शुभोत्सवेत्प्रतिमाऽवलोकने पूजाविधौ सेवनभक्तिभावे । सुपात्रदानेऽतिथिसत्कृतौ चाऽखिलं दिनं याति हि शुद्धकार्ये
मित्राणि स्वजनाच मोदकलिता नैकप्रकारोचितान् । यच्छन्त्येव महोपहारकगणान् प्रेम्णो मिथो हेतवे । आशीर्वादमहाध्वनिर्गुरुमुखात्संश्रूयते भावतः सर्वाऽऽन्दमयः सुखं स दिवसः क्षेमप्रदो जायते
For Private And Personal Use Only
।। ५५४ ॥ ।। ५५५ ॥
॥ ५५६ ॥
॥ ५५७ ॥
॥ ५५८ ॥
।। ५५९ ।।
॥ ५६० ॥
॥ ५६१ ॥
॥ ५६२ ॥
॥ ५६३ ॥
॥ ५६४ ॥
Acharya Shri Kasagarsun Gyanmandir
88888
॥ २१ ॥
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahanandain AradhanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
3888888XXXESXXSEXEKXEXXX
संसारदुःखस्य विनाशहेतुः संपत्तिसन्तानविधानदक्षः । सद्धर्मलाभः श्रुतिगोचरो भवेद्भव्यात्मना सद्गुरुसमिधाने ॥ ५६५॥ पर्वोत्सवं नूतनमाप्रपद्य विधेयमावश्यकमेव सर्वैः । धर्मात्मभिर्धर्नामखण्डबुद्ध्या कल्याणसंपत्तिविधानदक्षम् । धर्मः स एषोऽत्र जिनोपदिष्टो दयाप्रधानोऽनुपकारवाञ्छया । सुपर्वकाले यदि सैव साध्यते ततो न कि तेन
महात्मना कृतम् ॥ ५६६॥ गृहेषु सर्वत्र समङ्गलानि गीतानि गायन्ति वराङ्गना मुदा । आनन्दसन्दोहकराणि भूरि हृद्येन रागेण रसपदानि ॥५६७।। देहिनां सर्वदा भव्य नव्यं प्रीतिप्रदं भवेत् । अहो स्वाभाव एषोऽत्र सर्वेषां हि नवं नवम्
॥ ५६८॥ आतोद्यवृन्दं विविधस्वरं शुभ-मानन्दयत्यङ्गिगणं पुरःस्थितम् । विशेषतः सुन्दरता विराजते नादे पशूनाश्च विहङ्गमानाम्
॥ ५६९॥ इदन्तनीयः खलुकौमुदीभरो महोत्सवो मोदविधायको जने । जातोऽस्ति नानासुखहेतुभूतः सर्वत्रकाले जनतोषदायी॥५७०।। अवैवाऽस्मत्सदनमनघं नूतनं जातमस्ति, निःशेषाणामतुलमचलं प्रेमचिते बभूव । पर्वोत्साहो मनसि वचने नव्यभावं तनोति, वस्त्रे भक्ते परहितविधौ कल्पनायाश्च शुद्धौ
॥५७१॥ भद्यैव मे मानसमद्वितीयप्रमोदभाग्जातमतीतकाले । वियोगखिनं स्मृतिगोचरस्य शान्तं गुरूणां वचनेन सद्य ।। ५७२ ॥ दुःखालिशान्ति प्रविधातुमिच्छन् शक्नोति नो यत्नविशेषतो ना । नवीनवस्तुग्रथितं मनो यदा तदैव शान्ति
समुपैति दुःखम् ॥ ५७३ ॥
For Private And Personlige Only
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीतरंगवती
कथा ॥.२२॥
CODESESEXEKSREXXXX
सद्वस्तुसङ्गाल्लभते सुर्म दुष्टप्रसङ्गात्समुपैति कष्टम् । ततः सदालम्बनमाविधेवं सतां जनानां शुभशर्महेतुः ॥ ५७४ ॥ सङ्घीय जनस्तस्मिन्पर्वणि मुदिताशयः । महोत्सवपराव्यं क्रूरकर्मपराङ्मुखैः
॥ ५७५ ॥ व्यापारो हिंसकानाश्च तस्मिन्नति निषिध्यते । दुःखितानाच विश्रान्तिर्जायते भारवाहिनाम्
॥ ५७६ ॥ धर्मिष्ठा मानवा दानतपःपुण्यजपादिकम् । विधाय सफलं जन्म पतन्ते कर्तुमादरात
॥ ५७७॥ मयाऽपि वासरे तस्मिन् पितृभ्यां सह शर्मदः । उपवासः कृतः सायं चातुर्मासिकमुत्तमम्
॥५७८॥ प्रतिक्रमणमाराध्य सर्वे जीवा क्षमापिताः । ज्ञाताज्ञातापराधानां क्षतये शुद्धचेतसा
॥ ५७९ ॥ प्रभाते चोपवासस्य पारणा विहिता मया । ततो हर्पतलारूढा पुरशोभा व्यलोकपम शिल्पिभिश्च कलादश्चित्रितैः स्तम्भसञ्चयैः । प्रासादोऽभ्रंलिहोऽराजन्मत्वातस्य मनोरमः प्रधानद्वारशिखरे वारिमिः पूरिता घटाः । सौवर्णाः स्थापिता दानघोपणामिव कुर्वते
॥ ५८२॥ तेनैवं ज्ञातवाँल्लोको हर्मेऽस्मिन् दानतत्परः । प्रत्यहं विपुलं विनं ददात्यर्थिजनाय वै
॥ ५८३॥ तत्रैव च दिनेऽस्माकं गृहे दानमनल्पकम् । जातं सुवर्णगोभूमिरूप्यशय्यासनादिकम्
॥५८४॥ यद्यस्यापेक्षितं वस्तु तत्तस्मै दीयते स्म वै । यस्मै कस्मै कदा कापि दानं दत्तं न निष्फलम्
॥ ५८५॥ नगरे यानि चैत्यानि जिनेन्द्राणां विभान्ति च । तानि संभूषितान्येव विशुद्धभावभक्तितः
॥ ५८६ ॥ व्रतिभ्यश्च यथायोग्य वस्त्ररात्रसुभोजनम् । शय्याऽऽसनादिकं वस्तु प्रदत्तं भावपूर्वकम्
॥५८७॥
॥२२॥
For Private And Personale Only
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
28488888********TEES
www.kobatirth.org
मन्दिरेषु जिनेन्द्राणां मूर्तीनां सन्निधौ तथा । सुवर्णमणिरत्नानामुपदा विहिताऽऽदरात् दानं सदा फलत्येव सदानस्य फलं शुभम् । असद्दानं तथा लोके फलं दत्तेऽशुमं सदा तपस्विज्ञा निसाधुभ्यः प्रदानं फलमुत्तमम् । प्रदत्ते तेन दुःखानि नश्यन्त्यैहिक जन्मनः " जैने धर्मे प्रथितमनसां शुद्धचारित्रभाजां सत्साधूनां विहिततपसां पात्रदानं तदेव । शुद्धाद्वारप्रवितरणकं यच्छुभोद्भूतभावात्, तत्वज्ञैस्तच्छुभफलकरं दानमावेदितं हि " पात्रे यच्छति यो नित्यं निजशक्या सुभक्तितः । सौख्यानां भाजनं स स्याद्यथा धन्योऽभवत्पुरा " " उत्तमपत्तं साहू मज्झिमपत्तं सुसावया भणिया । अविश्यसम्मदिट्ठी जहन्नपत्तं मुणेयव्वभू धर्मध्यानवत समितिभृत्संयतया रूपानं, व्यावृत्तात्मात्र सहनरतः श्रावको मध्यमं तु । सम्यग्दृष्टिर्वतविरहितः श्रद्दधानः स्याज्जघन्य-मेवं । त्रैधा जिनपतिमते पात्रमाहुः श्रुतज्ञाः केसि च होइ वित्तं केसिपि उभयमन्नेसिं । चित्तं वित्तश्चपत्तञ्च तिनि पुन्नेर्हि लब्मंति " देयं स्तोकादपि स्तोकं नव्येऽपेक्ष्यो महोदयः । इच्छानुसारिणी शक्तिः कदा कस्य भविष्यति दीनादिभ्योऽधिकः कश्चिन्मानवेभ्यो हि धार्मिकः । दानं करोति नो व्यर्थं जायते क्वापि भूतले दानस्य पश्चैव विभूषणानि तथैव तदुषणपञ्चकञ्च । सभूषणन्तत्सुगति प्रदत्ते सदूषणं दुर्गतिमावनोति " आनन्दाश्रूणि रोमाञ्च बहुमानं प्रियंवचः । तथाऽनुमोदना पात्रे, दानभूषणपञ्चकम्
For Private And Personal Use Only
॥ ५८८ ॥
।। ५८९ ।।
।। ५९० ।।
॥ ५९१ ॥
।। ५९२ ।। ॥ ५९३ ॥
।। ५९४ ।।
।। ५९५ ।।
।। ५९६ ।।
।। ५९७ ॥
॥ ५९८ ॥ ।। ५९९ ।।
***************
Acharya Shri Kaissagarsun Gyanmandir
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
भीतरंगवती
कथा ॥ २३ ॥
www.kobatirth.org
अनादरो विलम्बश्च वैमुख्यं विप्रियं वच । पश्चात्तापथ दातुः स्यादानदूषणपञ्चकम् अमुत्र सज्जनानाञ्च गृहे पुण्यवतां शुभे । जन्म संजायते नूनं शुद्धधर्म प्रभावतः यस्मादात्मोन्नतिर्भव्या साध्यते विमलात्मभिः । जन्ममानवमासाद्य सबै मुख्यं फलं स्मृतम् सतां दानादिसेवातो निर्वाणपदवी शुभा । सुलभा जायते नृणां साधवो हि सुखप्रदाः चौर्यकर्म विधायिभ्योस्तत्परेभ्यस्तथाऽनृते । परदाररतेभ्यश्च शत्रुभ्योऽपि महीपतेः दाने कृते ध्रुवं किञ्चित्फलं दुष्टं प्रजायते । अतो विवेकतो दानं दातव्यं शुभमिच्छता ब्राह्मणेभ्योऽन्यभिक्षुभ्योऽप्युदारमनसा भृशम्। दानं दत्तं फलत्येव निष्फलन्नैव जायते " पात्रे मुक्तिनिबन्धनं तदितरे प्रोद्ययाख्यायकं, मित्रे प्रीतिविवर्धनं रिपुजने वैरापहारक्षमम् । भृत्ये भक्तिमराव नरपतो सन्मानपूजाप्रदं भट्टादौ च यशस्करं वितरणं न काप्यहो निष्फलम् " याचका धर्मिणं नित्यं लाघन्ते तेन तद्यशः । कीर्तिश्व जायते लोकेऽनुकम्पादानमुत्तमम् तस्मिन्नपि फलं दाने सम्यक् संप्राप्यते जनैः । ज्ञात्वेति दानहीनैश्च न भाव्यं हि कदाचन गृहस्थानां हि भव्यानां सदा द्वाराणि भूतले । उद्घाटितानि सन्त्येव भिक्षुकाऽतिथिहेतवे यस्य कस्यापि दानेन सम्पत्तिः परिवर्द्धते । दानं निरर्थकं नैव जायते भावतः कृतम् सत्कुर्वन्त्यतिथीनत्र ये जना धर्मसाधनाः । तेषां सम्पत्तयः प्रीताः वर्द्धन्ते कुलकीर्तयः
For Private And Personal Use Only
"
॥ ५०० ॥
॥ ६०१ ॥
॥ ६०२ ॥
।। ६०३ ॥
॥ ६०४ ॥
।। ६०५ ।।
॥ ६०६ ॥
॥ ६०७ ॥
।। ६०८ ॥
॥ ६०९ ॥
॥ ६१० ॥
॥ ६११ ॥
॥ ६१२ ॥
Acharya Shri Kasagarsun Gyanmandir
।। २३ ।
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
CIROCC****
RRRRRR
www.khatirth.org
जिनेश्वरोदितं दानं प्राधान्यं भजते ध्रुवम् । धर्मकल्पद्रुमस्यैषा मुख्यशाखा प्रकीर्तिता तच्च सद्गतिदं प्रोक्तं सर्वदुःखोपशामकम् । यथाविधि यथाशक्ति विधेयं समचेतसा
पात्रे शुद्धात्मने वित्तं दत्तं स्वल्पमपि श्रिये । दत्ते स्निग्धानि दुग्धानि, यद्भवां चारितं तृणमू अस्माकं कौमुदीपर्व धनव्ययकृतेऽभवत् । दानाय शुद्धिहेतोच धर्माराधन देत वे सायंकाले मया शोभां नगरस्थ निरीक्षितुम् । दृष्टिः प्रसारिता दुःखसंमिश्रा दूरगामिनी सहस्ररश्मिभगवान् स्वकीयकिरणावलीम् । संहृत्याऽदृश्यतां प्राप निमज्ज्य सागराम्बुनि उषादेव्या समं नूनं चिरकालनिवासतः । व्याकुलमानसो जज्ञे विच्छायवदनेऽपि च सायंकालमहिष्याश्च सन्ध्यादेव्याः समीपगः । निश्चिन्तमानसस्तस्थौ तदीयशान्तिपत्तने जना इत्थं वदन्त्येके दीर्घाऽऽकाशप्रयाणतः । श्रमेण रक्तसौवर्णरश्मिमालाविभूषितः वीर इवाभवद्भानुर्भूमिदेवीक्रमाऽम्बुजे । लीनस्तमिस्रया जीवास्तमसाऽऽवेष्टितास्ततः यदस्माकं गृहस्यासीन्मुख्यद्वारस्य शोभनम् । अङ्गणं राजमार्गस्याप्यभूषणमद्भुतम् तत्रोतमोपकरणवेष्टितालेख्यमालिकाम् । लोकान् दर्शयितुं सर्वा मुक्तवत्यहमादरात् तासां संरक्षणायैव मद्दुःखसुखभागिनी । सखी मे बल्लभा सार-सिका नियोजिता मया मनुष्यभवमापन्नः स्वामी मे पूर्वजन्मनः । तच्छुद्ध्यर्थं मया युक्ती रचितेयं सुगोपिता
For Private And Personal Use Only
॥ ६१३ ॥
॥ ६१४ ॥
।। ६१५ ।।
॥ ६१६ ॥
॥ ६१७ ॥
।। ६१८ ।।
॥ ६१९ ॥
॥ ६२० ॥
॥ ६२१ ॥ ॥ ६२२ ॥ ॥ ६२३ ॥
॥ ६२४ ॥
।। ६२५ ।। ॥ ६२६ ॥
*888**888*88888CERCCC
Acharya Shri Kailasagarsuri Gyanmandir
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
Achanh
sagan Gyaan
श्रीवरंगवती
कथा ॥२४॥
BASISEXREASEEBISEXIBEOg
सर्वस्मिन्स्वजने दक्षा वयस्या बोधिता मया । परीक्षा कर्तुमौचित्यविधानविदुषी वरा
॥६२७॥ "औचित्यमेकमेकत्र गुणानां कोटिरेकतः । विषायते गुणग्राम औचित्यपरिवर्जिता"
॥६२८॥ सर्वेषामान्तरं भावं ज्ञातुं त्वमिङ्गितेन वै । वचनोगारतश्चैव निपुणाऽसि महामते! ।
॥६२९॥ तस्माचं शृणु मद्वाक्यं सावधानतया सखि ! । मज्जीवनं सुखीकर्तु नेतरा विद्यते जने
॥ ६३०॥ मुखोपभोगकाले हि, मित्राणि स्युरयत्नतः । विपद्गणे तु सम्प्राप्ते मित्रामित्रपरीक्षणम्
॥ ६३१ ।। निर्व्याजमित्रतायुक्तो ध्रुवमापन्निवारणे । कृतोद्यमो भवेत्प्राणार्पणेनापि न छबवान
॥६३२॥ स्वस्वकार्ये रता भूमौ लभ्यन्ते बहवो जनाः । स्वकार्यादधिकोयत्नः परकार्ये महीयसाम् स्वकर्मनिर्माणविधौ प्रयत्न, कुर्वन्ति ये सन्ति गृहे गृहे ते । परार्थनिर्माणपरायणा ये, सन्तः कियन्तो भवि तेजसन्ति ।।६३४।। वचने मानसे कार्य क्रियायामपि सन्ततम् । स्वभावो विद्यते तुल्य उत्तमानां तनुमताम्
॥ ६३५ ॥ अहितं मानसे नित्यं कुर्वाणेऽपि निरन्तरम् । हितमेव वितन्वति स्वदेहेनोत्तमा नराः अयं निजः परो वेत्ति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटंबकम्
।। ६३७॥ उपकतुं प्रियं वस्तुं, कर्तु स्नेहमकृत्रिमम् । सुजनानां स्वभावोऽयं, केनेन्दु शिशिरीकृतः यस्मिन्नगरे जातो मद्भर्तापूर्वजन्मनः । अन्यमानववत्सोऽपि भ्रमन्नत्राऽऽगमिष्यति
॥ ६३९॥ चित्राण्येतानि सम्प्रेक्ष्य पाश्चात्यभवमावयोः । स्मरिष्यति स सुद्धात्मा नूनमे तद्भविष्यति
॥ ६४०॥
॥२४॥
For Private And Personlige Only
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir Jain ArachanaKendi
Acharya:shkailassagarsunGyanmandir
BESEXERXXXSEXEEEEEEEXXX
यतो यः सुखदुःखेषु स्नेहवान् स नरश्विरम् । वियोग्यपि तथा लेख्यान्दृष्ट्वा सर्व स्मरेत्क्षणात हृदयस्थं रहो वृत्तं सद्यः प्रादुर्भवेद् बहिः । दुर्जनस्य भवेद् दृष्टिः करा मित्रस्य कोमला
॥६४२॥ " यत्साधूदितमन्त्रगोचरमतिकान्तो द्विजिह्वाऽऽनना, क्रुद्धो रक्तविजोचनोऽसिततमो मुश्चत्यवाच्यो विषम् । रौद्रो दृष्टिविषो विभीषितजनो रन्ध्राजलोकोदितः, कस्तं दुर्जनपनगं कुटिलगं शक्नोति कर्नु वयम्" ॥६४३॥ शुद्धा सत्यप्रवक्तुस्तु सुस्थिरा च सदा भवेत् । चञ्चलस्य चला नूनं दयालोश्च दयान्निता
॥६४४॥ अन्यस्य दुःखमावीक्ष्य सज्जनस्य च चेतसि । दया सञ्जायते सम्पगु-पकारधिया सदा
॥६४५॥ "वार्द्धश्चन्द्रः किमिह कुरुते ! नाकिमार्गस्थितोऽपि, वृद्धौ वृद्धि अयति यदयं तस्य हानी पहानिम् । अनातो वा मवति महतां कोऽप्यपूर्वस्वभावो, देहेनापि ब्रजति तनुतां येन दृष्ट्वाऽन्यदुःखम् ॥ ॥६४६॥ एवं विषं पुनः स्वीय-मेव वृत्तं भवेद्यदि । तदात्वत्यधिक चिचे विह्वलं जायतेऽङ्गिना
॥६४७॥ तस्य चक्षसि संलग्नः शरघात इव व्यथा । भृशं भवति दुर्ध्याना-कृष्टचित्तस्य देहिनः
॥६४८॥ वदन्त्येवं जना लोके लब्ध्वा पूर्वभवस्मृतिम् । मानवो दुःखितो भूत्वा मुझे प्रामोति निषितम् ॥६४९॥ तस्मादेवानि चित्राणि वीक्षमाणस्य मत्पतेः । प्राग्भवस्मृतिमात्रेण मूर्छाऽवश्य भविष्यति
॥६५॥ लब्धसंज्ञस्ततोऽणि मुञ्चन्स त्वां वदिष्यति । इमानि केन चित्राणि चित्रितानि सुलक्षणे! तदा त्वया निश्चयेन ज्ञातव्यः स हि मत्पतिः । मनुष्पयोनिमापनो वियुक्तः पूर्वजन्मनः
॥६५ ॥
EXXXXEIRRIERRORE
For Private And Personlige Only
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवववती
॥६५४॥
॥२५॥
सावधानतया तस्य वीक्षणीया त्वयाऽऽकृतिः । चेष्टादिकं तथा शेयं नामस्थानादिकं तथा प्रभातसमये तच्च सर्वोदन्तं सखि ! त्वया । यथार्थ कथनीयं मे त्वमेव हितकारिणी तस्प दर्शनमात्रेण पुनमें सकलायः । विनश्यन्ति तमालिङ्गय स्नेहब पल्लविष्यति पदा त्वसौ न लब्ध-त्साध्वीभ्य मयाञ्जसा । मोवाऽध्वनि विहर्तव्यं सर्वदुःखविनाशके भारमन्तरा मोष-सुखाशामन्तरा तथा । विविध जायते दुःखं दग्धर्ज वनयापने
अनन्तदुःखानि भवन्ति संसृतो, संसारिणो मोहवशं प्रयाताः। पुनःपुनर्मृत्युमहासुरादिता, ब्रजन्ति कष्टान्पतुलानि लोके भवोदर्षि कस्तरितुं समर्थो, वैराग्यनौकाश्रयमन्तरेण ।
तत्राऽपि जैनी विदिताऽस्ति दीक्षा, प्रकीर्तिता केवलिमिः प्रधाना पत्युः संयोगमिच्छन्त्या मयैवं सा सखी भृशम् । बोधिता प्रहिता चिौः समेता प्रियकारिणी
योऽप्यस्ततस्तावत् सर्वाऽऽवरणकारिणी । निशाऽन्धतमसा व्याप्ता सर्वत्र प्रासरचता निजधर्मानुसारेण प्राधान्यात्पर्ववासरे । शयनस्य गृहे समौ गृहीतव्यो हि पौषधः तस्यां जागरणं रात्रो विधातव्यं मनीषिमिः । अक्षयाऽऽनन्दसद्धाम प्रभुम्यान विशेषतः विज्ञायैवमहं गत्वा पोषधागारमुत्तमम् । स्वपितम्यां सहाकार्ष भगवत्स्तुतिवन्दनम्
॥ ६५८॥
॥ ६६.॥ ॥६६१॥ ॥६६२॥
॥६६४॥
॥२५॥
For Private And Personale Only
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
EXAXESXSAEXXXXXXXXXXXXREERS
अहर्नियं कृतं पापं दूरीकर्तुं त्रिधा मया । प्रतिक्रमणमुत्कृष्टं विहितं विधिना ततः सर्व नित्यविधि कृत्वा शयित्वा धरणीतले । स्वस्थेन मनसा निद्रामभजं धर्मभाविता तत्राऽहं गिरिमारूढा भ्रमन्तीव लताऽन्तरे । स्वमं व्यलोकयं पश्चा-जाग्रद्भाव समागता
॥६६७॥ ततश्च पितरं गत्वा पर्यपृच्छ नतानना । कि फलं जनकैतस्य स्वमस्य ब्रूहि साम्प्रतम्
॥ ६६८॥ तातोऽपि मां समुद्दिश्या-कथयत्स्वमजं फलम् । स्वमशास्त्रानुसारेण विद्यतेऽस्य शुभ फलम् उक्तश्च-समधातोः प्रशान्तस्य, धार्मिकस्यातिनीरुजः । स्यातां पुंसो जिताक्षस्य स्वमौ सत्यौ शुभाशुभौ ॥ ६७० ॥ अनुभूतः श्रूतो दृष्टः प्रकृतेश्च विकारजः । स्वभावतः समुद्धृतश्चिन्तासन्ततिसम्भवः
॥ ६७१॥ देवताद्युपदेशोत्थो धर्मकर्मप्रभावजः । पापोद्रेकसमुत्थश्च स्वमः स्यानवधा नृणाम्
॥६७२॥ प्रकारैरादिमैः षड्भिरशुभश्च शुभोऽपि च । दृष्टो निरर्थकः समः सत्यस्तु त्रिभिरुत्तरैः
॥६७३॥ सद्भाग्यं ज्ञायते स्वमादुर्भाग्यश्च शरीरिणाम् । आनन्दश्च तथा शोकः जीवनं मरण पुरा
॥ ६७४॥ आममांसं व्रणश्चैव रुधिराई व्यथाध्वनिः । हस्तपादविभङ्गश्च वहिज्वाला भयङ्करा
॥ ६७५ ॥ एतानि स्वमदृष्टानि जनयन्त्यशुभ फलम् । गजोक्षगिरिहर्येषु क्षीरिवृक्षोत्तमेष्वपि
॥६७६॥ निजात्मानं यदापश्ये-दायति लमते शुभाम् । स्वमे लङ्घयते योऽन्धि नदीश्च स न दुःखितः ॥ ६७७॥ पुनर्नरादिजातीनां दर्शनं प्रायशः शुभम् । फलं ददाति सुप्तेऽपि स्वमशास्त्राऽनुसारतः
॥ ६७८॥
XXXX XSRXXXXXXXXXXXXXXXXXX
For Private And Personlige Only
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
भीतरंगवती
क्या
॥ २६
www.khatirth.org
नरस्त्रीजातिमद् वस्तु यदि स्वप्ने लमेत ना । तदा निजेप्सितं लाभं प्राप्नोत्येव न संशयः यदि नश्येच तद्वस्तु निजेष्टं स्वप्रवेदिनः । तदाऽवश्यं प्रजायेत हानिर्दुःख विधायिनी यो नरः सत्फलप्रार्थी दुष्फलाच विमेत्यपि । स धर्म स्वतः कुर्यात् धर्मोदुष्फलनाशकः । फलानि स्वमलभ्यानि फलन्त्यवसरे कदा | स्वमस्य समयेनैतज् ज्ञायते निश्श्याद् बुधैः रात्रेचतुर्षु यामेषु दृष्टः स्त्रमः फलप्रदः । मासैर्द्वादशभिः पद्मिखिभिरेकेन च क्रमात् निशान्ते घटिकायुग्मे दशाहात्फलति धुत्रम् । दृष्टः सूर्योदये स्वमः सद्यः फलति निश्चितम् मालास्वमोऽद्दिष्ट तथाऽऽधिव्याधिपीडितः । मलमुत्रादिपीडोत्थः स्वमः सर्वो निरर्थकः यदि स्वयं समायाति प्रथमप्रहरे तदा । षण्मासान्ते फलन्तस्य लम्पते निद्रितैर्जनेः मध्यरात्रे यदीक्षेत स्वमं निद्रागतो जनः । मासत्रयान्ते जायेत तत्फलं तस्य देहिनः ब्राझे मुहूर्ते यः पश्येत् स्वमं निद्रां गतो नरः । तदा सार्थैकमासान्ते सफलं लभते ध्रुवम् प्रभाते च निरीक्षेत स्वयं प्राप्यर्द्ध निद्रितः । सद्यः फलति तत्स्वमं सत्यमेव न संशयः स्वस्थ शरीरे स्वमानि फलमब्रेऽर्पयन्ति हि । तद्विरुद्धानि तान्येव फलं किश्चिन तन्वते अज्ञातचेतनाशक्तेर्मनोविज्ञानमूलकः । खंडाऽखंडमिदा स्वप्नः शुभाशुभविकाशकः पर्वतारोहणं स्वमं यदि कन्या विलोकते । तर्हि सा लभते स्वेष्टं स्वामिनं सुन्दरा कृतिम्
For Private And Personal Use Only
॥ ६७९ ॥
॥ ६८० ॥
।। ६८१ ॥
॥ ६८२ ॥
॥ ६८३ ॥
॥ ६८४ ॥
।। ६८५ ।।
॥ ६८६ ॥
॥ ६८७ ॥
।। ६८८ ॥ ॥ ६८९ ॥
॥ ६९० ॥
॥ ६९१ ॥
॥ ६९२ ॥
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
॥ २६ ॥
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ६९३॥ ॥ ६९४ ॥ ॥६९५॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥६९७॥ ॥ ६९८॥ ॥ ६९९॥
अन्यस्यैतादृशं स्वमं यद्यायाति निशामुखे । तदा निजेपितं वित्तं प्रामोस्येवाश्वपत्नतः प्रियाङ्गजे ! तवैतेन शुभस्वमेन सूचितम् । सप्तवासरमध्ये हि सद्भाग्यं प्रकटिष्यति मपितुरिति वाक्यानि निशम्य मम चेतसि । विचारोऽमूदीष्टं मे पत्युर्नान्यत्रवेदिह मदीयं गुप्तवृत्तान्तं पितृम्यां गोपितं मया । सारसिकाऽऽगमं तस्मात् प्रतीक्ष निशि संस्थिता पुनः पुनर्विचारं तं कुर्वन्ती जिनपुङ्गवम् । ध्यायन्त्यहं समुत्थाय विष्टराच्छुद्धमानसा विधाय नैशिकं शुद्ध प्रतिक्रमणमाईतम् । आवश्यकक्रिपाकाण्डं विहितं विधिना मया प्रयोदयेऽथ सञ्जाते दन्तधावनमाचरम् । पितृभ्यां च वियुज्याई प्रासादोपर्यगां शनैः - प्रासादतलमारुह्य चिन्तितस्वमनोरथा । दिगन्तानीक्षमाणाऽई समय व्यत्यवाहयम् तदन्तिमविभागे च चित्राणि चित्रितान्यहो । मनोहराणि-रत्नादिखचितान्पभवन् खलु आशावद्धं शरीरं मे वित्रुट्याइपि नापयत् । चिन्ताग्रस्तमनुष्याणां केवलाशा हि जीवनम् अथाऽस्मिन्समये भानुर्मानुभिर्योतयन् जगत् । उदयमाससादाशु साक्षी निखिल कर्मणाम् पलाशपुष्पसंकाशा रश्मयस्तेन भूतले । प्रसारिताः प्रभावन्तो लोहिताश्च परार्थिना दूरदूरतरं भूमि-मण्डलं केसरद्युति । बमासे भासमानाऽऽभ जन्तुमोदविधायकम् जगत्प्रबोधयामास सकलं भानुरुच्छ्रितः । प्रकाशं प्राप्य को लोके प्रमाद सेवते जनः
॥७०१॥ ॥७०२॥ ॥ ७०३॥ ॥ ७०४॥ ॥७०५॥ ॥७०६॥
For Private And Personale Only
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवरंभक्ती कथा ॥ २७ ॥
888888
www.kobatirth.org.
प्रातर्निरीक्ष्य नलिनीदयितं सुतानं वीरं ग्रहाप्रसरमाश्रितपूर्वशैलम् पद्यसंकुचितमात्रकृतापराधा - चन्द्रोऽभिमानधनवानपतत्पयोधी निशाकरप्रभाभिश्च गतानि म्लानतां निशि । पङ्कजानि प्रफुल्लानि चकार सकलान्यसौ सहजसौरभोद्भ्राम्यद्भ्रमरगीतशोभिनी । उदिते तु दिनाधीशे स्मेरा जाता सरोजिनी निजांशुवेष्टिताम्प्रार्थी चुचुम्बार्कोऽतिरागिणीम् । लज्जयेव गयो श्यामा कापि मीलितलोचना तदैव मोदमापन्ना सारसिकाऽपि सत्वरम् । मदन्तिके समागत्य मामाऽऽद्धिदा दृढम् ततः साऽऽनन्दसम्फुल्ला स्नेहदृष्टया जयप्रदम् । उदन्तं कथयामास मामवीरा क्षिपङ्कजम् तस्या वचन विस्तारेऽलौकिकी रसभावना । साश्वसन्ती मुहमदात् प्रारेमे वाचिकक्रमम् चिराददृश्यतां प्राप्तः स्वामी तव प्रियस्वसः १ । अधुना सैव जातोऽस्ति मदीयदृष्टिगोचरः निरभ्रशरदचन्द्र इव ( तन्मुखमद्भुतम् ) रम्यं तदाननम् । प्रकाशते वृहत्कान्तिमण्डितं मण्डलान्वितम् भगिनि ! त्वं भव स्वस्था धैर्य घेहि निजात्मनि । अचिराते मनोऽभीष्टा कल्पना (सेत्स्यति ) ध्रुवम् । फलमाप्स्यति ॥७१६ ॥ इत्यन्तस्या मुखाद्वाक्यं निशम्याऽमृतसोदरम् | सुखवारिमुचो वृष्ट्या बभ्रुवाऽहं परिप्लुता अप्रमेयप्रमोदेन सारसिकां प्रियङ्करीम् । समालिङ्गय सधैर्याऽहमपृच्छमादरादिति सखि ! मत्स्वामिनो रूपमधुना कालयोगतः । विपर्यस्तं कथं भद्रे ! स्वयाऽसावुपलक्षितः
।। ७१५ ॥
For Private And Personal Use Only
॥ ७०७ ॥ ॥ ७०८ ॥
।। ७०९ ।। ॥ ७१० ॥
॥ ७११ ॥
॥ ७१२ ॥
॥ ७१३ ॥
॥ ७१४ ॥
॥ ७१७ ॥
।। ७१८ ।।
॥ ७१९ ॥
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
REEEEEEEEE
॥ २७ ॥
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:shkailassagarsunGyanmandir
SEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
तदा सा मां जगादेति भगिनि ? त्वत्पतिर्मया । यथोपलक्षितस्तत्त्वं शृणुष्व कथयामि ते त्वया परीक्षितं यद्यत् सूचनं सचिताऽभवम् । तत्सर्व हृदि संस्थाप्य गृहीवालेख्यकाऽचलम् वेदिकायां सुचित्राणि संस्थाप्य तत्र तस्थुषी । तावत्कुमुदसन्मित्रमुदितो रात्रिवल्लभः विस्तारयन् सितं तेजः सर्वत्र धरणीतले । कामदेवप्रियश्चन्द्रः शनैरारोहदम्बरम सरःपयसि पाथोजे प्रफुल्लमिव निर्मले । नमःपटे शशाङ्कः स दीप्यति स्म विकस्वरः तस्मिन्नवसरे लोका राजान इव वर्मनि । रथारूढा धनैर्मचा विहाँ निर्गता बहिः नैशिकाऽलङ्कति द्रष्टुं रमणीयतरां मुदा । सुन्दरं रथमारूढा निरीयुरातुराः स्त्रियः युवानो युवतीमिश्च सार्क कुतकरग्रहम् । मिथो वक्षोभिरापीड्य प्रचेलुर्मुदिताशयाः अमन्दाऽऽनन्दमापनो जनवातः परस्परम् । मिलित्वा स पुनः पश्चादलित्वा सह जग्मिवान् वर्षायां पयसामोपो नदीरूपधरो यथा । महोदर्षि जनवातो राजमार्गमुपेयिवान् उमता ये जना आसन् पश्यन्तिस्म सुखेन ते । चित्राणि वामनाश्चात्र पादाङ्गुष्ठाश्रिताः श्रमात बहवः स्थूलवपुषः परस्परनिपीडनात् । कष्टध्वनि प्रकुर्वाणा व्याकुला जज्ञिरे भृशम् विचरन्तो जनाः केचि-द्रतां रात्रि मनस्विनः । नाऽविदन् चित्रितस्वान्तावित्राणां वीक्षणे रताः कियन्तष प्रदीपानां वर्तिको ज्वलितामपि । अर्द्धप्रायां व्यलोकन्त निजदृष्टिमिरुन्मदा:
॥७२०॥ ॥ ७२१॥ ॥ ७२२॥ ॥ ७२३॥ ॥ ७२४॥ ।। ७२५॥ ॥ ७२६॥ ॥ ७२७॥ ॥ ७२८॥ ॥ ७२९ ॥ ॥ ७३०॥ ॥ ५३१॥ ॥ ७३२॥ ॥ ७३३॥
SEXXXSIXHXXXXXXXXXXXSREXXXX
For Private And Personalise Only
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
भीतरंगवती
॥.२८॥
रात्रिर्यथा यथाऽगच्छल्लोचनानि तथा तथा । निद्रयाः पूर्णियान्यासन् जनानां कियता सखि ! तेषां क्षीणोऽमिलापोऽभून दिसूणां शनैः शनैः। ततः संकीर्णताऽनश्पज्जनानां राजवर्त्मनि स्तोका एवं जनास्तत्र चित्राणां सन्निधौ स्थिताः । अहं वेलाच लोकांचा-पश्यं दीपममीक्षणका तदानीं निजमित्राणां समानवयसां युवा । एको मध्पगतस्तत्र रममाणः समागत: प्रतिकृतिप्रकारांश्च प्रेक्षितुं वीक्षणोत्सुकः । स्वरूपनिर्जिताऽनङ्गोऽनन्यदृष्टिरभूत्वतः कूर्मवन्मृदुपादः स रम्यगुल्फाऽकृतिस्तथा । बलिष्ठजवायुगलो विशालोरः स्थलो बभौ बभूवतुः करौ तस्य स्थलावाजानुदीर्घको । निजमित्रमुखान्येषोऽ-म्बुजानीव विकासयन् तेषां मध्ये ब्रजंञ्चंद्र इवाधिकविभाचयः। तस्मादपि रराजोर्वी-देवीमालविभूषणम् तस्य यौवनसौन्दर्य मार्दवं विस्मयप्रदम् । विलोक्य प्रमदावृन्दं तमेवैशिष्ट रागतः एकाऽपि प्रमदा नासीद् यस्या हृदयसबनि । निवासं नाकरोदेष-कामरूपविजिस्वरः लोका एवं वदन्तिस्म दिव्यरूाघरो भुवि । किंस्वित्साक्षादयं देवः कौतुकाय समागतः विलोक्यैतानि चित्राणि कियत्कालन्तदीयकम् । कलाकौशल्पमुत्कृष्ट वर्णयनित्यवोचत भत्र सैकतयोर्मध्ये निम्नस्थलप्रवाहिनी । कल्लोलेरद्भता गङ्गा चित्रितानीवसुन्दरा फलैनसमुद्भूतैऋतुमिः शरदादिभिः । पुष्पैश्च कीशी भव्या शोभतेऽमरनिम्नगा
॥ ७३४॥ ॥ ७३५॥ ॥ ७३६॥ ॥ ७३७॥ ॥ ७३८॥ ॥ ७३९ ॥ ॥ ७४०॥ ॥ ७४१॥ ॥ ७४२॥ ॥ ७४३ ॥ । ७४४॥ ॥ ७४५॥ ॥ ७४६॥ ।। ७४७॥
॥२८॥
For Private And Personlige Only
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobarth.org
प्रफुल्लपङ्कजे राज-सरोवरविराजितम् । विविधैर्भूरुहाः कीदृशं शोभते वनम् अहो ! रथाङ्गयुगलं स्नेहपञ्जरपूरितम् । जीवितव्यप्रवाहेण सङ्गतं दृश्यते मिथः अत्र वारितरङ्गेषु सहोभौ तरतः सुखम् । तत्र तौ सैकते शुभ्रे सार्द्ध विश्राम्यतो मुदा सहैवाऽन्यत आकाशे डयते युगलं तयोः । इतः कमलपुञ्जानां मध्यदेशे सुवासिते तिष्ठतोऽनुगतस्नेहावन्योन्याकाङ्क्षया युतौ । दम्पती सर्वदा सार्द्ध सर्वतो बद्धसौहृदो चक्रवाकस्य कण्ठोऽयं स्वचातिमनोहरः । पलाशपुष्पसङ्कायो वर्णोऽस्ति चास्य लोहितः चक्रवाकी मृदुहूस्व-कण्ठी स्वकीयवर्णतः । कोरण्टकुसुमाकारा कीदृशी भासवेऽद्भुता चक्रवाकं प्रियं स्वीय- मनुयान्तीयमुत्तमम् । नाटयन्ती गर्ति रम्यां मोदमाना विराजते द्विरदोऽयं मदोन्मत्तश्चित्रितावयवोऽद्भुतः । कुञ्जराणामसौ मुख्यो दृश्यते वनचारिणाम् वृक्षपण्डेन दुर्गम्ये विपिने निजवर्त्म च । विधातुं भूरुहां शाखा खोटयन्त्रजति क्षितौ नद्यां स्नातुमना लुब्धो नीचैरवतरत्यपि । ततो भव्यशरीरोऽयं बहिर्निःसरति द्विपः तस्मिवसरे तत्र व्यrat लक्ष्यीकरोति तम् । शरेणाऽऽलीढसंस्थानः कर्णान्ताकष्टकार्मुकः शरं क्षिपति तत्पथादद्भुतं तच्च चित्रितम् । सकलं सुन्दराकारं कलानैपुण्यसंयुतम् इतः शाबिफलाधार - पद्मतन्तुसमानया । प्रभया रक्कया दीप्यन् चक्रवाकोऽयमम्बरे
For Private And Personal Use Only
॥ ७४८ ॥
॥ ७४९ ॥
।। ७५० ॥
॥ ७५१ ॥
।। ७५२ ।।
॥ ७५३ ॥
॥ ७५४ ॥
॥ ७५५ ।।
।। ७५६ ॥
।। ७५७ ॥ ।। ७५८ ।। 11148 11
॥ ७६० ॥ ॥ ७६१ ॥
Acharya Shri Kissagarsun Gyanmandir
8088882038888888
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
AcharyaShakalinsagarsunGvanmandir
मीवरंगवती
॥२९॥
XXXSESXXXXXXXBEEEEEEEEEX
उयतेऽयमिषुस्तीक्ष्णो विध्यति तमनागसम् । निरीक्ष्य चक्रवाकीयं विलपत्यतिदुःखिता यतोऽनेन पिशाचेन व्याधेन स्वपतेः प्रियम् । जीवनं स्नेहबल्ली च नाशिता क्रूरचेतसा विलपन्ती भृशं चक्रवाकीयं निजदुःखतः । अनुगच्छति मर्चारं चिताग्नो जुह्वती वपुः उत्सवेऽद्यतने दृश्य यत्किञ्चिद्विद्यते खलु । तन्मध्येऽमूनि चित्राणि हृद्यानि प्रतिभान्ति मे परन्त्वियं चित्रमाला वीक्षितव्या क्रमान्मया । सकला सावधानेन सुन्दराकारशालिनी वदनेवं स मर्त्यस्तु शोभनाङ्गोऽतिकौतुकात् । तानि चित्राणि पश्यन्सन मूच्छितो न्यपतद्भुवि दण्डे जीणे यथा भूमौ ध्वजः पतति सत्वरम् । तथैव धरणीपीठे लुठतिस्म स सुन्दरः चित्राणि वीक्षमाणास्तत्सुहृदस्त्वेकदृष्टिभिः । तल्लीना नैव तत्पातं जानन्ति स्म विचक्षणा: क्षणा मूच्छितं भूमौ पतितं वीक्ष्य दुःखिताः । उद्धृत्य दूरतस्तेऽपि निन्युः स्थानं सुशीतकम् विचित्राणि सुचित्राणि निरीक्ष्यैव विचेतनः । संजात इति विज्ञाय तस्मात् दूरतो व्यधुः कदाचित्सव पुरुषरूपेण तव वल्लभः । चक्रवाको भवेच्चैव सिद्धथेत्तव मनोरथः संप्रधार्येति वत्पृष्ठे गता तत्वबुभुत्सया । यदेष चेतना प्राप्तो रुद्धकण्ठस्तदाऽवदत रे प्रिये ! मन्महाऽऽनन्ददायिनीक गताऽधुना । नीलोत्पलदलश्याम-नयना वं शुभाकृतिः यदैकदा चक्रवाक-जन्मनि स्नेहिनो वयम् । गङ्गाकल्लोलमङ्गेष्व-मोदामहि तदाऽभवः
॥ ७६२ ॥ ॥ ७६३ ।। ॥७६४॥ ॥ ७६५॥ ॥ ७६६॥ ॥७६७॥ ॥ ७६८॥ ॥ ७७९॥ ॥ ७७०॥ ॥ ७७१॥ ॥ ७७२॥ ॥ ७७३ ॥ ॥ ७७४॥ ॥ ७७५॥
॥२९॥
For Private And Personlige Only
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
॥ ७७६ ॥ ॥७७७ ॥
॥ ७७८॥
SEBERRESIEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
इदानीन्तु त्वया हीनो जातोऽस्मि मूढमानसः । स्नेहध्वज इव त्वं मे पृष्ठानुसारिणी भव मतेऽपि त्वं मयि स्नेहात त्यक्त्वा देहं निजं स्वयम् । प्राप्तासि मद्गति सुचक मिलिष्यसि मे पुनः लज्जां विहायाऽश्रुजलेन कर्त, विलापजालं मलिनाऽऽननः सः।
शोकानलोचप्तशरीरकान्ति-लेयस्तथान्तःकलितोरुपीड: हे मामिनि ! त्वं मदखण्डयोग, पुराऽभजः प्रेमविपाशबद्धा ।
सहिष्यसेऽद्यापि कथं सुगात्रि ? कियच्चिर तिष्ठति भूतलेजम् विलपन्तमिति भ्रान्तं विज्ञाय तत्सुहगणः । तमुपालब्धवान् शीघ्र स्वस्थं निर्मातुमुद्यतः मुधा शोचसि कि मित्र ! भ्रान्तचित्त इवासि किम् । कुतो विमूढधीर्जातः किन्ते मनसि वर्तते यथार्थ स्वीयवृत्तान्तं तेषामग्रे निवेद्य सः । पुनस्तान् कथयामास नैव भ्रान्तिगतोऽस्म्यहम् ततस्ते सुहृदः प्रोचुः किं जातं तव चेतसि । कारणं सत्वरं ब्रूहि दुःखशल्यस्य साम्प्रतम् सोऽपि तानब्रवीद्वाक्यं वृत्तान्तं सकलं निजम् । कथयामि तथाप्येत-म प्रकाश्यं कदाचन चक्रवाककथेयं याऽनेकचित्रेषु चित्रिता । सा मम प्राग्भवस्या-स्ति निश्चितं तन्निबोधत तेवोचन मित्र ! तवृत्तं सत्यं ज्ञेयं कथं तव । जन्मान्तरोदन्तमिदं कथं त्वं स्मृतवानसि तदा प्रत्येकचित्रस्य घटनां प्राग्भवस्य सः। यथार्थ घटयामास मन्दं मन्दं ततोऽवदत
॥७७९॥ ॥ ७८०॥
本来以坐坐坐坐基本要求我只是在
॥ ७८२॥ ॥ ७८३॥ ॥ ७८४॥ ॥ ७८५॥ ॥ ७८६॥ ॥७८७॥
For Private And Personlige Only
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
मीवरंगवती
॥३०॥
व्यापप्रहितवाणेन मयि मृत्युवशंगते । सत्यभून्मत्रियाऽकस्मातज्ज्ञातं चित्रदर्शनात चित्रदर्शनतो नूनं हृदयं मेऽतिपीडितम् । न जानेऽहं कथं प्राप्य मूझे भूपीठमासदम् चित्राण्येतानि राष्ट्रवा मे पूर्वजन्मकथानकम् । प्रत्यक्षीभूतमेतच्च भवतां कथितं मया ॥ श्रूयतां निश्चयोऽत्राथ मदीयो मित्रमण्डन ! । तां विनान्यस्त्रिया साई लग्नेच्छा मम नास्ति । तस्मात्केनाऽप्युपायेन तया साकं समागमः । मम स्यान्चेन्महानन्दः स्नेहस्य प्रभवेद् ध्रुवम् यूयं व्रजत मित्राणि वीवध्वं बुद्धिपूर्वकम् । चित्राण्येतानि केनेह चित्रितानि समानि यत नूनमेतानि चित्राणि तयैव कारिवान्यलम् । अन्यथा मामकं वृत्तं कथमन्यो हि चित्रयेत स्वयं वैतानि चित्राणि चित्रितानि तया मुदा। अस्तु तामन्तरापत्नीमपरां कर्तुमधमः यद्धये चक्रवाकोऽहं यत्वा साकं तयानमे । तवृत्तान्तं विजानीते कथमन्या सुमध्यमा इति तस्योक्तिमाकये सख्यहं सत्वरं ततः । पृच्छकानुत्तरं दातुमगर्म चित्रसनिषो अथाऽअसा गतिं कुर्वन् शोधयन् कबिदागतः । पप्रच्छ मां विनीतात्मा स्वकार्यसाधनोवता अखिलान् पुरवास्तव्यान कुर्वन्ति चकितान भृशम् । चित्राण्येतानि केनाच चित्रितानि वदाभुमा मया प्रत्युत्तरं दच नगरप्रेष्ठिनः सुता । तरङ्गवत्य, चित्र-प्रकरं सुमनोहरम चित्रयित्वा सुरम्येऽस्मिन् मोचयामास चत्वरे । पूर्वजन्माउनुभूतस्य वृत्तान्तस्याऽनुसारतः
॥ ७८८॥ ॥७९९॥ ॥ ७९.॥ ॥७९१॥ ॥ ७९२॥ ॥ ७९३॥ ।। ७९४॥ ॥ ७९५॥ ॥७९६॥ ॥ ७९७॥ ॥७९८॥ ॥ ७९९॥ ॥८..॥ ॥८.१॥
BFXXXX XXXXXXXX
For
And Persone
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
18**********RETTEERCHORERS
www.kobarth.org
चित्रितानीह चित्राणि निजकल्पनया नहि । सत्यमेतद्विजानीहि स्वानुभूतं हि चित्रितम्. कियद्वृत्तान्तमेतच्च वर्णितं तस्य सन्निधौ । ततः स त्वत्पतेः पार्श्वे जगाम त्वरयाऽन्वितः तयोर्वार्त्ताप्रबन्धं च श्रोतुमप्यहमुत्सुका । तमन्वगच्छं धावन्ती त्वदीयहितवाञ्छया. तत्र गत्वाऽब्रवीदाशु पृच्छकः पुरुषः स तमू । " मा कुरु मित्र ! चिन्तां त्वं पद्मदेव !, तव प्रिया विद्यमानाऽस्ति तद्वार्ता मिलिता साम्प्रतं मम । सुता ऋषभसेनस्य नगरश्रेष्ठिनोऽस्ति सा. तरङ्गवत्यभिख्या च तथा चित्रगणोऽद्भुतः । मोचितो लोकवीक्षार्थं चत्वरेऽस्मिन् सुचित्रितः. तस्याः सख्याः प्रदत्तेन मत्प्रश्नस्योत्तरेण च । मया तन्निश्चितं सत्यं वृत्तान्तं करुणामयम् . " एतद्वार्त्ता समाकर्ण्य स्वद्भर्तुर्भुखमद्द्भुतम् । प्रफुल्लपङ्कजमिव चकासे दृष्टचेतसः. ततः सोऽचीकथमित्र मानन्दमयजीवनम् । “भविष्यति ममेदानीं सफलश्च मनोरथः. यदि चक्रवाकी मे पूर्वजन्मनि वल्लमा । नगरश्रेष्ठिनः पुत्री गृहे जाताऽस्ति साम्प्रतम्." पुनचिन्तातुरो भूत्वा पद्मदेवोऽञ्जसाऽवदत्- । “तत्कन्यायाचकाः सर्वे निषिद्धास्तेन मानिना. प्रभूतधनवानस्याः पिताऽस्ति बुद्धिमत्तरः। अखिले नगरे मान्यः कन्यां दवे कथं निजामू १ तस्मादस्मन्मनोऽभीष्ट - प्राप्तिर्नैव भविष्यति । मानिनो हि न मुञ्चन्ति कदापि निजमाग्रहम्. प्रियाशुद्धिमनुप्राप्य यदि तां न मिलाम्यहम् । तदाऽपह्यतरं दुःखं पूर्वस्मादधिकं भवेत्."
For Private And Personal Use Only
॥ ८०२ ॥ ॥ ८०३ ॥
।। ८०४ ।। ।। ८०५ ।। ।। ८०६ ।।
॥ ८०७ ॥ ॥ ८०८ ॥
॥ ८०९ ॥
॥ ८१० ॥
॥ ८११ ॥
॥ ८१२ ॥ ॥ ८१३ ॥
॥ ८१४ ॥ ॥ ८१५ ॥
Acharya Shri Kassagarsun Gyanmandir
******88
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवरंगवती
कथा
॥८१६ ॥ ॥८१७॥ ॥८१८॥
तन्मित्रमवदद्-"बन्धो ! लब्धा शुद्धिस्तदीयका. । नास्ति काचित्क्षतिभद्र ! सबै भव्यं भविष्यति. वस्तुनि विद्यमाने हि तल्लामो जायते नृणाम् । उपायेन समं कार्य सिद्ध्यत्येव, न संशयःअधुनाऽपरिणीता सा तिष्ठति पितृसमनि. । कन्याकृते करिष्यामो याचनां श्रेष्ठिनः पुर:. एवं कृतेऽपि नो कार्य सेत्स्यति चेत्तवेप्सितम्, । तदाऽपहरणं कृत्वाऽ-नेष्यामस्तो प्रयत्नतः. पबदेवस्ततोऽवादीत "स्वकुलाचारमागतम् । प्राक्तनं नगरश्रेष्ठी लक्चयिष्यति नैव सा. यद्यपि निजनन्दिन्यां स्नेहस्तस्यास्ति हार्दिकः । तथापि कुलमर्यादा पालयन्ति मनस्विनः. श्रेष्ठी निजा सुतां मधं कदापि नैव दास्यति । ततोऽहं जीवनस्यान्तं करिष्यामि, न संशयः
इष्टस्य लामे त्रिदिवायते क्षितिः, तमन्तरा निष्फलमेव जीवनम् । स्वेच्छानुकूलच न वैभवो मवेत, तदातु मृत्युर्वरमेव कथ्यते. सम्पत्तिसत्ताकुलमानमत्तः प्रेम्णो न जानाति दयाभावम् । प्रेमप्रमावो नहि यत्र तत्र, दयाप्रकर्षश्च कुतस्तदा स्यात. जानन्ति ये धर्मपथं विवेकिन-स्त एव राजन्ति दयादिवृत्तयः । प्रेमप्रभावं च त एवं जानते, यत्रैव तसत्र समत्वभावना. स्वापत्यशश्वद्धितकारिणा सदा पित्रादिना योग्यविधिविधेयः ।
॥ ८२० ॥ ॥८२१ ॥ ॥ ८२२॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX.
XXXXXXXXXXXXXXXXDESIMIL
॥८२३ ॥
॥८२४॥
॥८२५॥
॥३१॥
For Private And Personlige Only
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kebatirit.org
Acharya
Kasagarton Gym
॥८२६॥
॥ ८२७॥
न यत्र योग्यार्थविचारणा भवेत, स्यात्तत्र सद्धर्मगतिः सुदुर्लभा. पुत्रश्च पुत्री प्रथितेन पित्रोः सुशिक्षणेनैव सुमार्गमेति.। ततः स्वयं तौ सुखसंपदाढयो स्वजीवनं श्रेष्ठतरं विधत्तः. प्राचीनसंस्कारत एव शुद्ध-स्नेहस्तथा द्वेषमतिर्मवेताम.
तयोः प्रवृत्तिनिजकर्मयोगात् स्वजीवनं तद्ववर्ति लोके. यत:-"यस्मिन् ण्टे मनस्तोपो दोषाऽभावश्च जायते, । स विज्ञेयो मनुष्येण बान्धवः पूर्वजन्मना.
यस्मिन्रष्टे मनोद्वेषस्तोषाऽभावश्च जायते । स विज्ञेयो मनुष्येण प्रत्यर्थी पूर्वजन्मनः" किन्तु त्वत्कथितं कर्म न विधास्येवमोचितम् । अपकृत्य विधानादि वरं मृत्युर्मनीषिणाम्." ततो मित्रजनः सर्वः श्रेष्ठिपनुसमन्वितः । तस्य हर्म्यममीयाय चिन्ताऽऽचान्तमनःसराः, तत्कुटुम्बादिनामानि स्थानं च ज्ञातुमिच्छया । तानन्वगच्छं त्वरिताऽहमपि व्यथयाऽऽकुला. यं प्रासादं प्रविष्टास्ते, स नभस्तलमाश्रितः । स्वर्गादपाहतं दिव्यं विमानमिव भूतले. तपितुर्नाम-जात्यादि यथार्थ निश्चितं मया. । सन्तुष्टमानमा शीघ्रमागताऽहं निजास्पदम. तस्मिन्नवसरे सद्यो नक्षत्राणि ग्रहास्तथा । चन्द्रोऽपि क्रमतोऽदृश्यो बभूव नमसोङ्गणे. विलूनवारिजन्मोघो जलाशय इवाम्बरम् । निरलङ्कतितां मेजे. निर्धनः शोभते किमु ?
॥८२८॥ ॥ ८२९ ॥ ॥ ८३०॥ ॥८३१॥ ॥ ८३२॥ ॥८३३॥ ॥ ८३४॥ ॥ ८३५॥ ॥ ८३६ ॥ ॥८३७॥
BEEEEEEEXXEXXESXXXXXXX
For Private And Persons the Only
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:shkailassagarsunGyanmandir
भीतरंगवती
॥३२॥
XXXSSXXXXSSEXXXXXXXXXXXXX
" अमत्याची पिङ्गा रसपतिरिव प्राश्य कनकं गतच्छायश्चन्द्रो बुधजन इव ग्राम्यसदसि, क्षण क्षीणास्तारा नृपतय इवानुधमपरा. न दीपा राजन्ते द्रविणरहितानामिव गुणाः."
॥८३८॥ " यथास्थूलं मूलेऽवतरति दृशामर्थनिकरो-यथासूक्ष्मं लक्ष्मी त्यजति विधुरस्तारकगणः । यथावृद्धं बन्धः कमलमुकुलानां विघटते, यथानिम्नं भूम्ना रचयति पदं ध्वान्तनिचयः." ततः सर्वजगन्मित्रं दिनभर्ता विभाकरः । बन्धुजीक्समो रक्तः पूर्वाद्रिसानुमास्थितः.
।। ८३९ ॥ दिङमण्डलं यदीयेन तेजसा कनकप्रभम् । बभासे भासमानेन पक्षिनादेन नादितम्.
॥८४०॥ तस्मिशेव क्षणे सर्व वृत्तान्तं विनिवेदितुम् । धावन्ती त्वरमाणाऽहमागताऽस्मि तवान्तिकम्.
॥८४१॥ स्वद्भप्राप्तये यद्यद् वृत्तान्तं ज्ञातवत्यहम् । तत्सर्व कथितं तुम्मे मयेदं तथ्यवाचया.
॥८४२॥ विश्वासो यो मयि न्यस्तस्त्वया सोऽद्य फलेग्रहिः । सञ्जातोऽस्तीत्यहं मन्ये, चिन्ता नास्त्पधुना सखि 11॥८४३ ।। मत्सख्या पूर्णवृतान्ते कथितेऽहं तदाब्रवम् । व्याकुलीभ्य-"तनाम व्यवसायादिकं वद."
॥८४४॥ सारसिका ततः प्रोचे-"तत्पिता यशसोज्जलः । शिति-सागर-जन्यानां पतिविविधसंपदार. ॥८४५॥ माम्भीर्येण जितस्सिन्धुसस्थैर्येण च हिमालयः । प्रचण्डांशुः प्रतापेन तेजसा च विनिर्जितः
॥८४६॥ धरणी दानशालामिभूषिता जैनधर्मिणा । येन. तमाम सर्वत्र धर्मात्मेत्यभिधीयते.
॥ ८४७॥ अष्ठिनस्तस्य नामास्ति धनदेव इति क्षितौ । प्रसिद्धमनवद्यं च सर्वलोकप्रियङ्करम.
॥८४८॥
3338BXXOg
॥३२॥
For Private And Personlige Only
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥८४९॥
॥ ८५१॥ ॥८५२॥ ॥ ८५३॥ ॥ ८५४ ॥
पद्मदेवामिधस्तस्य पुत्रोऽस्ति जनवल्लभा. रूपेण कामजिच्चैव पद्मपत्रमनोहर:. माता शीलसमायुक्ता धर्मकर्मपरा सदा । नाम्ना वसुमतीत्यस्ति क्षमादिगुणमण्डिता." सखीमुखाग्निशम्येति सुधासारवचस्ततिम् । समुत्कण्ठितकों मे परां तृप्तिमवापतुः. वृत्तान्तज्ञानतो धन्या-प्यधन्या दर्शनं विना. । तथापि तत्प्रशंसायां तत्पराऽऽसं प्रमोदतः. "भगिनि ! त्वं क्षितौ भाग्यशालिनी विद्यसे ध्रुवम्, । यतस्ते दर्शनं जातं स्वामिनो मम शोमनम्. वांसि तस्व भद्रस्य श्रुतानि सुखदानि च । प्रत्यक्षतस्त्वया. भद्रे ! किमन्यद्भाग्यलक्षणम्?". व्रजन्ती सा पुनः प्रोक्ता मयाऽऽनन्दितचेतसा । "भतप्रेमनिमनायाः शोकः सखि ! पलायित:." ततोऽहं विहितस्नाना विधाय गुरुवन्दनम् । जिनेन्द्रपूजनं कृत्वा पारणां कृतवत्यहम. पारणाश्रमतः खिमा कटमास्तीर्य शोभनम् । विश्रामाय गता वायु-शीतले गृहखण्डकेस्वामिसमागमाशामिहुभिमुढमानसा । तत्स्नेहेन वियुक्ताऽपा-नयं समयं स्वयम्. तदा सारसिका पश्चादागता श्वासपूरिता । नेत्रयोरथुसन्दोहं वहन्ती बदरोपमम्. मामवोचत शोकार्ता-"सर्वलोकशिरोमणिः । धनदेवः स्वयं मित्र-मण्डलेन समन्वितः सम्बन्धिमिः समं श्रेष्ठी त्वत्तातान्तिकमागतः। तेन स्पष्ट वचः प्रोक्तं निजकार्यविधित्सया"श्रेष्ठिन् ! त्वदीयपुत्री मे सुताय गुणशालिने । दीयतां चेच्छुभाका युष्माकं वर्ततेऽधुना.
॥ ८५६॥ ॥८५७॥ ॥८५८॥ ॥८५९॥ ॥८६०॥
॥८६२ ॥
For Private And Personale Only
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवरंगवती कथा
॥ ३३ ॥
www.kobatirth.org
मत्पुत्रोऽभ्यस्त विद्योऽस्ति कलाकौशलवानसौ । पद्मदेव इति ख्यातः पृथिव्यां पृथुलश्रिया." नगर श्रेष्ठिना त्वेवमनहं श्रावितं वचः । “यो व्यापारकृतेऽजनं देशान्तराणि सेवये, गृहावासविहीनाय नित्यं दासीजनैः सह । रममाणाय मत्पुर्वी दास्यामि कथमद्भुताम् ? यदि दास्यामि ततस्मै प्रोषितस्वामिका यथा । सदा मलिनकेशी सा तिष्ठेत्सद्मनि दुःखिता, अलङ्कारान्समाधर्चु लभ्येत समयोऽपि नो । कदाचिदपि मत्पुत्र्या सत्कुलोद्भूतयाऽनया. स्वामिवियोगिनी साधुलोहिताक्षी च सर्वदा । कालं नयेत्तपस्येषा तथा पत्रादिलेखने. एवं मद्दुहिता श्रेष्ठ- गृहे दत्तापि शोभने । विभवे विपुलेऽशान्त्या पीडयेत सुखवर्जिता. " जातिरूपवयोविद्या आरोग्यं बहुपक्षता । उद्यमो वृत्तयुक्तत्व-मष्टावेवे वरे गुणाः. मूर्खनिर्धनदूरस्थ - शूरमोक्षाभिलाषिणाम् । त्रिगुणाधिकवर्षाणामपि देया न कन्यका. सामान्याय ततो देया वरं कन्याsपरस्य नो । भूषणादिपदार्थानां नैवास्ति मे प्रयोजनम् . " इति सारसिकाSवादीत् - "तावेन तव हे सखि । श्रेष्ठिनः प्रार्थनाभङ्गो विहितो. न कृतं वरम् असभ्यवचनं श्रुत्वा मानहानिसमाकुलः । श्रेष्ठी तु स्वगृहं यातः शोकसंविग्नमानसः." सारसिकानिगदिता वार्त्तयं श्रुतिमात्रतः । यथाब्जनालं श ेतर्तु - रमनकमन्मनोरथम्. मदीयं सर्व सद्भाग्यं तदानीं तु विनिर्गतम्. । आशु मे हृदयं शोकात् परिपूर्णमभूत्तदा.
For Private And Personal Use Only
॥ ८६३ ॥ ॥ ८६४ ॥
॥ ८६५ ॥
॥ ८६६ ॥
॥। ८६७ ॥
॥। ८६८ ।।
॥ ८६९ ॥
॥। ८७० ॥
॥। ८७१ ॥
॥ ८७२ ॥ 1| 103 || ॥। ८७४ ॥
।। ८७५ ।।
॥ ८७६ ॥
Acharya Shri Kassagarsun Gyanmandir
॥ ३३ ॥
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
**81
www.kobatirth.org
निरानन्दतया मूढा निर्मर्यादाश्रुलोचना । सारसिकां रुदन्तीं तां वचोऽवोचमिदं पुनः"मद्भर्तेषु प्रहारेण जगाम मरणं पुरा । अहमप्यैहिकं दुःखं त्यत्वा तद्गतिमाप्नुवम् । इदानीमप्यसौ जीवेत्तदा मे जीवनं भवेत्, । अन्यथा मरणं भावि मदीयं नैव संशयः. पक्षिजन्मन्यहं स्नेहान्मृताऽहं दुःखपीडिता । मानवं भवमासाद्य कथं जीवामि तं विना ? सारसिके ! व्रजाशु, त्वं तत्र गत्वा समर्पय । पत्रमेतत्तथा तस्मै वाचिकं मे निवेदय. "वेपमानाङ्गुलीभिव लिखितं भूर्जपत्रकम् । मत्सखी - वेदनाक्रान्तां प्रेमवार्त्ती वदिष्यति. "पत्रं त्विदं लघुतरं, वृत्तान्तं चातिविस्तृतम् । मत्सखीपाणिना पत्रमेतत्तुभ्यं प्रदीयते.” सखीमप्यगदं - " वाच्यं तदात्मशान्तिहेतवे । प्रेमतन्त्रमयं वाक्यमित्थं मच्छर्मसाधनम्. "स्वभर्तारमनुप्राप्तुं चक्रवाक्या भवे यया । मृत्युरङ्गीकृतः सैव जावाऽस्मि श्रेष्ठिनः सुता. भवतोऽन्वेषणार्थं च चित्तमोहविधायिनी । रचिता चित्रमालेयं मया दुःखार्तचेतसा. एकदाऽस्याः समीपे त्वमागतस्तन्मनोरथः । सिद्ध एव भवेत्तस्माभ्धृदयोल्लासदायकः. प्राग्भवेऽदृश्यतां यातस्त्वमद्य मिलितः प्रभो !, । प्राचीन स्नेहबन्धवेज्जागर्ति, रक्ष जीवितम्. त्वं स्वीयजीवितव्येन साकं मद्रक्षणं कुरु । त्वत्सखीजीवनं चैव त्वदायत्तं विभावय." पुनरप्यवदच्छ्रेष्ठिता सारसिकां प्रति । "आवयोर्बन्धरूपोऽयं यावत्स्नेहः प्रसिध्यति,
For Private And Personal Use Only
८७७ ।। ॥ ८७८ ॥
॥। ८७९ ।।
11 660 11
॥। ८८१ ॥
॥ ८८२ ॥
॥ ८८३ ॥
॥। ८८४ ॥ ॥ ८८५ ॥
॥ ८८६ ॥
|| 6122 ||
८८७ ॥
॥ ८८८ ॥
11 668 11 ।। ८९० ।।
Acharya Shri Kissagarsun Gyanmandir
18850:88E*****************
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवरंगवती
कथा
॥ ३४ ॥
*******8*888888)
www.bobatirth.org.
तावद्वार्ताप्रसङ्गोऽपि न प्रकाश्यो विचक्षण । वृत्तं चेदं गोपनीयं" विज्ञाप्यः स इति त्वया. " चिविधं वृत्तमन्यच्च सर्वसौख्यकरं शुभम् । बहुधा कथयित्वा तां प्रैषयं पत्रिकाकराम. शपथेन समं प्रोक्ता मया सा, “ऽस्मत्समागमः । भवेत्तथैव कर्तव्यं भवत्या, स्नेहवर्द्धकः आवयोः सङ्गमः सद्यः स्यात्तथोदन्तमुत्तमम् आनेतव्यं त्वया सम्यग् मद्रक्षैकविधायकम् . " युग्मम् ततः सारसिका पत्रं गृहीत्वा मत्पतेः पुरः। अगच्छन्मम चित्तेन सार्द्ध सत्वरगामिनी. तस्यां गतायां चिन्ता पीडिताहं विनिश्रयम् । अकार्ष वपुषा का दधाना श्वासपूरिता. " दैवात्प्राग्जन्मभर्चा मे जानेऽहं स मिलिष्यति । मचिन्तितं ध्रुवं भावि योगोऽयं कथमन्यथा ! शुभस्वप्नोदयश्चैव शकुनानि शुभानि च । अनुकूलास्तथायोगा योजयन्ति सदाऽऽयूतिम्. शुभदैववशानृणां निजकर्मानुसारतः । सर्वमेव शुभाशंसि जायते यत्नमन्तरा. यत्कृतेऽपि लोकेऽस्मिन् वैपरीत्यं गते विधो । देहिनां दीर्घदृष्टीनां मनोभीष्टं न सिद्धयति. प्राचीनकर्मजं दुःखं सुखं च प्राणिनां ध्रुवम् । सुखदुःखविधाता हि नान्योऽस्ति भूतलेऽङ्गिनाम्. यद्भावि तद्भवत्येव संचितं पूर्वकर्मणा । अतः कर्मबलं लोके मतमालम्बनं दृढम् . एवं तरङ्गवत्यां दि कुर्वन्त्यां कल्पनां हृदि । पत्रं दत्वा सखी तस्याः सविधे समुपागता. उवाच - " भगिनि ! पत्रं गृहीत्येतो गता बहिः । राजमार्गस्थहम्र्म्याणामन्तिके प्राचलं मुदा.
For Private And Personal Use Only
॥ ८९१ ॥
॥ ८९२ ॥
॥ ८९३ ॥
॥ ८९४ ॥ ।। ८९५ ।। ॥ ८९६ ॥ ॥। ८९७ ॥
॥ ८९८ ॥ ॥। ८९९ ।।
॥ ९०० ॥
॥ ९०९ ॥ ॥ ९०२ ॥ ॥ ९०३ ॥
॥ ९०४ ॥
Acharya Shri Kasagarsun Gyanmandir
38:88888888888888
॥ ३४ ॥
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ९०७॥ ॥९०८॥ ॥९०९॥ ॥९१०॥
SEXXXXXRESSLEEXXXXXXXXXXXXX
अनेकचत्वराण्याशु लङ्वयित्वाऽहमद्भुतम् । प्रासादमेकं निकषा स्थिता भव्यं प्रमायुतम्. धनाध्यक्षाब्धिजायोगः सञ्जात इव तत्र वै । प्रासाद एकदिव्याबिमासे संपदान्वितः साशङ्कमनसाहं तु प्रासादद्वारमासदम. । द्वारपालः स्थितस्तत्र गृहरक्षाविधायकः. दासीनां संघर्षस्तत्र कुर्वन्तीनां गतागते । मध्यादपि नवीनां मामुपलक्ष्यावदच्छनैः"कुतः समागतासि त्वमत्रागमनकारणम् । किमस्ति ? झटिति बेहि, याहि पश्चादितोजले।" "स्त्रियः छयगृहं प्रायो" मया कूटोत्तरः कृतः । “अज्ञाताऽसीति सत्योक्तिस्तवास्ति द्वाररक्षक ! युष्मत्स्वामिकमारेण समाहूताऽस्मि साम्प्रतमू" । यामिकोऽथावदत"कश्चिन्मां न वञ्चयितुं धमा" प्रशंसन्त्या मया प्रोक्तं “येषां द्वारि भवादृशः । तिष्ठन्ति रक्षकास्ते स्युः श्रेष्ठिनः सुखिनः सदा. मां नय त्वं कुमारस्य समीपे श्रेष्ठिनोऽवसा." । मद्वाक्यजातहर्षोऽसौ कथयामास मां ततः."मयि विश्वस्तनारीणां कार्य सद्यः करोम्यहम्." । इत्युक्त्वा प्राहिणोद्दासीमेकां स द्वाररक्षक: तेनैवं कथितं "दासि ! ब्रज त्वमनया सह. । प्रासादोपरिभूमिस्थकुमार नयतादिमाम." दास्या साकमहं रत्नमाणिक्यदीपितक्षितेः । प्रासादस्योपरि मायां क्षणे वागर्म मुदा. तत्र स्थिताया मे दृष्टिर्दिव्यसंपद्विराजिते । श्रेष्ठिसमनि सर्वत्र बभवदरगामिनी. रत्नसिंहासनासीनं प्राप्तयौवनसम्पदम् । दर्शयित्वा कुमारं सा किक्करी त्वरिताप्रामत.
॥ ९१२॥ ॥ ९१३ ॥ ॥ ९१४ ॥ ॥ ९१५॥ ॥ ९१६॥ ॥९१७॥ ।। ९१८॥
For PrivateAnd Personale Only
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahananjain AradhanaKendra
www.kobabirth.org
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
श्रीतरंगवती
कया
॥ ९१९ ॥ ॥९२०॥ ॥ ९२१ ॥ ॥ ९२२ ॥ ॥ ९२३॥ ॥ ९२४॥ ॥ ९२५॥
38EEKSEEEEEEEEEEERUE33333
विश्वस्ताऽहं कुमारस्य नातिदूरे स्थिता मुदा. । तत्रैको वाडवश्वासीन्मूढधीः समुपस्थितः. मुक्तं जानुनि चित्रं तच्छ्रेष्ठिपुत्रो व्यलोकयत्. । नेत्राम्यां न्यपतनश्रु-बिन्दवः फलकोपरि. स तान न्यमा यत्क्षिप्रं पत्रस्थविकृताङ्कवत् । एवं त्वन्मिलनोत्कण्ठो वियोगचिन्तया स्थितः, ललाटन्यस्तहस्ताहं प्राणमं तं कुमारकम् । “चिरं जीव कुमार! त्वम् इत्याशीर्वाङ् मयेरिता. तां निशम्याऽवदन्मुखों ब्राह्मणस्त्वीयेयाकुलः । वक्रदण्डकरचण्ड-श्चिमटीबीजदन्तका व्याघ्रचर्मोपरि व्यक्त-धृतरक्ताङ्गरक्षकः । बहुभाषी वृथामानी विकरालाङ्गदर्शन:"ब्राह्मणं मां परित्यज्य कथं शूद्रो नमस्कृतः । दुविनीते त्वया मूढे ! प्राविरुद्धं कृतं महत. तद्भयावलयं हस्तान्मामकादस्खलत्स्वसः! । भूमौ निपतितेवाहं दण्डवद्विनयान्विता. "नमामि त्वामिति" प्रोच्य पुनरुत्थाय संस्थिता. । “भुजङ्गमादिव खत्तो विभेमी"त्यवदं ततःहुक्कारं च विधायैष कथयामास मां तदा । "रे दुष्टे ! मां भुजङ्गेति वदन्ति किं न लजसे ?"
न भवान् सर्प" इत्युक्तं मया “विप्रशिरोमणे! । अथेदानीं भवच्चित्तं सन्तुष्टं किमजायत?" सोऽवदद्वेपमानौष्ठौ "मामुक्त्वा सुजगं पुरा । व्यलीक भाषसे दुष्टे ! प्रतारयसि मामपि ? वाडवानां कुले श्रेष्ठे जातं मां सम्प्रधारय. । हारितश्चास्मि गोत्रे. मत्पिता काश्यपाभिधा. छान्दोग्यसम्प्रदायस्य धुरीणः. सर्वशासनम् । करोम्यहं. न जानासि किमद्यापि मनस्विनि !"
RXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥ ९२७॥ ॥ ९२८॥ ॥ ९२९॥ ॥ ९३०॥ ॥ ९३१॥ ॥ ९३२॥
॥ ३५॥
For Private And Personlige Only
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
बहुचैवमुपालब्धा तेनाऽहं ब्राह्मणत्रुवा । निशम्य श्रेष्ठिपुत्रेण निष्ठुरं तस्य भाषितम्कृपालुना स सक्रोधं वचनेन तिरस्कृतः । उक्तं च " दास रे ! दुष्ट ! परकीयां न वर्जय. वृथा मा जल्प, मूर्खोऽसि नान्यदत्रास्ति कारणम्. । आगन्तुकं जनं नैव तिरस्कुर्वन्ति सज्जनाः, " इत्थं श्रेष्ठतेनोक्तो ब्राह्मणः स क्रुधान्वितः । दूर एव स्थितो नेत्रे घूर्णयामास माममि. ममानुकरणं भूरि चकार स नराधमः. । हीनवंशसमुद्भूतो नैव जानाति सस्कृतिम् . अन्यत्किमपि नो कर्तुं शशाक स दुराशयः । ततः प्रस्थानमारेमे निजवर्त्म विलोकयन्अथापि मोदमापद्मा रुदन्तीवाऽवदं वचः - | " भव्यं जातं गतो मूढः परदुःखैककारणम्,” “कुतः समागतासीति” श्रेष्ठिमनुर्जगाद माम्. । “ किमर्थं १ ब्रूहि शीघ्रं मे. किमभीष्टमपेक्ष्यते ?" aashit "वीमन ! कुलभूषण ! सद्गुण !। दुर्गुणैर्वर्जितस्वान्त ! समस्तजनमोहन ! मन्मुखाच्छ्रयतां स्वल्पं वाचिकं भवता पुरा । नगरश्रेष्ठिनः कन्यर्षभसेनस्य शोभना तरङ्गवत्यमेयात्मा रम्मेवास्ति विचक्षणा । स्वाभीष्टं चित्रयामास स्वचित्रेऽद्भुतदर्शने. तत्सर्वं सफलीकर्तुमियेषाधीरमानसा. । प्रमदानां कृतः स्वास्थ्यं वियोगव्यथितात्मनाम् १ प्राग्जन्मस्नेहसम्बन्धो रक्षणीयस्त्वया यदि । तदाऽस्या जीवनं स्थिरी - कर्तु देहि वचो ममइति सन्दिष्टवचनं मया विज्ञापितं तत्र । तत्त्वार्यस्त्वस्य तत्पत्रे लिखितो ज्ञास्पते त्वया.”
For Private And Personal Use Only
॥ ९३३ ॥
॥ ९३४ ॥
।। ९३५ ।।
॥ ९३६ ॥ ॥ ९३७ ॥
॥ ९३८ ॥
॥ ९३९ ॥
॥ ९४०
॥
।। ९४१ ।।
।। ९४२ ॥
॥ ९४३ ॥ युग्मम्
॥ ९४४ ॥
॥ ९४५ ॥ ॥ ९४६ ॥
Acharya Shri Kasagarsun Gyanmandir
*88*88*NCCC8888888REEBES?
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवरंगवती
कथा
EIOSREKODAEEKSERRORSROKAR
अद्भुतं मद्वचः श्रुत्वा कुमारस्य मुखं तदा । अश्रुप्रवाहतः क्विन, कम्पते स्म क्युस्तथा. निजस्नेहस्तु तेमेत्थं दर्शितः श्रेष्ठिश्नुना.। प्रत्युत्तरप्रदानाय न क्षमोऽभूञ्च स प्रधीः. निराशा गोपितुं तेन यचित्रमङ्कितं शुभम् । तदश्रुपाततः स्नेहा-दार्टीचक्रेऽखिलं पुमा. काञ्चिच्छान्ति समासाथ गृहीतहस्तपत्रका, । यदेतद्वाचयामास प्रफुल्लाक्षस्तदाऽभवत. वाकचातुर्यमयं पत्रं विचार्य शान्तिमासदत. । विशेषतः स हृष्टात्मा स्पष्टवाचा जगाद माम"अलं वाचा विस्तरेण संक्षेपान्मदशा शृणु. । यदि त्वमत्र नागच्छेस्तदा मे मरणं ध्रुवम. सुष्टु त्वदागमोऽधैव जातो जानामि साम्प्रतम् । जीवनस्य रसं लप्स्ये वल्लभायाः समागमात. त्वदागमनतश्चैव कामदेवः स्वसायकैः । प्रहारं कुरुते तीरतिगाढं ममोरसि. तत्पराजयमाधातुं बलमासादितं मया. । निर्बलस्व सुखं नास्ति कुत्रापि जगतीतले." ततः स तव चित्रैव प्राग्भवं स्मृतवान् हदिः । तस्य सर्वा कथां मह्यं कथयामास मूलतः, त्वया च कथितं यन्मे तवृत्तान्तं समस्तकम् । अभिनमेव भगिनि ! त्वदुक्तं समजायत. "उद्यानसरसः पार्श्वे भ्रमन्ती चक्रवाककम् । निरीक्ष्य त्वं भवं पूर्वमस्मार्षीः स्नेहबन्धनात." इत्यादिका कथा सर्वा तस्याये विनिवेदिता. । श्रुता स्थिरेण चित्तेन ! स्वेष्टः कस्य न वल्लभः ? ततः श्रेष्ठिसुतोऽवादीद् "रे!रे । सख्यास्तवोत्तमे ! | चित्राणि वीक्षमाणस्य तीवाघातोऽजनिष्ट मे.
॥९४७॥ ॥९४८॥ ॥९४९॥ ॥ ९५.॥ ॥९५१॥ ॥ ९५२॥ ॥ ९५३ ॥ ॥९५४॥ ॥ ९५५ ॥ ॥ ९५६ ॥ ॥९५७॥ ।। ९५८॥ ॥ ९५९॥ ॥९६०॥
10BIR88833BBBBBCRIBEOSBHB
For Private And Pessoa
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
॥९११॥ ॥९॥२॥
॥९६४॥ ॥९६५॥
KXXXXXXXXXXFROEXEET
वियोगजनिताऽऽपत्ति-कण्टकोऽन्तस्तथाऽविशत् । यथाऽस्मत्स्नेहसंवन्धो पवाऽतीवपेशल: समाप्त उत्सवे जाते वजदण्ड इव धितो । गृहमागत्य शय्यायां पतितोऽहं व्यथाला शयनासनमावेष्ट्य परितो मित्रभण्डलम् । स्थितं मे टुःखितस्यैवाऽवषिष्टा निर्गता निया वटस्थितो यथा मत्स्यो वेपमानस्तथादितः । स्नेहाखेन शय्यायां निराशो निःसहायकर विलापान विविधान्कुर्वमहं निम्यासपूरितः । व्याधिग्रस्त इव क्लिष्टः स्थितोई मुग्धमानस: शून्यबुद्धिरहं तूणी वस्थिवान नयनाजबात् । दचवानुचरं हास्पमकार्ष षणमात्रा अकुर्वि रोदनं चापि वियोगवेइनाकुलः । सुहृद्भिर्मामकं दुःखं थथार्थमुपलक्षितम् लज्जा विहाय ते प्रोचुर्जननी मामिको कथाम् । पुत्राय नगरप्रेष्ठिसुता याचस्त्र तेऽधुना अन्यथा पपदवो वैन जीविष्यति दुखितः । मन्माता तु पितुः पार्श्व गत्वाऽवोचत्कथानकम् स तु सत्वरमवाजीच्छ्रेष्ठिना सबनि स्वयम् । तथापि श्रेष्ठिना नैव मेने या तदर्थना ततो मत्पितरो सद्यः सान्त्वयितुमबोचताम् । एनो! तरङ्गवत्यास्त्वमाग्रहं मुश्च केवलम् भन्या कन्या सुरूपाश्च वृणीष्व हृदयेप्सिताम् । वृथाऽग्रहं न कुर्वन्ति बुद्धिमन्तो हि कहिंचित इत्यं निशम्य तद्वाक्यं, निपत्य क्रमयोः पितुः । अवादिष विनीतोऽहं ललाटनिहिताञ्जलि युवयोस्तु वचो मान्यं सर्वथा मेऽस्ति सर्वदम् । भवदुक्तं करिष्येऽहं काऽस्ति ? तस्यां विशिष्टता
॥९६७॥ ॥९६८॥ ॥ ९६९॥ ॥९७.॥ ॥९७१॥ ॥९७२॥ ॥९७३॥ ॥९७४।
For Private And Personlige Only
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kent
श्रीवरंगवती कथा
॥ ३७ ॥
188988
www.kobatirth.org
अनेन मम वाक्येन पितरौ मुदितौ भृशम । चिन्ताहीनौ ततो जातौ प्रबलापद्विनिर्गमात् मया तु थियोsकारिवात्मघातस्य चेतसि । यतस्तन्मेलनाsशा मे सर्वा निमूलतां गता या दिवसे कुर्या - मात्मघातं तदा जनाः । विज्ञाय मां निरुन्ध्युर्हि निन्द्यकार्य विधानतः तद्भयेन विधातव्यं रजन्यां कार्यमीदृशम् । सुप्तेषु सर्वलोकेषु संकल्प इति निर्मितः जीवनाशां विमुच्या मरणे कृतनिश्चयः । विकल्पान्विविधान् कुर्वे तावत्रं समुपागता एतेन मामके चित्ते प्रमोदो विपुलोऽजनि । जीवनं सुधया सिक्तं प्राजनिष्ट च सत्वरम् तथापि तव सख्यास्तच्छोकपत्रस्य वाचनात् । मद्विलोचनतोऽभ्रूणां प्रवाहो निर्गमिष्यति निर्मर्यादश्च दुःखं मे भद्रेष्काण्डे मविष्यति । पश्चेषुजनितापीडा दुःसहा योगिनामपि स्वसख्यये त्वया त्वेषा सन्देशवाग्रहोजुषा । कथनीया यथातथ्यं हितार्थी हितदः सदा यस्मिन्मृतेऽनुगा तूर्ण यश्च त्वं क्रीतवत्यहो ? । मूल्येनैतावता सोऽय तव दास्यं समीहते तव चित्रैव वृत्तान्तं समस्तं स्मृतिगोचरम् । जातमस्य ध्रुवं पूर्व-भवस्य प्रविलोकितैः याari तस्य न जाता तावत्स दुःखितो भृशम् । तथापि तब सम्बन्ध-स्नेहयोराशया से तु मन्यमानो महाऽऽनन्दं समयं नयतेऽनघः । भाविशुभोदयेनैव सुखं तिष्ठति चान्वहम् इत्थं सन्दिश्य मां पश्चात् सरलात्मा त्वदीयकम् । स्नेहं संस्मृत्य संस्मृत्य तदाश्चापाशयन्त्रितः
For Private And Personal Use Only
।। ९७५ ।।
॥ ९७६ ॥
॥ ९७७ ॥
॥ ९७८ ॥
॥ ९७९ ।। ॥ ९८० ॥ 11968 11 ॥ ९८२ ॥
॥ ९८३ ॥
॥ ९८४ ॥
।। ९८५ ।। ॥ ९८६ ॥
॥ ९८७ ॥
॥
९८८ ॥
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
॥ ३७ ॥
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
*888***88**8888888888888888
www.kobatirth.org
पायान्याः प्रकुर्वाणो मां निरुध्य चिरं ततः । व्यसुंजडुकुच्छ्रेण तव प्रेमलतां स्मरन तत्प्रसादाद्वहिर्यान्त्या मयाऽऽकाशधरातलम् । एकीभूतमिव ज्ञातं स्नेहसम्बन्ध इशः विहाय त्वत्पितुर्ह सर्वत्र राजवर्त्मनि । तादृशो नाऽपरो भव्यः प्रासादो दृश्यते महान् इदानीमपि सा शोभा भव्यता सैव सत्कृतिः । साऽपूर्वा हृदि मे साक्षात् स्फुरत्येव पुनः पुनः त्वद्वल्लामातिसौन्दर्यमपि चेतोहरं शुभम् । तत्पत्रमधुना तुभ्यं ददामि सुखदायकम् पत्रेऽस्मिन भव्येन स्नेहस्याशा अनेकशः । दर्शिताः स्पष्टभावार्थाः सुधाधारा इव स्फुटाः तरंगवत्यथ स्वीयां वदति प्राक्तनीं कथाम् । आगतं स्वामिनं साक्षा-दिन हस्ते विधाय तत् वक्त्रेण चुम्बितं मोदात्पत्रं प्रेमाऽमृताऽऽस्पदम् । मयोत्कण्ठितया शीघ्रं दृढवेष्टनवेष्टितम् यावदीयमुद्रा मे नेत्रयोः प्रस्फुरत्यलम् । कर्णघोष सखीशब्दाः प्रविशन्ति मुहुर्मुहुः तावदेव मनःक्षेत्रे प्रमोदाङ्कुरराशयः । प्रादुर्भूताः प्रभृता मेऽप्रमेयक्षेमदायकाः चम्पकस्य यथा पुष्प-दलानां स्फुटनात्परम् । निःसरन्ति बहिस्तन्तु -राशयश्चित्तमोहकाः मुद्रामुत्सार्य तत्पत्रं वाचितुं सस्पृहाऽभवम् । मन्मृत्युमन्तरा सर्व पूर्वजन्मकथानकम् वर्णितं तेन सम्पूर्ण चमत्कारकरं भृशम् । यावत्सहावसाव द्वौ तावत्सर्वं हि निश्चितम् मन्मृत्योश्च कथान्त्वेष नाशासीत्करुणालयः । आनन्दोल्लसितेनाहं हृदयेन रसप्लुता
For Private And Personal Use Only
।। ९८९ ।। ।। ९९० ।।
॥ ९९१ ॥
॥ ९९२ ॥
॥ ९९३ ॥
॥ ९९४ ॥
।। ९९५ ।।
।। ९९६ ॥
॥ ९९७ ॥
।। ९९८ ।।
॥ ९९९ ॥
॥ १००० ॥
॥ १००१ ॥
॥ १००२ ॥
Acharya Shri Kasagarsun Gyanmandir
GRRRRR
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achar
बोदरंगवती
करा
॥१००४॥
NASEXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१०.७॥ ॥१.०८॥ ॥१००९॥
प्रेषितं तेन तत्पत्रं वाचितुं प्रारमे मुदा । यादृशी मे मनोऽवस्था तस्यापि तादृशी खल एतत्तेनैव भव्योक्त्या वर्णित सुन्दरं शुभम् । पत्रस्य वाचनात्तस्य स्नेहः स्पष्टोऽभवत्तदा पत्रस्थितं तु यद्वृत्तं तदेव शृणुताऽधुना । मन्मनास्नेहसत्पात्रं तरङ्गवत्यनिन्द्यधीः सन्देशोऽयं समादिष्टस्तस्याः शान्तिकृतेऽखिलः । आशापाशनिबद्धाया जातपूर्वभवस्मृतः विकसत्कमलाकार-वदना चित्तजेषुभिः । क्षीणदेहा च या जाता तस्या मालमस्त्वलम् आवां स्नेहेन संबद्धौ येन संरक्षितौ मृतेः । कृपया नस्य कामस्य सर्वथा कुशलोऽस्म्यहम् केवलं कामबाणेन विद्वोऽस्मि तेन हेतुना । यावत्वं दूरदेशस्था तावन्मे निर्मलंन्नो नीपुज: वपुः कुशलोदन्तमाकार्य कमलाधि ! प्रिये ! तब । कथयाम्यपरां वार्ण शृणु त्वं सुसमाहिता आवयोः स्नेहसम्बन्धाऽऽ-नन्दं भूयः स्मरबहम् । इदानीमपि मग्नोऽस्मि त्वदीयकामनाजसे सम्बन्धिनाश्च मित्राणां पाहाय्येन सुलक्षणे ! । आवर्जयाम्यहं याव-अगरबेष्ठिनो मनः तावत्वं धैर्यभाधेहि निजतातेच्छया प्रिये ! । समीहितं शुभ सर्व सिद्धयतीष्टप्रसादतः तत्तु पत्रं प्रवाच्यैवं मया ज्ञातं तदा द्वयोः। मत्प्रियेणान्तरस्नेहो याथातथ्येन वर्णितः तथापि धीरताधान-सूचनेन स मस्त्रियः । मन्दस्नेहोऽधुना जातो जानेहमिति निवितम् उत्साहोत्कलिके नष्टे मदीये तेन तत्वणात । शिथिलीय जवायां विनिवेषितर्परा
॥१.१२॥ ॥१.१३॥
॥१.१५॥
For Private And Personlige Only
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
॥१.१८॥
BEEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
मुखं निधाय हस्तान्जे निनिमेषविलोचना । शून्यं निरीक्षणं चक्रे गृहकार्यपराङ्मुखी वयस्यामान्त्वयन माश्च समादरपुरःसरम् ! सखि ! त्वत्कामनासिद्धिश्चिरकालसमर्थिता अवश्यं भाविनी भद्रे ! नैव चिन्ताप्रयोजनम् । वृथा चिन्ताविधानेन किं फलं लभते ? नरः युवयोः स्नेहसम्बन्धः पत्रेण सुच्यते पुनः । तेनैव तव शोकाग्नि निर्वापय महामते ! वचोऽमृतेन ते मर्तुः शोकजन्तुर्लयं गतः। मुदं करिष्यति शान्ति-मचिगच जनिष्पति विषादो नैव कर्तव्यस्त्वया घेतोविदाहकः । अचिरेण निजस्वामि-संयोगस्ते भविष्यति मया सखीवचः श्रुत्वा प्रतिवाक्यं समीरितम् । जानेऽहं दरवासेन मन्दस्नेहो भवेत्सखि ! अतोऽस्माकं बत स्नेह-संगतिरायतौ स्थिरा । न भविष्यति मन्येऽहं सर्व-कालविनिर्मितम् कताञ्जलिः पुनः शान्त्यै प्रत्यवोचत्सखी मम | भद्रे ! त्वं निश्चितं विद्धि यथार्थ कथयाम्पहम् वीराः साधयितुं साध्यं निजं यत्न प्रकुर्वते । व्यवस्थाच यथाकालं वितन्वन्त्यप्रमादतः साधनानाममावे हि योग्यानां वीरपुरुषाः । जघन्यमार्गमाश्रित्य न कुर्वन्ति मनीषितम् येन केनाप्युपायेन कार्यसिद्धिर्न शोभना । सहसा कार्यनिर्मातुः कटुकं जायते फलम् अविचार्यकृतं कर्म परिणामेऽसुखपदम् । योग्यसाधनसत्त्वे हि कार्यसिद्धिः प्रजायते साधने सति योग्येऽपि यदि कार्य निजेप्सितम्। न सिद्धयति तदा पुसां नैव दोषोऽभिधीयते
॥१०२०॥ ॥१०२१ ॥ ॥१०२२॥ ॥१.२३॥ ॥१०२४॥ ॥१०२५॥ ॥१.२६॥ ॥ १०२७॥ ॥ १०२८॥ ॥१०२९॥ ॥१.३०॥
For Private And Personlige Only
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobahirihora
तरंगपती
॥१०३२॥
XXXXXSXSXXXXSSEXESEX
बतो वीरजना विद्धाः कामबाणैनिरर्गलम् । तथाप्यसत्प्रचारामो दूषयन्ति निजं कुलम् वरं दौस्थ्यं लोके वरमपि च मानस्य विलयः । वरं ग्रामे ग्रामे पथि पथि च निन्दा शतमुखी वरं देवत्यागो बरमपि वियोगः स्वमुहृदां, । कुकृत्यैः प्राणानामवनमपि पुंसामनुचितम् कुलीनाः स्वकुलाचारं सत्यवत्मेनि संस्थिताः । पालयन्ति महाऽऽपद्भिः पीडिता अपि सर्वदा इत्थं सख्या बदन्त्यां मे पाचन्धुर्विभावसुः । न्यमज्जत्सरितां पत्यो न ज्ञातं तदिदं मया ततः शीघ्रतरं स्नानं विधाय शुद्धिहेतवे । सख्या साकं मया भुक्तं किश्चित्पक्कासमस्पृहम् ततः सख्या तया सार्द्ध चन्द्रशाला मनोरमाम् । समारुह्योपविष्टाऽहं रम्यमालम्ब्य विष्टरम ततो मुदा मया वार्ता मद्भर्तर्विहिता चिरम् । कालो यथा यथाजगच्छ-तथाऽशान्तिरवर्द्धत असह्या साऽभवत्पीडा मनोवल्लिविशोषिणी । संपत्ती विद्यमानायामपि निःस्वसभाऽभवम् स्नेहप्रायल्यतो भूरि-पीडया व्यथिता सखीम् । जीवनं रक्षितुं नम्रा प्रावोचं वचनं पदः समुदानां समुल्लास कुर्वश्चन्द्रो यथा यथा । नमोङ्गणं समायाति तथोत्कण्ठा विवर्द्धते पवनस्य बलेनेव कुशाग्रस्थगितोदकम् । मदुत्कण्ठावलेनैषा नश्यति मिष्टवाश्वत मन्मानसानिरानन्दात्सखि ! त्वं शरणं मम । किं करोमि १ क गच्छामि ? दुःखस्यान्तः कथं मम ! मदीयं मानसं तस्य पृष्ठे भ्राम्यति सस्पृहम् । इदानीमेव सान्निध्यं तस्य प्रापय मां स्वसः !
॥१०३४॥ ॥१०३५॥ ॥१.३६ ॥ ॥१.३७॥ ॥ १०३८॥ ॥१.३९॥ ॥१०४०॥ ॥१०४१॥ ॥१०४२ ॥ ॥१.४३॥
३९॥
For Private And Personale Only
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
प्राग्भवे मम भर्त्ताऽसीत् स श्रेष्ठिनुरद्रुतः । स्नेहवेद्यामहं लज्जा - होमं कुर्वे विधानतः वयस्या प्रत्यवोचन्मां स्वकुलाचारपद्धतिः । पालनीया त्वया मद्रे ! मार्गोऽयं कुलयोषिताम् ईदृशं साहसं कर्तु न त्वं योग्याऽसि साम्प्रतम् । तस्मै विशुद्धवंशाय कलङ्कं दातुमुद्यता स तवास्ति त्वमेतस्य जातासि भगिनि ध्रुवम् । अधुना सङ्कटं नैव त्वया घाट स्वचेतसि पितरौ तव सौख्याय त्वन्मतं मानयिष्यतः । दुःखितां स्वसुतां दृष्ट्वा मातापित्रोः सुखं कुतः १ बहुधा वनिताजातिः संवेश्वशतां गता । कदाग्रहग्रहग्रस्ता कुरुते हि निजेप्सितम् एवमेव ममाप्यासी- दुन्मार्गगमनस्पृहा । ततः सख्युपदेशेऽपि विवेकधीरनश्यत aaisi स्नेहसम्बद्धा केवलं व्यग्रमानसा । विवेकविधुराड्वोचं सारसिकां सखीं प्रति मानवैः सर्वकार्याणि दुःसाध्यान्यपि बुद्धितः । विधातुमुद्यमः कार्यों स्वेष्टसिद्धिविधित्सुभिः
रुपहतस्तत्र तेभ्यो नैव विमेति यः । स जयं लभते नूनं दुःसाध्येष्वपि कर्मसु प्रारव्यमपि यत्कार्य विषमं स्यात्तथापि तत् । सुकरं साहसान्नूनं तस्मात्साहसमाचरेत् 'तादृश्येव मदुत्कण्ठा वर्तते मर्तुसन्निधौ । यदि मां न नयेस्तर्हि मृतामेवाशु द्रक्ष्यसि बाणजालेन कदर्थीकृतचेतसम् । वियोगव्यथितां जात- पूर्व संस्कार संस्मृतिम समयो न वृथा देयो निजेहिभूतिमिच्छता । मां तत्र नय सद्यो हि मा विलम्वं कुरु स्वसः १
For Private And Personal Use Only
॥ १०४४ ॥
॥ १०४५ ॥
॥ १०४६ ॥
॥ १०४७ ॥ ॥। १०४८ ।। ॥ १०४९ ॥
॥ १०५० ।। ।। १०५१ ।।
॥ १०५२ ॥
॥ १०५३ ॥
॥ १०५४ ॥
।। १०५५ ।।
॥ १०५६ ॥
।। १०५७ ॥
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
8888888888REEEEEEEEEEE
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:shkailassagarsunGyanmandir
बीवरंगवती
॥१०५८॥
%EXEXXXSEX
॥१०६०॥
॥१०६२॥
जीवितां द्रष्टुमिच्छा पेन्मां तदा कुरु शीघ्रताम् । विवेकं सम्परित्यज्य सख्यं जानामि वहिने तथाऽऽआहेण मचेतः-प्रमोदाय सखी मम । मया साकं गृई गन्तुं स्वामिनः प्रत्पपयत कामदेवधनुर्भूतं वेषञ्च पर्वधारयम् । सद्योऽनङ्गविशुद्धयर्थ प्रमोदेन समन्धिता प्रफुल्ले नपने जातेऽद्भुततेजोविराजिते। यतः प्रियालयं पादौ गन्तुमुत्कण्ठितो भृशम हृदयन्तु ममोन्मत्तमिव अहिलतां गतम् । पुरैव प्राचलच्छीघ्रं प्रियप्रासादमीक्षितुम् अथावां वेपमानाङ्गयौ परस्परकरग्रहम् । विधाय पश्चिमद्वारोच्चलिते निजवेश्मतः कौशाम्बी तुलितस्वर्गा अषयन्तं सुविस्तृतम् । राजमार्ग समागत्य विपींशप्नुवाद्भुताम् पुष्पमालामिवाऽत्यन्तं रमणीयां सुविस्तराम् । विलोकितुं कथं शक्ता भवेयं विरहाऽदिता सद्विचाराऽस्तु पत्यो मे स्थिरा एव च पूर्वतः । अद्यैव मत्पतेर्भावि दर्शनं सुखदायकम् इत्थं विचारणाचिचे मदीयेऽभूत्पुनः पुनः। तस्माच्छ्रमो न विज्ञातो प्रयाणजनितस्तदा संकीर्णेऽपि जनैर्मार्ग गमनागमनोवतैः । सरूपा समं व्रजन्ती च त्वरया भृशपीडिता प्रासादं स्नेहसद्धाम तोरणालीविभूषितम् । श्रेष्ठिनः श्रेष्ठशोभाढ्यं सम्प्राप्ता मुदिताऽऽजना सारसिका सखी तावन्मित्रमण्डलसंस्थितम् । मां प्रिय दर्शयामास गोपुरस्पोपरि गृहे घरचन्द्र इवाऽनल्यं प्रकाशं वितरनिजम् । अवादयदल्ली स तदानीं चिचहारिणीम् ।
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥ १०६४॥ ॥१०६५॥ ॥१०६६ ॥ ॥१.६७॥ ॥ १.६८॥ ॥१.६९॥ ॥१०७.॥ ॥१०७१।।
For Private And Personlige Only
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
88888************8888888
www.kobatirth.org
निश्चलावयवा इन्तुं स्थिरदृष्ट्या न्यभालयम् । तं मनोवल्लभं प्रेम्णा नेत्रतृप्तिस्तु नाऽभवत् लोचनेप्रवाहेण पूरि ते मवतां मुहुः । हृदयन्तु तदानीं हि तन्मयं समजायत चक्रवाकमवस्वामी मया दृष्टो यथा यथा । तथा तथा मदुत्कण्ठा, वर्द्धत तद्विलोकने तस्यापि दृष्टिपातोदावयोर्द्धर्षवर्द्धनः । एवमप्यतुलोत्साहे भर्तुरावां समुत्सुके नातिदूरे स्थिते तत्र ड्रिया न निकटं गते । विसृष्टाः सुहृदस्तेन क्षणे तस्मिन्सुदैवतः यूयं व्रजत मित्राणि ! शरच्चन्द्रस्प तेजसि । प्रमोदध्वमहं रात्रौ शयिष्येऽत्र वरासने गतेषु तेषु मित्रेषु तत्क्षणं मत्सखिमभि । निरीक्ष्य श्रेष्ठमनुः स स्नेहदृष्ट्याऽवदत् सुधीः आगच्छ नगरश्रेष्ठि- गृहे मुक्तानि यानि वै। तानि चित्राणि सर्वाणि वयं वीक्षामहे रहः तस्मिमेवं ब्रुवाणेऽहं भूषणानि यथाऽऽस्पदम् । वासांसि च यथास्थानमकार्ष मुदिताऽऽनना सत्स्वामिस्लाममत्ताऽहं कामदेवमित्राऽपरम् । मत्प्रियं प्रेमसत्पात्रं मनोहत्य व्यलोकयम् विवेकविनयोपेता साऽगच्छत्तस्य सन्निधौ । तदानीमेव स क्षिप्रमुदतिष्ठत्समादरात् यस्मिन् स्थले सलज्जाsहं व्याकुला च स्थिता रहः । तस्मिन्नेवाऽऽगतः सख्या सुरम्ये गृहखण्डके ततः स मोदमापद्मचक्षुषा स्नेहवर्षिणा । परितो वीक्षमाणः समपृच्छत्तां निजेप्सितम् मज्जीवितसरः पोषं कुर्वती मत्सुखप्रदा । मचेतोऽभीष्टराशी सा कुशला वर्तते शुमे १
For Private And Personal Use Only
॥ १०७२ ॥ ॥ १०७३ ॥
॥। २०७४ ॥
॥ १०७५ ॥
॥ १०७६ ॥
॥ १०७७ ॥
॥ १०७८ ।।
॥ १०७९ ॥
॥। १०८० ॥ ॥। १०८१ ॥
॥। १०८२ ॥
॥ १०८३ ॥
॥। १०८४ ॥
॥। १०८५ ॥
888888888888888***********
Acharya Shri Kasagarsun Gyanmandir
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीतरंगवती
॥११॥
यदारभ्य शरापातैर्विद्धोऽनङ्गस्य मीलितुम् । ताश्चोत्सुकमना नास्ति ततः किञ्चित्सुखं मम ॥ १०८६॥ शरनिशि रमध्वं हि मां तु निद्रा प्रवाधते । इति च्छलेन मित्राणि व्यसृर्ज स्वैरकाम्यया
॥१०८७॥ तत्तु नैपुण्यमात्रं मे निबोध हितदायिनि ! | अभिप्रायो ममैवासीद्वस्तुतस्तद्विसर्जने
॥१०८८॥ युष्मत्प्रासादमासाद्य यथेच्छं क्रीडनेच्छया । चित्राण्यालोकितुं चैव मया चेतोहराणि वै
॥ १०८९॥ तथापि दर्शनेनैव तव भद्राशये मम । समुद्भुतप्रमोदेन शोको नष्टोऽतिहार्दिकः
॥१०९०॥ वद वं वल्लभाया मे वाचिकं किं त्वयाऽऽहतम् । कुशलोदन्तमावेद्य प्रसनं कुरु मानसम्
॥१०९१॥ सत्यवादीन सन्देश-वचनं किञ्चिदाहृतम् । त्वन्मनोऽभीष्टदा-सैव स्वयमत्र समागता
॥१०९२॥ पुनः साऽप्पत्रवीद्वाक्यं सख्यास्तु कुशलं परम् । तथैषा स्नेहमूढाऽस्ति तत्पाणिग्रहणं खया कर्तव्यमेव तत्क्षेम-मिच्छता प्रेमघारिणा । अब्धिमिवाऽऽपगा स्नेहा-दागता या स्वदन्तिकम् ॥१०९४॥ इति वाक्यामृतं पीत्वा सकलं मामकं वपुः । स्वेदबिन्दुसमाकीर्ण बभूव प्रेमसंभृतम्
॥ १०९५ ॥ निःसहा विनयाऽऽनम्रा प्रमोदावुप्लुताऽक्षिका । व्याकुला वेपमाना च प्राणमं स्वामिनः क्रमो ॥१०९६॥ क्षिप्रमेव सुरम्येण करेण स्नेहपूर्वकम् । उत्थाप्याऽहं समाश्लिष्टा वक्षसा स्वेन भूरिशः
॥१.९७॥ तस्यापि नेत्रयोरथुप्रवाहवावहन्मुदा । सोऽवादीच्छोकसंहत्रि ! केल्याणं सखि तेऽस्तुवै
॥१०९८॥ ततो मामेकरष्ट्येकाऽ-पश्यदानन्दिताऽऽननः । तन्मुखं कमलमाष्ट रमयेत्र कंजवासेव कंजमिमा मवेक्ष्यत ॥ १०९९ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥११॥
For Private And Persone
n
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahiavir JanArachanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
॥११.०॥ ॥११०१॥ ॥ ११०२॥
॥११०४॥
EXAXEXXEXXEX333EEEXE
लज्जयावनताहन्तु मौनमाधाय संस्थिता । आनन्दजलकल्लोल-निममा चञ्चलक्रमा कटाक्षलेशतस्तश्चाऽ पश्यं वीक्षणलालसा । स मां व्यलोकयद्धीमां-स्तदा नम्राननाऽभवम् विलासमलिमी रम्यं स्वरूपं तस्य चाटुतम् । मोहकं येन मचित्तं मग्नं मोहपयोनिधी ममाहो! हृदयक्षेत्रे तदृष्टिमेघवर्षणम् । सुखनीरप्रदं जातं स्फुटिताच मुदकराः ततः सोऽवक शुभाङ्गि! त्वं कमैतत्साहसं कथम् । विधातुं शक्तिमत्यासीः सर्वापत्तिप्रदायकम् ? त्वदीयजनकस्यैव मनो यावत्र मन्यते । तावत्प्रतीक्षितव्यं ते पुरैव कथितं मया त्वपिता राजलोकानां मान्योऽस्तीम्यजनाग्रणीः । सुहृन्मण्डलमध्ये च प्रभूतस्तत्समादरः स्वैराऽऽचरणमेतत्ते तदिच्छाप्रतिकूलताम् । गमिष्यति तदात्वेष उपायान्योजयिष्यति इद्धकोपश्च सकलं कुटुंम्बं मे हनिष्यति । अतः स्वोकृत्य मे वाचं स्वगृहं याहि सत्वरम् त्वत्प्राप्तये यतिष्येऽहं सदुपायैः सुलोचने ? । अस्मत्समागमो गुप्तः कथं जायेत सर्वथा ? सुगुप्तमपि जानाति कार्य नैपुण्यतो जनः । त्वत्पिता तु विशेषेण सर्वकार्यविचक्षणः यतो गूढतरं कर्म विहितं बुद्धिमानरः । वेत्येव रक्षितं चापि गुझे यस्तर्कवानरः मद्भर्तरीति वदति तदानीं स्वविकल्पतः । तस्मिन् राजपथे गच्छन् कश्चिदेवमभाषत योषितं स्वेच्छया प्राप्तां यौवनश्चार्थसम्पदम् । राजलक्ष्मी तथा वर्षी मित्रानन्दश्च कौमुदीम
॥ ११०६॥ ॥ ११०७॥ ॥११०८॥
MEREKKERXXX SEXXXXBE
।।१११०॥
॥१११२॥ ॥ १११३॥
For Private And Personlige Only
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवरगवती
कथा
-४२
EXEXX
www.kobatirth.org
उपयुक्ते न यो मूढः स स्वयं गृहमागताम् । लक्ष्मीं साक्षातिरस्कृत्य तत्प्रभावं न बोधति सर्वस्वं जीवितस्यैव प्रियां रम्यां समागताम् । यो जहाति नरस्तस्य न सिद्ध्यति मनोरथः एतद्वचनमाकर्ण्य मत्प्रियो मामचीकथत् । यदि देशान्तरं यावस्तदा निर्विशता भवेत् निःशङ्कं मौदमापत्र सुखितौ च यथेच्छया । तदैवाऽऽवां मविष्यावो नान्योपायोऽस्ति कामिनि ! अपि च
शृणु सखि ! विषयान्तरभ्रमिर्वै गुणचयमीप्सितमावहत्यवश्यम् । जनयति जनतां कलाप्रवीणां वितरति भाग्यपरीक्षणप्रसङ्गम् अवगणयति दुष्टवाक्प वपुरपि कष्टसहं दृढं तनोति । दिशति हि सदसद्विवेकबुद्धि नयति च नेत्रपथं सुभूमिभागान् मयोक्तश्च प्रियस्वामिन् ! स्वगृहं भाति दुःखदम् । त्वं गमिष्यसि यत्राह - मागमिष्यामि तत्र वै स्वमवेदविधायै तेनाऽनेकविधोक्तयः । विहिता मत्पुरः सम्य- गिच्छन्तीं तस्य समिधिम् निश्रयो मे दृढो जातस्तदा सोऽकथयन्मुदा । देशान्तरमिदानीं वै गन्तव्यं पङ्कजानने ! क्षणं विष्ठाऽध्वनीनानि साधनानि चिनोम्यहम् । पक्षहीनो यथा पक्षी ना तथा साधनैर्विना इत्युक्त्वोचितवस्तूनि सज्जीकर्तु स सत्वरम् । प्रासादाऽभ्यन्तरं प्राप निजकार्यचिकीर्षकः
For Private And Personal Use Only
॥ १११४ ॥ ॥ १११५ ॥
॥ १११६ ॥
॥ १११७ ॥
॥ १११८ ॥
॥। १११९ ॥
॥ ११२० ॥
॥ ११२१ ॥ ॥ ११२२ ।।
॥ ११२३ ॥
॥ ११२४ ॥
TEXES.2888888888888
Acharya Shri Kaassagarsun Gyanmandir
॥ ४५ ॥
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
Boxxx&&&LXXXSEXXXXXXXXXXXXX
तथापि प्रेषिताऽऽनेतु अषणानि गृह प्रति. । मत्सखी सहसाधावन्स्यगमकर्मकोविदा सावदेव मम स्वामी गृहीतधनसशयः । समागत्य च मासूचे प्रयावे शीघ्रतां कुरु समयो बाति भद्रेयं विलम्बोऽनर्थदायकः । यावच्छेष्ठी न जानाति गमनं तावदिदम् व्याला च ततोऽवोच-भूपणाऽऽनयनाय मे । गताऽऽयाति सखी यावत् तिष्ठ तावदधीवर ! सोऽवादीमीतिशास्त्रेषु निर्दिष्ट दौत्यकारिणी । पराभवप्रदायित्री न तु कार्यप्रसाधिका प्रत्युतायविधाताय जायते नैव संशयः । गुप्तवार्ता सदा इत्य कथनीया न कोविदः सद्यः सा कार्यसंही बुद्धिमन्तमपि क्षणात् । अनर्थे पातयत्पद्धा तस्माद् गोप्ये न सा दिवा तथैव भूपणौधेऽपि चौरदृष्टिः पतेद्रुतम् । प्रतीक्षायां ततो मार्ग-प्रयाणे विममापतेत तथैव शान्तिमाय सर्वथैव भविष्यति । अतस्तत्संगतिस्त्याज्या परिणामेऽतिदुःखदा द्रविणाऽभावजं कष्टं नैव धार्य यतोऽधुना । महाघ मणिरत्नादि गृहीतं सुखदायकम् यदपेक्षिष्यते वस्तु तत्तनाऽऽनेष्यते प्रिये !। तस्मात्सुन ! समायाहि बजावो निजवर्त्मनि प्रियोक्ति तां समाकर्ण्य तथाकर्तुं समुद्यता । निजेष्टसिद्धिकामेन न प्रतीक्ष्य सखी ततः मार्गमुदिषय विहितं प्रयाण सावधानतः । निश्यपि गोपुरद्वारमास्तेषावृवमन्वदम्
॥ ११२५॥ ॥ ११२१॥ ॥ २१२७॥ ॥ ११२८॥ ॥११२९॥ ॥ ११३.॥ ॥ ११३१॥ ॥ ११३२॥ ॥११३३॥
ENTERTAIIMSEISERIES
॥ ११३५॥
॥११३७॥
For
And Persone Oy
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीतरंगवती
कथा
॥११३८ ।
॥४३॥
EXAMRIXXX
'तस्मादायां विनिर्गत्य यमुनातटमागतौ । तत्रैका द्रोणिका दृष्टा रजा बद्धा च कीलके सद्भाग्येनाऽऽवयोस्तस्यां जलं न प्राविशद्वत । सज्जीकृत्य ततो द्रोणीमारूढौ वरया दृढाम् मद्भर्ता द्रविणग्रन्थिं संस्थाप्य क्षिपणीकरः । कालीयं यमुनाश्चापि नस्वाऽस्तोषीत्समादरात ततः समुद्रगायाञ्च तस्यां द्रोणी प्रवाहिता । मत्प्रियेण मया सार्द्ध देशान्तरयियासया आवयोर्दक्षिणे भागे भृगाला ध्वनिमुत्कटम् । वितेनुविरसं चेतस्ततो भ्राम्यन्मयावि धूर्तानां पशुमध्ये तु तेषां शवः श्रुतः खरः । आवाभ्यां हितमिच्छन्दयां कर्णयोः काकवत्कटुः स्तम्भयित्वा प्लवं भर्ता मामवोचत तत्क्षणम् । शकुन सम्प्रजायेत शुभ तावस्थितिवरा वामतो दक्षिणे याति शृगालश्चेच्च पृष्ठतः । तथैवाऽऽगच्छति ब्रतेऽशस्तं तच्छकुन मतम् यथाऽऽरोग्यं शरीरे स्या-निर्विघ्नं जीवनं भवेत् । यवितव्यं तथा विझनिजसिद्धिमभीप्सुभिः सम्यक्परीक्षितव्यञ्च प्रारब्धं कर्मकोविदः । विधिना क्रियमाणं तत् सफलं जायतेऽनिशम् शकुनाऽपेक्षया चैत्र-मुक्तवानपि स द्रुतम् । तरङ्गप्रवलाऽऽघात-भङ्गमीतो विषण्णधीः ततः संस्तम्मितां द्रोणी चाजयामास वेगतः । कल्लोलभङ्गभीतेत्र साऽपि शीघ्रगति व्यधात् वरगाणां समूहेन वाह्यमाना मरुद्गतिः । चचाल बहुवेगेन द्रोण्यस्माकं नदीगता
॥ ११४ ॥ ॥११४१॥ ॥११४२॥ ॥११४३ ॥ ॥ ११४४ ॥ ॥ ११४५॥
K
ida
॥ १९४७॥ ॥११४८॥ ॥११४९॥ ॥११५.॥
For Private And Personal use only
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobabirth.org
ShriMahavir JanArachanakendra
॥११५२ ॥
EXXXXHIEEEEEEEEEEEEEEEXX
अग्रतो गच्छतोर्नयामावयोईर वर्तिनः । अदृश्यन्त नवा वृक्षाः पश्चात्तेऽदृश्यतामगुः मरुतो मन्दतां मेजु-विहगा मोनमादधुः । तस्मात्सा यमुना शान्ति भजन्तीव व्यलोक्यत मस्त्रियः स ततो नूनं भयचिन्ते गतेऽधुना । इत्थं निश्चित्प मत्साई वार्ता कर्तु समुद्यतः स चावादीविशालाक्षि ! चिरं वियोगसेविनोः । संजात आवयोर्योगः सद्भाग्यं तत्तु केवलम् त्वयाऽध्वयोर्न संयोगो वाञ्छितश्चेद् वरानने !| चित्राण्यपि भवेयुनों तस्मित्सङ्गतिः कुतः । यतोऽस्मदीयरूपाणि सन्ति नो पूर्वजन्मनः । विपरीतस्वरूपाभ्यामावास्यां जातमत्र हि मत्प्रिये ! चित्रितश्चित्रैस्त्वया सन्दर्शिता मम । स्नेहजीवनयोः सेवा महतीनां यदीदृशी एतादृयानि वाक्यानि श्रोत्रचेतोहराणि हि । स प्रेमसागरे मनो जगाद मम नैकथा तुष्णीभूय स्थिताऽहन्तु रोमाञ्चित कलेवरा । लज्जयाऽधोमुखी वक्र दृष्टया तं क्षिषि प्रियम् रुद्धकण्ठीव सजाता सिद्धयत्प्रेमावगम्य च । स्नेहेन कम्पमानाऽन्त:-करणा मुदिताऽऽनना निजां सद्भावना स्पष्टी-कर्तु द्रोण्या मुहुर्मुहुः । हियाङ्गुष्ठेन संस्पृश्य फलकमवदं वचः प्रिय ! त्वामीश्वरं मन्ये समये सुखदुःखयोः । त्वत्सङ्गं न विमोक्ष्यामि निबद्धाऽस्मि त्वया सह सर्वथा प्रार्थयाम्येतद्-विषमायां स्थितावपि । एकाकिनी विमोच्याऽहं भवता न कदाचन
॥११५४॥ ॥११५५॥ ॥११५६॥ ॥११५७॥ ॥११५८॥ ॥ १९५९ ॥
BESHDSEXE8BEEEEEEEEXXX83
॥ ११६२ ॥ ॥ ११६३ ॥
For Private And Person
Only
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
Adana h
a
nya mand
बीवरंगवती
क्या
॥४४॥
विषमेऽपि स्थलेऽहन्तु स्थास्यामि भवता सह । तदेवाऽऽचरणं त्रीणां परमोभतिकारकम्
॥११६४॥ लमेय नैव चेदयं तदा दुखं न मे हृदि । किन्तु तव वियोगे न स्थास्यामि त्वां विना षणम् निजमानसचावल्य प्रादुष्कर्वदलं मम । समाकर्ण्य वचो हचं मामुवाच स धैर्यतः प्रिये ! त्वं हरु नो चिन्तां न ते दुःखं भविष्यति । किशिदपि व्यलीकं ते विधातुं क क्षमः शितो! ॥११६७ ॥ वेगवत्यां शरनयां पश्याऽनुकूलवायुना । गच्छतोरावयोरगे ' काकन्दी, निकटेघुना
॥११६८॥ सुधाधवलिता एते प्रासादा रम्यकान्तयः । दृश्यन्ते तत्र मे तात-स्वसुः सचाऽस्ति बल्लमे । ॥११६९ ॥ तत्यासादे गमिष्यावः सत्कारस्तत्र चाऽऽवयोः । भविष्यति यथा स्वर्गे निबिन्ता स्थास्पसि ध्रुवम् सुखस्य बर्द्धयित्री स्वं दुःखस्य परिहारिणी । मज्जीवनस्य सर्वस्वं मवंशवृद्धिकारिणी
॥ ११७१॥ एवं बुवंचक्रवाक-मब स्मृत्वा समां मुदा । बालिलिङ्ग सुखस्पर्क कोमलावयवैः शुभैः
॥११७२॥ ग्रीष्पतप्तधरा वृष्टि-पातेनेवाहऽमहद्भुतम् । अनुभूतवती भर्तुरानन्दं स्पर्शनेन वै
॥११७३ ॥ ततो मानवमोगानां प्रापकेण गरीयसा । गान्धर्वेण विवाइन सम्बन्धः स्वीकृतो मियः
॥११७४॥ देवानां प्रार्थनां कृत्वा मर्चा यौवनं मम । स्वीकृतमुपभोगाय पाणिपीडनकर्मणि
॥११७५॥ परस्परं मनस्तृप्ति यावदाम्पत्यसम्मवः । उपयुको मया सौल्प-विलासः स्वामिना सह
॥११७६॥
mvet
For Private And Personal theory
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
तावदस्मन्प्लवो गच्छन् गङ्गाम्प्रापदनुक्रमात् । रगत्तरङ्गमालाभिर्विराजन्तीमनुद्धताम्
॥११७७॥ प्राग्भवे चक्रवाकस्य नद्यामस्यां युगं यथा । तरतिस्म तथेदानीमतरत् स्नेहिनोर्युगम्
॥११७८ ॥ माजल्ललाटशुभ्रांशुः सितज्योत्स्नाम्बराऽऽवृता । तारकालङ्कता रात्रि-युवतियंगमच्छनैः
॥११७९॥ ततः परं शशकोऽपि पृथिवीवारिदर्पणे । क्षीणतेजा इव प्रेम्णा चिम्बते स्म तरनिव चतुर्भिर्यामिकै रात्रेस्तावत्कालनियन्त्रितः । तदानीं खण्डियो बच्चैः विच्छाय स व्यलोक्पत ॥ ११८१ ॥ विभाते विहगानाश्च वृन्दं निद्रा समत्य जत् । तेषां गानस्वरेणैष सरित्सम्बन्धबानिव
॥ ११८२ ॥ अन्धकाररिपुर्भानुर्मानवोद्योगहेतवे । प्रकाशयत्रभोदीप इव प्रापोदयं ततः
युग्मम् ॥११८३॥ गङ्गाया वहमानेषु नौकायां शीतवारिषु । व्रजन्त्यां मत्प्रियोज्वोचन्मां कियत्कालतःपरम् ॥११८४ ॥ चौराणामाक्रमणम् पङ्कजाक्षि ! दिवानाथः पूर्वाद्रिमानुं चाऽऽगत : दन्तशुद्धिविधानस्य जातोऽस्ति समयोऽधुना ॥११८५॥ ततो दक्षिणदेशेव शङ्खवच्छेतसकतः । दृश्यते रुचिरस्तत्र निवासः क्रियतेऽधुना
॥ ११८६॥ तत्र गत्वा च तेनाऽस्मद् द्रौणिका स्थापिता रहः । उत्तीयोऽधः कृतोऽस्माभिनिवासो निर्भयस्थले ॥११८७॥ निर्मानुषे तटे तस्मिन सिकाप्रचुरे च नौ । परिभ्रमणामाधातुं प्राचं भृशमुत्सुकम्
॥ ११८८॥ याबद्रम्पतरा भरिदृष्टया गवेष्यते । निःशङ्कस्थानतस्ताव-ददृश्यन्त च लुण्टकाः
॥ ११८९॥
SEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
SEXEEEEEX
For Private And Persone
n
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:sha.kaithssagarsunGvanmandir
भीतरंगवती
॥ ११९०॥
॥१५॥
॥ ११९२॥ ॥ ११९३ ॥ ॥ ११९४॥
BEERCISXXXEXXEXXEXEDEEEXXXX
लताजालादकस्माचे यमदूतसहोदराः। निर्गत्य धावमानावा-सत्समीपं समागमन् भयादहन्तु पूत्कारं कृत्वाऽस्मिन्सङ्कटे हहा ! । कथं भविष्यति स्वामि-मित्यपृच्छं तमल्पधीः सोऽभाषत प्रिये ? किनि-न भेतव्यं त्वयाऽधुना । ज्ञास्यसि त्वं बलाद्यष्टेवितांस्तान् क्षणात्परम् जीवनाऽर्णवनौरूपां त्वां सम्प्राप्तुं विमूढधीः। व्यस्मार्ष शस्त्रसंघातं सर्वापद्विनिवारकम् आनन्दाय महोत्साहात स्नेहबढेन चेतसा । केवलं श्रेष्ठरत्नानि गृहीतानि मया गृहात साहसोपस्थिताऽऽपत्ते-श्चिन्ताऽपि नैव चिन्तिता । तथापि भव निश्चिन्ता प्रिये ! सं सुसमाहिता भविष्यति बलिष्ठो यः स संग्रामे विजेष्यते । आरण्यका इमे चौरा नैव जानन्ति मदलम् मदोर्दण्डबलाऽज्ञानात्तैस्तु साहसमादृतम् । प्रादुर्भूते च मदीये स्तेनाः स्थास्यन्ति नो किल
एकं स्तेनं पातयिष्यामि नीच-स्तस्याऽत्राणि क्षिप्रमुतारयिष्ये ।
अन्यांश्चैतानाशयिष्यामि पश्चाद् गत्वा चाह कार्यसिद्धिं करिष्ये अनिष्टः परिणामश्वे-देवतःप्रभविष्यति । लुण्ट्यमानां विलोक्य त्वां योत्स्ये प्राणपणेन वै यतस्तद्ववस्त्रभूषादि गृहीतुं तत्परानिमान् । स्वद्वन्धनश्च कुर्वाणानेवाऽहं प्रेक्षितुं क्षमः मदर्थमेव पूर्वस्मिन् भवेऽत्याक्षीः प्रियानसून् । अस्मिन्मवेऽपि मत्प्रीत्या विदेशाय विनिःसृता
॥ ११९६ ॥ ॥११९७॥
॥ ११९८॥ ॥ ११९९ ॥ ॥ १२००॥ ।। १२०१॥
॥४५॥
For Private And Personlige Only
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobahrth.org
Achana ch
agrin Gym
原来来来来来来来来来来来来来来来来来来来来
अतो यावन्मयि प्राणास्तावच्चद्रक्षणाय वै । यावद्वलं मया योढुं नो स्थीयेत कथं प्रिये ! मां निवारय नो सुश्रु ! युद्धधमानं रणाजिरे । स्तेनैः साकं महारै-मरण वा जयोऽस्तु गिरन्तस्य समाकर्ण्य पतित्वा तत्पदाब्जयोः । अवोचं नाथ ! माऽनाथां मां विमुच्यामः प्रिये ! योध्धुमेवास्ति चेदिच्छा क्षणं तिष्ठ तथापि भोः । यावत्सौख्यकर मृत्युं साधयामि निजेच्छया यतस्तेन कर पाप्तं भवन्तं चीक्षितुं कथम् । समर्था स्यामतो मृत्युबरमेव पुरैव मे हा ! हा ! बल्लभ ! जातोऽपि मदीयस्त्वं सुखप्रदः । स्वप्ने प्राप्त इवाऽकस्मात क्षणादेव वियोक्ष्यसे आगामिनि भवेऽस्माकं परस्परसमागमः । भविष्यति नवेत्येत-जानाति केवली विभुः यावज्जीवाम्यहं ताव-तिष्ठ त्वं सनिधौ ततः । आवां नैव भविष्यावो वियुक्तौ स्निग्धबन्धनौ अन्यत्त देवताऽधीनं यद्भावि तद्भविष्यति । भाविकर्मफलन्स्यक्तुं नास्ति कोऽपि क्षमो नरः एवमुद्गीर्य दीनानि वांसि यान रणाङ्गणे । निषिद्धो मत्पतिः सद्यो मयाऽधूक्लिनचक्षुषा स्तेना अपि मया प्रोक्ता रुदन्त्या विहिताञ्जलि । सम्प्रार्थ्य मदलङ्कारान् गृहीध्वं यूयमिच्छया मप्रियं स्नेहसम्बद्धं मुञ्चत प्राणतोऽधिकम् । इयं मे याचना कार्य सफला कृपयालुमिः इत्थं विज्ञापयन्ती मा मनादृत्यैव तस्करैः । गृहीतो करतोभिबलात्कारपरायणैः
॥१२०२॥ ॥ १२०३॥ ॥१२०४॥ ॥१२०५॥ ॥ १२०६॥ ॥१२०७॥ ॥१२०८॥ ॥ १२०९॥ ॥ १२१०॥ ॥१२११॥ ॥१२१२॥ ॥ १२१३॥ ॥ १२१४॥
For Private And Personale Only
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
Achana
agar Gym
॥१२१५॥
श्रीवरंगवती
कथा
RXXXXXXXXXXXXX**
छिमेकपक्षपक्षीव गन्तुमन्यत्र चाक्षमः । पूर्वकर्मफलं मत्वा पतिस्तूष्णी स्थितस्तदा कतिचिन्मोपकास्तावनोकाश्च तत्र संस्थिताम् । द्रव्यग्रन्थि समादाय स्वाधीनां चक्रिरे क्षणात अन्ये मामनयन दूरे पूत्कारान्कुर्वतीमपि । मत्पतिचापरे चौरा जगृहुर्बलिनो बलात विषवैद्यनिनावेन भुजङ्गम इवाऽभवत् । मत्प्रार्थनेन मे स्वामी शिथिलो युद्धकर्मणि आवां ग्रन्थि धनस्यापि स्तेना भागिरथीतटे । सिकतासञ्चिते निन्युर्मुदिताश्चातिसुन्दरे निर्दयस्तैर्मदीयाङ्गाद्-गृहीताऽङ्कतिः समा । परन्त्वावां विहिती न वियुक्तो दैवयोगतः अपचीयमानपुष्पां लतामिव पतिर्मम । ह्रियमाणविभूषां मां वीक्ष्य दूनोऽरुदद् भृशम् अहमप्यरुदं यस्माद्भर्ता चोरितकोषवत् । पद्महीनसरोवद् वाऽदृश्यत विगतप्रमः अतितारतराकन्दं श्रुत्वा मे मोषका जगुः । तूष्णीं भवाऽधुना नोचेद्धनिष्यामः पति तब ततोऽहमभवं तूष्णी पत्युजीवनचिन्तया । केवलं रुद्धकण्ठेन मन्दं मन्दं रहोऽकदम् वक्षःस्थल प्रयावानि निःश्वासाऽश्रूणि वेगतः। तथापि रोधनवान ओष्ठप्रान्तं न चागमत रस्नानां ग्रन्थिमालोक्य मोपकाऽधिपतिस्तदा । मोदमानोऽब्रवीदित्यं सम्यग्लाभोऽधुनाऽजनि अन्योऽत्रदत्समस्तेऽपि प्रासादे लुण्टिते धनम् । एतावत्रैव जम्येत कृते यत्ने महत्यपि
॥१२१७॥ ॥१२१८॥ ॥१२१९॥ ॥१२२०॥ ॥ १२२१ ॥ ॥ १२२२॥ ॥ १२२३ ॥ ॥१२२४॥ ॥ १२२५ ॥ ॥ १२२६ ॥ ॥ १२२७ ॥
SB8888888888888888833ESEX
BOOREERS
॥४६॥
For Private And Personale Only
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
॥ १२२८॥ ॥ १२२९॥
॥ १२३१ ॥ ॥ १२३२॥
परोऽवादीत्प्रसमास्योद्युतकर्मरतो जनः । माग्यवान्बहुमिवरपि तावल्लमेत नो एतस्मिन् सकले दत्ते कि वदिष्यन्ति योषितः । अस्माकमिति कुर्वन्तो वाचा ते तस्करास्ततः गृहीत्वा नौ तटं माझं विमुच्य विन्ध्यभूभृतः । दक्षिणाऽध्या समुद्दिश्य प्रयाण पुरतो व्यधुः पर्वतस्याऽतिगम्भीर-कोटरेऽतिभयप्रदा । तेषामासीद् गुहा तत्र निन्युरावा नियन्त्रितो केचिद् वहि स्थितास्तत्र वारिपानं ययाचिरे । तस्यां दयाँ यतो मिष्ट बभूव बहुलं जलम् तस्या द्वारं दृढचासीदसिकुन्तादिषिणः । तस्करा गच्छदागच्छ-परवक्ष्मेक्षणां व्यधुः ढकाशकादिवादित्रैगनिहास्यैश्च नर्तनः । तारस्वरेण साऽप्युच्चगर्जति स्म दरी वरा प्रविशद्यां दरीमेतामावाभ्यां धजतोरणैः । ज्ञातमेतन्महाकाल्या मन्दिर विद्यतेऽसतम् तस्या देव्या महापूजानिमित्तोऽभन्महोत्सवः । वन्दितुं तां ततो नीतौ दक्षिणस्यां दिशि स्थिताम् अन्यैव तस्करैस्तत्र प्रभूतमाहृतं धनम् । पतितं वीक्षितं चास्मद् व्यतिरिक्त महायुति उमे च मण्डले लब्धा धनं प्रत्यागते यतः । प्रणामं वक्रतुस्तेन मिथः प्रोत्फुल्लमानसे पप्रच्छुः कुशलोदन्तं परस्पर सुखैषिणः । मोषका मिलिताः सर्वे सर्वथाऽभिमवृत्तयः लतानिषद्धदेहो नौ वपुषौ तदा केचिन्मलिम्लुचाः । आवामेकलक्ष्येण निरक्षन्ताऽतिकौतुकात्
BBLEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥ १२३४॥ ॥ १२३५॥
॥ १२३७॥ ॥ १२३८॥ ॥ १२३९॥ ॥१२४०॥
SEX
For Private And Personlige Only
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवरंगवती
कथा ॥४७॥
BEEXXKSEEDOSEXEXXEEEXXX
तेषामेकोऽवदचोरो विधात्रा या विनिर्मिता । नरनारीमयी सृष्टिस्तनोऽसन्तुष्टचेतसा
॥ १२४१ ॥ तां विनाश्य पुनर्युग्ममेतनिर्मितमस्ति वै । चन्द्राद्रात्रिस्ततश्चन्द्रस्तथेमावधिकप्रमो
॥ १२४२॥ तत्रापश्याव सयौ द्वौ स्वर्गिनारकयोरिव । हर्षग्लानिप्रदो यस्माद्दर्शने विस्मयस्तयोः
॥१२४३॥ आधे यतो महानन्दा जनास्तस्थुन यन्त्रिताः । अन्यस्मिंश्च निरानन्दाः कारायां यन्त्रिताः स्थिताः ॥१२४४ ॥ देवतामिथुनं भव्यमिव युग्मं नरस्त्रियोः । आनीतमिति संश्रुत्य दरीमागों महानपि
॥१२४५॥ द्रष्टुकाममहोत्साहैालवृद्धैर्विशेषतः । नारीगणैश्च सङ्कीणों बभूव क्षणमात्रतः
युग्मम् ॥१२४६ ॥ निर्विणचेतसावावां नीतावग्रे ततोबलात् । तदा कारास्थिता नार्यो विलापं कर्तुमुद्यताः ॥ १२४७॥ अस्मदीया इवतास्तु विलोक्याऽऽवां दयापराः । निजबालवदस्मासु स्नेहभावमदर्शयन्
॥ १२४८ ॥ ततो गुणप्रिया काचिल्लुण्टाकलीदमब्रवीत् । मत्प्रियं सुन्दराकारं समागच्छ मदन्तिकम्
॥१२४९ ॥ आवयो रक्षकः प्रोक्तस्तया चन्द्रसमाकृतिः । रोहिणीमिव नारी यः समादाय समागतः
॥ १२५० ॥ युवानमत्र तं यूयं स्थापयत क्षणं यतः । तस्करप्रमदानेत्र-व्रजः सफलतां व्रजेत
॥ १२५१॥ बजन्तं तं निरीक्ष्यैता-मोहिताः स्तेनयोषितः । दुःखार्ताः प्ररुदन्ति स वीक्ष्यैव तं मनोहरम् ॥ १२५२ ॥ एतदाचरण तासां विलोक्य दीनतामयम् । अस्ययाऽतिसन्तापात् क्रोधेन मे मनोध्दत
॥१२५३ ।।
3888SAEEEEEEXESKSEEKREEET
॥१७॥
For Private And Persone
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya:shn.kahssagarsunGyanimandir
開開開開開南洲開開開開開開開南湖南滿南南二蘭蘭開
कारापतितनारीणां काश्चित्तु निजसुनुवत् । निरीक्ष्य मत्प्रियं भव्य-मशोचमश्रलोचनाः कावित्तु कथयन्ति स्म दिव्यरूपेण सज्जन ! । अस्माकं हरसे चित्तं रम्य ! शोमासमन्वित ? भव्यात्मंस्तव दृष्टेच दिव्यगण्डूषमर्पय । तृषातुराणां सर्वेषां पानं हि तृप्तिदायकम् काविदथुप्लुताः प्रोचुः दयाहृदयाम्बुजाः । विचिन्त्य मनसा स्तेन वनिता व्याकुला इति निजभार्यासमेतस्त्वमितो मुक्तिमवाप्नुयाः । वरं तीन्यथा भावि विपरीतं किमप्यहो ? अन्यैका तदिव्यरूपवीक्षणेन विमूढधीः । मेखलाघण्टिकानादा-तमाऽऽह्वातुं प्रचक्रमे मदर्थ बहवश्वापि वार्तालाप:प्रवर्तिताः । युवको नर्तकः कश्चिज्जातकामज्वरोऽवदत् अहो दिव्यमिदं रूपं प्रमदाया अलोकिकम् । केचित्तु कामिनोऽगुल्या मां मिथः समदर्शयन् वार्ताश्च मोदतश्चक्रुः कामिनामीदृशी मतिः । वर्णयामासुरुस्कृष्टं मदीयरूपवैभवम् । दृश्यतां सर्वश्रुतस्या रूपसौन्दर्यमद्भुतम् । अस्या दिव्यवपुर्वल्लयां कलिकासोदरौ स्तनौ । अङ्कराविव हस्तौ च स्फुटितौ कीदृशौ वरौ । एतां मनोरमां दृष्ट्वा पयःपूर्णापगास्मृतिः जायतेऽस्या:स्तनौ चक्रवाकयोयुगलं यथा । अनेकघण्टिकायुक्ता मेखलादृष्टिहारिणी हंसश्रेणिरिवाभाति श्वेतरत्नविनिर्मिता । नितम्बयुगलश्चास्या विशालसिकतातटौ
॥ १२५४॥ ॥१२५५॥ ॥११५६॥ ॥ १२५७॥ ॥१२५८ ॥ ॥१२५९॥ ॥१२६०॥ ॥ १२६१ ॥ ॥ १२६२ ॥ ॥ १२६३ ॥ ॥१२६४ ॥
《演的沈南南術的第四南河南湖州南剂兩洲而兩制
॥१२६६॥
For Private And Personale Only
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
BB |
श्रीतरंगवती
॥४८॥
उदयन पूर्णिमाचन्द्र इव रोदनतो मुखम् । हावैर्भावैर्मनोहारि कामिनां मोहकारकम् अस्याः स्वरूपमालोक्य स्मरणं जायते श्रियः । केवलं हस्तयोः फुल्लवारिजे न विराजतः न्यूनता तावती चास्यां नो चेल्लक्ष्मीरियं खलु । श्रवणो कीशी रम्यौ नेत्रयोः नीलता स्थिता दन्ताः श्वेततराश्चास्याः स्तनौ पुष्टौ विलोक्यताम् । जङ्घायुगमहो मव्यं वर्तुलाकृति दीप्यते पादौ चास्या भृशं रम्यौ रचना कौशलस्पृशौ । ऊचतुरपरी चौरौ योग्यालङ्कारधारणात नूनमेषा मवेत साक्षाद् रम्भा स्वर्गनिवासिनी । स्तम्भोऽपि स्पर्धने तस्याः कामाविष्टो मवेद्धवम् महातपस्यपि स्वीय-तपसाऽभिलपेदिमाम् । इन्द्रोऽप्येतां निरीक्षेत सहस्रनयनैरपि यदि तन नाधिगच्छेत् स वृप्ति तद्भोगसम्भवाम् । ये त्वन्ययोषितं दृष्ट्वा लज्जया संकुचिदपि वराकी भात्यहीनाऽपि परिणीतेयमित्यगुः । केचनावां विलोक्यैव तस्करा अनुमेनिरे नूनमस्मत्पतिस्त्वेनं विनाश्यनां विवक्ष्यति । इति वार्तापरं सर्व बभूव लोकमण्डलम् मत्स्वामिमृत्युसम्बद्ध-तर्काच्चिन्ताऽभवन्मम । सामान्यतो युवानो मां युक्त्यो मत्पति तथा वर्णयन्ति स्म हर्षेण बहुधा स्निग्धचेतसः । अवशिष्टजनाः केचि-जिज्ञासया निराशया ताटस्थ्येनाऽपरे केचिद् अस्मद्वार्ता विवेनिरे । तस्या दयाँ स्थिता लोकातिवं मतचिरे
॥१२६७॥ ॥१२६८॥ ॥ १२६९॥ ॥१२७०॥ ॥१२७१॥ ॥ १२७२ ॥ ॥१२७३॥ ॥१२७४ ॥ ॥१२७५॥ ॥१२७६ ॥ ॥१२७७॥ ॥१२७८॥ ॥१२७९॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥cu
For Private And Personale Only
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.khatirth.org
मिन्नभिन्नानभिप्रायास्तेषां विषयवर्धकान् । शृण्वन्तस्तत्क्रमाद् गेहूं प्राप्ताः पल्लीपतेर्वयम् अभ्रंलिहश्च तद्देहं कण्टकानां विसारिणाम् । वृत्वाऽतिदृढया चैव वेष्टितं परितोऽमात् तन्मध्ये विपने खण्डकेऽस्माभिनाय सः । तस्कराणामिदं पत्युः सभास्थानमभूद् वरम् प्रसिद्धविक्रमाकान्त इवाऽसौ मुख्यपूरुषः । विष्टरे तस्थिवान् स्निग्ध-नवपल्लवनिर्मिते विकस्वरपयोजानां वृहद्गुच्छेन स स्वयम् । वीजयन्नात्मनो देहं पश्यति स्म समन्ततः पुष्पगुच्छ ः स सौवर्ण- समानोऽदीप्यताऽद्भुतः । तत्र स्थिता द्विरेफाथ गुञ्जनानधिकां व्यधुः सङ्ग्रामे विजयालुन्धरा ब्राखाणि दधार सः । निजाङ्गेषु समस्तेषु तस्कराणामधीश्वरः । अनेकेषु च युद्धेषु सङ्कटेषु च लुण्टकाः । आपनविजयाः सर्वे स्थितास्तस्य समन्ततः चण्डात्मानो यमं द्वता इवेन सर्वतोऽखिलाः । तस्करा वेष्टयामासुर्निजकर्म विशारदाः मांसेनोपचिते तस्य घुटिके पादयोः शुभे। जये च पुष्टतायुक्ते नितम्ब पृथुलौ भृशम् आवां तु चिन्तया मृत्योः कम्पमान कलेवरौ । प्रणेमिव महाक्रूरं ललाट निहिताञ्जलि मृगद्वन्द्वं यथा सिंहः क्रूरदृष्ट्या तथैव नौ । भृशं व्यलोकपत्तेन चिन्ताऽविकत रामजत् स्वेनयूथं समीपस्थमावयोरूपमुत्कटम् । यौवनोद्भिन्नमत्युग्र- वक्रदृष्ट्या न्यमालपत्
९
For Private And Personal Use Only
।। १२८० ॥
॥ १२८१ ॥
॥ १२८२ ॥
॥
१२८३ ॥
।। १२८४ ॥
।। १२८५ ।।
॥ १२८६ ॥
।। १२८७ ॥
॥ १२८८ ।।
।। १२८९ ॥
।। १२९० ।।
।। १२९१ ।।
।। १२९२ ॥
Acharya Shri Kassagarsun Gyanmandir
888888888
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवरंगवती
कथा ॥४९॥
विस्मितश्चाऽभवत् सद्योऽष्टपूर्व विलोकनात् । नवीनं वस्तु सम्प्रेक्ष्य को न कौतु कितो भवेत् वीराणां योषिताश्चैव ब्राह्मणानाञ्च हत्यया । दुष्टकर्मभिरन्यैश्च निर्दयः शचरेश्वरः सर्वथा क्रूरभावेन सम्पश्यनिदमब्रवीत् । समीपस्थैकलुण्टाकं ततः स्वेष्टविनिर्णयात सर्वैरस्मामिरिष्टयर्थ दातव्यो यादृशो बलिः । देव्यै तथाविधं युग्मं तयैव प्रेषितं वरम् ततो देवीनवम्याच रात्रावेतत्प्रदास्यते । मिथुन बलिरूपेण रक्ष्यश्चातः प्रयत्नतः निशम्येदं वचस्तस्य चिन्ताऽमेयाऽभवध्धृदि " मृत्युभयं समुत्पन्नं किं भविष्पति हाऽधुना ?" लुण्टाकः सोऽग्रहीदाज्ञां नम्रतापूर्वकं ततः निन्ये गृह निजं तेन बद्धश्च मत्पतिर्दृढम् । कष्टं तथाविधं तस्य पश्यन्त्या मम चेतसि । संतापाग्निः समुत्सनः सकलेन्द्रियशोषका नताननाभुजङ्गीव गरुडाऽऽहृतभर्तृका । असह्यव्यथनेनाऽह-माक्रन्दं कर्तुमुद्यता विकीर्णकेशपाशापाऽ-श्रुप्रवाहं विमुञ्चती । मस्त्रियं तस्य बन्धं च समाश्लिक्षं सुदुःखिता मयोक्तं “दन्तिनं वन्य-माश्लिष्टां हस्तिनीमिव । नरोत्तमेन साकं मा-मप्येतेन वधान वै यतस्तत्पृष्टभागेन संश्लिष्टौ करपल्लवौ । आजानुलम्बमानौ च ममैवाऽऽलिंगनोचितो" एवमुक्त्वा च तं बन्ध-निर्मुक्तं कर्तुमुद्यता । तावत्तु तस्करेणाऽहं ताडिता क्रूरचेतसा
॥ १२९३ ॥ ॥१२९४॥ ॥ १२९५॥ ॥ १२९६॥ ।। १२९७ ॥ ॥ १२९८॥ ॥ १२९९ ॥
॥ १३०१ ॥ ॥ १३०२॥ ॥ १३०३ ॥ ॥१३०४॥
॥४९॥
For PrivateAnd Personale Only
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ १३०६ ॥ ॥ १३०७॥ ।। १३०८ ॥ ॥१३०९॥
निर्मतस्य दूरमुत्सार्या पार्श्वतो मामतिष्ठिपत् । बन्धनं वपुषि स्वस्मिन् निर्दयेन विनिर्मितम् मत्स्वामी धैर्यमाधाय तावत्कालं तु सोढवान् । ताची मे दशां दृष्ट्वा धीरतारहितोऽभवत् रुदभश्रमुखः सोऽवक " प्रिये ! त्वं मम हेतवे । कदाप्यश्रुतपूर्वो हा ! सहसे वेदनामिमाम महन्धुजनकष्टेऽपि यो न शोको ममाऽजनि । नववध्वास्तु दुःखेन समे मर्माणि कन्ततिः सकलजनतो भार्यामध्येऽधिका मनसः स्थिति-त इह मतं भार्यादुखं सतामपि दुःसहम् । प्रहगण इतो भार्यास्थाने करोति सदा दृशं, प्रकृतिविवशस्तस्मात् सर्गोऽधुना सकलोऽप्ययम् । श्रुत्वेति तस्करा सोऽपि बलिष्ठमिव कुञ्जरम् मत्वा मत्स्वामिनं भूमा-पाहत्याऽपातयत्क्रुधा "आस्तां बन्धेन तद्धस्तौ पृष्ठन सह संयुतौ तमेवं निश्चलं कृत्वा काष्ठे चोपाविशत्स तु तत्र स्थितश्चदुष्टः स आममांसमभक्षयत् । मदिरां चापियत्कण्ठ-पर्यन्तं राक्षसोपमः मृत्युचिन्ताया प्रोक्तं मया हे प्रियवल्लभ । निर्दयेऽस्मिन्स्थलेऽस्माकं मरणं हा ! भविष्यति ततोऽवोचमहं " चौरं कौशाम्ब्या व्यवहारिणः । पुत्रोऽयमेककथाह नगरप्रेष्ठिनः सुता निजेप्सितानि रत्नानि सुवर्णमौक्तिकानि च । प्रवालादीन्यमूल्यानि दापयिष्यामि ते ततः अस्माकं तातयोः पार्श्वे पत्रं दत्वा निजं नरम् । प्रहिणु स्वं स तत्सर्व लात्वाऽऽगच्छेत्तदा ध्रुवम्
॥१३१०॥ ॥१३११॥ ॥ १३१२॥ ॥ १३१३ ॥ ॥१३१४ ॥ ॥१३१५॥ ॥१३१६ ॥
BESEXEEEEEEEEEEEEEXEXXEERA
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
श्रीवरंगवती
कथा ॥५०॥
॥ १३१८॥ ॥१३१९ ॥
KKR****EXSXEEXXXXXXXXXRRR.
मोचनीयौ त्वया बन्धा-सत्यमेतद् ब्रवीम्यहम् । ततः स तस्करोवादी-देव्या बल्पर्थमाहतो निश्चित स्वामिनाऽस्माकं नान्यथा तत्तु जायते । स्वामिनो वचनं मान्य केषां चेतसि नो मवेत ?
स्वप्राणजीवनधनादिविभागपूर्व, यो निश्चितः स्वहृदयेन शरण्यरूपः ।
बाचित्तकायपरिकल्लितनाथमाः, सर्वेश्वरस्य किल तस्य वाप्रमाणम् पूर्णीकृताऽस्मदाशाय देव्यै भोगो न दीयते, कल्पितश्चेत्तदा सा स्या-क्रुद्धाऽस्मानाशयेऽध्रुवम् तथा चाऽस्मत्प्रयत्नानां फलं च जयसम्पदः । सर्व सुखं च या दत्ते तत्कार्य संत्यजेच का इत्थं निशम्य तद्वाक्यं दृढं बद्धं प्रियं मम । विलोक्य रोदितुं लग्ना हृदयोद्भेदपूर्वकम् स्वामिस्नेहविपाशेन निबद्धा व्यलपं भृशम् । मुक्तकण्ठं निराशैव नष्टोपायाऽतिदुःखिता नेत्रतो मे पतन्ति स्म अविच्छिमाऽश्रुराशयः । यैर्वक्षस्थलमापन-माता मौक्तिकप्रमः विलोक्याथुप्रवाह मे कारागृहस्थिताःस्त्रियः। रुदन्ति स्म महाकन्दं शृण्वन्त्यो म्लानमानसाः आक्रन्दनं कृतं भूरि विलापा बहवस्तथा, । मस्तकं कुट्टितं चैव विकीर्णा मूर्षजा मया वक्षश्च ताहितं भयो मया दुःखातचेतसा । ततो मूछी समापना वर्ग स्वप्नं व्यलोक्यम् अथ नियतिनियोगादापदा येऽभिभूता, प्रतिपलमिह नैवाऽऽघातमुग्रं सइन्ते ।
॥१३२१ ॥ ॥१३२२॥ ॥१३२३॥ ॥१३२४ ॥ ॥ १३२५ ॥ ॥१३२६ ॥ ॥ १३२७॥ ॥ १३२८ ॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥५०॥
For Private And Personlige Only
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri
K
a gursun Gyarmande
इह जगति तदर्थ शान्तिदा नाम मुच्छा, जनयति सुखमेषां स्वप्नसंदर्शनेन
॥१३२९ ।। सुखदं जागरे पश्चादरोदं भृशपीडिता । " स्वप्ने खदर्शन मेऽभूत्याणेश! सुखदायकम्
॥ १३३०॥ अहमेकाकिनी भीरुः करिष्ये रोदनं सदा । इति वेदनया भूरि मया दुःखमवेद्या केचित्स्तेना महाऽऽनन्दं वेदयन्तः परस्परम् । गायन्ति स वैरिटैगया मधुरं सदा
॥१३३२॥ अनपेक्ष्प गिर हृद्यां जीवितं मरणं तथा । उत्साहशक्तिमापन साधयन्ति समीहितम् यतोऽन्यजन्तुवन्मृत्युरवश्यं जायते नृणाम् । साहसेनेष्टसिद्धौ तु मानुष्यं सफलं भवेत्
॥ १३३४॥ दुखौषपूर्ण जगति प्रवृद्धे, मनोरथ नामकथं लभन्ताम् ! ___ आशानियोक्त्री शुभसाहसश्च सहायक सानपरस्तदानीम्
॥१३३५॥ तस्मादि साहसं कर्तुं शीघ्रं धावत हे जनाः ।। जयेन यः समायुको म्रियतेऽत्र सुखेन सः यतो वीरो गतं सौख्यं यावनामोति तत्पुनः । तावदुत्साहमाधत्ते नवीन मेव सर्वदा।
॥१३३७॥ विनौषविप्लुष्टमनोरथानामुत्साहशक्तिप्रवरा मता मे। दिवाकरः सर्वसहायहीनः सूत्साहतो याति नमोऽप्रपारम् ॥ १३३८ ॥ नूनं वीरजना पीडां धारयन्नपि शौर्यतः । विघ्नान्विलवयेञ्चेत्तु शर्मश्रीमुदितो भवेत् " ॥१३३९॥ ततो जगाद मे सामी "शुचं संत्यज्य वल्लमे ! । श्रुणु मद्वचनं चैकं रोदनं त्यज साम्प्रतम् ॥१३४० ॥
For Private And Personale Only
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
भीतरंगवती
कथा
॥१३४१॥ ॥१३४२॥ ॥१३४३ ॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
निजप्रयत्नः फलवान न यत्र बलीयसाऽऽक्रान्तयुताऽस्ति यच्च ।
न तत्र शोकः सुधीया विधेयः शोकः स्वमार्गस्य हि रोधकर्ता अस्मात्कारागृहान्मोक्षो दुर्लभोऽस्त्यावयोः किल । पाणिभिश्चाविरोधेन स्वीकार्याऽऽजा यमस्य हि " यमराजसमाक्रान्तोऽनुपायो मानवः " मृतः । निशि ताराग्रहैः साकं भ्रमंश्चन्द्रोऽपि पीच्यते गगनमिदमनन्तं साऽबकाशं विवाधं, ग्रहगणवरतारामालिकाभिर्विमिश्रम् । अयमपि हिमरश्मिः शान्तिदाता जनानां विधिविवशमुपेतः किं न यात्यस्तभावम् ! शनैः शनैः क्षयं प्राप्य विच्छाये मण्डले विधुः । गाढान्धकारतां बिभ्रद्-दौर्भाग्यमवलम्बते सामान्यमानवानां तु निर्भयत्वं कुतो भवेत् । मरणाधीनता लोकेऽवश्यमेवात्र देहिनाम् ।। युग्मम् गुणगणरहितानां स्वार्थनाशोधतानामतिबलमदभाजां नैवभीतिः परमात् । इह सकलजनानामैकमत्येन वच्मि *द्यसुकृतसुखमाजां मृत्युतोभीतिरस्ति देशकालपदार्थानां प्रकारस्याऽनुसारतः । कुतकर्मफलं देही लभते नात्र संशयः देहिनां सुखदुःखानि निजकर्मविपाकतः । जायन्ते नितरां लोके नियमोऽयं सदातनः *" न सुकृत-असुभिः प्राणैः कृतो वा"
॥ १३४४॥ ॥१३४५॥ ॥१३४६ ॥
BIXXESXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१३४७॥ ॥१३४८ ॥
॥५१॥
For Private And Personlige Only
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.batirth.org
।। १३५० ।।
दैवायत्तं सुखं दुःखं देवमेव वलं नृणाम् । सम्पदो दैवतश्चाथ कीर्त्तयो देवमूलिका भवति नो सफलं कृतपौरुपं, यदि न भाग्यमथोदयति स्वकम् । अशनहेतुकमाखुकृतं चिलं, विधित आखु विनाशकृतेऽभवत् देवं विहाय न क्वापि कोऽपि सम्पत्तिमान्भवेत् देवादेव विनश्यन्ति प्राणिनां विपदः सदा । तस्मात्प्राणप्रिये ! धैर्य न जहीहि वरानने ! न कोऽप्येतादृशो लोके विधि लङ्घयितुं क्षमः अगा पाथोधजले निवासः विचित्रमङ्गीगतिभिः प्रयासः ।
।। १३५२ ।। ।। १३५३ ॥
तथाऽपि मत्स्यः समुपैति नाशं, को वेत्ति भाग्यं प्रभुमन्तरेण १
इति सान्ववचोभिर्मे शोकस्तोकत्वमाप्तवान् । भर्त्रा सह निबद्धाहं हरिणीवाऽश्रुविप्लुता कारागृहनिषण्णस्त्री-मुखान्यालोकयन्ततः । मद्विलापेन कासांचिन्नेत्रेभ्योऽश्रुणि निर्ययुः ता अपि स्वानि दुःखानि स्मृत्वा रोदितुमुद्यताः । याः प्रकृत्यैव सरला तास्त्वस्मदर्शनेन हि. परिणामसुखार्थिमिर्नरैः नितरां चेतसि चिन्त्यते ह्यदः । परचितशरीरखाग्भवं करणीयं नहि दुःखयोजनम् निजप्रेम्णा विशुद्धेन, परदुःखेन दुःखिताः । रुदन्त्यश्च गलद्वाप्पा आवां पप्रच्छुरादरात् "युवां समागतौ कस्मात् कुतस्तस्करहस्तगौ ? ब्रूतं सर्वं निजं ब्रूतमुत्कण्ठा नः प्रजायते. " अथुमुख्या रुदन्त्या च दौर्भाग्यजनिता मम । आरभ्य प्राग्भवात्सर्वा मया वार्ता निवेदिता
For Private And Personal Use Only
॥ १३५४ ॥
॥ १३५५ ॥
।। १३५६ ॥ ।। १३५७ ।।
॥ १३५८ ॥
।। १३५९ ।।
।। १३६० ॥ ।। १३६१ ।।
Acharya Shri Kissagarsun Gyanmandir
88888888888888888888
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya Shri Kasagarten Gyaan
श्रीवरंगवती
कथा |पू२॥
BEEEEEXXXRO
चक्रवाकभवे पाहदवीरविहारिणो । प्रभूतानन्दमग्नौ चाऽ-भवाव दम्पती पुरा
॥१३६२॥ विकसत्पनकासारे कुञ्जः स्नातुमागतः । व्याधेन क्षिप्तवाणा तं हन्तुं मेऽनाशयत्पतिम्
॥१३६३ ॥ ततोऽतिदुःखिताऽइन्तु तं विना स्थातुमक्षमा । मृता च वत्सपुर्यां द्वौ ततो जातो नृजन्मनि ॥१३६४॥ ततश्चित्रसहायेन प्रत्यभिज्ञानमावयोः । विवाह: प्रार्थितः किन्तु पित्रा नाङ्गी कुतं मम
॥१३६५॥ ततो मया सारसिका प्रेषिता तस्य सविधौ । पलाप नावमारुह्य गंगातीरे च पन्धनम् ॥ १३६६॥ इतिवृत्तान्तमाख्यातं मया सर्व यथास्थितम् । एकाग्रमनसाऽऽश्चर्य-पूर्वकं प्रीतिमान्परम्
॥ १३६७॥ तत्सर्वे श्रुतवान् तत्र काष्ठस्थः स च रक्षकः । श्रुत्वैतत्स निषादोऽपि बभूव कृपयान्वितः
॥१३६८॥ मम नाथस्य बन्धांश्च शिथिलान्कर्तुमभ्यगात् । कारागृहस्थनार्यस्तु तर्जितास्तेन निर्दयम्
॥१३६९।। मेघनादेन संभीता हरिण्य इत्र दुःखिता। परस्परं वियुज्यता अनश्यस्वस्तलोचनाः
गतासु तासु सर्वासु जगाद मत्पति शनैः। इदानीं ते मयं नास्ति चिन्तया वर्जितो भव !
॥१३७१ ॥ मृत्युतो मोचयिष्यामि युवां कष्टं श्रयन्नपि । उपायं कमपि प्रायश्चिन्तयिष्ये भवत्कृते
॥ १३७२ ॥ निजानुभूतौ यदि दुःखमस्ति भविष्यति द्राक् तदलं परेषाम् । न तत्प्रकर्तव्यमिह स्वदेतो-र्दुष्कार्यमेतन्मनसो मतं न" ॥१३७३॥ एतद् वचनमाकण्ये दयापूर्ण विनिर्गता । निधनोत्पन्नभीतिस्तु सर्वथाऽङ्गविशोषिणी
॥१३७४॥
For Private And Personale Only
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
Achana
S
agen Gyarmande
KOSHEEXXXXXXXXXXXREKKERER
समुत्पन्ने प्रमोदेऽपि मुक्तये गाढबन्धनात् । उपवासः कुतोऽस्माभिः सर्वथाऽऽहारवर्जितः
॥१३७५॥ ततो जिनेश्वरं स्मृत्वा शुद्धभावेन चेतसा । प्रत्याख्यानं त्रिधा चक्रेऽस्माभिः कष्टजिहासुमिः ॥१३७६॥ अथ तेन निषादेन मांसाऽऽहारो रसप्रदः । आनीय स्थापितोऽस्माकं मुखाग्रे शुद्धभावतः
॥ १३७७॥ "प्रवासस्याऽतिवैषम्पाद् भोजनं कुरुतं मुदा" । इत्युक्ते भुञ्जावहे नैत-भदक्ष्यं जिनशासने ॥१३७८॥ "मांसे का शुचिता?" तदुक्तिरपि यज्जिहावतां नोचिता, नासा संकुचिता वमन्ति सुधियः केचिदू घृणोदश्चिता । प्राग्जन्मोपचिताः समीक्ष्य यमिमं नष्टाः शुभाः संचिताः, हायूयं कुगुरुप्रलापपतिता वै वञ्चिता वञ्चिताः ॥ १३७९ ॥ "पूर्व मांस चखाद, संप्रति ततोऽहं भक्षये भक्षये, मांसस्येति हि मांसता मनुमहाराजस्मृतो संस्मृता मांसास्वादनजं फलं तु कटुकं श्वश्रादिपातोन्मुखं, ज्ञात्वैवं भविका ? यतध्वमनिशं रेण तद्वर्जने ॥१३८० ॥ प्राणिप्राणविधातनादपि विना मांसः कचिल्लम्यते, तत्प्राणव्यपरोपणं भवति, तद्धिसा बुधैः संस्मृता दारिद्यादिविधानबद्धकटिका हिंसा हिता न क्वचित, सौख्याध्या यदि तद्विवेकविधिना सा त्यज्यतां त्यज्यताम् ॥१३८१॥ निषादचित्ते करुणार्द्रभावाः प्रादुर्बभूवुः परमार्थपूर्णाः। सत्संगतो दुर्जनदुष्टवृत्तिः, संस्कारितां धारयते कदाचित् ॥१३८२॥ कस्तूरिकायाः परमं सुगन्धं मुदा वहन गन्धवहो दिगते। प्रशस्पते मानवदेववन्दर्गुणो हि लोके गुणिनां गुणाय ॥१३८३॥ "रक्षकाऽनुकम्पया पल्लीतो निर्गमनम्,"
PLETTEXERRRRRRRRRRRRIERE
For PvAnd Person
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
- बीतरंगवती
कथा ॥५३॥
॥ १३८४॥ ॥ १३८५॥ ॥ १३८६ ॥ ॥ १३८७॥
अथाऽस्तसमये जाते संतापकर वेः प्रभा । भ्रष्टराज्यनृपस्येवाऽऽतपश्च विलयंगतः। सोऽदृश्यतोदयत्काल इव क्षीणोऽतिलोहितः । प्रतीचीवनितावक्त्रं कुंकुमाऽचितवद् बभौ । नमन्तोभूरुहाः सर्वे दिवसस्याऽवसानताम् । सूचयामासुरत्यन्त-म्लानपत्रलताचयाः। तदन्तम्थकुलायेषु विश्रामाय विहंगमाः । प्रत्याजग्मुश्च कूजन्तः सर्वदिग्म्यः समूहतः। " विश्लेषाकुलचक्रवाकमिथुनरुत्पक्षमाक्रन्दितं, कारुण्यादिव मीलितासु नलिनीष्वस्तं च मित्रे गते शोकेनैव दिङ्गनाभिरमितः श्यामायमानैर्मुखै-निश्वासाऽनिलधूमवर्तय इवोद्गीर्णास्तमोराजयः मुक्तेनिराशया सद्यो दीर्धीभूतैश्व रोदनैः । मुहूर्तमिव धस्रोऽसौ समाप्तिभगमतदा शीतयन्ती क्षिति चैव, भूषयन्ती नमस्तनम् ॥ रात्रिः समागताः रम्या प्राणिनां दुःखहारिणी मृदुना करजालेन धवलेन विधु'राम् ॥ सम्माजयन्नुदेति स्म तिलकीकृतलाञ्छनः तदानीं तद्गुहामध्ये महान कोलाहलोऽभवत् ॥ पिबन्तश्चैव नृत्यन्तः स्तेनाः कारागृहस्थिताः
आनन्दरससिन्धोहि प्लवमानाऽन्तरप्लवाः तारस्वरैहास्यवाद्यः गुहा शब्दमयीं व्यधुः यदैते तस्कराः शान्ताः-स्तदाऽस्मद्रवकेन मे ॥ संछिद्य बन्धनं भर्तुर्वमापे हितकारिणा " सज्वौ च मवतं शीघ्र नयाम्यस्मादयस्थलात " गुप्तरीत्या ततः सोऽस्माननयहिरञ्जसा
॥१३८८॥ ॥ १३८९॥ ॥ १३९०॥ ॥१३९१ ॥ ॥१३९२॥ ॥१३९३ ॥ ॥१३९४॥ ॥ १३९५॥.
॥५३॥
For Private And Persone
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanach
sagan Gyaan
KEEPERHIREXITORRHETTTTTER
मुजण्यापनि द्राक्स पचाल पुरतो द्वयोः । भ्रमनहनिषं गुप्तस्थानानां धानमावहन प्रसारयंबतुर्दिक्षु दृष्टि वन्यपथे वजन् । त्तरार्थेऽपि प्रवासेऽस्मान् व्यश्रामयत भूरिश धृतशबाऽवसम्मारो निबद्धकटिपडकः परितो वीक्षमाणः स सहाऽस्माभिर्वनेऽचनत रवेण वृक्षतः केचिड्यन्ते स्म विहङ्गमाः । तत्पश्चाणां निनादश्चा-भूयत शुष्कपर्णवत भारण्यमहिषीसिंह-चित्रकाणाश्च पक्षिणाम् । भल्लूकानां निनादाचाऽभूयन्त श्रोत्रमेदकाः धोरकान्तारमार्गेऽपि हिंसयोदरपूरकाः । किरावास्तेऽप्यदृश्यन्त भीषणाः शस्त्रपाणयः पशुपक्ष्यादयः शान्ता-अभवनिद्रितास्तदा । एतावदपि सद्भाग्य-मस्माकं दुखिनामपि अन्यथेमहाकष्टे पतितानां कृतः स्थितिः १ अथ द्विरदयूथेन लुप्तपुष्पफलबजाः नोटिता मूरुहां शाखा अदृश्यन्त पदे पदे । एतैस्तथान्यचिद्वैश्व जनानां पदपक्तिमिः मातमस्माभिरेतस्य वनस्यान्तः समागतः । तदैषलुण्टकोऽवादीद्-विगतावनवीथिका इदानीं न भयं किंचि-युष्माकं विद्यते खलु । समिधावेव वर्त्तन्ते प्रामाश्चात्राऽध्वनि त्वया अवक्रे गम्यतां स्वीय-भार्यायुक्तेन निर्भयम् । अहमप्यन्यमार्गेण व्रजामि स्वाम्यनुज्ञया कारागृहनिवासेन यच्च चक्रे कदर्थनाम् । निरागसोश्च युवयोर्बुद्धिदत्ततापतः
॥ १३९६ ॥ ॥१३९७॥ ॥ १३९८॥ ॥१३९९॥ ॥१४.०॥ ॥ १४०१॥ ॥१४०२॥ ॥१४०३ ॥ ॥१४०४॥ ॥१४०५॥ ॥ १४०६॥ ॥१४०७॥ ॥१४०८॥
BEEEEEEEEEEEXXXXXXXXXX
For Private And Personlige Only
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीतरंगवती/
कथा ॥५४॥
दुःखदानं च यचके क्षन्तव्यं तत्कृपालुमिः । अज्ञानतमसाऽन्धो वै जीवधरति पापकम, तं स्तेनं स्वोपकारित्वा-त्यान्तं निजवर्त्मनि । मत्स्वामी पद्मदेवोऽथ जगाद विनयान्वितः "अस्माकं कोऽपि सम्बन्धी रक्षको नामवद्यदा । तदा प्राणप्रदानेन सर्वथोपकता वयम् त्वयास्मज्जीवनं दत्तं स्वाम्याज्ञाऽतिक्रमादपि जीवनाशाविहीनानां कालपाशदशाजुषाम् भवतेवाभयोध्दायि परोपकृतिचेतसा | आवाम्यां ध्यातमेवासी-त्सांप्रतं मरणं ध्रुवम् गृहीतो मृत्युना नूनं नाऽन्यात्र विद्यते गतिः । मृत्युकाले स्वया रक्षा विहिता व्यथितात्मनाम् सर्वेभ्योऽस्तिमहल्लोके जीवनं येन केनचित् । मृत्युभीतिर्महाभीतिरमयं सर्वतो वरम् यमस्य रज्जुपाशोऽयं कण्ठलग्नोऽपि वारितः वत्सामिधे पुरे श्रेष्ठि-धनदेवसुतोऽस्म्यहम् सर्वत्र बहवो लोका मत्प्रसिद्धि विजानते " पुनरप्यब्रवीद् " भद्र ! समेहि त्वं गृहे मम तव प्रत्युपकारेण मवेयमृणवर्जितः " तस्करोजगू वणिकपुत्र ! द्रक्ष्याम्पने कदाचन मद्भर्ता च ततोऽवोचद्-दयासिन्धो ! वचः शृणु । मत्पुराणमयोगेऽई स्मर्तव्यः शपयोऽस्ति में पादन्यासेन महतां पवित्रं जायते गृहम् । जीवितव्यप्रदानस्य प्रतिदानं न विद्यते
॥१४०९॥ ॥ १४१०॥ ॥ १४११ ॥ ॥१४१२॥ ॥१४१३।। ॥१४१४ ॥ ॥ १४१५॥ ॥१४१६॥ ॥१४१७॥ ॥१४१८॥ ॥१४१९ ॥ ॥१४२०॥
॥५४
For Private And Persone
n
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.bobatirth.org.
परं त्वया कृपा कार्या भवत्सेवा भवेन्मम । विधाय भवतः सेवां किंचित्कालं मयोचिताम् मानव भवमासाद्य सफली क्रियतां जनुः । " सोऽवादीत् " स्वं प्रसन्नोऽसि तेनाऽऽन्दोऽस्ति मे महान् निजमार्गे प्रयाणं द्राक् कुरुतं स्वयमेव मोः ! " । गदित्वैवं स नैषादो गिरिमार्गमचिश्रियत् विशालचित्ता विहिताऽन्यकृत्या - हृष्यन्ति चित्त परमार्थवित्ताः । न ते कदाचित्प्रतिसेवनायां, मोदं वदन्ति प्रथितप्रयासाः
स्थयां विस्तारयुक्तायां भ्रम्यान गतसाध्वसौ । पद्धत्तिवर्जितक्ष्मायां गन्तुं शक्ता न चाऽभवम् पदमात्रमपि श्रान्ताऽशक्ताऽशान्तमना भृशम् । पूर्वं तु प्राणरक्षायै सत्वरं प्राचलं भिया पश्चात् क्षुत्तृपाक्रान्ता श्रमार्ता व्याकुला भृशम् । ततः शुष्काऽऽनना यान्ती पादन्यासमिवस्तवः कुर्वन्त्या समशक्ताऽग्रे किञ्चिचलितुमक्षमा । वल्लभो मां ततः कृत्वा पृष्ठे स्वीयेऽचलचदा " श्रमः स्यादिति " विज्ञायो- चरन्तीं तस्य पृष्टतः । मामाऽऽरूयत्सद्यः सान्य-पूर्व मदुःखपीडितः " शनैः शनैर्गमिष्यावो गतप्रायमिदं वनम् । गोभिः प्रतिस्थलं क्षुण्णा धरणी दृश्यतेऽघुना उत्तरा अपि दृश्यन्ते गोमयानां च कुत्रचित् । ज्ञायते सन्निधौ तेन कश्चित् ग्रामो भविष्यति इदानीं लप्स्यसे भूरि- विश्रामं स्वं वरानने ! " । तत्क्षणान्मे भयं नष्टं मुखाग्रे धेनुमण्डलम्
१०
For Private And Personal Use Only
॥ १४२१ ॥ ॥ १४२२ ॥ ॥ १४२३ ॥
॥ १४२४ ॥ ।। १४२५ ।। ॥ १४२६ ॥
॥ १४२७ ॥
॥ १४२८ ॥ ।। १४२९ ॥ ॥ १४३० ॥
॥ १४३१ ॥ ॥ १४३२ ॥
Acharya Shri Kissagarsun Gyanmandir
FREEEEEE.
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीतरंगवती
कथा
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
विलोक्य मे महानन्दः समभन्मानसे तदा । पाणिगृहीतशाखाग्राः पुष्पगुच्छाऽवतंसिताः
॥१४३३॥ चित्रगीतानि गायन्तो गोपबालाश्च वीक्षिताः । पप्रच्छरुत्सुकास्तेऽपि श्रान्तौ दीर्घाऽध्वनेव भोः! ॥१४३४॥ कुतः समागतावत्र ? मत्स्वामी प्रोक्तबाँस्ततः । मार्गभ्रष्टा वयं जाताः किनामा विषयोऽस्त्ययम् ॥१४३५॥ किं नाम नगरं चेदं ? भवतां नगरं च किम् । दूरं युष्मत् पुरश्चेतः कियदस्ति महाशयाः! ॥१४३६ ॥ "ग्रामो नः क्षायका (खायग) ख्योऽस्ति वनस्याऽन्तोत्रविद्यते । किंचिदतोऽधिकं नैव जानीमो वनचारिणः ॥ १४३७ ॥ गच्छताऽनेन मार्गेण समीपे वर्तते पुरम् "। किञ्चदये गती यावत्तदाऽऽसा कर्षिताधरा
॥१४३८॥ तां दष्ट्वा मत्प्रियोऽबादी-ब्धस्वास्थ्यः प्रमोदभार । " इतो युवतयो ग्रामा-द्विनिर्गत्य च भूरुहाम् ॥१४३९ ॥ विचेतुं फलपर्णानि व्रजन्ति वनमुत्सुकाः । श्वेतकाच्याः प्रिये तासामधस्ताद्वर्तुलाः शुभा
॥ १४४०॥ पुष्टाः पूर्वानुगा जया राजन्ते लोहितप्रभाः । चित्राचारक्षमौत्सुक्यशोभना नेत्ररोचनाः ॥१४४१॥ प्रयाणजं क्लेशदं च दूरीकर्तु मम श्रमम् । इत्थं स्निग्धवचो मझ्या स्वामी मामुदलासयत् ॥१४४२॥ अथ ग्रामैकदेशे च नातिदूरं स्थितं सरः। प्राप्तं श्रान्तजनोत्साह-वर्द्धकं निमलोदकम्
॥१४४३॥ हंसकारण्डवाकीर्ण सरोजवनसुन्दरम् । स्फाटिकाऽऽभ जलव्याप्तसोपानसुभगसरः
॥१४४४॥ प्रतिविम्बितनीलामनभोमण्डलमुज्ज्वलम् । अम्बरं वा सरो वाऽस्ति जनानां तर्कणास्थलम्
॥१५४५॥
॥५५॥
For Private And Persone
Only
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
38885
www.kobatirth.org
" नेत्रैरिवोत्पलैः पत्रैर्मुखैरिव सरः श्रियः । पदे पदे विभान्ति स्म चक्रवाकैः स्तनैरिव ग्राम्यलोकमनोऽमिष्टे सुरभीकृतदिदमुखे । पङ्कज श्रेणिभिः पूर्णे तस्मिन्नासन जलेशयाः तस्मिन्नुत्तीर्यसौरभ्य - वासितं वस्त्रगालितम् । शीतलं मधुरं चेतो नयनानन्दकारक निर्मलं वारि पीत्वा च प्रीतिरासादितोत्तमा । ततो गाघोदकं गत्वा शीतलं सलिलं मुखे संसिन्य चिन्तया मुक्तौ परमं मोदमाप्नुव । ग्रामं यान्तौ मुखे तस्य वृहद्वारिघटान्विताः प्रमदाः सुन्दराकारा अपश्याव सुलोचनाः । कटीस्थापितमृत्कुम्भाः सकङ्कणकराम्बुजैः कुम्भकण्ठान्समावेश्य व्रजन्त्यो रेजिरे भृशम् । व्यतर्कयद्विलोक्येदं मत्प्रियो जात कौतुकः " एतैः कुम्भैरहो ! पुण्यं विहितं किं सुलोचने । यतस्ते युवती पार्श्वे संस्थिताः पुरुषा इव एवासां सुन्दरैस्तैर्गाढमालिङ्गिताः शुभा ? " । वनितास्तु तदा सर्वा निर्निमेषं सकौतुकाः आवामेव व्यलोकन्त-गतिरोधेन वर्त्मनि । तङ्ग्रामं परितो ह्यासी- द्विषमाऽपि सुशोभिता वृतिः प्रादारिकीपक्ति - रिवाऽदृश्यन्त सा स्फुटा । यतः पयोधराकार तुम्बकानि समन्ततः तस्यां स्थितान्यलम्बन्तविपुला कृतिभाञ्जि वै । यत्र ग्राम्यस्त्रियोऽपश्यन्नावां दुर्भाग्यतो वृतिः प्रागेव तत्र भग्नाssसीत् तेनाऽभूत्सुखवीक्षणम् । मिथः प्राप्ता इव स्पर्द्धा दृष्टुमावां समुत्सुकाः
For Private And Personal Use Only
।। १४४६ ॥ ॥। १४४७ ॥
॥। १४४८ ॥
।। १४४९ ।। ॥ १४५० ॥ ॥ १४५१ ॥
॥ १४५२ ॥ ।। १४५३ ।। ।। १४५४ ॥
।। १४५५ ।।
॥ १४५६ ॥
।। १४५७ ।। ।। १४५८ ।।
Acharya Shri Kassagarsun Gyanmandir
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
श्रीवरंगवती
॥५६॥
XXXXXXXXXXXSEXERCXXXXX
प्रमदाः प्रपतन्तिस्म तस्यां चाभ्यन्तरस्थिताः । स्वभाराकान्तवृत्यन्ता दर्शनातुरमानसाः
॥ १४५९ ।। कोलाहलं वितन्वन्त्यो बभञ्जुस्तां वृति च ताः । वृतिभृङ्गोत्थनादश्च केवलो नाऽभवत्तदा
॥१४६०॥ द्रष्टुकामजरबारीदृष्ट्वा च कुक्करबजाः । कियन्तश्चकितास्तत्र मुखान्मुचैविधाय च
॥१४६१ ॥ भवन्तिस्म भयाऽऽक्रान्ता विचित्रवेशदर्शिनः । अस्मानिरीक्षमाणानां वनितानां तु काश्चन
॥ १४६२ ।। अनारोग्याश्च विच्छाया ज्वरपीडातिदुर्बलाः । अतस्तासां कङ्कणानि शिथिलान्यभवन्करे
॥१४६३ ।। तत्पृष्टे श्वेतवेशाश्च पुष्टगायो मनोरमाः । आययुर्द्रष्टुकामाश्च मिथोवार्तापरायणाः ।
॥ १४६४॥ तरुण्यः कटिविन्यस्तशिशवो गृहतो बहिः । इत्थं दृश्यानि दृष्टानि वावाभ्यां विविधानि च ॥ युग्मम् ॥१४६५ ॥ ग्रामरथ्या क्रमादाप्ता सुषमाशोभिनी ततः। यां प्राप्य मनसः स्थैर्यात् शान्तिमन्वभवाव च
॥ १४६६॥ गहने तु दृढं येतो विधाय जीवनेच्छया । पादवणं क्षुधां तृष्णां श्रमं चागणयं नवै
॥ १४६७॥ साम्प्रतं तु भयाऽभावा-मनः शान्त्या तथैव च । क्षुधातृषाश्रमाणां मे वेदना समजायत
॥ १४६८॥ मया प्रोक्तं 'प्राणनाथ ! भोजनं पथिकैरिव । आवाम्पा याचनीयं हि निर्धनानामियं स्थिति। ॥१४६९॥ स्तेनाऽहतसमस्तश्री-मद्भर्वा प्रोक्तवान् " प्रिये १ । कुलाभिमानयुक्ता ये न सीदन्ति कदाचन ॥१४७०॥ अतिशोच्यदशां प्राप्ता, लज्जन्ते याचितुं कणाम् । दातुमेव हि जानन्ति न चाऽऽदातुं स्वमानिनः
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXSMOKO
॥५६॥
For Private And Personlige Only
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir Jain ArachanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
MORE
RRRRRRRRRIORKEE
विपत्रिं गता उच्चभावाः कुलीनाः, असुत्यागमेव प्रशंसन्ति सन्तः। न च प्रार्थनां स्वार्थहेतोः परेषा-महो ! कुर्वते ते महान्तो हि धन्याः
॥ १४७२ ॥ जनानामग्रतो गत्वा तिष्ठेषं तत्तु केवलम् । सवाभावप्रकाशेन व्रीडाथै प्रभवेकिल
॥१४७३॥ यतो भिक्षुकवद् वृत्ति-लाभ मानान्वितो जनः । गतस्त्रो दुःखदग्धोऽपि वक्तुं नैव अग्लमते ॥१४७४ ॥ रसनारसलोभलम्पटा, यदि लज्जावरवर्तिनी नहि। अत एव मुखेऽपि दंष्ट्रया, प्रकृतिस्ता सुतरां हिरवति ॥ १४७५ ॥ "दारियेण समीरिताऽपि बहुशः कण्ठं समाजम्बते, कण्ठात्कष्टशतैः कथं कथमपि प्राप्नोति जिह्वातलम् । जिह्वाकीलककीलिव सुदृढं तस्मान्न निर्यात्यसो, वाणी प्राणपरिक्षयेऽपि महतां 'देहीति' नास्तीति च ॥ १४७६ ॥ सा याचनां कथं कारं विधातुं वाच्छति प्रिये !! । तथाऽपि दैन्यमुत्सृज्य कियत्कालं स्थिरा भव ॥१४७७ ॥ त्वदर्थ दुष्करं कार्य करिष्याम्येव यत्नतः । तावत्प्रविश रथ्याया मन्दिरे श्रमशान्तये
॥ १४७८॥ शीतच्छायं मनोहारि दिव्यधूपाधिवासितम् । सुधासितं पताकाभिः कलसैश्च विराजितम्
॥१४७९ ॥ परितोऽनावृतं हृद्यं कोणेषु स्तम्भसंस्थितम् । विशालचालयोपेतं मन्दिरं तद्वथराजत.
॥१४८०॥ योवनोन्मादिनः स्वैर लपन्तः पर्ववासरे। वनप्रान्तस्थिते तस्मिन विटगोष्ठी प्रकुर्वते
॥ १४८१ ॥ विश्रामार्थ च पान्थानां निर्मितं रम्यखण्डकम् । अध्वश्रममपाकर्तु प्राविशं प्रेयसा सह
॥१४८२॥
For Private And Personlige Only
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobahrth.org
Acharyashn
a garsun Gyan
बीवरंगवती
तत्र तद् ग्रामवास्तव्या गृहस्थाः कौतुकेच्छवः । श्रोतुं नवीनवृत्तान्तं, प्रमोदेन समाययुः
॥१४८३॥ शिशवश्च समाजग्मुः क्रीडनाय समुत्सुकाः । कोलाहलो महानासी-जनमण्डलघोषजः
॥१४८४॥ स्वपतिवरशुश्रूषाकरणेकृतनिश्चयाम् । अरण्ये नियमानां च यमानां रक्षणेरताम्
॥१४८५॥ सतीमतल्लिका सीतां विख्यातां भुवनत्रये । स्वप्रकर्ष च बीजं च रक्षन्तीं ध्यानपूर्वकम्
॥१४८६॥ शालिकणिशतुल्याभे निरुपद्रवशान्तिदे । स्मृत्वैकस्मिस्थले भर्ना सहिताऽहमुपाविशम् ॥१४८७ ॥ (विशेषकम् ) तदानीं सुन्दरः कश्चि-दारुह्य सैन्धवं हयम् । दृष्टोऽस्माभियुवाऽऽगच्छन्तस्निग्धसिताम्बरः ॥१४८८ ॥ तस्याऽग्रतो निजा दूता जनाश्चान्ये त्वरान्विताः । चलन्ति स्म चलाऽपाङ्गा-आतप क्लान्तमस्तकाः ॥१४८९ ॥ केनचित्पुरुषेणाऽऽसौ समायाता रहःस्थले । “पौरनारी "ति तेषां धी-ऑयेताऽऽलोक्य मां तदा
॥१४९०॥ सीताया मन्दिरेऽहं तु ब्रीडाऽवनतमस्तकाः । अष्टास्त्रमण्डितस्तम्भ समाश्रित्यैव संस्थिताः
॥ १४९१ ॥ कुल्माषहस्तिनामा स सीतामन्दिरमुत्तमम् । विमुच्य वामतो गच्छन् मत्स्वामिनमलोकत ॥१४९२॥ तत्क्षणादेवरुद्धाश्चा-दुत्तीर्य स्वामिनो मम । निपत्य क्रमयोभ्यः प्ररुदनित्यवोचतः
॥१४९३ ॥ “चिरमस्मि स्थितो भद्र ! भवदीयनिकेतने । " मत्पतिस्तमुपालक्ष्य सहसाऽऽश्लिष्य वेगतः ॥१४९४॥ गाढप्रेम्णा ततोऽपृच्छत्कुशलोदन्तमुत्सुकः । स्वजनानां वियुक्तानां मातापित्रोस्तथाऽऽत्मनः ॥१४९५॥
EXSEEEEEEEEEEEEEEXSEXXX
॥५७॥
For Private And Personale Only
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
चिरपरिचितमिष्टं प्राप्तमेकान्तमित्रं, हृदयमिदमवश्यं प्रेक्षणे सोत्सुकं स्यात् । तदनुविहितगाढाऽऽलिङ्गनं तत्प्रवृत्ति - श्रवणविधिसमुत्कं जायते स स्वभावात्
॥ १४९६ ॥ " कुतस्त्वममागतोऽस्यत्र ! पिताऽस्याः कुशली किमु ? । पितरौ बन्धवो मेऽपि सुहृदः सुखिनः किमु १ । १४९७ ॥ मत्स्वामिनः समीपे स क्षितौ नत्वा स्थितस्ततः । स्वसव्य करतस्तस्य गृहीत्वा वाममत्रवीत्
“ नगरश्रेष्ठिना कल्ये ज्ञातं “ पुत्री न वर्तते " कथां सारसिकाऽवोचत्ततो वां पूर्वजन्मनः " सज्जीभूय कथं नष्टौ युवामित्यादिमूलतः । प्रोक्तं तया च स श्रेष्ठी श्रुत्वा त्वत्चातमत्रवीत् " श्रेष्ठिन् " किञ्चिन् मया क्रौर्यं कृतं तत्क्षन्तुमर्हसि । तयोः पूर्वतनं रूढं स्नेहबन्धमजानता " तज् ज्ञानस्य माहात्म्यं यद्विज्ञः कुरुते शुभम् । अज्ञः करोति तु फले- सन्देह एव केवलम् जामातुर्मार्गणं तूर्णं कारय श्रेष्ठिपुङ्गव १ । आगच्छतु सुखेनैष मत्तो नास्ति भयं क्वचित् स युवा दैन्यमापन्नः परदेशनिवासिनाम् । व्यवहारा न जानानः कां दशामाप्तवान्भवेत् १ ततस्त्वज्जनकस्याग्रे युवयोः पूर्वजन्मनः । वृत्तान्तं कथयामास साद्यन्तं सकलं क्रमात् जननी पुत्रवात्सल्यात् त्वद्वियोगभृशार्दिता । दुःखोदधौ निमशाsभू-न्मुक्तकंठं रुरोद च समीपस्थजनाः सर्वे तद्दुःखेनाऽतिदुखिताः । रुरुदुर्भृशमुद्विग्ना - श्चिन्ताक्लान्तहृदम्बुजाः
For Private And Personal Use Only
॥। १४९८ ॥ ॥। १४९९ ॥
।। १५०० ।। ।। १५०१ ।।
।। १५०२ ॥
॥ १५०३ ॥ ॥। १६०४ ॥
।। १६०५ ।।
।। १५०६ ।।
॥। १५०७ ॥
Acharya Shri Kailasagarsun Gyanmander
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीतरंगवती
॥१५०८॥ ॥ १५०९॥ ॥१५१०॥
॥५८॥
॥ १५११॥
समस्तवत्सपुर्यान्तु सर्वत्र जनतामुखात् । वृतान्तमेतद्विख्यातं त्वदीयपूर्वजन्मनः नगरप्रेष्ठिनः पुत्री श्रेष्टिपुत्रश्च स्वां कथाम् । प्राग्भवीयां स्मृति लब्ध्वाजानीता प्रेमपूरिताम् वार्ताऽपि कौतुकयुक्ता सलिले तैलबिन्दुवत् । सद्यः प्रसरति मायां लोकाल्लोकं समन्ततः
" वार्ता च कौतुकवती, विमला च विद्या, लोकोत्तरः परिमलश्च कुरङ्गनामेः । तैलस्प बिन्दुरिव वारिणि दुर्निवार-मेतत् त्रयं प्रसरति स्वयमेव भूमौ आश्चर्यकारककथा, कमलाकलंका, विद्याऽनवद्यजनमानस वासिता च ।
कस्तूरिका परिमलो विमल: कदाचित्तिष्ठेचतुष्टयमिदं भुवि गोपितं नो उभाभ्यां अष्ठिभार्याभ्यां युष्मदन्येपणाय वै । परितोऽनेकपुरुषाः प्रहिताः सन्ति साम्प्रतम् प्रेषितोऽहमपि क्षिप्रं प्रणाशकपुरं प्रति । युष्मदन्वेषणायैव शीघ्रं वार्तापलब्धये यतो मज्जनकस्यास्ति वसतियात्मसिद्धये । वृत्तान्तं युवयोस्तत्र किञ्चिन्नैवोपलब्धवान् तथाऽपि ध्यातवांस्तत्र स्वकीयमानसे ततः । “ विनष्टसंपदो ये स्यु-र्ये च कष्टवशं गताः सापराधाश्च ये लोका ये च शिक्षितकार्मणाः । ते भ्रमन्ति वनस्थल्या निजकार्यचिकीर्षया ततोऽहं तादृशस्थानं पर्यटन दृष्टिपूर्वकम् । अत्राऽऽगतोऽस्मि देवेन श्रमो मे सफजीकृतः
॥१५१२॥ ॥१५१३॥ ॥ १५१४ ॥ ॥१५१५॥
FEEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥ १५१७॥ ॥१५१८॥
For Private And Personale Only
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
श्रममिलितसुविद्या कष्टलब्धाकला च, बलविभवविभूतिप्राप्तराज्याऽधिकाराः। इति गुणिगुणसङ्घो नो यथार्थोऽस्ति तावन्, नहि भवति च यावत्स्वाभिलाषस्य पूर्चिः कृता तपस्या गुरवश्च लब्धा मन्त्रोऽप्यवाप्तो विहिवाथ सिद्धिः । स्वसाज्जगत् कित्वफलं समस्तं न चेत्कृतोदुःखविमुक्त्युपायः
उभाभ्यां श्रेष्ठवर्याभ्यां लिखिते निजपाणितः । पत्रे च प्रहिते स्वं हि गृहाण पुरुषोतम ! " इति तस्य वचः श्रुत्वा मद्भर्ता नतमस्तकः । सन्देशपत्रिके लात्वा स्वमित्रं स व्यजिज्ञपत् " सा श्रमव्यपनोदाय, शीतच्छायतरोस्तले । उपविष्टाऽस्ति चिन्तार्ता मोदयैतेन तां द्रुतम् " वाचयित्वा शनैः पत्र गोप्यगोपनकाम्यया । स्पष्टं ततोऽपठत्तार-स्वरेण मत्पतिर्मुदा तेनाहमपि तद्वृत्तं ज्ञातवत्यखिलं स्फुटम् । विनाक्रोधेन पत्रे ते लिखितेऽमवतां ध्रुवम् प्रेमभावः स्फुटस्तत्र दर्शितोऽभूत्पुनः पुनः । " गृहमागम्यतां शीघ्र-मि " त्योत्सुक्यश्च दर्शितम् तेन मे सकला चिन्ता विनष्टा सहसाऽन्तरात् । महानन्दमयं जातं मनो दुःख विनिर्गमात् रमापहस्तिना पश्चाद्भर्तुर्हस्तौ विलोकतौ । आस्तां घर्षणया पूर्णां यौ रज्वा दृढबन्धनात् रूपान्तरं समापन संजातशोकविकृती । मल्लयुद्धसमभ्यासात्परां पुष्टि गताविव
For Private And Personal Use Only
॥। १५१९ ॥
॥ १५२० ॥
॥ १५२१ ॥ ।। १५२२ ।। ॥ १५२३ ॥
॥ १५२४ ॥ ।। १५२५ ।।
॥ १५२६ ।।
॥ १५२७ ॥
।। १५२८ ।।
।। १५२९ ॥
Acharya Shri Kasagarsun Gyanmandir
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवरंगवती
कथा ॥ ५९ ॥
www.kobatirth.org
ततः सोऽचीकथद्विज्ञ-स्तं धीरं समयोचितम् । “ सुभटस्यैव भवतः करौ हस्तिकराविव बलिष्ठ बहुभिर्घातैर्विभिन्नौ विपुलौ तथा । " मयेति श्रुतमेतद्वै सत्यमस्ति किमुत्तम ! अथ स्वेनगुहामध्येऽनुभूतं दुःखमुत्कटम् । तत्सर्वं कथितं तस्मै मरणोपममन्वहम्
" नवनवसुखभाजां विस्मृतप्राक्कृतीनां भवति च सहसा यदुःखजातं त्वसह्यम् | अपसरति तदीयोsसह्यदुःखाच्च मृत्युः, ननु कथमुपमा स्यान्मृत्युना कालिकेन इह जगति समग्रे जन्ममृत्यू च दुःखं, जननसुखितलोका दुःखिपुत्रं हसन्ति । मृतिसमयमुपेताः स्वे जनाः संरुदन्ति, विगतसकलबन्धो मोदते धन्य एकः " ततः स ग्राममुख्यस्य शुद्धाचारवतो गृहे । विप्रस्य कस्यचिन्नीन्ये ततो विश्रामहेतवे विप्रः स चोत्तम नौ हि विज्ञायाऽऽदरमातनोत् । विप्रवचत् कुटुम्बेस्म-त्सत्कृतिः समभूद्वरा यथेच्छं स्वच्छपानीयं पीतं द्वाभ्यां सुशीतलम् । हस्तादि क्षालनार्थं च लब्धं स्वच्छं तथोदकम् ततोऽञ्जसा वरं भोज्यं भुक्तं तृप्तिविधायकम् । ईदृग्पुण्यप्रसादेन स्तुवन्तौ तं मुहुर्मुहुः मुखं हस्तौ च शुद्धेन प्रक्षाल्य वारिणा ततः । अस्मत्पादवणे सर्पिरुष्णं मुक्तं च शान्त्वये अथ तस्य कुटुंबस्य गृहीत्वाऽऽज्ञां विनिर्गतौ । आवां तत्स्थानतः स्वीयधामप्राप्तिसमहमा
For Private And Personal Use Only
।। १५३० ।। ।। १५३१ ॥
॥ १५३२ ॥
॥। १५३३ ॥
।। १५३४ ।।
।। १५३५ ।।
।। १५३६ ।।
॥ १५३७ ॥ ।। १५३८ ॥ ॥। १५३९ ॥
।। १५४० ।।
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmander
BRACES
॥ ५९ ॥
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
BREEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXED
एवम्पुनः स्वस्थदेहा-चारा घोटको मुदा । ततः संचालितावने कुल्माषहस्तिना सह अन्ये भृत्वजनास्तूर्ण-मस्मत्पृष्टानुसारिणः । निज धामसमुद्दिश्य लग्नाः सं चालितुं स्यात् प्रणाशक-पुरं पूर्व प्रस्थिताः सकला वयम् । भुवो भूषणवद्रम्य पयवासगृहोपमम् मीलितुं स्वसखी वेगात् चलती निम्नवाहिनीम् । निर्मलाम्बुभृतां ती| तमसा सरितं वयम् शोकप्रणाशकं रम्य प्रणाकविभूषितम् । प्राप्नुमः संगमस्थानं त्रिभागशेषवासरे रंहसा राजमार्गेण कुल्माषहस्तिदर्शितम् । कुखमित्रसुसम्बन्धि -गृहं प्राप्तास्ततो वयम् तैलाभ्यङ्गोत्तरं स्नान-मोजनाम्यां समादरात् । अस्माकं सत्कृतिः शस्ता विहिता सज्जनैश्च त। अस्तं गते दिवानाथे निशिनिद्रासुखं परम् । शान्त्या तत्रानुभूतं च सुदैवे सुलभं समम् शुभसमय उपेते योग आयाति योग्यः, मिलति सकलभोग्यं जायतेऽनिष्टनाशः किमिह ननु विचित्रं तत्सुकृत्यं प्रभावः, सुकृतरतजनानां शत्रवो यान्ति मैत्रीम प्रभाते च समुत्थाय परमेष्ठि नमस्कृतिम् । शौचस्नाने तथा कृत्वा देवपूजा ततः कृताः अमक्षुधामयान्मुक्तौ पुनः शयनमन्दिरे सुप्तावास्तरणो तूल-गर्भे सुखविधायके कुल्माषहस्तिना ताव-" दागच्छामः पुरीं प्रति । विल्लिख्य प्रेषितं पत्रमित्यस्मज्जनकान्तिके
॥ १५४१॥ ॥ १५४२॥ ॥१५४३॥ ॥ १५४४॥ ॥ १५४५॥ ॥१५४६॥ ॥ १५४७॥ ॥ १५४८॥
SXSXXEEEEEEEEEEEEEEEEXXX
॥१५४९॥ ॥१५५०॥ ॥ १५५१ ।। ॥ १५५२॥
For Private And Personlige Only
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir Jain ArachanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
BUSE
श्रीवरंगवती
कथा ॥६ ॥
BREXXXBIIRIERESISEXBXEXEE
यावत्कालं स्थितौ तत्र तावत्तद्गृहमानवैः । योग्यवस्तुभिरस्माकं पुष्ट्यर्थ विहितश्रमः
॥१५५३॥ कियधनेषु यातेषु लब्धस्वास्थ्या वयं तदा । कौशाम्बी गमनायेच्छां प्रादर्शयमसस्पृहम् ॥ १५५४॥ प्रयाणसमयेऽस्माभि-योपिद्भिर्वारितैरपि । कार्षापणसहस्रं हि शिशुम्यो दत्तमादरात " प्रतिदानसमीहाभिर्वजितं यस्य मानसम् । प्रदानं तेन विहितं सफलं शोभनायति
॥१५५६ ॥ अस्मदर्थ कृतो द्रव्य-व्ययोः सकलः खलु । अस्मद्दत्तधनेनैव गच्छेमिलतां यतः
॥१५५७॥ तावद्रव्यप्रदानेऽपि भर्ता तु लञ्जितोऽभवत् । यतस्तथाविधस्नेहमूल्यं तल्लध्वमन्यतः
॥ १५५८॥ मूल्यं स्नेहस्य विज्ञा विदधति सदृशं नैव जानन्ति सर्वे, सम्यग दानेप्यतृप्ता हियमति दधते स्वामशक्ति सरन्तः । शुद्धस्नेहे न भेदः कपुनरितरता किं सुखं किं च दुःखं स्वैकाल्येनैव सर्वानुभवति सुखं किं न लोकोचरं तत् ॥
उपकृतिरिति धर्मो जन्मसिद्धो जनानां मिथ उपकृतिवद्ध विश्वमेतत्समस्तम् । जगति तदनृणार्थ भव्य जीवा यतन्ते, परमनुगुणदानाभावतः संकुचन्ति
॥ १५६०॥ बहुप्रदेको द्रियमेति दाने गृहर्णैस्तथाऽन्यो बहुमन्यते च । लज्जा तयोः स्नेहमनन्यतुल्यं व्यनक्ति तत्सत्पुरुषैहि वेबम् ।। तादृग्वार्ताप्रसङ्गेऽपि तस्य क्षुब्धं मनोभवत् । प्रयाणसमये चाहं स्त्रीमिः सम्भाषणं व्यधाम् । ।१५६२॥ मद्भर्ता पुरुषः सार्द्ध प्रयाणोचितवाचिकम् । विहितं प्रेमतः सुष्टु शिष्टाऽऽचारानुरोधता
EXSEXXXXXXXXXXXXXXXX
For Private And Personlige Only
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
TRIERRIERE
XXXSEKORKEEKEXNXXKEKHARE
"ज्ञानवृद्धा वयोवृद्धा गुणवृद्धा विपश्चितः। सदा चरन्ति यं धर्म शिष्टाचारः स उच्यते
॥१५६४ ॥ विष्टत्वं लोकमूलं स्थिरकरणगुणं दुर्जना न क्षमन्ते, जानन्तश्चेति दुष्टैः पुनरतिमृदिताः साधवो न त्यजन्ति । सत्कार्योऽरिः सुहृद् वा स्वगृहमुपगतः शिष्टतामार्ग एष, चण्डालानां द्विजानां च सदसि सदृशोद्योतका पद्यपाणिः ॥ प्रवासयोग्यवस्तूनि सकलान्यौषधानि च । गृहितानि समं येन वर्मनि नो क्षतिर्भवेत मदर्ताऽथ समारूढ-वराश्वः स्यन्दनं मम । अन्वगच्छल्लसद्वक्त्रो मद्रक्षकपरायणः
॥१५६७॥ वत्सलैः पितृभियस्तु पहिताः किङ्करास्तथा । तैः सार्धमागतो बन्धु-खि कुल्माषहस्त्यपि
॥१५६८॥ मानवास्तस्य चान्येऽपि परितो मद्रथं तदा । परिवृत्य चलन्तिस्म कौशाम्याः समुपागताः ॥१५६९ ॥ तथैव सुभटाः केचि-द्रणेषु लब्धकीर्तयः । बहवो मत्पुरोभागे रक्षणायाऽचलंस्तथा
॥ १५७० ॥ प्रणाशक पुरस्येव व्रजन्तश्च स्वराऽध्वना । जनानानन्दयन्तश्च पुरात्तस्माद्विनिर्गताः
॥१५७१॥ तदानीं चकिताः सर्वे पुरलोका नीरीक्षणात् । अस्माकं वैभवोस्योचैः निर्निमेषक्षणा बभुः ॥१५७२॥ आकस्मिकप्राप्तमदृष्टपूर्व, जनोवहन्कौतुकमित्थमेकम् । विहाय सर्व च हितं स्वकीय, तनिष्ठबुद्ध्या सहसा प्रयावि॥ १५७३ ॥ अस्मिन्मित्रस्य चाऽस्माकं परिवारेण संयुताः । अतुलेन वैभवेन वयं तस्माद्विनिर्गताः
॥१५७४ ॥ राजमार्गे समागच्छ-जनैः संभूय लक्षशः । अस्मच्छ्लाघां प्रकुर्वद्भिर्मुदितैश्च विलोकितम्
॥१५७५॥ मदर्ता स्तम्भयित्वाऽथ सारथिना रथं मम । मत्सभिधौ समागत्य निषसाद प्रमोदतः
॥१५७६॥
BEXEEEEEEEER
For Private And Personlige Only
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahanandain AradhanaKendra
Achanach
sagan Gyaan
श्रीतरंगवती
HERITHEREIIIIIIIIIIIIRESH
लक्षिकानेव द्रष्टव्यस्थानः सर्वद्धिराजितः । ततोऽस्मरसार्थ इष्टार्थोऽचलदग्रे यथेच्छया
॥ १५७७॥ शालि क्षेत्राणि मार्गेषु विश्रमस्थण्डिलानि च । प्रपावृन्दश्च पश्यन्तो व्रजन्तश्च शनैः शनैः
॥१५७८॥ वासिलाकाऽभिधग्रामं प्राप्तास्तत्र वटोऽभवत् । गिरिसानुसमं तश्च विलोक्यानन्दमाप्नुमः ॥ १५७९॥ स च वृक्षोऽभवत्पान्थहृदयान्ददायकः । हरित्पर्णततिच्छन्न-मध्यस्थितवयोव्रजः
॥ १५८० ॥ न्यग्रोध तं समालोक्य कुल्माषहस्त्यचीकथत् । " तीर्थकरो वर्धमानो निर्ग्रन्थधर्मदेशकः ॥ १५८१॥ शीलसंवरसंयुक्तः छमस्थो विहरन्भुवि । सज्ज्ञानभास्करोद्योत-नाशितान्तस्तमोबजः
॥ १५८२॥ त्यक्तसंसारवासोऽस्मिन्पुरा वासपरोभवत् । ममिकेयं ततः ख्याता वासालिकारुपया जनैः ॥ १५८३ ॥ सर्वज्ञस्मरणायातो देवकिश्मरमानवाः । न्यग्रोधमेतं बहवः पूजयन्ति समुत्सुकाः"
॥ १५८४॥ एतद्वचः समाकये पूज्यभावेन मोदतः । आवां स्थात्समुत्तीणौ तीर्थदर्शनकाशया
॥१५८५ ।। "तपस्यया पूर्णपवित्रितानां, दयाधनानां शुमसत्यवाचाम् । ज्ञानात्मनां यत्र भवेत्प्रवृत्तिा तीर्थहि तत् शुद्धिकरं तदीयम् गा न्यग्रोधमूखमास्पृश्य भालेन नम्रतायुतौ । प्राप्नुव जन्मसाफल्यं श्रद्धयाऽपूर्वया स्वतः
॥१५८७॥ कृत्वाजलि मया प्रोक्तं-" महाभागाधिपोत्तम ? । धन्योसि,त्वं यतो वीत-रागस्त्वच्छायसंस्थितः ॥१५८८ ॥ न्यग्रोधमिति संस्तुत्य त्रिःप्रदक्षिणपूर्वकम् । स्वस्थीभ्या अतोगन्तुं पुनःस्यन्दनमास्थितौ
॥ १५८९ ॥ वर्षमानजिनो यत्र न्यवसच्छान्तिपूर्वकम् । तमिदर्शनान्मोदो ममाऽभून्मानसे बहुः
॥ १५९.॥
KAAREERSAEX8XEEXX*
॥ ६
॥
For Private And Personlige Only
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achahn
sagan Gyaan
TEEEXXXXXXXXXXXXXXX
चिरकालं च तव्याने निमग्ना मक्किभावतः । उत्तरप्रमोदाऽब्धि तरितुं न क्षमाऽभवम् ॥१५९१ ॥ भर्तृपास्थिता मार्गे गृहिण्याः सुखमुत्तमम् । अनुभवन्त्यहं काली-प्राममुल्लध्य मोदवः ॥ १५९२॥ अग्रतोऽगच्छमुत्फुल्ला वाताऽऽलापपरायणा । पश्यन्ती नूतनान्वृक्षान सुरभीकृतभूतलान्
॥ १५९३ ॥ निषाऽऽवासनहायाऽथ शाखाञ्जनपूरीं गताः । सोधैरभ्रंलिहे रम्यै राजितां वयमुत्तमा
॥ १५९४॥ तत्र मत्स्वामिमित्रस्य कैलासशिखरोपमे । प्रासादे संस्थिताः सर्वे वयं तत्पुरभूषणे
आकस्मिकेऽतिविषमे व्यसने निमग्नं, बन्धप्रहारकृतलक्षणलक्षिताङ्गम् ।
रष्ट्वा स्ववेश्मनि समागतमिष्टमित्रं, कैश्चित्सहेति सहसाऽभिजगाम मोदात स्नानभोजनपानादिव्यवस्था विहिता वरा । अस्मत्सार्थजनाःसर्वे भोजितास्तेन भावतः
॥१५९७॥ बलीवदी च पासेन तोषितौ गृहमेधिना । इत्थं सुखेन सा रात्रि-पिताऽस्मामिरुत्सवात
नमस्कृतिमथ स्मृत्वा, उत्थाय शयनाच्छनैः । आवश्यकीक्रियां कृत्वा, शौचस्नानादिकं पुन: मनसा जिनपूजां च स्वाध्यायं गुरवे नमः । भुक्ता मित्रमनुज्ञाप्य प्रस्थिता उदिते रवी
॥१५९८॥ विविधालिविहंगानां मण्डलान्यभ्रचारिणाम् । कुर्वतां मधुरध्वानमदृश्यन्त समन्ततः
॥१५९९॥ वार्तालापं प्रकुर्वद्भि-रस्माभी रथमाश्रितः । “ नैव ज्ञातं कियानभ्वाऽतिक्रान्त ॥ इति मोदतः ॥१६.०॥ कुल्माषहस्तिना पूर्व वर्णिता ये तथैव ते । पचनग्राममार्गादिचिह्नरूपमहीरुहाः
BBRECTORREEKXEMEREAKERARI
For Private And Personlige Only
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir Jain ArachanaKendra
Achanach
sagan Gyaan
भीतरंगवती
कया ॥ ६२॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
अस्मार्मिरतो दृष्टाः पवित्राः सुमनोहराः । पुनर्विलोकितः शाखा-मण्डितो वटपादपः
॥१६.२॥ तदान्तिकत्वमापन्नरस्मामिहरितैदलैः । विशालः श्यामलो भूमेर्वक्षोज इत्यतय॑त
॥१६०३।। सार्थस्य पथिकानां च विश्रमस्थानमछुतम् । मार्गालङ्कारमृतोऽभू-च्छायामण्डलशोभितः
॥ १६०४॥ कौशाम्बीसीमवेशस्य परां शोभा विवर्द्धयन् । स्तम्बेषु विटपानां च पक्षिस_विराजितः सुरभिपुष्पजालानां कलिका रम्यकान्तयः । मनोहरा मनो नृणां हरन्तिस्म सकौतुकम् ऊर्ध्वदेशे शरन्मेष इव श्वेतपटावलिः । व्यराजत्तदधो नीरपूरिता मृदघटा अपि
॥ १६.७॥ मित्रसम्बन्धिवगैव तद्देशं समुपागतः । वयं व॰पिता भूयोऽनेकाऽऽशीर्वादपूर्वकम्
॥१६०८॥ मुखेन कमलं या चलझपो कचानां चयै भ्रमभ्रमरभारकं शिरसि वारिपूर्ण घटम्
॥१६०९॥ इयं यूवतिमण्डली सुधकन वहन्ती सती, पुरो भवति यस्य तस्य पूर्ण हि सर्वेऽप्सितम्
॥१६१०॥ ऋषभदेवजिनेश्वरमन्दिर, विविधपुष्पलतोपवनं वरम् । विकचकञ्जसुशोभिसरोवरं परिसरेऽस्ति मनोहरमङ्गलम् ॥१६११ ॥ अकस्मात्यसंशोभी, राजहस्ती समाययौ । गर्जनमन्दगर्जाभिः स्वागतमनुमोदयन्
॥१६१२॥ इंसानां कूजनं वापी-तीरसामीप्यसेविनाम् । सर्वमङ्गलमेवाऽऽसी-दधिदुर्वाऽवताऽदिमिः
प्रतिसुरवरगेहं कांस्यपण्टानिनाद-स्तदनु सविधिपूजापद्धत्तिगौरषेण । कचिदपि नृपमान्या एत्य नो मानयन्तः, स्वजनपरिवृतानां सर्वमस्माकमिष्टम्
॥१६१४॥
XEXXEBOXEEEEEERRORITERA
।॥
२
॥
For Private And Personlige Only
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
Achanh
sagan Gyaan
SER.NEKKARNAK SEXEEEEKED
विहितं स्वच्छनीरेण सर्वैः स्नानं सुखावहम् । तेनाऽस्माकं श्रमो नश्यदध्वश्रमसमुद्भवः
" स्नानं नाम मनः प्रसादजननं दुःस्वमविध्वंसनं, सौभाग्याऽऽयतनं मलाऽपहरणं संवर्धन तेजसः ।
रूपोद्योतकरं शिरःसुखकर कामाग्निसंदीपनं, स्त्रीणां मन्मथमोहनं श्रमहरं स्नाने दशैतेगुणाः" ॥१६१६॥ ततो मत्स्वामिवग्यास्ताम्मिलित्वा तत्र संस्थिताः । वयं मोदभराऽऽक्रान्ता: सिद्धसर्वसमीहिताः ॥१६२७॥ अहं त्यक्त्वा रथं तस्मात्स्थलाच्छ्रेष्ठतुरङ्गमम् । आरूढा सज्जपर्याणे प्रयाणं कर्तुमारमे
॥ १६१८॥ मामनुस्नेहसम्बद्धा सारसिका समागता । मीलितुं, मम धात्र्यश्च दास्या घेलुयुबवजाः
॥१६१९॥ अन्योप्यन्वचलत्सार्थः स्वस्ववर्ग समन्वितः । सुवर्णस्यन्दनाऽऽरूढो निजमित्रेण संयुतः
॥१६२०॥ मत्पतिस्तु विशेषेण मत्पार्श्व नाऽमुचरक्षणम् । संभय परिवारेण ननादृणां व्रजस्तथा
॥ १६२१ ॥ भ्रातृपल्या स्वदासीभी रम्यगन्त्रीरथेषु च । निषण्णा हर्षमापना, अन्वगच्छन्पुरं प्रति
॥१६२२॥ “विख्यातस्य मनुष्यस्य सुखदुःखे गमाऽऽगमौ । प्रवासं च परावृत्ति सद्यो जानन्ति देहिनः" ॥ १६२३॥ त्वरयाऽस्मृत्कृते जातं तोरणद्वारमुत्तमम् । समुल्लर पुरीं श्रेष्ठां कौशाम्बी प्राविशाम वे
॥ १६२४॥ तदानी दक्षिणे भागे नरपक्षिरवाश्रुतः । शुमेन शकुनेनेत्थं महानन्दोऽभ्यजायत
॥१६२५॥ यस्मिन्वयं समायाता राजमार्गः स भूषितः । सुरभिश्वेतपुष्पौधे-रस्मत्सत्कारहेतवे
॥ १६२६॥
*EXEEEXXXXEEEEEXXX
For Private And Personlige Only
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवरंगवती कथा
॥ ६३ ॥
38888
www.batirth.org
॥ १६२७ ॥ ।। १६२८ ।। ।। १६२९ ।।
।। १६३० ॥
॥। १६३१ ॥
तद्दद्वयपार्श्वस्थ - खचुम्बि हर्म्यराजिषु । रम्यह प्रदेशेषु प्रेक्षणोत्सुकचेतसाम् नारीणां पुरुषाणाश्च मण्डलानि पदे पदे । सम्भूय नश्च मानार्थे तिष्ठन्तिस्म सकौतुकम् arayaसरोजानां व्रजो निम्नोभतो यथा । लोकवक्त्राम्बुजश्रेणी तथैव सा व्यराजत मद्भर्तुमनदानाय राजमार्गस्थमानवाः । स्नेहदृष्टथाऽभिपश्यन्तो नमस्कारानपि व्यधुः मेघत्यक्तरचन्द्रमिव प्रत्यागतौ पुनः । विलोक्य नौ समेषां हि प्रमोदो न ममौ हृदि विना यथैकेन न जीवनं स्यादन्यस्य तत्प्रीतिवशंवदस्य । तयोः कृते चिन्तितमानसानां प्राप्ताऽवमानो हि भवेत् प्रमोदः ॥ विशेषतो ब्राह्मणाश्च ददुराशीर्वचो मुहुः । विपुलानन्दप्रोत्फुल्ल-मानसा शुद्धभावतः ब्राह्मणश्रमणान्पूज्यान् ननाम मत्पतिस्ततः । मित्राण्यालिङ्गयामास परांश्च समभावयत् "समता संयमापना धर्मतस्वप्रबोधकाः । मोक्षमार्गस्थिता नूनमावाभ्यां गुरवोऽर्चिताः आर्यवेदविदो जनसिद्धान्त प्रीतिसम्भृताः । द्विजास्ते वन्दिता ब्रह्मविदोऽईदयानतत्पराः
॥ १६३३ ॥ ॥। १६३४ ।।
।। १६३५ ।।
।। १६३६ ।।
॥। १६३७ ॥
तस्य ज्ञातारोsध्यात्मविद्यासु कर्मठाः । संतोषपूर्णचैतन्या ब्राह्मणास्ते प्रकीर्तिताः " "ये शान्तदन्ताः श्रुतिपूर्णकर्णाः जितेन्द्रियाः प्राणिवधानिवृत्ताः । परिग्रहे संकुचिता गृहस्था-स्ते ब्राह्मणास्वारयितुं समर्थाः ॥ सुखदुःखसमप्रीतिषद्धकक्षः सुहृद्गणः विप्रयोगविदीर्णात्माऽऽलिङ्गितः प्रेमभृन्मनाः " ।। १६३९ ।।
For Private And Personal Use Only
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
॥ ६३ ॥
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥१६४० ॥ ॥१६४१॥
निरीक्ष्याऽऽवां जनाः केचि-द्वदन्तिस्म परस्परम् । “ श्रेष्ठिहर्यस्य मित्तौ यश्चित्रेषु चित्रितः स्फुटम् व्याधेन यो हतः सैव, चक्रवाकः नरोऽस्त्ययम् । दैवायत्तं जगत्सर्व सुखदुखं तथाऽश्नुते
कृतबहुसुकतानामागमज्ञानभाजां, जितसकलधराणां दोष्मतां वा नृपाणाम् ।
नृपनलप्रभृतीनां वीक्ष्य दुर्दैवमस्मिन् जगति भवति सर्व दैवसात्कार्यजातम चित्रिता चक्रवाकी या सती भूत्वाऽथ श्रेष्ठिनः । पुत्रीत्वेन समुत्पन्ना धनस्याऽस्य च सा वधूः देवेनैतावुभौ चित्रे वर्तमानौ मनोरमौ । योजितो कीदृशौ भव्यौ विराजेते परस्परम् ? केचिदन्ये वदन्तिस्म " युवायं सुन्दराकृतिः । स्मित्वान्यश्चावदद्-"हृद्यं सत्यमेव भवद्वचः मीलितं मिथुन कीढक कन्यायोग्योऽस्त्ययं वरः । कलाकलापपारीणो राजतेऽसौ युवा ध्रुवम् " एवं पृथक पृथग् रीत्या तदा सर्वेऽपि देहिनः । वर्णयामासुरानन्दात स्वामिनं मम शोभनम ततः शनैः शनै रम्ये तत्प्रासादे समागतौ । वारिणा दासदत्तेन पादप्रक्षालनं कृतम् पवित्रभाजनादासदधिपुष्पाक्षतैस्तदा । प्रदत्तैर्देवपूजा च विहिताऽस्माभिरुत्सवात ततोऽस्मभ्यं सरोजाना कन्दुका मालिकास्तथा । अर्पिता: 'स्वामिना सार्द्ध ततोऽहं द्वारमाविशम् विस्मृत्याऽनुप्रयान्तीप-दन्तरं प्राप्य वेगतः । सत्वरं सङ्गता भर्ना “नेष्टमिष्टेन हीयते"
॥ १६४२॥ ॥१६४३ ॥ ॥ १६४४ ॥ ॥ १६४५॥ ॥१६४६॥ ॥ १६४७॥ ॥१६४८॥ ॥१६४९ ॥ ॥१६५० ।।
RRRRRRRRRRROORKERI
For
And Persone Oy
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
श्रीवरंगवती
कथा
XXXKAKKKKARNXAEXXXX
चतुष्कं रम्यहमेस्य जनाकीर्ण च सुन्दरम् । विशालं स्वामिना साकं प्राविशं हर्षपूरिता
॥ १६५२ ।। मत्पिता हर्षसंफुल्लः स्वकुटुम्बिजनैः सह । प्रागेवाऽऽगत्य तत्स्थाने मचिकायामुपाविशत
॥१६५३ ॥ किश्चित्सकोचमञ्चन्तौ पूज्यानां पादयोः शिरः । अमुचाव पृथूत्साही चिरकालवियोगिनी ॥१६५४॥ अपराधकृतो विधेबलात्सहसा तत्परतोऽनुशेरते । तत एव महानिवाऽल्पकः समयोऽयं धिषणासु जायते ॥ १६५५ ।। नहिं तत्पदवन्दनादृते सदुपायो भुवि कोऽपि वर्तते । सुतरां कृपयैकवत्सला सुसहन्तेऽप्यपराधसन्ततिम् ॥ १६५६ ॥ देवैखि दयावद्भिरेतैः स्नेहार्द्रमानसैः । दृष्टया विलोकितौ भूयश्चाश्लिष्टौ चुम्बितं शिरः
॥ १५५७॥ तेषां नेत्राणि हर्षाश्रु-धारया संकुलानि वै । चिरमस्मान्व्यलोकन्त निर्निमेषतया मुहुः
।। १६५८ ॥ मम श्वश्रूश्च मन्माता हृदयोत्साहतो दृढम् । मा समालिङ्ग्य संजाते साश्रुलोचनवारिजे
॥ १६५९॥ चिरकालवियोगेन स्तनेभ्यो दुग्धससन्ततिः । निःससार दृढस्नेहं दर्शयन्ती द्वयोस्तयोः
॥१६६०॥ मातुः परं प्रेम यथास्त्यपत्ये, तथा न चाऽन्यत्र पितुस्तथा न । स्वमानतः पश्यति पुण्यभाजा, मातेव नान्यः समवायिवर्गः
॥१६६१ ॥ ततोऽहं निजवन्धूना-मष्टानां क्रमतः क्रमान् । भक्तिभावितचित्चेन प्राणम नम्रमस्तका
॥ १६६२ ॥ तदा तेषामपि प्रेम्णा नेत्रेभ्यःस्रवदथुमिः । आणि हृदयान्यासन 'स्नेहिनामृरशी स्थितिः' ॥ १६६३॥ यानस्मा मदीपास्ते स्नेहिनोऽन्ये समागमन् । दीर्घकालवियोगेऽपि शुद्धप्रेम न हीयते
॥ १६६४॥
For Private And Personlige Only
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanach
sagan Gyaan
SEXEEEEEEEEEEEEEXXSEX
दूरोऽपिदेशः समयश्च शुद्ध-प्रेम्णां न किंचित्कुरुतेऽन्तरायम् । कंजाय सूर्यः स्ववियुक्तमत्रे सतां यथा प्रेमदृढं करोति सारसिका निरुद्धा ये पूर्व नेत्राश्रुबिन्दवः । तेऽपीदानी व्यमुच्यन्त स्मृत्वा दुःखं वियोगजम् ॥१६६६ ।। मङ्गलक्षतिभयेन नेत्रयोरश्रुरोधनपरा नरा बराः । किन्तु तद्विरहरोगबाधिता नो विदन्ति च कृताऽकृतोऽचिर्तीम् ॥ तत्तु तस्याः क्षणादुःखं न क्षमं शमितुं खलु । विभाति स्म हिमक्लिन्नपारेखेव सा तदा
॥१५६७॥ महेभ्यानां समादेशात प्राभृतसमयोचितः। समानीतो घटवैका सर्वमङ्गलसाधकः
॥१६६८॥ अस्मासु विष्टरस्थेषु तावत्कालं कथानकम् । अस्माकं प्रष्टुमारेमे, सर्वसम्बन्धिनां गणः
॥१६६९॥ ततो मत्स्वामिना सर्वः कृतो योऽनुभवः पुरा । दुःखमूलः क्रमेणैषां सायन्तः स निवेदितः ॥१६७०॥ दुःखप्रहाणाय परस्परस्य, सदा प्रयासं कुरुते मनुष्यः । दुर्दैवतो दुःखमुपैति पश्चा-यतोऽप्रलोके सुलभ हि दुःखम् ॥ नष्टे जने शोचति बन्धुवर्गः गते धने स्यात्कृपणो यथैव । तस्मात्पुरस्तादनुशोचनीय, पुनर्न तत्संसहतेऽभिमानः॥ प्रेम्णाऽवसाय पूर्वन्तु सहैव दुष्टमृत्युना । ग्रासीकृतौ ततोऽस्माकं वियोगोऽजनि देवतः
॥ १६७२॥ एतैश्चित्रैश्च भूयोऽस्मत्संयोगोऽजायत प्रियः । पलाय्य नावमारुह्य तीच वेगवर्ती नदीम
॥१६७३ ।। स्तेनहस्तगतो तेन मृत्युवक्त्रस्थितावपि । तद्गुहातश्च निष्कास्य चौरेणैकेन रक्षितौ
॥ १६७४ ॥ वनं भ्रान्त्वा ततः कश्चिद्-प्रामो लब्धः सुदैवतः। कुल्माषहस्तिनाऽस्माकं योगोऽकसादजायत ॥१६७५ ।।
यदि मनसि समीहा हातुमादातुमिष्टं, सुविहितयतनानां दैवमेकं सहायम् ।
For Private And Personlige Only
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवछावती
कथा ॥६५॥
88888
www.kobatirth.org
दुरधिगतिविकाले सम्भवो यस्य नास्ति, प्रभवति भवितव्यत्वेन तस्मिन्नकस्मात् इति मत्स्वामिना प्रोक्तां वार्तां श्रुत्वा द्वयोः पुनः । पक्षयोर्लोचनान्याशु मुञ्चन्तिस्माऽश्रुधोरणीम् मत्पिताऽथावदद्विद्वन् ! कथं नोक्तमिदं त्वया । यथा दुखं तव स्यानो पश्चात्तापोऽपि नो भवेत् सहन्ते ऽसादुःखानि प्रकाशन्ते स्वयं तु न । समयं हि प्रतीक्षन्ते लोकोत्तरगुणालयाः किञ्चिदप्युपकर्त्ता यस्तस्याऽपि सज्जनो हृदि । महोपकारं मनुते यावज्जीवमनुस्मरन् स्वयं प्रत्युपकारं न कुरुते यावदुत्तमम् । अनृणं मन्यते नैव निजात्मानं नरोत्तमः अपि द्विरुपकर्तुर्यो मन्यते नैव मूढधीः । सद्गुणं स मुधा जीवे - स्पशुतुल्यो निरर्थकः उपकार भरं साधु-नुते मेरुणा समम् । द्विगुणोपकृर्ति कृत्वा तुष्यत्येव सुधीर्जनः
" मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः परगुणपरमाणु पर्वतीकृत्य नित्यं, निजहृदि' विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः " ।। भवान् जीवनदातास्ति ततोऽहमपि जीवनम् । ददामि चेत्सुखं मे स्पा- दन्यथा तु कथं भवेत् ? मत्पिता श्रेष्ठिनान्ये, वचनैरेवमादिभिः । प्रीणयामासुरुत्साहा - दन्योऽन्यप्रेमबन्धनाः अस्मदागमनेनैव गृहवासिजनाः समे । सन्तुष्टमानसा लब्ध-जीवना इव जज्ञिरे अचातमानवाचैवं नागरा अखिखास्तथा । आवयोर्मेलनायैव सत्वरं समुपागताः
For Private And Personal Use Only
॥ १६७६ ।।
।। १६७७ ।।
।। १६७८ ।।
।। १६७९ ।।
॥ १६८० ॥
।। १६८१ ।।
॥ १६८२ ॥
।। १६८३ ॥
।। १६८४ ॥ ॥ १६८५ ॥
॥
१६८६ ॥ ।। १६८७ ।। ॥ १६८८ ॥
泡泡米泡或米泡泡水泡泡電泡泡泡
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
।। ६५ ।।
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
॥ १६८९ ॥ ॥ १६९०॥ ॥ १६९१॥
BBASEREEEEEEEEEEEEEEEEEX
अधीर्वादप्रदाने च प्रशंसायां तथैव च । वर्धापननिमित्तश्च प्रदत्तं पारितोषकम् प्रत्युपतयेऽस्माकं भृत्यायाजन्यचेतसे । कुल्माषहस्तिने निष्काः सहनं च समर्पिताः सम्मय बन्धुवर्गोऽपि प्राभृतानि ददौ मुदा । अस्मभ्यं स्वर्णमाणिक्य-रत्नानि विविधानि च
अमिमतमिलनानां सुप्रतीक्ष्याज्जामानां, मिथ उदयति भावः कोप्यचिन्त्यो गरीयान् ।
ददति तदनुरूपं प्रीतिदानोपहारं, निरवधिकृतकृत्यास्तेन सर्वे भवन्ति मत्पितुश्च कुलीनत्वाद्राशा साद तदैक्यतः । आवयोरागति श्रुत्वा मां देवी पुनराह्वयत
ती तत्पाणिपोन लिखितं पत्रमुत्तमम् । मां नमस्कृत्य विनयात्प्रेम्णा मम करेऽददात विलोक्य पत्रं मुमुदे मानसं मम रागतः । उद्घाव्य वाचयामास सत्वरं स्निग्धचेतसा स्वस्तिपूर्वकमुल्लाघपृच्छानन्तरमादिवत् । भागन्तव्यं त्वया मातापितरावनुमोद्य च अहं हि भवती द्रष्टुं सोत्सुका चिरकालतः । स्मृत्वा त्वं मम वात्सल्यं बाल्या न खलु विस्मर इति श्रुत्वा पिता प्रेम्णा गन्तुं मां तत्र गैरयत् । लज्जानम्राहमेनं तमादेशं शिरसादधाम दासीमिः स्वकुनौचित्यविदुराभिः सहकदा । नानाढौकनद्रव्याण्यादाय प्रासादमासदम् दासीभिस्तानि वस्तूनि ढौकितानि प्रणम्य ताम् । महाराही पुरो भूमौ वर्षाप्य विनयेन च हीहतोचितविज्ञाना साई नम्रातिकन्धरा । सखीभिः प्राप्तकालाभिर्देव्यग्रेज्य पुरस्कृता
॥१६९२ ।। ॥ १६९३ ॥ ॥ १६९४ ॥ ॥१६९५॥
॥ १७९७॥ ॥९७९८॥ ॥ १७९९ ॥ ॥ १७९९॥
For Private And Personlige Only
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
श्रीवरंगवती
कथा
XXXXREEEXXXXXXX
बद्धाञ्जलिपुटा नम्रनम्रा देवी पदाम्बुजे । अपतं तन्महाराज्ञी धृत्वा मां तु समाश्लिषत् मूनि मे स्वकरं न्यस्य मदाननविलोकनात् । उत्पन्नपरमाऽऽनन्दाऽमन्दं मन्दं तदाऽऽशिषत् स्वं पादपीठं मे दचा स्वास्यताभिति चाऽवदत् । प्रणम्य पादपीठं तं रत्नम्मानुपाविशम् राज्ञी वासवदत्ता सा श्रुत्वा मन्मुखतः कथाम् । मोहविजृम्भितं मेने येन चापद्रुतं जगत जिने ध्यानं गुरौ भक्तिः श्रद्धानं पुनरागमे । मोवाय परमोत्कण्ठा सर्वमेवमुपादित स्वीचक्रे नम्रया वाचा मस्तकेनानुमोद्य च । ऊचेऽहमम्ब ! नारीणां स्थैर्य न धर्ममन्तरा स्वानुमत्या मयाज्ञातमवश्यं मावि मत्पतिः । तत्तदन्वेषण पूर्व पश्चात्सर्व भविष्यति न चेद्दीक्षा मया ग्राह्या यथास्माद् भवनिःसृतिः । अन्वेषिते च दृष्टीच्छा तस्यां च मिलनस्पृहा तस्यां च विनरहितैकान्तप्राप्तिस्पृहाभवत् । प्रबलान्मोहमाधुर्यात सर्वमाचरितं मया तत्फलं कटु सम्प्राप्तं किमन्यत्कथनेन मे । तत्प्रयत्नं करिष्यामि यथायोग्य भविष्यति मत्पतिर्भवमीतः स सहायं च विधास्यति । वारशा स्वजनानां च प्रसादेन शुमं मम शुभाशिषां च कि न स्यात् श्रद्धालूनां विशेषतः । आवयोः कार्यविज्ञानात प्रजापि तद्विधास्पति अनुमत्या महाराझी सोपहारं मणिस्रजम् । ददावादाय नत्वा च स्वगृहं समुपागमम्, मुहूर्ते च मेऽस्माकं कुटुम्बद्रययोग्यया । समृदयापूर्वया लग्नो-स्सवो जातोऽतियोभना
॥ १७०१॥ ॥१७०२॥ ॥१७०३॥ ॥ १७०४॥ ॥१७०५॥ ॥ १७०६ ।। ॥१७०७॥ ॥ १७०८॥ ॥ १७०९॥ ॥१७१०॥ ॥१७११॥ ॥ १७१२॥ ॥ १७१३॥ ॥ १७१४॥
SKETEXXXXXXXXXXXXKKRRRRRRY
॥६६॥
For Private And Personlige Only
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
कस्यापि जातुचिन्नेवा-भवदीदृङ् महोत्सवः । अविच्छिन्नो यतोऽनेन महानन्दो जनेऽजनि आवयोर्वन्धवः सर्वे मित्रभावमुपागताः समसुखत्वं हि भेजिरेऽनन्यभावतः मद्भर्ता सद्गृहस्थानामुचितं व्रतपश्चकम्। जग्राह भवपाथोधि-तारणे सुतरण्डकम् वीतरागगिरं नित्यं चिन्तयन्नमृतोपमम् । जीवनं यापयामास धर्मेणैव समाहितः पूर्वोक्तेन प्रकारेण मयाऽप्याचामलकानि च । अष्टोत्तरशतं पूर्णां चक्रिरे विधिपूर्वकम् यतोऽनेन तपश्चर्या - विधानेन समं भुवि । यथेप्सितप्रदं नान्यद्व्रतं श्रेष्ठं विलोक्यते " तपसा जायते सिद्धिः परमार्थविधायिनी । विना तेन जनिर्लोके, निन्दनीयतम मिता " अथाई सार्द्धमेतेन कर्तुमानन्दमन्वहम् । अति शुद्धचित्तन विशुद्धतरमानसा वृक्षवल्लीचयाकीर्ण नानापक्षिखाकुलम् । वापीपद्मवनैर्व्याप्तमुद्यानमतिसुन्दरम् तत्र सिद्धस्थपतिभीरचितं रम्यमुद्भटम् । आदिनाथजिनेन्द्रस्य मन्दिरं जितमन्दरम् तस्मिन् सिंहासने श्रेष्ठमणिमाणिक्यमौक्तिकैः । कृता कलाविदा चित्तहारिणी प्रतिमाऽस्ति च विविधसुगुणभावान् सर्वदोल्लासयन्ती, विषयकटुकषायान् सर्वथोन्मूजयन्ती । प्रशमरसममन्दस्यन्दनेन स्रवन्ती, जिनपरिवृढमूर्त्तिमंगलं मङ्गलानाम्,
१२
For Private And Personal Use Only
।। १७१५ ।।
॥ १७१६ ॥
॥ १७१७ ॥
॥ १७१८ ॥
।। १७१९ ।।
।। १७२० ॥
।। १७२१ ।। ॥। १७२२ ।। ॥ १७२३ ॥
॥ १७२४ ॥
।। १७२५ ।।
॥ १७२६ ॥
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
Xx..
श्रीवरंगवती
कथा ॥६७॥
SXEEEEKSIKS
विकशितमुखपद्मा-दृष्टियुग्मप्रसन्ना-भवजलनिधिनौका मुक्तिसत्सार्थरूपा । जिनपतिमधुमुद्रामोदमानाऽसमाना-इह जिनमुर्जिनभावान व्यक्ति
॥१७२७॥ कारुण्यैकनिकेतनाऽमृतदृशा विभ्राजमानातुलं, तत्तद्योगवरप्रयोगरचितस्वादुस्थितिप्राञ्जला ।
मुकाऽपि प्रणिपातिनां हृदयिताशङ्काशमं कुर्वती, जैनेन्द्रीप्रतिमा गुणैरनुषमा सर्वोत्तमा राजते ॥१७२८॥ त्रिकालं तत्र पूजायां दर्शने वन्दने तथा । समयं गमयामास मया साकं स सक्रियः " पूजामाचरतां जगत्त्रयपतेः सवार्चनां कुर्वतां, तीर्थानामभिवन्दनं विदधता जैनं वचः शृण्वताम् । सदानं ददतां तपश्च चरतां सत्चानुकम्पाकता, येषां यान्ति दिनानि जन्मसफलं तेषां सुपुण्यात्मनाम् ॥ ॥१७३०॥ प्रमाते च सुवासेन मध्याहे कुसुमैस्तथा । सन्ध्यायां दीपधूपाम्या विषयाऽर्चा विवेकिमिः पूजया जिनदेवस्व स्तवनेन च लभ्यते । नरदेवमवं प्राप्य मोक्षस्थामं च निर्भयम्
॥१७३३ पादरतो लोके जिनेन्द्रपूजया यथा । भव्यमक्तिप्रभावेण प्रापद् ने शाश्वतं पदम् नश्यति नैषिकं पापं प्रमाते जिनपूजया । आजन्मानितपापच मध्याहपूजयाईतः
॥१७२४॥ सप्तजन्मकृतं पापं सार्यकालिकपूजया। धूपदीपजिनेन्द्रश्य नश्यत्येव न शंसयः
॥१७३५॥ मष्टाकारिकापूजा श्रावकेण निरन्तरम् । यथाशक्तिर्विधातव्या, माक्पूजाऽपि माक्ता
॥ १७३५॥
For Private And Persone
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
38881
www.kobatirth.org
भावपूजाप्रकारों यथा-
44 'दयाम्मसा कृतस्नानः, सन्तोषशुभवस्त्रभृत् । विवेकतिलकै राजन् भावना पावनाऽऽशयः भक्तिभद्वान काश्मीरो-मिश्रपाटीरजद्रवैः । नवत्राङ्गयुदेवं शुद्धमात्मानमर्च क्षमापुष्पं खर्ज धर्म-युग्मं श्रीमद्वयं तथा । ध्यानाभरणसारश्च तदंगे विनिवेशय मदस्थानमिदा त्यागैर्लिखाग्रे चाटमङ्गलम् । ज्ञानाभौ शुद्धसंकल्पकाकतुण्डञ्च नृपय प्राग्धर्मत्लवणोतारं धर्मसन्न्यासवह्निना । कुर्वन्पूरय सामर्थ्यं भव्य ! नीराजनाविधिम् कुर्वन्मङ्गलदीपं च स्थापयाऽतुभवं पुरः । योमनृत्यपरस्तोर्य-त्रिकेसंयमवान् भव उन्मनसः सत्य - घण्टां वादयतस्तव । भावपूजारतस्येत्यं, करक्रोडे महोदयः स्वाद्भेदोपासनारूपा द्रव्याचगृहमेधिनाम् । अभेदोपासनारूपा साधूनां भावपूजना बरवारा च सुचन्दनैः सुपुष्पैः शुभधूपेन च दीपदर्शनेन । शुविचक्षैष निवेदनीयभोगैः सुफलैरष्टविधाऽर्चना जिनस्प
॥ १७४५ ।।
" वरमन्वपुण्फ अक्ख पईनफलधून मीरपचेहि । नेविनविहाणेणव निणपूआ अन्हा मणिया
।। १७४६ ॥
१ मेषाऽघोषः मृदङ्गशंखश्चेति नृत्यगीतवाद्यमपि । त्रयमेकत्र संयमः ' धारणा ध्यान - सत्रात त्रयम् " ।
For Private And Personal Use Only
॥ १७३७ ॥ ।। १७३८ ॥ ।। १७३९ ॥
॥ १७४० ॥
॥ १७४१ ॥
॥ १७४२ ॥
॥ १७४३ ॥ १७४४ ॥
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmander
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवरंगवती
कथा
॥ ६८ ॥
www.kobatirth.org
विहिणा उ कीरमाणा, सव्वा विअ फलवईभये चेद्या । इहलोइयानि कि पुण पूआ उभय लोगहिन " सप्तदशाऽष्टैकविंशत्यष्टोत्तरशताऽभिधाः। पूजाप्रकीर्त्तिता शास्त्रे शास्त्रविद्भिः शुभप्रदा पूजनावसरे पञ्चकल्याणकानि भक्तितः । स्मरणीयानि दिव्यानि जिनेन्द्रस्य सुमेधसा साक्षाज्जिनेश्वरं मत्वा प्रतिमापूजनं शुभम् । वरीतुं संसृति कार्य शुद्धाऽऽलम्बनमेत कम् दर्शनादिविधानेन प्रतिमामार्जनादिना । श्रेयसा युज्यते श्राद्धः प्रदक्षिणक्रियादिभिः सङ्गीतकस्य सामग्र्या मत्स्वामी वरभक्तिमान् । जिनेश्वरस्य सद्भक्त्या प्राकरोद् गुणकीर्तनम् विद्याधरेन्द्र पौलस्त्यमन्दोदर्योस्तथैव च । वीतभये प्रभावत्यु - दायनधरणीशयोः यथाकालोऽगमगीत - वाद्यनाट्येषु मे तथा । प्रियेण सह भक्तेन समयः क्षणवद्ययो दयादाक्षिण्ययुक्तस्य धर्मकार्यरतस्य च । संसारिकेषु कार्येषु स्वल्पश्च समयोऽगमत् नृत्यं नानाविधं तत्र चित्तैकाय्पसमीदया । कुर्वाणा सततं यत्नात्साफल्यं जन्मनो व्यधाम् । जैनधर्मरतो नित्यं भावित्वा शुद्धभावनाम् । मेने सजीवनं स्वीयं सुधास्वादसमं खलु कापि जिनेन्द्रवर्गस्य शुद्धचारित्रधारिणाम् । जीवनाद्वयवृतान्तभवणे समयोऽत्यगाव " सोअव्वाई नरामर सिवसुहजणयाइ अत्यसाराहं । सब्वन्नुमासिआई सुवणम्मिपइडिअ - जसाई " ॥
For Private And Personal Use Only
।। १७४७ ॥
॥ १७४८ ॥
।। १७४९ ॥ ॥। १७५० ॥ ।। १७५१ ।। ॥। १७५२ ॥
॥ १७५३ ॥ ।। १७५४ ॥
।। १७५५ ।। ॥ १७५६ ॥ ।। १७५७ ॥
॥ १७५८ ॥
।। १७५९ ॥
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
॥ ६८ ॥
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.bobatirth.org.
॥ १७६० ॥
सामायिकतपश्चर्या - पौषधैः पर्ववासरे । आवयोः समयः प्रायः सुखेन किन जग्मिवान् एवं निवृत्तिमासाद्य सुप्रत्येतुं सखीमनः । एकान्तं प्राप्य सामोदस्नेहेनाऽऽकारिता सखी मया सारसिका पृष्टा " गठायां त्वां विना मयि " । “गृहं गतायास्ते कीदृगवस्थाऽभूद्वदाऽधुना " अन्यच्च - "पत्या सार्द्धं यदहमगमं त्वां विना तत्र काले । अन्तस्ते किं कथय समस्त कोऽपि तर्कों मदर्थम् एतत्कृत्या कुपितमनसां मज्जनासज्जनानां, कां कां पीडां त्वमतिगमिता मां विना दीनदीना " " अवोचत्मा त्वदुक्तेन वचनेन कृतत्वरा । आनेतुं भूषणान्याशु गृहद्वारमहं गता
॥। १७६१ ॥
।
।। १७६२ ।।
॥। १७६३ ॥
द्वारमुद्घाटितं दृष्ट्वा व्याकुलीभूतचेतसः । विलोकिता मया गेहे भृशोद्विप्रा जनास्तदा प्रासादे च मदीयोऽपि प्रवेशो दुष्करोऽभवत् । भयस्तब्धशरीराऽपि साशंकजन वीक्षिता तथाप्यलङ्कृतः सर्वा गृहीत्वा पुनरागता । खं तु नौ मिलिता तेन ग्रन्थिं लालाऽगमं गृहम् " "हा सरवीति विनिःश्वस्य त्वद्दास्थानगृहं गता । भूरिदुःखहता मुष्ट्या वक्षःस्थलमताडयत् पूर्वजन्मसमुद्धतप्रेमविवेकिभिः । एतैरर सिकैः सार्द्धं, सत्या साडरसिकाभवम् विषादव हिना तप्ता विभ्रत्यभूणि नेत्रयोः । विलापं कुर्वती भूयः शून्यदृष्टिरहं स्थिता मईं नाम्ना विहंगी त्वं विहंगी पूर्वजन्मनः । मनुष्ये च समानाऽस्मि सखित्वं योग्यमेव नौ
For Private And Personal Use Only
।। १७६४ ।।
॥। १७६५ ॥ ॥। १७६६ ॥
॥। १७६७ ॥ ।। १७६८ ।। ॥। १७६९ ॥
॥ १७७० !
Acharya Shri Kasagarsun Gyanmandir
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
भीतरमवती
कथा १. ६९ ॥
www.kobarth.org
शनैः शनैरहस्थाया मम शान्तिरजायत । " " हृदये मेऽभवचर्कस्तदा तत्समयोचितः " " एवयोरितं पूर्वजन्मनः श्रेष्ठिने यदि । " कथयिष्यामि नो वर्हि सोऽतिक्रुद्धो भविष्यति " तस्मादेवं करिष्येऽहं दयालुः स तयोर्भवेत् " । अहमप्यनृणीभावं किंचित् प्राप्स्यामि वस्तुतः एवं विधा विचारा मेऽजायन्त व्यग्रमानसे । विषण्णमानसा सद्यः सुप्ताहं शमनीषके तथापि तनिशायां में निद्राऽजायत वैरिणी । प्रभाते नगर श्रेष्ठि- पादयोरहमापतम् ततः पूर्वभवस्यैतद्वृत्तान्तं कथितं मया । त्वदीयं सकलं तस्मै नगर श्रेष्ठिने क्रमात् अत्युच्च कुलजातस्वाऽभिमानेन गतप्रभः । मदुक्तं स समाकर्ण्य राहुग्रस्वशशाङ्कक्त् हस्तो समयमाह सहसा दुःखमागमत् । हाऽस्मदीयकुले लग्नं कलङ्कं किं करोम्यहम् हा देव ! दुर्दशेयं मे विहिता केन हेतुना । अपराधसहस्रेपि नेटशी यावनोचिता दोषो नास्त्येव तस्याऽयं श्रेष्ठपुत्रस्य सर्वथा । स्वैरिण्या मत्तनूजाया एव दोषोऽस्ति निश्चितम् अष्टनारी कुलीनाना-मपमार्गानुसारिणी । यशः प्लावयते नित्य- मापगास्वतटाविव कुशीला दुहितानि विधाय कर्मदारुणम् । घनाढ्यमुन्नतं वंशं प्रत्यहं क्षीणतां नयेत् असदाचाररक्ता सा विशुद्धमपि सत्कुलम् । कलङ्कयति सर्व हि हिमबिन्दुरिवाऽब्जिनीम् अतो दुखरिता नारी विभूषयति नो कुलम् । अरक्षिता करोत्येव तस्यैवाऽचः स्थिति क्षणात्
For Private And Personal Use Only
॥ १७७१ ॥
॥ १७७२ ॥
।। १७७३ ।। !! १७७४ ॥ ।। १७७५ ॥ ॥ १७७६ ।। ।। १७७७ ।। ।। १७७८ ॥
।। १७७९ ॥
॥। १७८० ॥
॥ १७८१ ॥ ॥ १७८२ ॥
॥ १७८३ ॥
।। १७८४ ।।
REERERR*
Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir
॥ ६९ ॥
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanach
sagan Gyaan
RRKRITIERRARRIERRRRRRRR
उक्त च-"शास्त्रं सुनिश्चितधिया परिचिन्तनीय-भाराधितोऽपि नृपतिः परिशङ्कनीयः आस्वीकृताऽपि युवतिः परिरक्षणीया:. शाखे नृपेच युवतौ च कुतः स्थिरत्वम् " सत्यमेतद्यथा स्वमं मृगवारि च कल्पितम् । तथैव चश्चला नारी नो विश्वास्या कदाचन पुनर्जगाद मामेवं त्वया सारसिके ! पुरा । कथं नोक्तं इदं येन नाभविष्यदनर्थता तदानीमेव तेनैव परिणाय्य सहांगजाम् । एतत्कष्टदशामाजो नाऽभविष्याम सर्वथा मयोक्तं नगरवेष्ठिन् ! " यावत्तस्या मनोरथः । सफलो न मवेत्तावन्न प्रकाश्यमिदं मया" " इत्थं तज्जीवितव्यस्य शपथं कृतवत्यहम् "" तत्कार्यसाधने चाऽपि व्यापृताऽऽस सखीधिया " " अतएव मया मौनं बलादप्युररीकृतम् । तस्मान्मयि क्षमा कार्या कृपया अष्ठिपुङ्गव !" श्रेष्ठिन्येयं श्रुता वार्ता तदा त्वदुःखदुःखिता । सा त्वद् वियोगतश्चैव विमूढा न्यपतद् भुवि गरुडग्रस्त मार्या हि भुजङ्ग इव वीक्ष्यताम् । श्रेष्ठीशोऽप्यञ्जसा मुक्तकण्ठं लग्नः प्ररोदितम् श्रेष्ठिनी चेतनां प्राप्य हृदयोद्भेदकारकम् । आरेभे रोदनं भूरि येन सर्वेऽरुदस्तदा सखि ! त्वद्गमनाइन्धु-तत्पत्नीतरमानवाः । रुदन्ति स्म भृशं वक्षस्ताडनं चक्रिरे मुहुः
भवति सरलबाला प्रायशो गेहरत्न, गतवति किल तस्मिन् जायते शून्यगेहः। हृदुदितखरशोकव्याप्तचक्षुर्मुखास्ते, स्वजनपरिजना यन मुक्तकण्ठं रुदन्ति
॥ १७८६॥ ॥१७८७॥ ॥ १७८८ ॥ ॥ १७८९॥ ॥१७९० ॥ ॥ १७९१ ॥ ॥ १७९२॥ ॥ १७९३॥ ॥ १७९४ ॥ ॥ १७९५॥ ॥१७९६ ॥
例的約州州南九洲风來洲洲滅制戒的九
For Private And Personlige Only
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya hisagarsun Gyaan
भीतरंगवती ।
14
बेष्ठिन्या हृदयात्वात्पुत्र्याश्च प्रेमवन्धनात् । रोदनस्य च दुःखस्य मर्यादा नाऽभवत्सखि ! पुनस्त्वदीयतातं सा विनयेन समन्विता । प्रार्थयन्ती जगादेति प्रेम्णा मधुरया गिरा
॥१७९८॥ शुद्धाचारस्प मान्यस्य देहिनोऽपि ध्रुवं सदा । वियोगो वा कलंको वा, पुत्र्या दुःखद्वयं भवेत् ॥ १८९९॥
पुत्रीकुलद्वयसुसन्धिकरी प्रसिद्धा, भाग्यावयोः सुखमथोऽसुखमन्यथा स्यात् । पुत्रीमतां तु विरहः सुसहः सुखाय, लोकापवाद इति सत्यविदा निरूप्प ॥१८००॥ एतत्सर्व पुरोपातकर्मणा जायते खलु । देवाधीनमिदं सर्व जगविपरिवर्तते ॥१८०१॥ जगदिदमपि सर्व चाल्यतेऽचिन्स्यशक्त्या, असममिह पराभूति गता शानिनोऽपि ।
कृतिकुशलतमा हीह प्रजीवन्ति जीवाः, फलवितरणकार्येऽचिन्त्यशक्तिः समर्था ॥१८०२॥ इच्छयाऽनिच्छया वापि प्रारब्धवगो नरः । सुखं दुःखं च भुक्ते हि करण्डस्थ इवोरगः
इह जगतिसमये नास्ति कश्चित्स्वतन्त्रः, अनधिगतगतित्रास्ति कश्चिनियन्ता ।
गुण इति गुरुदोषो वा न कस्मै च देयो, निजहृदयसमत्वेनाऽऽशु शान्तिर्विघेयाः ॥१८०४ ॥ तस्मादकार्यकत्र्यास्तु तस्या दोष न चिन्तय । यतस्तामनयदेवं कुटिलं कुपथं बलात्
॥१८०५॥ वार्तायाः स्मरणेनैव निश्चितं पूर्वजन्मनः । संचितस्याऽतिरूढस्य फलं लब्धं हि कर्मणः
॥ १८०६॥ दैवप्रेरितया भुक्त-दुःखापाचापराधिता । अल्पीयसी हि मन्तव्या नात्र क्रोधस्य कारणम् ॥१८०७॥
For Private And Personale Only
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
तस्यान्तु मे तथा भावो हृद्येषा च तथा स्थिता । तया विना यथा नास्मि क्षमा जीवितवारणे निजनियतिनियोगात्सर्व एवात्र जीवाः, अशुभशुभदशायां वर्तमाना न शोच्याः ॥ इयमपि मम पुत्री पूर्वजन्मस्मृतेश्व, स्वपतिमनुस्मरन्ती न स्वया शोचनीया ( दूषणीया ) यदपि सममपत्यं पुत्रपुत्री द्वयं स्यात्, तदाप भत्रति मातुः कन्यकायां हि रागः । इमपि मम पुत्री जीवनस्यास्ति हेतुः प्रभवतु भवदादिनैव जीवाम्पहं तु इत्थं सा श्रेष्टिनी प्रोच्याऽनुनयार्थ पर्ति निजम् । प्रणम्य साञ्जलिस्तस्मै स्वाभिप्रायं न्यवेदयत् " ओमित्युक्तं ततस्तेनाsनिच्छताऽपि तदाग्रहात् । अवोच्च प्रिये ! धैर्य धेहि पुष्यै “ यतेऽधुना " इमौ द्वौ का गतौ तत्तु ज्ञास्यते श्रेष्ठिनोऽन्तिकात् " । इत्युक्त्वा त्वत्पिता शीघ्रं समारुह्य गतो रथम् युवा गेहं समानेयौ केनोपायेन सत्वरम् । इत्थं व्यचिन्तयत्साकं श्रेष्ठिना स्वहिताय वै " " त्वत्तातबन्धुवस्तु दुराचारपरायणैः । असत्प्रलापिभिर्धाढं भर्सिताऽहं शुभाशया विरूपे चक्षुषीकृत्वा चैकेन केनचिद्रशम् । पादेन ताडिता ह्येवं दत्तो दण्डोऽविचारतः दंष्ट्रामिना च केशेषु कृष्टा संजातवेपथुः । असहा मूर्च्छनामाप्ता रखाविव न सा पुनः बालैर्दष्टा सरवीभित्र भित्रा कृष्टा युववजैः । आये ! किं वच्मि तत्काले केन नाई तिरस्कृता १ पुनस्ते कथयामासुर्दुष्टे ! नीता कथं स्वया । तत्र सा कपटं कृत्वा ब्रूहि विश्वासघातिनि !
For Private And Personal Use Only
॥ १८०८ ॥
।। १८०९ ।।
॥। १८१० ॥
॥ १८११ ॥
।। १८१२ ।।
॥ १८१३ ॥
॥। १८१४ ॥
।। १८१५ ॥
॥ १८१६ ॥
॥ १८१७ ॥
।। १८१८ ।।
॥ १८१९ ।।
Acharya Shri Kasagarsun Gyanmandir
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
chana hao
भीतरंगवती
कथा
SEXKKKERAKASXXXXXXX
युष्मदन्वेषणायाऽपि प्रहिता बहवो जनाः । समागतो युवां ज्ञात्वा पुनरत्र समागताः"
॥ १८२०॥ मत्सख्या यच विज्ञातं तत्सर्व कथितं मया । तत्रत्यं विशदोदन्तं मामकीनं स विस्तरम्
॥ १८२१ ॥ मत्स्वामी सत्वरं कस्माद् विश्वस्तां त्वां विनाऽकरोत् । प्रयाणमिति वृत्तान्तं तस्यै विज्ञापितं मया ॥१८२२ ॥
विश्वासार्हो भवति विरलस्तत्र नारी विशेषाद्, दूरक्ष्याऽस्ति प्रकृति चपला स्वीयनारी किमन्या ।
नानादुःखे, च परविषये रक्षणीय रहस्यं, तवं ज्ञात्वा क्वचिदपि जने कोऽस्तु विश्वासवासः ॥१८२३ ।। भाज्य विदुषां स्वीय-मित्राणां सुसहायतः । नाटकं रचितं हृद्यं विबुधानन्ददायकम्
॥१८२४॥ नाट्यश्चाभिनयेयुस्तन्मण्डपेऽतिमनोहरे । अचिरेण व्यवस्थेति विहिता श्वसुरेण मे
॥ १८२५॥ रश्ययाव्यविमेदतः कविजनाः काव्यं द्विधा मन्वते, श्राव्याद् दृश्यमतिप्रतीतिदतया साक्षात्कृताबुत्तमम् । उघभावनटीनटाद्भुतकलाकान्तेष्टनाय्योद्भर्ट, तालोत्तालरसालगीतमिलितं शान्तिप्रदं नाटकम् ॥१८२६ ॥
सद्बोध च चरित्रचित्रणवशादुद्दामकाव्यं कवेः, नानातालनिबद्धवाद्यमधुरध्वानोत्थसंगीतकम् ।
नानानृत्यकला तथा जवनिकायां भावचित्रे क्षणं, तत्तत्सर्वमभाटकं वितरति प्रेक्षावते नाटकम् ॥ १८२७ ॥ एवं सदामनोहारि-प्रासादे मित्रमण्डलैः । सम्बन्धिभिश्च चक्राङ्गा-वित्र पसरस्थिती
॥१८२८॥ मिथः प्रेमरसास्वाद-तृप्तिमाविनतौ स्थितौ । प्रमोदमग्नचेतस्को दिनान्यपनयाव वै भावयोमानसं प्रेम मोदाम्यामेकतामगात । क्षणमात्र वियोग नो सोढुं शक्तौ परस्परम
॥ १८३०॥
流肃肃肃南湖南湘南開開開開開開開開開南州内出
For Private And Persons toe Only
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
RESSXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
चिरं स्नेहसुखं भोक्तुमहमेवाऽभवं किल । क्षणोऽप्यभूत्सुदीपों मे वियुक्ताया विषादतः ॥ १८३१॥ मज्जने भोजने सुषाधारणे शयने तथा । अन्य कार्येऽप्यमित्रत्वं धारयन्तौ प्रमोदिनी
॥१८३२॥ धृत्वा माला: सरोजानां सुगन्धिजलवासितौ । तथा सुरमितेलेन मर्दितांगौ च नाटकम्
॥१८३३ ॥ मुहुनिरीक्षितुं यान्तौ सदानन्दमलौकिकम् । अन्वभूव सुनिश्चिन्तौ स्नेहेनाऽभिन्नता जुषौ
॥ १८३४॥ अन्योऽज्यादृतचाटुताकृतनिजत्वान्यत्वविस्मारकं, जात विस्मयवाहकं तदमलं प्रेमातिलोकोचरम् । उत्थानं जिनदर्शनं गुरुनतिः स्नानं जिना_श्रुतिः, शुद्धाहारविहारसान्ध्यविषयः सार्द्ध बमवुः स्वयम् ॥१८३५ ॥ सत्वज्ञानविलोपकं प्रवहतो प्रेमप्रवाहे सतोः, अन्योन्यप्रतिरक्तयो स्तदुभयावस्थानमत्यद्भुतम् । अन्योऽन्यार्थसमर्थसाधनजुषोरेकात्मनो प्रेमिणोः, सर्व कार्यममिन्नमेव भवति प्रीतिप्रतिष्ठापकम् ॥१८३६ ॥ सार्द्ध स्वागतचाटुकारनमनाऽऽश्लेषादिकं तन्वतो-रेकात्म्यप्रतिरोधविस्मृतिजुषोरेकान्तरागाक्तयोः।। किचिन्नैव रहस्यमस्ति तु वपुस्तादात्म्यसंरोधकम्, दृष्ट्वा येऽनुभवन्ति तत्समरसं तेऽप्यत्र लोकोचराः ॥१८३७ ॥ विनोंदैः काव्यानां कचिदपि तथाऽन्योक्तिकथया, पहेल्या नर्मोक्त्या क्वचिदुपमया धीरललितेः । प्रकारैः पात्राणां वचिदपि च साहित्यसुधिया, ममैवं व्यासङ्गे झटिति सुखिनो यान्ति दिवसा: ॥१८३८॥ " न रामवारित्रं त्यजति न गुणः सागरवरः, द्वयों पुण्यं न श्लथयति मनः पुण्यजन ! किम् । कदा दोषोत्याने प्रभवति जनो यन्त्र सहसे, हृता वैदेही नो तव पुरि चिरं स्थास्यति सखे !" ॥ १८३९ ॥
南杰内内内的内内内向内内内向南流流向
For Private And Personlige Only
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
श्रीवरंगवती
कथा ॥७२॥
सदाऽऽनन्दस्मृत्या गुणकथनतः श्रीभगवतः, तथाऽऽत्मध्यानेन द्विविधनवधातवामननैः ।
स्वतत्वश्रद्धानै परमपदचर्चाभिरनिशं, विचारांकृत्या मम सुखमया यान्ति दिवसाः ॥ १८४०॥ एवं परस्परप्रेमभावनावर्तमानयोः, नक्तं दिनमगच्छन्नौ दुःखस्याऽवसरः कृतः ?
॥ १८४१॥ वर्षेवर्षे स्वमनुभवितुं जीवनस्य प्रसंगे, आगछन्ति क्रमशः ऋतवो भिन्नभिन्नप्रकाराः
॥ १८४२॥ काले काले सरसि विपिने भूमिभागेऽनुभूताः । तेभ्यस्तेभ्यो मनसि मम ते जागृताः केऽपि भावाः ॥ १८४३॥ ऋतुवर्णनम् ग्रीष्म-तनुःस्वेदिनी मेदिनी रेणुरुक्षा जलदुर्लभं तत्र शैत्यं विशेषात दिनं चातिदीचे रविस्तीव्रतापः सदा श्रूयते वारि वारि प्रलापः
॥ १८४४॥ नदीनिर्जला निर्दला वृक्षवाटी, धराधूसरा कामिनी सूक्ष्मशाटी। नगादावदग्धास्तदोद्घाटिता वै प्रचण्डांशुना छिद्र एवं समेषाम्
॥१८४५॥ रम्या निशा तत्र शशी सुरम्यः तत्राऽतिरम्यः सकल: शशाङ्कः ।
वार्यन्त्रनिक्षिप्तसुखाम्बुधारा सा चन्द्रिकाऽभूद् विहितोपकारा। उसीरकर्पूरहिमाम्बुघृष्टः पाटीरपङ्कः प्रियया विसृष्टः । लिप्तश्चिरं तेन विलेपनेन, पुनर्भुतोऽसौ व्यजनाऽनिलेन ॥ १८४७ ॥
इतस्ततो दृश्यमाना प्रायो मरुमरिचिका । आश्रिता क्षुद्रवृक्षस्य छायापि पशुभिस्तदा ॥१८४८॥ माट्
नभसि नवधनानां गर्जना जातमोदा, दिशिदिशि शिखिमालाः कुर्वते कान्तककाः।
XXXXKKERKESECSEXSEXSEXX
॥७२॥
For Private And Personlige Only
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
१३
www.kobatirth.org
कृषिका उद्दयाकाशगां मेघमालां, दृनिदृशि विकसन्सन्दर्षमाविष्करोति पथि पथि मलिनानां दृश्यतेऽपां प्रवाहः कृतगमनक्यिाह:: शोभते नारिवाहः । क्वचिदुदिततरोऽभूत् प्रावृषः सुप्रसादः, दिशि दिशि समुदीणों मूकमंडूकनादः रसालाः फलैर्नम्रनम्रा विभान्ति, कचिचोष्णता नाशिता लोकशान्तिः । क्वचिदूवल्लभा दर्शयन्ती च मेयं, नतेऽद्योऽस्ति पत्युर्वचः संशृणोति
चिच्चाप्रार्थना दीनदीना, कचिचञ्चला मेघमाला विलीना । कचित्सति मेका बिले पीनपीना, प्रवीणारहो ! भुञ्जतेऽ नवीना
अमा यामिनी कालकादम्बरीमिः वृतानिः सृतानां मनोमोहयन्ती । जनान् शून्यवादे तदाsस्थापयिष्यद् यदा चञ्चला तत्क्षणे नाप्युदेष्यत्
"शरद् " सप्तछदोत्थमधुमादकगन्धमत्ताः, धावन्त्य रयकरिणः परितोऽन्यचित्ताः । निष्पंकिला च धरणी सुतराय नद्यः, साधु व्रजश्चरणचारविहारमाप
" शिशिर " प्रियो नलोऽभूदनिलोऽप्रियश्च दुष्कारकोऽभूत् शुचिसत्क्रिपथ । प्रियाप्रियाणां शिरकाले विचारणाका जगदन्तराले
For Private And Personal Use Only
।। १८५१ ।।
।। १८५२ ।।
।। १८५३ ।।
॥ १८५४ ॥
।। १८५५ ।।
।। १८५६ ॥
॥ १८५७ ॥
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
RESEEEEEEEEEEEEEEEEEEER*
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवरंगवती
हेमन्त " शालिपालिका इक्षुमूलगा, कीरमण्डली रोधने रता। शाकवल्लरी प्राक् फला पुनः पुष्पितेति १ शमिना निदर्शनम् ।
॥ १८५८॥ " वसन्तः" सरसि कमलमाला पादपा वाटिकायां, उपवनवरवल्ल्यो पुष्पिता आ दिगन्तम् । हसति जगदिदानी सूचयन्वै वसन्तः, सुरभिशिशिरमन्दस्सन्दि वायुं धुनानः
॥ १८५९॥ कचिदपि सहकारे मञ्जरी सौरभाट्या, झटिति पतति तस्यां गन्धलुन्धाऽलिमाला । रचयति मृदुरावं गुअनं यवनान्ते, तदिह किल वसन्तः स्वागतं स्वीकरोति
॥ १८६० ।। एवं सुखान्धौ प्लवतोरावयोश्चन्द्रतारकैः । दीप्यनिशीथिनी स्म्या व्यतीयाय शरत्सुखात
॥ १८६१॥ सुदीर्घरात्रिकथाथ शिशिरः समुपागमत् । हिमं तदाऽपकद्भरि क्षीणरश्मिरमृद्रविः
॥ १८६२॥ चन्द्रचन्दनसन्मुक्ता रम्याणि कङ्कणानि च । कार्यासाम्बरकोशेया-प्यप्रियाण्यमवन्ददि
॥१८६३॥ स हिमे शीतकाले तु तदाऽऽनन्दसमन्धिताः । आगताः प्रतिहम्मे च नन्दन्तिस्म प्रवासिनः ॥१८६४ ॥ वसन्तेऽच समायाते शीतं निर्मलतां गतम् । सहकार-प्रफुल्लोऽभूत् स्नेहराज्य विस्तृतम् । १ मुक्तात्मानां सो दृष्टान्तः (महरी) द्विषो मुक्तात्मानौ जीवन्नपि मुक्तिसुखभाग, अन्यश्चमृतेर्मुक्तिमुखभाग् स तु प्रसिद्धः । जीवनपि मुक्तिमुखभाग यस्तस्य मयं दृष्टान्त: मत्र कार्यानन्तरं कारणं, कारणानन्तरं कार्य तु प्रसिद्धमेव" ॥
॥७३॥
For
And Persone Oy
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
नार्यः कार्याणि संतज्य दोलाऽजोहणमाचरन् । दृढबन्धाऽऽयतो दोला प्रेयसः प्रेमपाणिना मान्दोल्यते तदा भरिनन्यविस्मृतिकारकः । मनसेऽस्खलिताऽऽनन्दः संप्रजायेत दुर्लमः
॥१८६७॥ अतुलाद्भुतदृश्यस्याऽस्मयुधानस्य संपदम् । दृष्ट्रा मोदं समापनौ नन्दनस्य सुराविद
॥ १८६८॥ मदर्तामामुवाचेदं मदनोद्यानवर्तिनः । दूतानिव द्विरेफास्त्वमिमान्प्रेक्षस्व बल्लभे !
॥१८६९ ॥ वृक्ष पुष्पेषु चान्यस्मिन्स्थिता बनतराविमे । मान्ति नारीक्षणप्रान्ते संलग्नमिव कज्जलम्
॥१८७०॥ जतासु कुड्मलाकार चन्द्रमाच्छादयनिशि । राहुरिख द्विरेफालि-दृश्यते श्यामिकायुता
॥१८७१ ॥ भृङ्गारभरितैर्वाक्यैरीरशैर्मम बल्लभः । प्रीणयामास मां केशाञ्जग्रन्थे च सुमोचयः
॥ १८७२ ॥ ततस्तेषां समस्तानां कुसुमानां मनोहरः । मिश्रगन्धो दिगन्तेषु प्रससार समन्ततः
।१८७३ ।। तैवान्यैश्च प्रकारैर्हि विकस्वरवनस्पतेः । निरीक्षणे महानन्दो बभूवऽस्माकमन्वहम्
॥ १८७४ ॥ स्नेहप्रन्धिरभूदेव-मावयोटेढबन्धना । मिथोऽनुरक्तयोः काम जन्धकांक्षितसम्पदोः
॥ १८७५ ॥ स्नेहस्य या ग्रन्थिरुदेति चित्ते तल्लौकिकं सौरव्यमथोविधातुम् । आयाति कालतुरिति प्रमाणं फलं च भुक्ते मिथुनं तदैक्ये ॥ बसन्तेऽय पुनः पाते तत्स्वमाविकसम्पदम् । मुदा विलोकितुं याताकुद्यानभुवमादरात
॥ १८७७॥ तत्राऽनोकतरोनींचेः शिखायां संस्थितो मुनिः । जिनेन्द्रध्यानसंबग्नो दृष्टो निम्नमुखाम्बुजा ॥ १८७८ ॥
我的更洲内的典典州州州的州
For Private And Persone
Only
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavan Aradhana Kendra
श्रीवरंगवती कथा ॥७४॥
www.kobatirth.org
॥ १८८० ॥
क्षीणे मोहप्रवाहे निजरतिरुदयत्संविदानन्दशान्तो- रागद्वेषाऽवसानात् प्रशमरतमनाः दृष्टि विध्मातरः । नानासिद्धेर्निदानं वपुरपि कुरुते यस्य कोपदेशं, वन्द्यः स्त्युत्यश्च पूज्यः श्रमणपतिरसौ पुण्यभाग् दर्शनीयः ॥१८७९ ॥ तस्मिन्दृष्टेऽञ्जसा केशग्रथितानि सुमानि च । सन्त्यज्य तूर्णमङ्गञ्चाच्छादयं सुसमाहिता मुखालङ्कारभृतं च चूर्ण दूरीकृतं द्रुतम् । उपानहो सुमोघञ्च त्यक्त्वा मर्ताप्यभूदृजुः यतो मूल्य विभूषाभिर्महापुरुषसन्निधौ । गमनं नोचितं पुंसां धर्मशास्त्रानुसारिणाम् ततोऽतिसत्वरं यात मुनिदर्शनकाङ्क्षया । पूज्यभावेन दूराच्च निधाय निटिलेऽञ्जलिम् प्रशान्तः शान्तचित्ताभ्यामन इव सन्मणिः । पद्मासनसमासीनो व्यलोकि स मुनीश्वरः aataत्सन्निधौ गत्वा वीतमोहादिवैरिणः । निर्ममस्वशरीरेऽपि नासिकास्थित चक्षुषः सद्धर्मस्य प्रभावाच्च मित्रारिसमचेतसः । ध्यानस्थस्य मुनेस्तस्य पादयोरर्पितोऽलिः पथाच्छान्त्या मुनेरप्रेक्षणमव्यग्रमानसौ । शान्तेन चेतसा ध्यानमालम्ध्योपाविभाव वै यदा ध्यानविमुक्तेन मुनिना तेन वीक्षितम् । शान्तदृष्ट्या तदोत्थाय विनयात्रिः स वन्दितः वन्दित्वैवं तथा त्वा श्लाघमानौ तपोगुणान् । अपृच्छाव शरीरादिकुशलं तस्य भावतः धर्मलामाशिषं दत्वा सोऽप्यवादीन्मुनीश्वरः । महाशयौ युवां शान्तचेतसो धर्मभावनो
For Private And Personal Use Only
॥ १८८१ ॥ ।। १८८२ ॥ ॥ १८८३ ॥ ॥। १८८४ ॥ ।। १८८५ ।। ॥ १८८६ ॥
।। १८८७ ॥
| १८८८ ।।
।। १८८९ ।।
।। १८९० ॥
Acharya Shri Kasagarsun Gyanmandir
*****8881
॥ ७४
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achar
यद्गत्वा न निवर्तन्ते यच्च दुःखान्तकारणम् । यच्चाऽक्षय्यसुखं वद्धि निर्माण प्रतिपद्यताम्
॥ १८९१ ॥ तदायीर्वचन मौनं प्रेमपूर्ण सुनिर्मलम् । आवाम्यां स्वीकृतं मूर्ना भवाम्भोधिविशोषकम्
॥ १८९२॥ ततो जन्मजरामृत्युहारिणो मोक्षदायिनः । मुनिर्धर्मोपदेशस्य दानाय प्रार्थितः सुधीः
॥ १८९३ ॥ शास्त्रोक्तेन प्रमाणेन जीवस्त्र बन्धमोक्षयोः । स्वरूपमवदत्सोऽथ शनैः सरलया गिरा
॥१८९४॥ प्रमाण जैनशास्त्रोक्तं यथा तच्च वदाम्यहम् । प्रमाणं तच्च निर्दिष्टं यत्सर्वः सुभाषितम्
॥ १८९५॥ जैनाः प्रमाणद्वयमामनन्ति, प्रत्यक्षमेकं च परोक्षमन्यत् । प्रत्यक्षमेकं परमार्थ पत्कमन्यत्पुनः संव्यवहारसत्कम् ॥१८९६।। भवेत्पुनः सांव्यवहारिकाभिधं द्वधेन्द्रियाऽनिन्द्रियहेतुभेदतः। अवनडे समायधारणा प्रकारतस्तद् द्वितयं चतुर्विधम् ॥१८९७॥ तथखनाऽवग्रह आदितः स्यादवग्रहोऽर्थस्य च तस्य पश्चात् । कृतः किपस्तीति विचार ईहा तनिश्चयोपाय इति प्रदिष्टः॥ तद्धारण किश्चिदनेहेमा यत् साधारणा चौगमगोचराऽस्ति । निरूप्य तत्सांव्यवहारकाऽऽख्य प्रत्यक्ष भेदी कथयामि चान्यत् ।। यदात्मना ज्ञानमुदेति नान्यैर्ज्ञानं तदुक्तं परमार्थसस्कम् । द्वेधाऽस्ति तो सकलं प्रधानं पुनर्वितीयं विकलाऽभिधानम् १९.. भेदद्वयं स्याद्विकलास्तात्मकस्य प्रत्यक्षबोधस्य यथाऽवधिश्च । तथा मनःपर्ययनामकः स्यात-पत्केवलं तत्सकलं तथैकम् ॥ स्वार्थ परार्थ च समस्तमेतद् द्विधाऽस्ति भेदद्वयतोत्र शास्त्रे । स्वस्मैकृतं स्वार्थमथो परस्मै परार्थमाहुः कृतिनो विचार्य ॥ १ समपाय:-अपायनिश्चयः २ किंचितकालेन ३ विशेषता-स्वरूपमागमतो ज्ञेयमित्यर्थः ॥
AKKAKKARXXXXXXXXXXXXXX
For Private And Personlige Only
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
मीवरंगवती
कथा
एवं परोक्षस्य च पञ्चमेदास्तकोऽनुमानाऽऽगमप्रत्यभिज्ञाः । स्मृतिश्च मेदात्कथयामि तेषु पूर्व च तर्क प्रमितिप्रसङ्गात् १९०३ व्याप्यस्य सचा यदि, तहि साध्यं ध्रुवं भवेत्तत्र विचार एषः । तस्त्वभावे विपरीतयोगात्तकोऽप्रमाणं पुनरेक आहुः॥ ज्ञानं च पश्चावयवादिष्टं शाखेऽनुमानं कृतिनो वदन्ति । पूर्व प्रतिज्ञा पुनरस्ति हेतुश्चोदाहतिवापनक्श्च सिद्धिः ॥१९०५॥
सिद्धि विमा निगमनं कथयन्ति वृद्धास्तस्मात्तथेति कथिताऽऽकृतिरस्य विजैः । एभिःप्रमातृपुषरुस्य च योऽस्ति बोधः, सैवानुमानमिति जैनजना वदन्ति स्वार्थ परार्थमिति यस्य च भेदमाहुः, स्वस्मै दृढाम्यसितहेतुजसाध्यसिद्धिः । तत्स्वार्थमुक्तमितरत्परहेतवे यत् स्यात्पश्चमिस्त्ववयवैश्चपरार्थमस्ति
॥ १९०७॥ व्युत्पत्तिशैथिल्यसमीद्धताम्यामुदेति सङ्ख्यावयवान्तराणाम् । द्वयं कचित्, पञ्च च कुत्रचित्स्यु-र्दश कचित्तेऽवयवा भवन्ति १९०८ पदार्थवेत्ता परमार्थरीत्या, यथैव जानाति तथा प्रवक्ति । स आप्त इष्टो जिनराजशास्त्र, मेदश्चलोकोत्तरलौकिकाभ्याम् १९०९
ते लौकिका ये जनकायभिख्याः अलौकिकाऽऽमः प्रभुतीर्थकृद्भिः।
थीतीर्थकृद्-भाषित आगमोऽस्ति, लोकाऽमबक्तस्तु तथोपचारात तदाऽऽामस्य प्रतिपाद्यवस्तु स्यात्सप्तभङ्ग्या परमार्थरूपम् । स्याद्वादसिद्धिः किल सप्तभङ्ग्या, तत्सप्तमी प्रथमं वदामि ॥१९११॥ सद् वस्त्वसद् वस्तु तथोभयं चाञ्चक्तव्यमेवं सदवाच्यमेवम् असत्तथाऽवाच्यमयोभयं स्यात् । स्यात् छन्दयोगेन च सप्तभङ्गी ॥१९१२ ।
|| ७५॥
備滿滿滿滿滿滿滿滿滿熱鬧開演成就
For Private And Persone
n
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.khatirth.org
1
॥। १९१६ ॥
॥ १९१७ ॥
॥ १९१८ ॥
क्वचितृतीयोऽस्ति कृतचतुथों ग्रन्थान्तरे दर्शनतो मयोक्तम् । तत्र त्रयोर्थं सकलं वदन्ति परे च भङ्गा विकलं वदन्ति ॥ १९१३ ॥ सप्तैव यस्माद् वचनप्रकाराः, भङ्गाय्य सतैव ततो भवन्ति । संपूर्णरूपं किल सप्तभक्ष्यास्तच्चावगन्तार उदाहरन्ति ॥ १९१४ ॥ जानन्ति तचैकनिविष्टचित्तास्तस्याः स्वरूपं जगतो यथार्थम् । तत्पादपद्मद्वयसेवया च धन्याविदन्ति स्म हि सप्तभङ्गीम् । १९१५ | जगद्वृत्चिपदार्थानां विज्ञाय भवन्ति हि । चत्वार्यत्र प्रमाणानि शास्त्रोक्तानि महाशय ! प्रत्यक्षं प्रथमं प्रोक्तमनुमानं द्वितीयकम् । तृतीयमुपमानं च चतुर्थमागमाभिधम् प्रत्यक्षमिन्द्रियं ज्ञेयमनुमानं तु व्याशिषीः । सादृश्यधीश्रोपमानं पदानां ज्ञानमागमः प्रत्यक्षमनुमा चैवोपमितिः शब्दजा तथा । प्रमाचैताः स्मृता विबैस्तैयतुर्भिश्रतुर्विधाः इन्द्रियैर्जायमाना श्रीस्तत्प्रत्यक्षं प्रचक्षते । साध्यदेवोः सह स्थित्या व्याप्येन व्यापकस्य धीः अनुमितिर्भवेत्सेव ज्ञावेनाऽज्ञातवस्तुनः । ज्ञानं यत्स्यात्तु विज्ञेयोपमितिः सर्वथा बुधैः शास्त्राद्गुरूपदेशाच्च वस्तुज्ञानं यदाप्यते । शहजा सा प्रबोद्धव्या प्रमा सर्वज्ञकीर्त्तिता चतुर्विधप्रमाणेन स्वरूपं बन्धमोक्षयोः । सम्यग्यिज्ञायते प्राज्ञैर्यज्ज्ञात्वा मुच्यते भवात् आत्माऽयं किं स्वरूपोऽस्ति १ ज्ञातव्यं तद्विशेषतः । मुक्तः प्रकीर्त्तितो नित्यं गन्धादिगुणपञ्चकात् १ अनुमितिरित्यर्थः ।
॥। १९१९ ।।
For Private And Personal Use Only
।। १९२० ।।
।। १९२१ ।।
।। १९२२ ॥
॥ १९२३ ॥
।। १९२४ ।।
*ER REERES
Acharya Shri Kasagarsun Gyanmandir
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
श्रीतरंगवती
कथा !! ७६ ॥
॥ १९२५॥ ॥ १९२६॥ ॥ १९२७॥ ॥१९२८॥ ॥ १९२९ ॥
XSEXKKKKKKEKX**KEXXXXXXXX
अग्रायोऽपीन्द्रियरेष तयाऽऽद्यन्तविवर्जितः । याक्च्छरीरसम्बन्धस्तावदःखादिमागयम् प्रत्यक्षेण प्रमाणेन स्वसंवेद्योऽस्ति कहिचित् । स्फुर्त्यादिज्ञायते यच्च तेनाऽऽत्मा सिद्ध्यति ध्रुवम् . तर्काऽइंकारविज्ञान-मतिस्मृत्यादिरूपतः । आत्मा प्रकटितो भाति ज्ञानवेद्योऽस्ति सर्वदा निजानि पूर्वकर्माणि सुजानः स्वस्वमावतः । हर्षशोको सुखं दुखमशान्ति शान्तिमेवच आनन्दं च तथोद्वेगं विन्दवानोऽयमन्वहम् । परिभ्रम्पति संसार-सागरे पारसर्जिते प्राग्भवोपार्जितैरात्मा कर्मभिस्तु शुभाशुभैः । संसारं बर्द्धयत्येव मनोबाकायतः सदा मोहेन मूढजीवोऽयं संसाराऽऽसक्ति तत्परः । कर्मभिर्वध्यते नूतं भवं याति पुनः पुनः मोहाद्विमुक्तश्वेदात्मा भवागारे वसन्नपि, वीतरागभयक्रोधः कर्मभिर्नहि लिप्यते आत्मनो बन्धमोक्षादेः स्वरूपं संप्रकीर्तितम् । इडगेवाऽतिसंक्षेात् खानुभूत्या जिनेश्वरैः एकतो मुच्यते कर्म-गशेनाऽऽत्मा विवेकतः । अन्यतोवध्यते चाय-मसत्कर्मनियन्त्रितः इन्थ भवप्रवाहेण कृष्यमाणो मुहुर्मुहुः । चक्रवद् ग्राम्यमाणोयं मुक्तिमार्ग न विन्दति तत्कर्मभिः प्रात्येव देवलोकमनिन्दितम् । मध्यमैर्मानवीं योनि पाशी मोहकर्मभिः दुष्कर्म यन्त्रितो जीवः सर्वथा पुण्यवर्जितः । नरकस्थानमामोति पापवैरिसमाहतः
॥ १९३१॥
॥ १९३३ ॥ ॥ १९३४॥ ॥ १९३५॥ ॥१९३६ ॥ ॥ १९३७॥
॥७६०
For Private And Personlige Only
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
माधुर्ययुक्तः सरलस्वभावो दोषैः कषायैः परिवर्जितो यः । न्यायी गुणग्राहक वस्तु मृत्वा पुनर्मर्त्यभवं समेति ॥ १९३८ ॥ यः संयमी दानपरस्तपस्वी सदोपकारप्रवणो दयालुः । गुरोर्निदेशारुचिर्मनुष्यो मृत्वा शुभं स्वर्गमवं करोति ।। १९३९ ॥ मित्राणि यो वचयति प्रमत्तः पशुसमात्रः पिशुनो मनुष्यः । ध्यानेन चाऽऽतेन विहाय देहं तिर्यगू मत्रं याति विवेकशून्यः १९४०
हिसावभावोऽनृतमयवचनः स्वेतरस्त्रीषु गन्ता, पापी द्रोही कृतघ्नी विषयपरित्रतो निर्दयः क्रूरचेतः । रौद्रध्यानी पायैः कलुषितहृदयो यस्य मूर्च्छा न शान्ता, मृत्वाऽसौ मर्त्यवर्गः प्रविशति नरकं घोरदुःखैः प्रपूर्णम् १९४१
शुभं नास्ति तु रौद्रमार्त्त धर्माऽभिषं शुक्लमतीव शस्तम् । ग्राह्यं शुभं तद्रहितं तु यं शुभं हि दत्ते परिणामसौरूपम् १९४२ देवमानमवः सुखरूपः कार्यसाधनपरोऽति मनोज्ञः । नारकोऽथ भव एष तिरथां दुःखपूर्ण इति सज्जननिन्द्यः ॥ १९४३ ॥ प्राक् शुद्धसंस्कारवशेन कश्चित् तिर्यग्गतः श्रावकमुद्वतानि । एकादशापि प्रतिपालयेच्च जातिस्मृतिस्थो मुनिदर्शनेन ॥। १९४४ ॥ रागद्वेषौ न बोरुन्गालोभोपहतमानसः । स नरः संसृतौ भ्राम्यन्कर्मबन्धनभाग् भवेत् ।। १९४५ ।। प्राणिहिंसा च मिथ्योक्तिरदत्तादानमैथुने । महापापानि घोराणि पश्चमश्च परिग्रहः तथैव क्रोधमानौ च लोभमाये तथैव च । भयं मनोविकल्याचाऽप्रामाण्यं वक्रतादयः यते दुर्गुणाः सर्वे मिलन्त्यज्ञानयोगतः । तदानीं कर्मबन्धस्य मूलं दृढतरं भवेत् तीर्थकरैरिति प्रोक्तं प्रत्यक्षीकृतविष्टपैः । सारभूतमिदं ज्ञेयं मवारण्यभयापहम्
॥। १९४६ ।।
॥। १९४७ ॥ ॥। १९४८ ॥ ॥। १९४९ ॥
For Private And Personal Use Only
Acharya Shri Kaassagarsun Gyanmandr
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir Jain ArachanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
।
श्रीवरंगवती
॥७
॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
तैललिप्ते यथा मूनि धूलिरासजति धणमत् । रागद्वेषोपलिप्ताज तथा कर्माणि देहिनाम् तत्प्रभावादतिसूक्ष्म-पृथव्यादिजीवयोनिषु । जन्ममृत्युपर्श यातोऽसकृद्माम्यति देवयम् सामान्यतस्तु कर्माणि बन्धनायाऽत्मनः सदा । अष्टैव सन्ति लोकेऽस्मिमिति सर्वबभाषितम् । ज्ञानावरणमा स्यादर्शनावरणं तथा । तृतीयं वेदनीयं च मोहनीयं चतुर्थकम्
॥ १९५२॥ आयुश्च पञ्चमं प्रोक्तं षष्ठं नामेति कीचितम् । सप्तमं गोत्रमित्याहुरन्तराय तथाऽष्टमम्
॥ १९५३॥ उतानि वीजानि यथा पृथिव्यां, फलानि पुष्पाणि पृथग्विधानि । वितन्वते तानि निजस्वमावासथैव कर्माणि शुभाऽशुभानि ॥ कर्मजन्यफलस्यात्र स्वरूपं ज्ञायते स्फुटम् । द्रव्यं क्षेत्रं भवंभावं कालं पाश्रित्य निश्चयात
॥ १९५५ ॥ द्रव्यमात्मोच्यते चात्र क्षेत्रं च मुक्नत्रयम् । फलानुसारतः कालोजन्मान्तरगतिप्रदः देहवात्माश्रयस्तस्य स्थिति योग्यामपेक्षते । तं च मानसिकं कर्मचान्तः करणं तथा
॥ १९५७॥ तद्रूपता तदा यचा परिणामस्तदाश्रितः । बाह्याभ्यन्तरदुःखाना-मात्मनः स समाश्रयः
॥ १९५८॥ एतद्दाखविनाशाय विषयेष्वनुसज्यते । तदानीं भावतस्तत्र बध्नाति पापमुत्कटम्
।। १९५९॥ पाप्मना तेन चक्रेषु जन्मनो मरणस्य च । भ्राम्यन्देही नवीनं हि वन्धीयात्कर्मसन्ततिम्
॥ १९६०॥ एवं जना स्वकर्मानुसारेण नरकाध्वनि । पशुयोनौ च नाके च भ्राम्यति मानवेष्वपि
RRRRRRRRRRRRRRRRXKRRER
|| ७७॥
For Private And Personlige Only
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
388088EEEEEEEEEEEEEEEESA
www.kobatirth.org
मानवं भवमासाद्य जीवः कर्मानुसारतः । चण्डालाऽन्त्यजमिल्लानां व्याघवर्करयोरपि शकानां यवनानां चाऽऽरण्यकानां कुले तथा । शाकुनिकादिवंशे च जायते सक्शः सदा मानवेsपि भवे लब्धे निजकर्मानुसारतः । अनन्तसुखदुःखानि शुनक्ति मनुजो ध्रुवम् शरीरस्य च बुद्धे विकासेन जनोऽसुखम् । प्राप्नोति किङ्करीभूय शं वा स्वामित्वमागतः संयोगं च वियोगं च सहते परवान्सदा । कुलीनस्याऽथवा दीन-कुखस्योत्पद्यते गृहे आत्मनोऽभ्युदयायैव बलं चाssधातुमिच्छया । यत्र तत्राऽशवाप्रस्तो नित्यं धावति मानवः लामं प्राप्नोति वा हानि परोला भस्त्वयं मतः । सर्वेष्टदो भवेन्मोक्षो मानवे नान्यजन्मनि अज्ञानकण्टकैः पूर्णा भवाटव्यास्तु पद्धतिः । सा तु तीर्थङ्करैः सम्यग्ज्ञानेन शुद्धशीलतः सुगमा विहिताऽऽमोक्षं सर्वलोकोपकारकैः । तत्र गत्वा परावृत्तिर्जायते नैव देहिनाम् नैकजन्मान्तरप्राप्तां जीवो यः कर्मसन्ततिम् । पिनष्टि संगमेनैवोत्पद्यमानं रुणद्धि च संक्षीणसर्वकर्माऽसौ प्रेत्यकर्मविवर्जितः । निर्लेपतां व्रजत्येव जायते शुद्धिमतः क्षणमात्राद्विशुद्धोऽसौ प्राप्नोति परमं पदम् । ध्वस्तजन्मान्तरक्लेशः शश्वच्छान्तिमियर्ति च नामा योनिप्रदं कर्म विमुच्यात्मा विशुद्धिमान् । उपाविरहितचैव प्रमात्यूर्ध्वगति शुभाम्
For Private And Personal Use Only
।।.१९६२ ।। ।। १९६३ ।। ॥। १९६४ ॥
॥। १९६५ ॥
।। १९६६ ।। ॥। १९६७ ।।
।। १९६८ ।।
॥। १९६९ ॥
॥ १९७० ॥ ॥। १९७१ ।।
।। १९७२ ।।
॥ १९७३ ॥ ॥। १९७४ ॥
Acharya Shri Kasagarsun Gyanmandir
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवरंगवती कया
॥ ७८ ॥
www.khatirth.org
अतिशय कर्मवायचीजप्रदाहात - निरवधिसुखपात्रं सत्यमे कान्त शुद्धम् । विमलमचलमृद्धमुक्तिधामास्ति नित्यं जगदुपरिगमेतद्यान्ति सिद्धा हि जीवाः देवानां स्थानतोऽप्यूर्ध्व तच्छुद्धं धाम वर्तते । प्रभातवश्च तद्भाति स्वच्छशङ्ख सुवर्णवत् त्रैलोक्यस्योपरिस्थं तद्रत्नछत्र समाकृति । भ्राजते शाश्वतं रम्यं सर्वलोकनमस्कृतम् सिद्धक्षेत्रमिति प्राहुः केचितत्परमं पदम् । अपरे अनुत्तरस्थानं ब्रह्मलोकं च केचन समस्त जगतो मूर्ध्नि भ्राजमानस्य तस्य वै । शिरोभागे विकर्माणः सिद्धास्तिष्ठन्ति सर्वदा सर्वकर्मविमुक्तास्ते रागद्वेषविवर्जिताः । विनष्टपुण्यपापाश्च सुखदुःखविनिर्गताः प्रभूतशक्तयथैतेानन्तज्ञानशालिनः । कदापि नो पुनर्जन्म लभन्ते शाश्वतं श्रिताः परात्मज्योतिषा देनाsन्यज्योतींषि मिलन्ति चेत् । तथापि तत्स्वरूपे नो सङ्कोचो विस्तारोऽपि च "साध्वी सा श्रेष्ठीं प्राह मुनेरित्युपदेशतः” । अद्भुतानन्दपाथोधौ न्यमज्जं शुद्धवीरहम् हस्तौ संयोज्य भाले च मुनिवर्यमवादिषम् । उपदेशाऽमृतं पीत्वा कृतज्ञा भवतो वयम् मद्भर्ता तु प्रणम्यैनं भद्धया परयाऽवदत् । जगतो बन्धनान्मुको धन्योऽसि स्वं मुनीश्वर ! यदि काचित्र हानिः स्यातहिं सिद्धिरियं कुजः १ । कृपया सर्वमाचक्ष्व भृशमुत्कण्ठिता वयम्
For Private And Personal Use Only
।। १९७५ ।।
।। १९७६ ।।
॥। १९७७ ।।
॥ १९७८ ॥
।। १९७९ ।। ।। १९८० ।। ।। १९८१ ॥
॥। १९८२ ॥ ॥। १९८३ ॥
॥। १९८४ ॥
।। १९८५ ।।
॥। १९८६ ॥
Acharya Shri Kasagarsun Gyanmandir
।। ७८ ।।
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
*******MSAKKAXXXSEXSAKkkes
तीर्थकद्धर्मपारीणो मुनिगन्दितोऽवदत् । स्वकीयजीवनोदन्तं सुधामधुरया गिरा शृणुष्व त्वं ममोदन्तं स्वस्थीभूय महाशय ! । महिषचित्रकव्यालेरारण्यकगजैः सदा निषेवितं मयाक्रान्तमरण्यं महदद्भुतम् । तत्प्रदेशेऽभवच्चमानगरं सुषुमायुतम् तदीयप्रान्तभागे चाऽवसन व्याकुलानि वै । अरण्पचारिणस्ते च पशुहिंसां समाचरन्तः (१) तेषां स्थानमभूद् रौद्रं यमराजगृहोपमम् । कन्यायुक्तयस्तत्र रक्तवस्त्राणि पर्यधुः तदीयवनितावों दन्तानां युवदन्तिनाम् । शस्त्राण्यतिविचित्राणि निर्ममावुधमात सदा तेष्वेकस्मिन् कुले पूर्वजन्मन्यासमहं पुनः । मूर्धन्यो व्याघजातीनां गजाना हनने रतः बनस्थो मांसमोजी च पशूनां त्रासदायकः । व्यचरं मृगयाऽऽपक्तो निन्यकर्मपरायणः सर्वे च मामकान वाणान पश्यन्तो लक्ष्यभेदिनः । प्रशसंसुस्त । सिद्धवाणसंज्ञां मम व्यघुः मस्पिताऽप्यभवद् व्याधः स्वव्यापारोद्यतः सदा । तेन लोका वदनि म व्याधराजोऽस्त्ययं ध्रुवम् मन्माता किल तातस्यातिप्रिया मानभाजनं । साऽप्यासीद् व्याधशूरस्प सुता प्रीतिविवर्दिनी भूपयन्ती वनं सर्व निजसौन्दर्यराशिना । रुपाताऽभूत् तेन मा तत्र वनसुन्दर्य मिख्यपा यूना मयैकदा लक्ष्यीकतोऽभूत कुञ्जरोत्तमः । शरेण मम तातस्तु हितायोपादिशत् तदा
१९८७॥ ॥ १९८८॥ ॥ १९८९॥ ॥ १९९० ॥ ॥ १९९१ ॥ ॥ १९९२॥ ॥ १९९३ ।। ॥ १९९४॥ ॥ १९९५॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
।। १९९८।।
For Private And Personlige Only
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
*
श्रीवरंगवती
कथा ॥७९॥
॥२००१॥ ॥२०८२ ।। ॥२००३ ॥
*******
****
***
आस्माकीनकुनाऽऽचारं अणुव त्वं समाहितः । प्रजोत्पत्तिक्षमो हस्ती न हन्तव्यो न चाग्रणीः स्वन्ती खशिशून प्रेम्णा प्रवान्ती तत्समन्विता । व्याधमीतिमपि त्यक्त्वा सा रक्ष्या हस्तिनी सदा स्तन्यजीवी च यो दन्तिडिम्भः स्यात् स तु सर्वदा । न हन्तव्यो यतः सैव क्रमेण सुमहान भवेत् दम्पत्योमिथुनं स्नेहाद्विलोक्ये तेतरेतरम् । न वियोज्यं यतस्तस्मात् संभोगात सन्ततिर्भवेत इत्थमस्मत्कुलाचारः पालनीयस्त्वयाजाज!। तदुल्लचयिता लोभाव सङ्घलो हि प्रणश्यति हस्तिडिम्मा न हन्तव्या रक्षितव्यं च तत्कुलम् । हृदि धार्य हित स्वेतद्वोधनीया निजाङ्गजाः अत्येति स्वकुलाचारं पालयन महने वने । विचरंश्च गजारण्यमहिषान पभांस्तथा काहान्मृगव्यादीवासयामासिवान शरैः। भृशमानन्दितोऽवं स्वकीर्चि चाथ बर्द्धयन् प्रयास्तकुलसम्मतयुक्त्या परिणायितः । पितृम्मामेकया साई सौन्दर्यमशिदीप्रया श्रीयन्ती सदा प्रेम्णा स्निग्धश्यामवपुलता । नितम्बिनीनताबीच कुचाम्यां कामवर्द्धिनी विकसचन्द्रविम्यास्या स्तोत्पलबिलोचना । यौबनेनोटेनाऽपि प्रफुल्लाजी व्यराजत सोन्दर्येणातिहयन भूरित्रीत्या च यौवने । महाभाम्पफलं जाता सा बामा वामलोचना मनोहरमरण्यस्य रत्नं यस्याऽस्ति सनिधौ । स्वभोगभागिहाऽसमसंतुष्टः कथं भवेत् ?
॥ २००५॥ ॥२०.41 ॥ २००७ ॥ २००८॥ ॥ २००९॥ २०१० ॥
***
*
****XXXXXXXX
******
For Private And Personlige Only
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
BEERI
www.khatirth.org
संसेव्याऽऽनन्ददां रात्रौ प्रियालिङ्गनसन्ततिम् । समुत्थाय प्रभातेऽहं दूरीकृत्य भ्रमं पुनः मदीयकुलदेव्यास्तु मन्दिरमगमं ततः । प्रार्थनायै शुमं तुङ्गं श्रद्धयाऽचलयाऽनिशम्
afe afe करुणाद्रां देवि ! दृष्टि कुरु त्वं बलमतुलमपि त्वं देहि यात ! प्रसीद । कुलमपि मम सर्व वर्धय त्वं प्रसादात् जय जय कुलदेवि ! स्वीयभक्तं प्रयाहि भोजनादि विधामाथ स्वस्थीभूय पुनर्वनम् । रुधिरौषमयं कर्तुं व्यापृतोऽभूवमन्त्रहम् अन्यदा ग्रीष्मकाले धनुर्बाणसमायुतः । तूणीरौ पृष्ठतो बद्ध्वा सज्जोऽगच्छं बनाऽवनीमू अहह ! ऋतु निदाघोदावतः पूर्णबाधो वनमपि जलहीनं निर्दलो वृक्षवर्गः । उपति गिरिवराली हस्तियूथः तृषार्तः, किमिह सुखलमश्चेत् व्याधबाधाप्रवेशः पुष्पावर्त सितश्रोत्रः रम्योपक्रमाम्बुजः । वन्यमातङ्गमन्वेष्टुं व्यचरं परितो बनम् क्षुधातृषाकुलो वा न प्राप्तभृगया पशुः । आतपेन च दुःखेन ग्लानवक्त्रो वने भ्रमन् मङ्गातीरं गतस्तत्र कृतस्नानं बहिर्गतम् । सद्यो गिरिसमं तुङ्गमद्राक्षं द्विरदं वरम् या विज्ञानमेवं यदेषोऽत्यो न सम्भवेत् । गङ्गावनविहारी तु नेदृशः कापि लभ्यते रम्परोमालिदीसाङ्गो नैतादृक्षो द्विपो मिलेत् । अतोऽयं द्विरदोऽरण्यादन्यस्मादागतोऽस्ति वै
For Private And Personal Use Only
॥। २०१४ ॥ ।। २०१५ ।।
॥। २०१६ ।।
।। २०१७ ।।
॥। २०१८ ।।
॥। २०१९ ॥
॥। २०२० ॥
।। २०२१ ।।
॥। २०२२ ।। ।। २०२३ ।।
।। २०२४ ।।
88*82*
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवरंगवती
कथा ॥८.॥
॥ २०२५॥ ॥ २०२६॥ ॥२०२७॥
***228
**
। २०२८ ॥
स तु दन्तविहीनोऽपि मृगयाऽनन्दकारणम् । वध्य एगभवन्नूनं द्विरदो वनसम्भवः व्याधानां नियमेनाऽत: भूत्वैकाग्रमनाः परम् । लक्ष्यीकृत्य गजेन्द्रं तममुश्च जचिनं शरम अत्युच्चगस्तु बाणोऽसौ नावधीत कौञ्जरं वपुः । चक्रवाकोऽभवत् कश्चिद् विद्धो देवनियोगवा
पक्षारवेण मदमत्तमिभं सरःस्थं व्याधागमं सपदि बोधयितुं सचक्रः, ऊर्ध्व गतोऽपि मुमुचे नहि मृत्युना तु व्याधान्मुमोच करिणं तदहो प्रशस्यम् । तनुगतनवदुःखोद्रेकखिनाऽन्तरात्मा सकलकरणदाहक्षीणतां यामुवाद
झटिति रटिति रिवतो रक्तसितोचमाङ्गोऽभवदपि च ययाऽसौ मूक मा वावदूकः दुःखेन दूयमानस्य चक्रवाकस्य तस्प वै । पक्षश्चैकस्तदा च्छिन्नः पपात धरणीतले भ्राम्पन् जलेऽपतत तूर्ण व्यथितम् स विहङ्गमः । तेनाम्बुलोहितं जातं लोहिताम्बुनिधेरिख तस्य भार्या रुदन्ती च परिभ्राम्यन्त्यनुषणम् । मृतं तं परितः शोकातुरा दीनोदडीयत तेनोत्पन्नदयश्चाहमपि लग्नः प्ररोदितुम् । विलपनित्यवोचं च रे ! रे ! कि विहितं मया ! पक्षियामलपरस्पराश्रयं, प्रेमबन्धमितरो न बोधते । मूकशोकमरभग्नमानसोऽस्तदेक इतरब मुखति मिथुनं स्नेहसम्बद्धं महादुःखे निपातितम् । जीपति मे पतिरेवं सोऽयं मला विमुद्धति
॥२२२९ ॥ ॥ २०३०॥ ।। २०३१ ।। ॥ २०३२॥ ॥२०३३ ॥ ॥ २०३४॥ ॥ २०३५॥
BREAKISEKAXXXX
॥८.॥
For
And Persone Oy
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir Jain ArachanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
तच्छरीराच्छरं तीव्रमकाक्षीत साऽतियनितः । चिरं निश्चतनं दृष्टा गताऽसुं निषिकाय सा. भदृश्यः सोऽभवत् तावन्मातङ्गस्तु द्रुतं व्रजन् । मयाऽपि चक्रवाकः स तस्मादुद्धत्य यत्नतः सुखप्रोतले गाङ्गे स्थापितः सकतेऽमले । ततः पावकसंस्कारो विहितो पन्धुपच्छुवा तदेव ज्वलिते यही चक्रवाकवधूपि । पतित्वा स्वामिना सार्द्ध भस्मसादकरोत् वपुः तद्विलोक्य भृशं तप्तोदीर्णचेता विषण्णधीः । पश्चात्तापपरो भूत्वा विलपनित्यचिन्तयम् दम्पस्योः सुखिनो शो मयाज्ञेन कथं कृतः । नियमाः कुलधर्मस्य पालिताः सकला मया नियमश्च तथाप्यद्य विनाशः सहसाजनि । ईदृग्विहारतश्चतत्कुलधर्माद् विभेम्यहम्
" कारुण्यपूर्वककुलाऽऽ वरणं स धर्मः, प्रत्येकजातिविहितः कुलधर्म उक्तः ।
तधर्मशुद्धनियमप्रतिपालको यो गच्छेत् स उत्तमगति नहि तत्र दोषः" कथं कुर्यामहं तादृग् जीवनं पापसंकुलम् । तस्मात् प्राणपरित्यागो वरं पापनिरोधकः एवमात्मविनाशाय देहं त्यक्तुं मया रयात् । तद्वधूवच्च शोकायां चिताग्नौ सहुतं वपुः स्वकुलस्य सदाचारः पालिता विधिना मया । पश्चात्तापोऽप्यमद् भूयान मदाचरितकर्मणा तथा तजन्मनो मेऽभूद्विषादोऽतीववेदनः । पापार्जनादरण्यानीसंचारिजीवमारणात
। २०३६॥ ॥२०३७॥ ।। २०३८॥
॥ २०३९॥ 1॥२०४०॥ ।। २०४१॥ ॥ २०४२॥
我先来的未来來來大消光光来为大典《南大內或天大夫
।। २०४३ ॥ ।। २०४४ ॥ ॥ २०४५॥ । २०४६॥ ॥२०४७॥
For Private And Personlige Only
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobahrth.org
श्रीवरंगवती
कया
"अयि नाथ ! ममास्ति जीवनं, परमं नीचमहो ! यदेकतः । परतः खगयुग्महिंसनं यदभूचानवधानतो इहा ! ॥ २०४८॥
नहि किञ्चिदपीह कारणं यदहं दीनमहो ! स्वभावतः । रमते प्रकृतिस्थितं सदा, भवितव्यं स्वयमेव जायते ॥ २०४९ ॥ न कृतं सुकृतं किमप्यहो ! परपीडैव सदा कृता मया। विफला मम सा मनुष्यता घिगिदं मे किल पापजीवनम् ।। २०५० ।। यदिदं विहितं स्वजीवनं कुकृताराधनतः सदासुखम् । हतकोदरहेतवे हि तत् क सुखं मे परतो भविष्यति ॥२०५१ ॥ सुकृताश्रयिणा समन्ततः सुखमस्त्येव सुपूर्णमहिकम् । पुनरस्ति च पारलौकिकं सुकृती कापि न चावसीदति ॥ २०५२ । पशुतुल्यकुकृत्यसेविनां प्रसृतं दुःखमहो पदे पदे । जननीपिटकामिनीभिरावसतो मे कुकृतेर्न चोद्धतिः ॥२०५३ ।। वनवास इहाऽतिदुःखदस्तदल सम्पति जीवनेन मे । पितृशिक्षितरीतिरात्मना कृतकारेण न पालिता हहा ? ॥२०५४ ॥ अनुजीविनमत्र पालितुं स्वहितांस्त नियमान सहं कुरु । सुधियं वितर प्रमो! पुनः सुखिनं मां कुरु दीनवत्सल ! ॥ २०५५ ।। सुखिनोऽथ जनाश्च दुःखिनम्तव सर्वेऽपि वशा हि हे प्रभो ।। वितराऽतिसुखं च दुखितः सहसा मां परितोऽय पालय॥२०५६ नरतामथ देहि नाथ ! हे! विपिने चाव कदापि साधवः । सहसा मिलिता न मानिता शुकनानामतिदोषदर्शनात् ॥ २०५७ ॥ इति दुष्कृतमेव मे परं न च तत्पादरजो मया धृतम् । न च तत्कथिता सुधामयी हितदा हा ननु देशना श्रुता ॥ २०५८ ॥ नच ते शुभनाम कीर्त्तितं न दया प्राणिषु हा मया कुता । तदिदं नरजीवनं मया फलितं नैव मुचैव जीवितम्।। २०५९ ॥ न मयाऽऽचरणं निरीक्ष्यतामधर्म माँ जगदीश ! पालय । इति चारु विलप्प संस्तेविरतोऽसो मरणार्थमुद्यतः ॥ २०६०॥
॥८१॥
For Private And Personal use only
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobarth.org
पथाचापेन तेनैवं तदानीं शुभकर्मणा । निरयादोंऽपि नीचोऽहं गङ्गोदीच्या निवासिनः वसुपूर्णस्य महेम्पव्यवहारिणः । समनि श्रेष्ठिवर्यस्य बनिः सेमे यशस्विनः अनेककपेकावासो नानासस्य विराजितः । उत्सवैः सन्ततं रम्यो काशीदेशोऽस्ति ऋद्धिमान यत्रानेके जनयन्ति पद्मपूर्णजलाशये । सुरभिकुसुमोद्यानवीथीषु च मुदाप्तये निर्मलाम्बुसमा पूर्णगङ्गातीरोपरि स्थिता । वाराणसीपुरी तत्र द्वारिकेत्र विराजते क्वचिच सुवयोगिनो मनसि धारणां कुर्वते तपस्विजनगण्डली तपति कुत्रचिमैकधा द्विजात्रिपथगातटे विदधते क्वचिद् वन्दनां विलासिनिवद्दाविराय विलसन्ति नत्ताः कचित् 6. कापाख्यदेशे परमा पवित्रा वाराणसी नाम पुरी चकास्ति । मस्यां पुरा तीर्थकरा भने चानेकवारान् व्यचरन् समृद्धया
श्रीमान् प्रतिष्ठितमृपो जनको यदीयः पृथ्वी यदीयजननी श्रीसुपार्श्वनाथः । हेमामकान्तिरभवज्जिन राजराजः, श्रीस्वस्तिकं जसति लाग्छनमस्य यस्य यत्र प्रभुवनजन्मसुराज्यकालमासाद्य नीतिविधया च विभ्राय राज्यम् । संसारवैवमपास्य च वर्षिदानं कृत्वा स्वयं किल ललो बिनजदीक्षाम
For Private And Personal Use Only
॥। २०६१ ॥
॥। २०६२ ॥ ॥। २०६३ ॥
।। २०६४ ।।
।। २०६५ ।।
।। २०६६ ।।
॥। २०६७ ॥
॥। २०६८ ।।
॥। २०६९ ।।
Acharya Shri Kasagarsun Gyanmandir
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
धीतरंगवती
॥८२॥
स्पं घातिकर्मनिकरं च समाप्य नाथः संपाप्य केवलमनेकसुमव्यजीवान् । संतारयन् शुभददेशनयाऽथ संघमस्थापयत् करुणया शुभधर्मधामः "
॥ २०७०॥ नृपाऽश्वसेनो जनको यदीयो वामाभिधाना जननी यदीया । नीलाभकायो नवहस्तमानः स पार्श्वनाथोऽभवदत्र पुर्याम
॥ २०७१ ॥ कोमारे कमठाख्ययोगिविहिते जाज्वल्यमानेऽनले प्रायोऽर्धावधिदग्धकाष्ठतलतो नागं स चक्रे बहिः । जीवन्तं भुजग नमस्कृतिमहामन्त्रं समश्रावयत्, मृत्वाऽसौ धरणेन्द्रनामकसुरो जातः प्रमावान्वितः ॥२०७२ ॥
राजीमतीनेमिजिनेन्द्रचित्रं विलोक्य वैराग्यमथाऽऽशु लेभे । लोकान्तिकानां विनयाञ्च तीर्थ प्रवर्तयामास विधाय दानम्
॥ २०७३ ॥ विनाश्य दानेन जगद्दरिद्रतां त्यक्तस्वतनद्ववैभवक्रमः । गृहीतदीक्षः कमठोपसर्गज संपद्य लेमे वरकेवलं विचमा २०७४ ॥
रचयति धरणेन्द्रे पादयोदिव्यपूजा, विदधति कमठे तं घोरघोरोपसर्गम् । उभयसुरसमानस्त्यक्तमानापमानः, प्रभुरतिकरुणाः पार्श्वनाथो बभूव।
॥२०७५॥ न कदापि क्वचिद्देशे श्रूयते न तथाऽामे । श्रीपार्धात्साधुतः साधुः कर्मणात खलतः खका ॥२०७६॥ कदापि गङ्गास्वतटाप्तकायोत्सर्ग विभु क्षालपति स पादे। तभृष्टचित्तास्तु तवान् सुरेन्द्रो जाता का सर्वनदीपु पुण्या ॥२०७७॥
॥८२॥
For Private And Persone
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
***********************8*1
www.kobatirth.org
॥। २०७८ ॥
कचिद्वापिकाsरामराजी विचित्रा तडागाः कचित्कुत्रचित् सन्ति कूपाः । कचिन्मन्दिराणि कचित सत्रशाला ततः सर्वथा माति वाराणसीयम् सर्वर्तवोऽस्यां तु सदा वसन्ति वनस्पतीनामियमिष्टभूमिः । सदाफलावृक्षविश्वकास्ति सर्वाणि धान्यानि भवन्ति चात्र ॥२०७९ नानाविधा दार्शनिकाः स्वतच्यं विचारयन्ते समभावतश्च । स्याद्वादमेवानुसरन्ति तत्र वसन्ति सम्पत्सुखशालिन || २०८० ॥ स्वर्ग न चेच्छन्ति सदात्ममग्रास्तस्वानि तत्तत्समयेऽनुभूय । नाशासते भावि सुखं सुखित्वात् पूर्वावर्ग सुधिया स्मरन्ति ।। २०८१ सरित्तरङ्गमालास्वत्प्राकारत्वं प्रपेदिरे । यस्यां व्यापारिणो नैके वसन्ति विपुलर्द्धयः प्रभूत मूल्य नेपथ्यैर्भूषितस्तद्वधूजनः । कल्पवृक्ष इवाभाति विडम्बितसुराङ्गनः लक्षैरेव प्रकुर्वन्ति सर्वेऽपि व्यवहारिणः । क्रथं च विक्रयं चापि भृशोत्साहेन यत्पुरे
॥ २०८२ ॥ ।। २०८३ ।।
॥ २०८४ ॥
।। २०८५ ॥
तेषां हम्र्म्याणि राजन्ति सान्तराणि पृथक् पृथक् । ततस्तदङ्गणेष्वेव न किन्तु परितो गृहम् भित्तीनां मूलपर्यन्तं रविस्रावलि निजाम्। विषनोत्युज्ज्वलां रम्यां दर्शयन् स्त्रीयवैभवम् तंत्रस्य महेभ्यस्य प्रासादे जन्म मेऽभवत् । पितृसंकेतितं मेश्राम रुद्रयशा इवि
।। २०८६ ।।
।। २०८७ ।।
एकादशेऽह्नि प्रियपुण्यकाले सगोत्रजानां सविधे प्रमोदात्। नामक्रियां तज्जनको विधते तमाम तत्तुल्यफलं प्रदत्ते ॥ २०८८ ॥ कुलाचारक्रमेणाऽहं लेखनाद्या खिलाः कलाः । भवायासोऽल्पकालेन गुरोः शिक्षितवान् सुदा ।। २०८९ ।।
For Private And Personal Use Only
$2428888888888RRI
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahanandain AradhanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
बीवरंगवती
॥ २०९०॥ ॥२.९१ ॥
ERELESEXXXX
॥ २०९२॥ ।। २०१३ ।।
खिखति विचरिहस्थस्तेन सा लेखशाला पठति च पुनरस्यां तेन सा पाठशाला । गुरुभवन उषित्वाधीयते येन बालैग्थ गुरुकुलबासः कथ्यते तेन विज्ञः सम्पद्विलोपके शीघ्रं सर्वदर्गुणसबनि । कलक्कादायके छूते संलग्न मम मानसम् " व्यसननिचयमूलं दुर्गतेईर्गकूलं । गुणगणप्रतिकूल सर्वमायानुकूलम् । धनवपु इति नाशे द्यूतमेवास्ति मूलं, नलनृपप्रभृतीनामस्ति दृष्टान्तमत्र " “घृतं सर्वापदां धाम घृतं दीव्यन्ति दुर्षियः । तेन कुलमालिन्यं, घृताय श्लाघतेऽधमः
राज्यब्युति बल्लभाषा वियोग, घृतान्नलः प्राप गतोरुमोगम् । प्रचण्डिता मण्डितबाहुदण्डास्ते पाण्डवाः प्रापुररण्यवासम् घृतं च मांस च सुरा च वैश्या पापर्दूिचौर्य परदारसेवा । एतानि सप्तव्यसनानि लोके, घोगतिघोरं नरकं नयन्ति " तेनैव व्यसनेनेह व्यवहारविदो जनाः । नैकधा नष्टविभ्रष्टा भवन्ति क्षुद्रबुद्धयः
सबने त्यक्तकारुण्या जेतुमुन्मत्तताजुषः । अथिलीभूय जल्पन्ति सद्गणान् विस्मरन्ति च १ "न प्रादिपर: "पिलच्छन्दमूत्रम् । प्रपूर्वमक्षरं म:" ॥
॥ २०९४ ।।
*
*
॥२.९५॥ ॥ २०९६ ॥
*
11८३11
For Private And Personlige Only
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:sha.kathssagarsunGvanmandir
॥ २०९८॥ ॥२०९९ .
॥ २१.१॥ ॥ २१.२॥ ॥ २१०३॥
बस्मिन्नेव समासक्तो घृते चौर्यरतस्तथा । दावागिनेव संवमस्तेन मत्कुलपर्वता गृहाणां भेदनं पुंसां यात्रिकाणां च लुण्टनम् । एष एव ममोद्योगो मुख्यतः समजायत दुर्मदसत्कृत्यैर्मत्कुटम्बिजनोऽभवत् । लोके नवाननः सर्वनिन्धवाहं जनेऽभवम् अन्यदा परसम्पत्तिमपहर्तमना मुदा । खड्गहस्तोवजं गुप्तं निशीथे राजवर्त्मनि तथाप्याकर्णितः पौरैः पद्रवो नश्यतो मम । कोलाहलेऽथ भीतोऽहं क्षीरिकावनमाश्रयम् " जनान्तिकं जगादेति, सा तरचती पुनर्मिल्लोपकारं किं वच्मि, येन नीता शुभां दशाम स्थित्यन्तरं स्थितिवशः समुपैति जन्तुस्तस्माद् बुधा जगदिदं कथयन्ति सार्थम् । वैश्याच चौर इति सोऽप्यथ लुण्टकारी, तस्माच साधुरिति से ननु शर्मणोऽनत नीचस्थिति स्वां परिमुच्य विद्वान्, उवैस्थिति गच्छति घेभिजेष्टया । स एव सर्वोचपद प्रलम्प, तस्मात परान् स्वेन समान् करोति जगत्समने प्रकृतेहि राज्य, वदन्तराऽऽसाध करोति कर्म । नीचस्थित प्रांशुमयो विधत्ते, उचैः स्थितं तं शुभसत्फलार" विन्ध्याद्रिमण्डने तस्मिन बने सर्वेष्टपूरके । व्याधाना मृगया यत्नं विनैव मुलभाऽभवत
॥ २१०४॥
॥ २१०५॥
॥ २१०६॥ ॥ २१०७॥
For Private And Personlige Only
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीतरंगवती
कथा ॥। ८४ ।।
MESSEEEEERIF*EEEEEEEEEE
www.batirth.org
"क्वचित् स्थले शान्तसमानम्मावारामराजी समुपैति शोभाम् । अपक पक्काभिरमाद्ररामिद्रक्षाभिरामावि सुवासनाभिः ॥ २१०८ ॥ पक्कैः रसालै रसरम्यरूपै राजादनानां च फलैरमेयैः । वृहत्फलैर्नूतननालिकेरैः करोति च स्वातिथिपूर्वपूजाम् ।। २१०९ ॥ रम्भात्रलीलम्बितलुम्बनम्रा विनेयनेयं विनयं दधाति । अत्युच्चखर्जुरंततिः फलानि स्वादूनि मिला ननु वर्षती ।। २११० ॥ जम्बूवनं प्रावृषि नीलवर्णी रसायनम्रं भ्रमरी विदीर्णम् । स्वयं पतस्पातकचालवृन्दं संपातयत्येव भिदेलिमं तत् ।। २१११ ॥ पत्रान्तराले परिणामपक्कं निदर्शयद्धर्षयते मनुष्यान् । जम्बीरजालं विहितालवालं फलाङ्कवालं परिवर्धपञ्च ॥ २११२ ॥ सुधारसानि प्रतिवृक्षजानि श्रीबीजपूराणि बहूनि भान्ति । सुरङ्गनारङ्गानं घनं च फलन्ति यस्मिन् मधुदाडिमानि ॥ २११३ ॥ वीरामलकानां गहनं फलाढ्यं सत्पीलुवृक्षैः परिवेष्टितं च स्कन्धे फलानि प्रतिगृह्य चैते विष्ठन्ति रम्पाः पनसा स्वभागे ॥ २११४ ॥ पतन्ति बीजानि सुदाडिमानां पुष्पाणि चैषां सुरभीणि कानि । पृथ्वी जनन्याः परिपूजयन्ति पादानि मे पादपराशयथ ॥२११५ ॥ अपाककाले मधुराम्लवन्ति फलानि शाकप्रतिमानि तत्र । चिञ्चालिका निम्बुफज्ञानि चात्र पद्व्यञ्जनानीति रुचि ग्दानि ॥ २११६ ।। शृङ्गाटिकाली क्वचिदस्ति गुन्दीलुम्बावलीयं बदरीवनं च । पुष्पैः फलैबिर्मटिका लताच शाकालयोऽन्याश्च चिरं फलन्ति ॥ २११७ ॥ पेपानि द्राक्षाकृतपानकानि पिवन्ति तत्स्था नलिनीदलैख । आस्वादयन्ते सलिलानि भित्ता कचित्तथा श्रीफलमध्यजानि ॥ २११८ ॥ जनान्तरं पकनागवल्लीदलानि चैलालवलीलवङ्गैः । स्वादूनि तज्जातिफलैब कृत्वा खादन्त्यपचक्रमुकैश्च सार्धम् ॥ २११९ ॥ भाति कचिव सच्छत पत्र जालं सचम्पकाशोकसुमानि सन्ति । क्वचिल्लताकेतकी काचमल्ली कौन्दी लतापुष्षचयं सृजन्ति ॥ २१२० ॥
For Private And Personal Use Only
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
॥ ८४
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
KERAKXKXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
श्रीमालती वा मुचकुन्दपृक्षाः सुमेश्व कुर्वन्ति स्थलं मनोत्रम् । लुण्टाकलोकोद्भवमोतिहेतोश्वतस्थलं शून्यमित्र प्रमाति ॥ २१२१ ॥ तीर्थस्थलं कुत्रचिदस्ति रम्यं तस्याच्चदूरेऽमि मिरेः शिखायाम् । गृहागभीराऽतिश्येन दुर्गा आसीच वा दुर्जनराजवानीगा२१२२॥ व्याचा आधार मायां विदधति मृगयां नेदियाय यो सा. मावाविवेव माया रचयितुमुचिता नैव विश्वासात्तु । बयानां पालनार्थे मृगपतिमृगयों कुर्वते ये नरेन्द्राः । व्याषा: किन्तारा यदि च विदधते तेऽत्र एवं पान्ति ॥ २१२३ ।। क्यसां बहको नीडा डिम्भवृन्दैः सुनादिताः । वृक्षशाखासमाछमा वर्गहने बने
॥ २१२४ ॥ सुण्टकानां मूहा नैकामयदा चाऽभवत्तथा । विविधा पादपत्रेणी दिवाप्यन्धीचकार वै
॥२१२५॥ तस्काननेकवेशस्था गृहामे कामहं गतः । द्वारेण महता युक्ता रूपात 'सिंहगृहारूपया' ॥ २१२६ ।। तस्थामखभृतः शूरा न्ययसन स्वैन्यजीविनः । आनन्दं मेजिरेऽजसं लुण्टयित्वा वणिगजनान ॥ २१२७॥ चौर्यकलासु संधैक-साध्येषपि च कर्मसु । निपुणा दस्पवः सोऽप्पासंस्तदेशवासिनः
॥२१२८॥ दस्युत्वेऽस्ति कला च साहसमयो निर्भीकता स्वस्थता, चापल्यं बहुवेषिमा गुणिगुगाराधित्वमुर्जस्विता । एतेस्ते निपुणा भवन्ति सततं दीनाँश्च रक्षन्ति ते, मर्यादा न हरन्तितस्करगगाँस्तान संस्मरन्ति प्रजाः ॥ २१२९ ॥ तेषां दयालका केचिद् ब्राह्मणान् श्रमणान त्रियः । रुग्णान् बालास्तथा वृद्वान् पीडयन्ति स्म न कचिद् ॥ २१३।। वसमिक्मदान्धान दृष्टिमुयाटयन्तो, हृतपशुधनधान्यैर्दुर्बलान् वर्धयन्तः ।
RRRRRRRRROTESgoa
For Private And Personale Only
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्री तरंगवती कथा
॥ ८५ ॥
www.kobatirth.org
रथविर शिशुरुमा र्त्तस्त्रीजनान् सान्त्वयन्तः नृपतय इव चौराः नो मुदे कस्य साधोः ! घाताः सहस्रशस्तेषां लुष्टने जज्ञिरे तनौ । तथाऽपि तेषामुत्साहः द्विगुणः समवर्द्धत गत्वाऽहमपि तत्रैव स्तेनवृत्तिविधायकः । नैपुण्येन मतस्तेषामतिष्ठं जीविकेच्छया भल्लप्रियोऽभिधानोऽभूत्तस्य वृन्दस्य नायकः । स सदैव निजे हस्ते दृढं कुन्तमधारयत् धैर्यवान् सच्चसम्पन्नः सदोत्साहोऽकुतोभयः । भुजङ्ग इव सर्वेषां भयदो भीषणाकृतिः परः सहखदस्यूनां पोषणायाऽवनाय च । पितेवासंस्तुताँल्लोकान् बहुधाऽपीडयद् बलात् निजबाहुबलेनैष विश्रुतो बलवानिति । तेनैव तस्करैः स्वीयनायकत्वे नियोजितः अनयंस्तत्समीपं मां स्तेनाः स्नेहप्रपूरिताः । सोऽपि प्रेमार्द्रभावेन मयाऽऽलापं समाचरत् ततः स्तेनगणः सर्वः सादरं मां व्यलोकत। अतः सुखेन तत्राऽयं न्यवसं भीतिवर्जितः दुष्करेष्वषिकार्येषु भूरिशौर्यमदर्शयम् । ततः ख्याति परां प्राप सादरं प्रचुरं तथा दुष्टानां दमनाय कैरपि पुरा चौर्य प्रकाशीकृतं, स्वार्थाय ग्लपनाय वा विदधते ये द्वेषदुष्टाऽऽशयाः । हन्त्येव बधबन्धनादिभिरथाssगाराचx निष्काश्य ते, मृत्वा दुर्गतिमेव केवलमहो ! गच्छन्ति रक्षेच् च कः १ ॥ २१४१ ॥ x" संबन्धकभूतकृदन्तस्य प्रयोगः "
For Private And Personal Use Only
॥ २१३१ ॥ ।। २१३२ ।।
॥ २१३३ ॥ ।। २१३४ ।।
।। २१३५ ।।
॥ २१३६ ॥
॥ २१३७ ॥
॥। २१३८ ॥ ।। २१३९ ।।
।। २१४० ॥
Acharya Shri Kissagarsuri Gyanmandir
॥ ८५ ॥
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
EEEEEEEEEEEE
SEEEEEEEEEE
www.kobatirth.org
कियत्काले गतेऽत्रस्यँल्लोका मन्नाममात्रतः । युद्धे पलायने चैव धनिपृष्ठानुधावने सवास्थापयत्पार्श्वे नायको मां प्रमोदतः । निर्दयाऽन्तक दूताभशक्तिभृदादिनामभिः अभ्यजानन् सदा तत्र सर्वे मां सहचारिणः । वैरिणोऽदारयं शौर्यान्मित्राणि पर्यंतोषयम् तनुमध्यायं द्यूते पणबन्धतया मुहुः । एवं चिरं निषादानां गुहायां सहचारिभिः स्थित्वाऽहं यमराजेन तुल्यां कीर्त्तिमवाप्नुवम् । सर्वत्राऽऽजयचौर्य कार्येषु तत्परोऽन्वहम् स्वकर्त्तव्यपरास्माकं मण्डली मुदिताऽन्यदा । चौर्यस्थलं समासाद्य तस्थौ द्रव्यापहारिणी तावत्तत्र समायातं मिथुनं यौवनोद्भटम् । गृहीत्वा तत्समायाता भूषय भूषणैगृहम् तद्वृत्तान्तं समाकर्ण्य प्रागेव तद्विलोकनात् । कालिकायाः स्तुतिं कर्तुं केचिचारेभिरे मुदा अस्मतुः समीपे तो समानीतौ च हर्षतः । दम्पती पश्यतस्तस्य दिव्याभरणभूषितौ
॥ २१४२ ॥
॥ २१४३ ॥
॥ २१४४ ॥
।। २१४५ ।।
।। २१४६ ।।
।। २१४७ ।।
For Private And Personal Use Only
॥ २१४८ ॥
॥ २१४९ ॥ ।। २१५० ।।
॥ २१५१ ।।
॥ २१५२ ॥
लावण्येन स्ववपुषो जहाते च मनो भृशम्। किन्तु देवाङ्गनातुल्यां देव्यै तां दातुमैहत कालिकाया भयाद् यस्माद् विधातुं रमणीं निजामू । शक्तिमान्नाभवत् स्वीयतत्तद्धर्ममयादपि भया लोकस्य कुकर्मकर्ता सुकर्मकर्ताऽपि कदापि लोक भयात् धर्मस्य कुकर्मकर्ता न स्यात् सुकर्मैव करोति किञ्चित् १ ॥ २१५३ ॥ तथाप्यसौ निजैर्भिल्लैर्यथेच्छं तदलंकृतीः । अधारयच्चरत्नादि वेभ्य एवार्पयत् समम्
॥ २१५४ ॥
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
श्रीतरंगवती
॥८६॥
PATIESXXXXXXXXXXXXXXXXX
पवारस मामवोचद् यदाऽध्यामिनवमी दिने । इमो का प्रदातव्यो बलिरूपेण निश्चितम् ततोऽहं योजितस्तेन तयोः संरक्षणाय वै । चिन्तया मरणस्यैतावरोदिष्टा भयाकुलो दीनाननौ तथापि द्वावनयं मम वेश्मनि । पुरुषे च मया बद्धे व्पलात तर्षभृशम
॥२१५७॥ तथाहि-" अयि महाप्रभो ! शुद्धजीवचे सति विमेम्यहं क्रूरमृत्युना ।
समय एष मे मीमतामितः सपदि नाथ हे ! रख रक्ष माम (ललितछंदा) ॥२१५८ ॥ मरणमुत्तमं यत्समाधितो कुसमयस्य वै निन्दिता मृतिः। तदतिनिन्दितान मृत्यु रातो जिनवराऽधुना रक्ष रक्ष माम् ॥ सुतपसा तथा श्रद्धयाऽऽया विमलशीलने नाथ ! सन्मतिः । व्रताशीकृतं जीवनं वरं सफलबन्धन मुक्तयेऽसित यद् ॥२१६०॥ विहमजन्मनि प्रेमजीवनं शुभमहो ! भवेधर्मरूपये । गुरुवरे तथा देवधर्मपोर्टूढमतिर्दृढ श्रद्धया सह ॥२१६१ ॥ स्मृतिरियं शुभा मनुनमस्कृतेरिति+ फलानि सजीवनस्य मे । नयति यद्विधिषिमितस्थिति तदिति नाथ ! तस्याः समुद्धर ॥ भवेऽस्मिन् मानुष्ये सुकभिवसंस्कारखसतो, व्रताऽर्चासदानप्रभृति शुभकर्माणि विधितः । कृता निश्रेियोऽर्थ तदिति मम पापानि प्रसम, विनश्यन्तु श्रेयः सुखइसमयं देहि भगवन् !
॥ २१६३ ॥ सकलजन्तवः कर्मकुण्ठिता जिनवर ! क्षमस्वाज्यराधिनीम् । अहमपि प्रभो! तत्क्षमापये तदिह रथ मां हे कृपानिधे । ॥२१६४ + मन्त्रम् ।
名名名名黑系毛毛要多多彩迷 BESTERBER
For PrivateAnd Personale Only
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir Jain ArachanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
अफ्रजम्मनः पुग्यतः स्मृतं किमपि दूषणं शेषतां गाम् । तदिह बन्धन जातमस्ति नौ करुणया प्रमो! तत्समुद्धर १ ॥२१६५॥ भवसमुद्धतेरीइनं च नो विषयवाञ्छपा वर्जितं मनः। अमृतपानमिच्छन्ति केन वै गरलपानमिच्छन्ति केपि न ॥ २१६६ ॥ त्वमसि कामदस्त्वां विना न मे, कथय वर्तते को जगवले । शरणवर्जितं नाथ ! तेन मां सपदि रक्षमा रक्ष मां प्रभो!२१६७ एतत्सकरुणाक्रन्दगीतश्रवणमात्रतः । हदि कारुणिका भावा जागृता मम सत्वरम् "
॥ २१६७॥ तदुदन्तश्रुतेर्जाता जातिस्मृतिरहो ! मम । स्वापराधं विदित्वैवं तस्मादुदारिताविमौ
॥ २१६८॥ सर्वेषामपि पापानां सहसा धपणाय च । स्वयं तस्माच मृत्वाऽपि रक्षणीयाविमो मया
॥ २१६९॥ मानुष्ये महान धर्मो नहि हेयः कदाचन । विवेके सति तत्यामो महागः कथ्यते बुधैः स्वस्वामिस्नेहतो वक्षो जथान पूचकार च । तेन कारास्थिताः सर्वा जीवने विरसा निजे ॥ २१७१॥ वनितास्तत्र संमिल्प दयावासितचेतसा । साकाङ्क्षा दमती प्रष्टुं तदुदन्तं प्रचक्रतुः
॥ २१७२॥ कस्मादागम्पते ? कुत्र गन्तुमीहा च वर्तते । तस्करकरसात कस्माजातौ कथय तं युवाम
॥ २१७३ ॥ साऽश्रुनेत्रावदद्योपिदस्मवृतान्तमादितः । श्रूयतां सावधानाभिर्दुःखदं शृण्वतामपि
॥२१७४।। चम्पान्तिकस्थितेऽरण्ये गङ्गातीरविभूषणे । गैरिकवणौ चक्राही स्नेहिनावाजस्व दम्पती ॥ २१७५।। परपा साकमहं मङ्गोपरि नैपुण्यतोऽतरम् । कल्लोला। शुशुमुस्तेन, सैकतेन युता इत्र
॥ २१७६।।
BREBESBESEXXIXEEEEEREAKERA
For Private And Personlige Only
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
बीतरंगवती
कया ॥८ ॥
BXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
अन्यदैका समायातो व्याधस्तत्र सकार्मुकः । आरण्यकं गजं हन्तुमुद्यतेन पतिर्मम ।। तेनाऽहन्यत वाणेन रू.क्षस्य भ्रंशनेन हि । शोचन पुनः पुनः सोऽथ वट्विसंरकारहेतवे गङ्गातटे चितां कृत्वा गताऽसोरदहद् वपुः । अहमप्यनुगन्तुं तं चिताग्नौ न्यपतं शुचा मृत्यैवं यमुनातीरे नगरबेष्ठिनो गृहे । कौशाम्ब्यां तनया रम्या जाताऽहं कान्तिशालिनी तस्मिन्नेव पुरे कीर्या समुद्रपारया तया । ख्यातस्य श्रेष्ठिनो गेहे सुतः सोऽपि व्यजायत आवाभ्यां वर्धमानाभ्यां चित्रपट्टनिरीक्षणात् । जातपूर्वभवस्मृत्या समुपालक्षितो मिथः तेन संयाचितो मां हि मत्तातो नान्वमन्यत । मया तत्सन्निधौ दूती प्रहिता प्रेमपूर्णया तथाऽन्यदा तमस्विन्या रागेणाहमपीरिता । प्रासादमगमं भव्यं मत्पतेः सुषमायुतम् मदीयतातमीत्या च प्लवमारुह्य सत्वरम् । पलायिती नदीतीरे गृहीती लुण्टकस्ततः तरुणी साब्रवीदित्थं स्वानुभूतां कथां निजाम् । सुखदुःखमयीं सर्वा रुदन्ती भृशदुःखिता अहं तच्छ्रवणेनैव स्मृतप्राग्भवचेष्टितः । पूर्वकर्मविषण्णात्मा भ्रान्तो मूर्छामवामवम् लब्धसंज्ञस्ततो भूत्वा ह्यस्मार्ष पूर्वजन्मनः । मातरं पितरं चैव पत्नी धर्म कुलस्य च तया स्त्रिया स्मृतिः स्वप्ने यदुव्यलोकि यथातथम् । मयाऽपि तत्स्मृतं सर्व हृदयं तेन मेद्भवत
॥ २१७७॥ ॥ २१७८ ॥ ॥ २१७९ ॥ ॥ २१८०॥ ॥ २१८१॥ ॥२१८२ ।। ॥ २१८३॥ ॥ २१८४॥ ॥ २१८५ ॥ ॥ २१८६॥ ॥ २१८७॥ ॥२१८८॥ ॥२१८९॥
RXXXXXXXXXXX
||८७॥
For Private And Personlige Only
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.khatirth.org
समान कालाश्रितभावबोधे स्वतुल्यवाक्यश्रवणं हि हेतुः । सूर्यास्तमाकर्ण्य विभिन्नचित्ताः प्रतिक्रमन्ते सहसा मुनीन्द्राः ॥ २१९० मनोवृत्तिर्मदीया तद्दम्पतिपचपातिनी । सहसोपकृतिं कर्त्त दघाव पापमुक्तये
॥ २१९१ ॥
।। २१९२ ।।
॥ २१९३ ॥
मया तदा सुनिर्णीतं यत्पुराऽजानता हतम् । तदेव मिथुनं चक्रवाकयोरिदमस्ति हि अधुनेदं महादुःखे पतितं युगलं पुनः । मृत्योर्मुखे न संस्थाप्यं ज्ञातं चावसरे सत स्मृतस्वदोषाः कृतिनो मनुष्यास्तदोषश्चान्त्यै सहसा यतन्ते । घृकोपवासस्मृतदोषहत्यै अस्ताचलं गच्छति तिग्मरश्मिः | २१९४ || पूर्वपापस्य लग्नस्य प्रमादेकवशेन वै । प्रचालनं मया कार्य ध्रुवं प्राणव्ययादपि तयोः संरक्षणेनैव मम शान्तिर्भविष्यति । अन्यथा शल्यवद् हिंसा मन्मनो व्यथयिष्यति इत्थं निश्चित्य निर्गत्य गेहाद् बन्धांस्तदीयकान् । तूर्णमेव दयाऽऽविष्टः शिथिलीकृतवानहम् ततः परिकरं बद्ध्वा खड्गहस्तो निशि स्त्रिया । सहितं पुरुषं लात्वा स्वेनदर्या बहिर्गतः भयप्रदं महारण्यं लङ्घयित्वा सुपत्तनम् । यावन्नीत्या वियुज्याऽथ वलितोऽहं गताऽध्वनि ततः संसारतो भूत्वा विरक्तः शुद्धमानसः । व्यचिन्तयमिति क्षोभाच्चिन्ताग्रस्ते मनस्पहम् पिता न माता न च बन्धुवर्गः किमर्थमेवं प्रचरामि पापम् । पापस्य भोगी न च कश्चिदस्ति, कथं न पुण्याय करोमि यत्नम् ॥ fi aise पुण्येन च पापन, द्वयं हि दोषः कथितो यदा तैः । आत्मार्थमेव प्रकरोमि यत्नं, संसारमुक्तो हि यतो भवामि।। २२०२
॥ २१९७ ॥ ॥ २१९८ ।।
।। २१९९ ॥
॥ २२०० ॥
For Private And Personal Use Only
।। २१९५ ।।
॥ २१९६ ॥
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
भीतरंगवती ।
कथा ।।८८॥
मनो हि मोक्षाय च बन्धनाय मनो नियोज्यं जिनराजमार्गे । एकाग्रताबद्धमिदं मनो मे संसारविच्छेदकरं यतःस्यात् ॥२२०३।। संसार एवाऽस्ति महान विचित्र विचित्रता तस्य विचारगम्या । रम्पा न सा तद्विचरामि किंवा,पृष्ट्वाय तं यामि न मेऽस्ति भीतिः | अहो ! कृतं दारुणकर्म घोरं न यस्य निस्तारणमस्ति किञ्चित् । भवद्वये प्राणिविहिंसनं यत्, कृतं तदस्तुस्वकृतौ विरामः॥२२०५॥ द्वेषो न मे दुष्कृतकारिणोऽस्मात, रागोन मे स्वामिन एव तस्मात् । किंवा विधर्मस्थितमानवानां, सङ्गेन तसात्परतो व्रजामिः। नायकस्य समीपे मे गमनं कथमति । कृतागसः पुनस्तस्य यमदूतोपमस्य वै
॥२२०७॥ चक्षुषोऽग्रे कथं स्थातुं शक्नुयां निर्दयात्मनः । दुष्कार्य सर्वथा त्याज्यमिति धीरप्पजायत
॥२२०८॥ परिणामसुखार्थिभिनरैनितरां चेतसि चिन्त्यते यदः । परचित्तशरीरवाग्भवं करणीयं नहि दुःखयोजनम् ॥२२०९ ।। निजाऽनुभूतौ यदि दुःखमस्ति मविष्यति द्राक् तदलं परेषाम् । न तत्प्रतिव्यमिहसदेतोप्कार्यमेतन्मनसो मतं न ।।२२१०॥ यतो लोमविलासाभ्यामद्य यात्तु यत्कृतम् । दुर्गतिप्रापकं तद्धिं महापापं निगद्यते
।। २२११ ॥ तस्मात्तत्पापशान्त्यर्थ मुक्त्यर्थ च मयाऽधुना । प्रायश्चित्तं विधातव्यमई सिद्धान्तदर्शितम्
॥२२१२॥ "प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते । तपो निश्चयसंयुक्त प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् " ५२२१३ ॥ विलासभोगसंसक्तो यो हिनस्त्पपरं जनम् । स मूढो याचते दाखं स्वयमेवाऽधिकाऽधिकम् ॥ २२१४ ॥ दूरस्था स्नेहपावाच सैव मुक्तिसुखं व्रवेत् । समानसुखदुःखद समानस्तुतिगईणः
।। २२१५॥
1146
For Private And Personlige Only
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahanandain AradhanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
FORIHARIWww
मानापमानयोस्तुल्य मानसश्च सदा भवेत् । विचिन्त्यैवमया गत्वा वैराग्बादुतरां दिशम् । ॥ २२१६॥ सारस्यनिधूतसमग्रदोषो जातो महान्मे विरवेविचारः । जिनेन्द्रदेवं शरणं विधाय तत्पादपूतां दिशमाश्रितोऽहम् ।। २२१७ ॥ तदाश्रये शान्तिरुदेति चित्ते धर्मप्रकाशो भवति सनसन । मेर्वादिपूता दिगियं विरामे नियोजयत्वेव जनान् स्वसंस्थान्।।२२१८ कामान सर्वान् विनिध्य संन्यासग्रहणं कृतम् । तुङ्गतालिवनै रम्पमलकापाः स्मृतिप्रदम्
॥ २२१९ ॥ गतः पुरिमतालाख्यं नगरं भूरिसम्पदम् । तस्य दक्षिणमागेऽस्ति मारोद्यानाऽतिशायिनी ॥ २२२०॥ नन्दनारामसादृश्यं दधाना वाटिकावरा । इरिद्भिः फलपुष्पौधै राजिता सा समन्ततः
।। २२२१ ।। जनस्वान्तवजं नित्यं श्रिया प्रीणयते भृशम् । द्विरेफाणां महावृन्दैर्वषतां च विराषतः
॥ २२२२॥ समग्रोद्यानसारोत्र समाकृष्येव योजितः । इयती च क्षतिद्वै डयतां पक्षिगां कल
||२२२३॥ अलिगुजारवश्वात्र लोककोलाहलेऽमिलत् । उद्याने च वरे तस्मिन् श्वेताम्यो विनिष्कमत ॥ २२२४॥ विमानमिव सूर्यस्य शोभनं देवमन्दिरम् । चाकचिक्यकरं चारु जातं मे दृष्टिगोचरम्
॥ २२२५॥ उत्कीर्णैः शिल्पिभिः काष्टशतस्तम्भैः सुमण्डितम् । विलोकितं मया भव्य दिव्यतेजोऽतिभासुरम् ॥ २२२६ ॥ तदङ्गणे जसच्छ्राद्वैर्यात्रिकैश्चन्दनादिभिः । पूजितोऽम्बरखण्डैश्च भूषितो वटपादपः
॥ २२२७॥ पभव बहुवाखामिविस्तृतो विगणाश्रितः । सदा रम्याकृतिहारी छायामण्डलराजिता
।। २२२८ ।।
来来来来来来来来来要以系密密地克毫家都来来来
For Private And Personlige Only
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवरंगवती
कथा
॥ ८९ ॥
www.bobatirth.org.
आदौ प्रदक्षिणाsकारि मन्दिरस्य मया ततः । स्थितः पवित्रवृक्षस्य तस्याऽधस्तादहं मुदा मृदुपर्णाश्च तच्छाखाः परितो विस्तृता भृशम् । चुर्ति प्रसारयन्ति स्म दिगन्तेषु सदा पराम् तत्र स्थितं जनं कश्चिदपृच्छं नम्रया गिरा । अस्याऽऽरामस्य कि नाम कस्यात्र प्रतिमा वरा बहुस्थानानि दृष्टानि मया कापि कदापि नो । उद्यानमीदृशं दृष्टं मव्यसम्पद् विराजितम् विदेशिनं स विज्ञाय सद्यः प्रोवाच मां प्रति । शकटमुखनामाऽयमारामो लोकविश्रुतः
१ सकलपुर प्रधाना पूर्विनीताभिधाना, तदनु पुरि तमानं वै पुरं श्रीविशाकम् ।
शकट मुखसुनाम्नोद्यानमीशानकोणे, विहृतिवसत एतः श्रीप्रभुर्नाभिजन्मा ॥ १ ॥ वटनरुतलदेशं प्राप्य वासं प्रचक्रे, कठिनमतितपोऽसावष्टमं नाम तेपे । तिथिरसितदलीया फाल्गुनैकादशीया, भमपि किल तदासीदुत्तराषाढनाम ॥ २ ॥ प्रथम दिवस भागे चोज्ज्वलध्यानभाजः, त्रिभुवनमुपकर्तुः स्वामिनो नाभिसूनोः । प्रगटतमथ लोकालोकसत्यप्रकाश, निरवधिदृढदिव्यं केवलज्ञानमासीत् ॥ १ ॥ शुभकरसमयेऽस्मिन्निन्द्रसिंहासनं तत्, प्रचलितमिति जैनज्ञानमाहात्म्यतोऽभूत् । अवधिवत इन्द्रो ज्ञाततत्सर्ववृत्त:, हृदि बहु मुमुदे तत्सर्वहर्षे कहेतुः ॥ ४ ॥
For Private And Personal Use Only
।। २२२९ ॥
।। २२३० ॥
२२३१ ।।
॥
२२३२ ॥
॥ २२३३ ॥
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
॥। ८९ ।।
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobatrih.org
इक्ष्वाकुराजवृषभो वृषभोपमो यः, चूडामणिनिजकुलोद्भवमानवानाम् । शौर्यादिसद्गुणकदम्पकराजमानो, लीलालसन्समभवदू वृषभः क्षितीशः
॥ २२३४॥ सुमङ्गला सुनन्दा च प्रिये तस्य वमूवतुः । तथाऽजापानका पुत्रा जजिरे भरतादयः
॥ २२३५ ॥ हिमाचलं समारम्य सागरान्तमहीपतिः । जन्ममृत्युविमुक्यर्थ स यदा त्यक्तवैभवः
॥ २२३६॥ तपस्तेपे तदैतस्य वृक्षस्याधः स्थितोऽमलम् । अनन्तं केवलज्ञानमक्षयं च समासदत
॥ २२३७॥ तेन स्थानमिदं पुण्यमुत्तमं चामवद् भुवि । अतएवाऽधुनाऽप्येतत् पूज्यते भावतो जनैः
॥ २२३८॥ तुङ्गेऽस्मिन देवभवने तस्यैवाऽदिजिनेशितुः । मूर्तिः प्रतिष्ठिता भव्या भवतारणनौरिव ॥ २२३९ ॥ निशम्यैवं मयाप्येतद् वृक्षस्य वन्दनं कृतम् । युगादिदेवमृति च प्राणमं स्तुतिपूर्वकम्
॥ २२४०।। प्रथमं पृथिवीपालं प्रथमं मुनिपुङ्गवम् । प्रथमं तीर्थकर्तारं जिनेन्द्र तं स्तवीम्यहम्
॥ २२४१॥ " त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविषयं सालोकमालोकितं, साक्षाद् येन यथा स्वयं करतले रेखात्रयं साङ्गुलि । रागद्वेषभयामयान्तकजरालोलत्वलोभादयो, नालं यत्पदलवनाय स महादेवो मया वन्द्यते । ॥२२४२ ॥ यः स्मर्यते सर्वमुनीन्द्रवृन्दर्यः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रैः । यो गीयते वेदपुराणशास्त्रैः स देवदेवो हृदये ममास्ताम्।। २२४३ ।। यो दर्शनज्ञानसुखस्वभावः समस्त संसारविकारबाह्यः । समाधिगम्यः परमात्मसंज्ञः स देवदेवो हृदये ममास्ताम्।। २२४४ ।।
RRRRRRRRRRRRRRRRRRR)
For Private And Personal Loe Only
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवरंगवती कथा
॥ ९० ॥
www.khatirth.org
निषदले यो भवदुःखजालं निरीक्षते यो जगदन्तरालम् । योऽन्तर्गत योगिभिरक्षणीयः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ २२४५॥
॥ २२४६ ॥
" ऐन्द्रश्रेणिनता प्रतापभवनं भव्याङ्गिनेत्राऽमृतं सिद्धान्तोपनिषद्विचार चतुरैः प्रीत्या प्रमाणीकता । मूर्त्तिः स्फुर्त्तिमती सदा विजयते जैनेश्वरी विस्फुरन्मोहोन्मादधन प्रमादमदिरा मत्तैरनालोकिता " किं कर्पूरमयी सुधारसमयी पीयूषतेजोमयी, कि चूर्णीकृत चन्द्रमण्डलमयी कि भद्रलक्ष्मीमयी । fit essaदमयी कपारसमयी कि साघुमुद्रामयी, अन्तर्मे हृदि नामूर्त्तिरमला नाग्भावि किं किं मथि ||२२४७ | धन्या दृष्टिरियं यया विमलया दृष्टो भवान् प्रत्यहं धन्यासौ रसना यया स्तुतिपथं नीतो जगद्वत्सलः । धन्यं कर्णयुगं वचोऽमृतरसः फोतो मुदा येन ते, धन्यं हृत् सततं च येन विशदस्त्वनाममन्त्रो धृतः ये मूर्ति तव पश्यतः शुभमयीं ते लोचने लोचने, या ते वक्ति गुणावलीं निरुपमां सा भारती भारती । या ते न्यश्चति पादयोर्वस्दयोः सा कन्धरा कन्धरा, यचे ध्यायति नाथ ! वृत्तमनधं तन्मानसं मानसम् " || २२४९ ॥
।। २२४८ ।।
।। २२५० ।।
स्तुत्वेति बहिरागत्याऽऽरामशोभां व्यलोकयम् । तावदशोकवृक्षस्य तले निलमानसः पद्मासन स्थितः कोऽपि मुनिर्ध्यानपरायणः । मया दृष्टः स्वनासाग्रदृष्टिः शान्तिमयः शुभः वशीकृतेन्द्रियग्रामः सर्वसंकल्पवर्जितः । आत्मसंयमलीनात्मा मव्यकान्तिविराजितः विनिर्यदुरुतेजसा शमित दुर्मनश्रेष्टितः स्वजातिरिपुता त्यजद्वनचरैरलं वेष्टितः ।
For Private And Personal Use Only
।। २२५१ ॥ ।। २२५२ ।।
38XXX
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
॥ ९० ॥
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahisvir Jain ArachanaKendra
Achanh
sagan Gyaan
॥ २२५३ ॥
॥२२५४॥ ॥ २२५५॥ ॥ २२५६॥ ॥ २२५७॥
प्रभावनिरुपद्रवः स्वसुखमन ईहां विना, स्वभावमघुरो मुनिवरदः एव मेधाविनाम् मन उदयति नो चेत् क स्पृहाया विकाशः, भवति विषयमाजामिन्द्रियाणां विनाशः ।
स हि भवति महात्मा यत्र तत्राऽपि तिष्ठन्, स्वपरसुखविधाता निर्मनाः स स्वतन्या तत्र गत्वाऽहमानम्य नष्टसर्वकुवासनम् । तं मुनि पूज्यभावेन विहिवाञ्जलिरबत्रम् रागद्वेषौ विभो ! जेतुं धनमोहजिगिषया । पापवृत्तिनिवृत्त्यर्थमिच्छामि शरणं तव शिष्यं तदधुनवाऽत्र शाधि मां च यथाविधि । जन्ममृत्युग्रहग्रस्त भवाब्धिं तर्तुमुत्सुकम् विषयविषयमाली दीप्तदुलिया यो मधुमयमृदुमोहर्बद्ध आदह्यते हा!। भयविधुरितचेता मार्गयस्तत्र रक्षा, गुरुचरणमुपेतो धन्य धर्म शृणोति" मनःश्रावसुधां वाचमनदत सोऽनुकम्पया । यावजीवं मुनेधर्मभारोऽतिदुर्बहो नृणाम् अंसयोरुह्यते भारो मस्तके च सुखं जनैः । धारणं धर्ममारस्थ दुष्करं मन्यते बुधैः । "धर्मस्य फलमिच्छन्ति धर्म नेच्छन्ति मानवाः । फल पापस्थ नेच्छन्ति पापं कुर्वन्धि सादराः मयोक्तं मुनिशार्दूल ! जनो निश्चिनुवाद् यदि । आनन्दशुद्धिलाभाय तर्हि किन्त्वस्थ दुष्करम् गृहस्थाश्रममृत्सृज्य मुनीनां नियमे मनः । कृतमस्ति यतस्तेन विना दुःखं न शाम्यति
XXXIIXXXREEEEEEERERRRRENDI
॥ २२५८॥ ॥ २२५९॥ ॥ २२६०॥ ॥ २२६१ ॥ ॥ २२६२॥ ॥२२६३॥
For Private And Personlige Only
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahiyeJain AradhanaKendra
Achh
aun Gym
3.
थीवरंगवती
कया
॥९१॥
ततो मे साधुना तेन जन्ममृत्युभयच्छिदा । आमोद्धारकरी दीक्षा प्रदत्ता मोक्षदायिनी
॥ २२६४ ॥ गतभवकृतभूयस्त्यागवैराग्यबीजात, इह भवभवदुरबानसम्यक्प्रकाशात् । भवमविगुरुराजप्राप्तकारुण्यशिक्षा, उपशमगुणभाजा किं विधत्ते न दीक्षा
॥ २२६५॥ वीतरागोदितः साधुधर्मः स निर्मलः स्मृतः । कामक्रोधारिसंहर्ता पश्चमहावतात्मकः
॥ २२६६॥ श्रमणप्रतिबोधसंस्कृतान् स्थविराम्नातमुनिक्रियाविधीन् । गुरुराजमुखश्रुतानहं हृदये स्थापितवान् विवेकतः ॥ २२६७ ॥ ततस्तस्य रहस्य सविनयः सुष्ठु भाषणम् । प्रतिक्रमणमाचार: प्रत्यारूपानादिकं तथा
॥ २२६८॥ यथाविधि को छत्वा गुरुणाई सुशिक्षितः । ततो जैनागमाम्यासो विदितः क्रमतो मया
॥ २२६९॥ प्रथमं तेषु पदवियत प्रथितान्युत्तराख्यया । ब्रह्मचर्यादि धर्मायाऽध्ययनान्यपठं गुरोः
॥ २२७०॥ अथाऽऽचारजपत्राणां नवाप्यध्ययनानि वै । मुक्तिमार्गप्रबोधाय क्रमेणापठिषं मुनेः
॥ २२७१ ॥ ततः सूत्रकृदाकं च स्थानाङ्गसमवायकम् । शास्त्राण्येतान्यधीतानि सविधि स्थिरया मया ॥ २२७२ ॥ ततः कालिकसूत्राणि ग्रन्याश्चास्गगता अपि । अधीताः पूर्वसिद्धान्ताः स्फुटमेकैकशो मया ॥ २२७३ ॥ नवपूर्वाः सुविस्तीर्णा लब्धा दृष्टिप्रकाशकाः । सापेक्षाश्च मिथो द्रव्यगुणभावविशेषकाः
॥ २२७४ ॥ तेनैव जगतस्तत्वं जनिस्थितिव्ययात्मकम् । विज्ञातं सकलं कि नो ज्ञायते ज्ञानतोत्र वै
॥ २२७५॥
東術前術前術開開開開開開開開開
॥९
॥
For Private And Personlige Only
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
Achh
aun Gym
॥२२७६॥ ॥ २२७७॥ ॥ २२७८॥
REXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
इत्थं द्वादशवर्षाणि संसारमोहनाशने । व्यतीतानि समाङ्खानामभ्यासकरणे तथा सम्यगज्ञानयमाभ्यां हि कुर्वे यत्नमहनिशम् । निःश्रेयसाय सोत्साहमहत्सन्दर्शितेऽध्वनि भव्येभ्यो मानवेभ्योऽपि धर्म सर्वार्थसिद्धिदम् । दिशन श्रेष्ठतम समौ पर्यटामि निरन्तरम्
"संसारत्याग-आत्मसाधना च"॥ खेदोत्पत्तिकरोऽस्माभिर्वृचान्तोऽयं यदा श्रुतः । पूर्व सोढं तदा दुःखं कृत्स्नं नवमजायत तदानीं साऽश्रुनेत्राभ्यां वीक्षितं च परस्परम् । अमृतो चविषेवेति साधुः साचर्यमीक्षितः पापीयानप्ययं पूर्व व्रतेन क्षीणकल्मषः । तस्मादःखग्रहाणाय नूनं कार्य तपोऽधुना अनुभूतानि दुःखानि चाऽस्माकं स्मृतिमाययुः । स्नेहक्रीडाविलासेषु विरागोऽभूद् यथा विषे सम्यक्रियाविधानेन पवित्रचेतसो मुनेः । तस्य पादम्बुजद्वन्द्व सद्भक्त्या पतिता वयम् पुनरुत्थाय संयोज्य हस्तौ मालस्थले ततः । प्राणत्राणकरः पूर्वमथो मित्रं न्यगादि सः यचक्रवाकयोयुग्ममुद्धतं स्तेनकन्दरात । त्वया मानुष्यके धीमॅस्तदावा स्वयमेव हि । यथा समर्पिताः प्राणांस्तथैव दुःखतोऽधुना । मोक्षदोऽपि भवाऽमाकं त्वमेव शरणार्थिनाम् मृत्युदुःखं च यत्राऽहर्निशमावर्तते मुहुः । संबन्धशृङ्खलारूपो भवोऽस्माँस्तापयत्यलम्
॥ २२७९॥ ॥ २२८०॥ ॥ २२८१ ॥ ॥ २२८२॥ ॥ २२८३ ।। ॥ २२८४॥ ॥ २२८५॥ ॥ २२८६ ॥ ॥ २२८७॥
多彩塞塞塞塞塞量集第塞車来来来来来来来赚
For Private And Personlige Only
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवरंगवती कथा
।। ९२ ।।
www.khatirth.org
मुमुक्षा वर्ततेऽस्माकं सर्वथा भवतारिणी । तीर्थकुदर्शितं मार्गमावां नय दयामय ! साधुत्वे निरवद्यं च शासनं यदनेकधा । आवयोः शम्बलं भूयाद्यात्रार्थं व्रजतोहि तत् संयमी सोदच्छान्तो यो धर्म कुरुतेऽनिशम् । सोऽवश्यं सर्वदुःखेभ्यो मुच्यते नैव संशयः पुनर्जन्मादि दुःखानि भवान्वों विविधानि चेत् । पीडयन्ति सदा युष्माँस्तर्हि स्वार्थ विमुचत मोक्षदां च तपश्चर्या समाचरत संततम् । व्रतादेव नरा लोकद्वये सिद्धि भजन्ति दि जानात्येव जनश्चैतन्मृत्युर्वै प्राणिनां ध्रुवम् । कदाऽऽगमिष्यतीत्येवं नैव वेत्ति विमूढधीः तस्माद्यावत् स नायाति तावद्धमं समाचरेत् । गर्जत्यस्मिन् समायाते तपश्चर्या न सिद्ध्यति यावत्स्वास्थ्यं शरीरस्य यावच्चेन्द्रियपाटवम् । तावदेही विमुक्त्यर्थमुद्योगं कर्तुमीश्वरः जीवित चञ्चलं लोके नैकविभृतं च तत् । तद्विश्वासो न कर्तव्यो धर्मः कार्योऽविलम्बतः न दुःखं न च मृत्युश्चेत् धर्मोपेक्षा तदा वरम् । मृत्युप्राप्तिरवश्यं चेत् तदाऽऽलस्यं क्षतिप्रदम् तस्मात्स्त्रस्थं शरीरं स्पशच्छक्तिश्चास्खलिता भवेत् । तावदात्मोद्धृतेः कार्य विधातव्यं मनीषिभिः तेनैव जन्मसाफल्यं जायते हि शरीरिणाम् । धर्महीना महीपृष्ठे चरन्ति पशु सम्मिताः निशम्येति मुनेर्वाचः संसारक्षोभकारकः । नातोऽस्माकं पवित्रं च जीवनं कर्तुमुद्यतो
For Private And Personal Use Only
।। २२८८ ।।
।। २२८९ ।।
।। २२९० ।। ।। २२९१ ।।
।। २२९२ ॥
॥ २२९३ ।। ।। २२९४ ॥
।। २२९५ ।।
।। २२९६ ॥
।। २२९७ ॥ ।। २२९८ ।।
॥ २२९९ ॥ ॥ २३०० ॥
Acharya Shri Kassagarsun Gyanmandir
9881
१९२ ॥
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArachanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
LAKekkkkkkkKAKKAKKEKEKEKKR
तस्मात्तत्राऽस्मदीयानि भूषणानि निजाङ्गतः । समुत्तार्य प्रदत्तानि दासीभ्योऽस्माभिरस्पृहै। ताश्चैवं गदिताः पश्चाद् गत्वाऽस्मपितृसन्निधौ । अलङ्कारानिमान दत्वा कथनीयमिदं वचः । तावुभौ जगतो दुःखान्मुहुश्च जन्ममृत्युतः । समुद्विग्नतरी जातो मोधर्मपरायणौ असारं खलु संसार विदित्वाऽऽत्मसुखपियो । तस्मादःखस्य हरिं धर्माऽधानं समाश्रितो अज्ञानाद्वा प्रमादाद्वाऽसदाचरणतस्तथा । यूयं विराधितास्तहिं वन्तव्यं कृपयैव तत् उदन्ते प्रसृते तस्मिन् दास्यो नव्यश्च विस्मिताः । धावन्त्योsरं समागत्य प्रणेमुमत्पतिक्रमौ प्रार्थयामासुरेनं च माऽस्मान मारय संश्रितान् । काश्चिदादाय पुष्पाणि चरणस्पर्शकाम्पया मत्पत्युः पादयो. प्रेम्णा व्याकिरन मूढचेतसः । ज्ञात्वैवाऽपातयन् हस्तात साशुनेत्रास्ततोऽवदन प्रमोदाज्जीवनं स्वीयं वहन्त्यो गुप्त कामनाः । भवदालिङ्गानाशातो जीवामः सुखतो वयम् अस्माकमधुना वाञ्च्छा मूलच्छिन्ना तथाऽपि नो । त्वदीयदर्शनेनैव मनःसन्तोषमेष्यति सितपद्मनिभश्चन्द्रो यदि नो स्पृश्यते जनः। शुद्ध तथापि तद्विम्यं दृष्ट्वा कोज न मोदते ! तस्मादत्रैव तिष्ठ स्वं समाधि स्वे गृहे कुरु । इत्युदीर्य रुदन्त्यस्ता बहुधा तं न्यवारयत अनावृत्यैव मत्स्वामी तत्सर्व बन्धकारकम् । अस्पृष्टो विमुखीभूय चश्व मुनिसंमुखः
॥ २३०१॥ ॥ २३०२॥ ॥ २३०३ ॥ ॥ २३०४॥ ॥ २३०५॥ ॥२३०६॥ ॥ २३०७॥ 1॥२३०८॥ ।। २३०९ ॥ ॥ २३१०॥ ॥ २३११ ॥ ॥ २३१२॥ ॥२३१३॥
ERE ISORRIEROXESISEXEYE
For Private And Personlige Only
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achnath Ka
Gyan
मीवरंगवती
कथा
REKKAKKKXXKAXCXEKA
संसाराद्विरतीभ्य साधुजीवनवाच्छया । स्वयमेतेन सर्वेऽपि केशा मोदेन लुशिताः
॥ २३१४॥ मयाऽपि मामकाः सर्वे केशा निमजिताः क्षणाद । ततोऽहं स्वामिना साकं प्राणमं चरणो मुनेः ॥ २३१५॥ प्रार्थना च ततोऽकारि गुरो ! दुःखाद् विमोचय । उदारमानसा सन्तो भवन्ति हितकारिक्षणः ॥२३१६ ॥ अथोवाच मुनिस्तत्र सम्यक्त्वादिस्वरूपकम् । भावशुद्धिकरं सद्यस्तरबोधमनुत्तरम्
॥२३१७॥ यो देवत्वं मन्यते देवदेवे, यो धर्मत्वं मन्यते शुद्धधर्मे । यो जानीते सद्गुरौ वै गुरुत्वं, सम्यक्त्वैतव कीर्त्यते बुद्धिमद्भिः॥२३१८॥ एतस्माद् विपरीतं यो मन्यते मूढमानसः । स मिथ्यात्वमतिज्ञेयोऽनन्तसंसारवेदक:
॥ २३१९॥ सामायिक व्रत पूर्व छेदोपस्थापनं ततः । परिहारविशुद्धयाख्यं तृतीयं सम्प्रकीर्चितम्
॥ २३२०॥ स्यात्यक्ष्मसंपरायं च यथाख्यातं च पश्चमम् । पञ्चैतान्येव मोक्षाय चारित्राणि विदुर्बुधाः ॥ २३२१ ।। अणुवतानि पक्षेत्र त्रीणि गुणवनानि च । शिक्षात्रतानि चत्वारि क्रमतो मुक्तिदानि वै
॥ २३२२॥ महावतानां पञ्चाना यो भार बोढुमझमः । बतानि सर्वदा तस्प द्वादश सिद्धिदानि हि
॥ २३२३ ।। महावतं महाधीराः स्वीकुर्वन्ति नरोत्तमाः । श्रुतमात्रा अधिरास्तु नश्यन्ति कोष्टुवत् चतः ॥ २३२४॥ महाव्रती धोरमनाः प्रतीयते. सामायिकस्यश्रुतधर्मदेशकः । भिक्षकजीवी सुखदुःखयोः समो भवेद्धि जैनव्रतदीक्षितो मुनिः॥ "धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः । सत्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थदेशको गुरुरुच्यते
॥२३२६ ॥
BES8666XXXXXXXXXXXXXXXX382
For Private And Personlige Only
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
महावतघरा घीरा भैक्षमात्रोपजीविनः । सामायिकस्याः धर्मोपदेशका गुरवो मताः द्रव्यचारित्रमस्त्येव भावचारित्रकारणम् । भावचारित्रतो मोक्षं भव्यात्मा लभते ध्रुवम् संसारसागरोचारे चारित्रं तरणीयते । मुनयः संवदन्त्येवं सर्वतार्थवेदिनः " चारित्ररत्नाभ परं हि रत्नं तदर्थमेव प्रकरोतु यत्नम् । चारित्रलाभान परो हि लाभः स्वश्रेयसी यस्य फलेति लामः ॥ ३ ॥ ततस्तेन पुनः प्रोक्तं व्रतं सामायिकाऽभिधम् । गृहीतं च तदावाम्यां व्रतिनां शुभकारकम्
।। २३२७ ॥ 11 2 11 ॥ २ ॥
118 11
" मोक्षस्य सामायिकमङ्गमस्ति, श्रेष्ठं च तच्छ्री जिनभाषितत्वात् । वास्यां तथा चन्दन एकभावाः, सामायिकस्येष्टफलं लभन्ते ।। समानता यत्र च भूतमात्रे सत्संयमः स्याच्छुमभावना च । रौद्रार्चहानं शुचिधर्मशुक्लध्यानं च सामायिकमाहुरार्याः ॥ ६ ॥ अनुष्ठितौ यत्र समग्रकर्म - त्यागस्तथैवाऽशुभभावरोषः । मुहूर्तमात्रं समताऽपि तां वै सामायिकं शास्त्रकृतो वदन्ति ॥ ७ ॥ ये गमिष्यन्ति गच्छन्ति गता वा मोक्षमन्दिरम् । ते सामायिक महात्म्यादेवेति च विजानत द्विधा चतुर्धा पुनरधा च विशेषतचद्गुणसंगतस्तत् । सामायिकाराधन तस्तथाऽऽत्मा भवत्यकर्मेति सतां विचारः ॥ ९ ॥
॥ ८ ॥
66
'कुर्वेहं भगवन ! समस्यविरतिं ' सामायिकं ते पुरः, प्रत्याख्यामि समस्तजीवनमहं सावद्ययोगं तथा ।
तो वातनुभिर्न चैव विदधे नो कारये वा परैः कुर्वन्तं त्वनुमोदयेन भगवन् ! तच त्रिधाऽपि त्रिधा ॥ १० ॥ तत्सर्वं च प्रतिक्रमामि भगवन् ! निन्दामि गर्हामि च एवं नम्रगिरा च भावततया वक्तव्यमग्रे गुरोः ।
For Private And Personal Use Only
粥泡泡
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya hasarten Gym
भीतरंगवती
कथा ॥९४॥
तत्सर्व व्रतमुख्यमस्ति गदितं 'सामायिकाख्यं । व्रतं, तस्माद्धे भविकाः ! समाचरत तद् येन स्वमुक्ति(वा" ॥११॥ प्रतिज्ञा चेदृशी तत्र स्वीकर्तव्याऽस्ति साधुमिः । पुण्यात्मन् ! पालयिष्यामि सर्वथा विरतिक्रमम् ॥ १२॥ यावजीवं व्रतस्थोऽहं सदा त्यक्ष्याम्पसत्क्रियाः । धर्मशास्त्रे निषिद्धा यास्ताः सर्वाः सर्वथा जने
॥ १३॥ मनोवाकायतः क्वापि न करिष्ये स्वयं सदा । असत्कर्माणि नो चान्यैः कारयिष्ये कदाप्यहम् ॥१४॥ कुर्वन्तं नानुमंस्ये च कर्माण्येतानि सुष्ठिति । एतादृसर्वकर्मम्यो दूरं स्थास्यामि सद्गुरो!" इदं व्रतमृजुत्वेन पाल्यते चेद् यथाविधि । तदा मोक्षसुखं भव्यैः पाप्यते सुखतः किल गृहीतेऽस्मिन् व्रते हिंसा-मृषास्तेयरतानि च । परिग्रहो निशाऽऽहारश्चेतेम्पो विरमाम्पहम् भवपाथोधिखिन्नाम्पामाधाम्यां च मुमुक्षया । एतद्वतप्रतिवं यावज्जीवं च जगृहे
॥१८॥ देहजीवनमृत्यूनां स्वार्थत्यागप्रदर्शकाः । उत्तरगुणकाश्चाङ्गीकृताः स्वात्मविशुद्धये समितयस्तपःपिण्डविशुद्धिभावना अपि । प्रतिमाऽभिग्रहश्चैते धुत्तरगुणकाः स्मृताः
॥२०॥ महावतानां पञ्चानां प्रत्येकं पञ्चभावनाः । विज्ञापिता मुनीन्द्रेण सम्पन् तचार्थनिश्चयात
॥ २१ ॥ पुनः पुनस्तदर्थस्य चेतसि स्वे विचारणात् । चारित्रं निर्मल कर्ममालिन्यक्षालनं भवेत
॥ २२॥ किङ्करम्यस्ततः श्रुत्वा वृत्तान्तमिदमंजसा । क्योः पितरो तत्र द्रष्टुकामौ समागतो
॥ २३॥
For Private And Personale Only
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
अस्मदीक्षाप्रसङ्गेन वाला वृद्धास्तथा स्त्रियः । सरूपः सवयसाऽमित्रचेतसः स्नेहकातराः
॥ २४॥ उत्कचित्ताः प्रमोदाढ्याः सद्यस्तत्र समागमन् । एवं सम्बन्धिभिः सबिडजिज्ञासुभिस्तथा
॥ २५॥ विशालोप्येप आरामः संकीर्णोऽभूत् क्षणान्तरात् । संघटेन भृशं तेषामपीड्यन्त वपूंप्यपि
॥२६॥ मुखमूर्ध्वमयं चैतदुद्यानं समदृश्यत । व्रतानुरोधतस्पक्तभूषणौ नौ विलोक्य च
॥ २७॥ अस्मत्सम्बधिनः सर्षे व्यलपन्मुक्तकण्ठतः । पितरस्तु निरोक्ष्येतत्सय एवाऽहदन भृशम्
॥२८॥ तारस्वरैरतिस्नेहाद् वत्सला निजवालयोः । मदीयश्वसुरी तूर्ग हि जानन्तौ गुरुसंगतः
॥ २९॥ गर्भद्वारप्रवेशः पानविषमता स्रावसंकीर्णभाषः, सो पत्तौ स य विरसरसनता निःसहायप्रवृत्तिः । नानादुर्भावयोगो वयसि विषमता व्याधिदारिद्यपीडा, आशाभङ्गो जरायामनुचितमरणं संसृतौ कि सुखं तत् ॥ ३० ॥ तौ तस्माच्छोकवेगं स्वं, निरुध्य मां समूचतुः । निवारणाय मोहेन न तूपालम्भहेतवे । पुत्रि ! बाल्ये त्वयेदं कि साहसं विहितं हहा ! । कोमलाङ्या कथं साधुचारित्रं पालयिष्यते ! ॥३२॥ बुद्ध्या स्वास्थैर्यतः पापमिदानी नो भवेद्यथा । एतस्मिन् जोवने कष्टसाध्ये सिद्धिविधानके जीविताऽऽनन्दसौख्यानि भुक्ता भोग्यानि पालिके! । साधूनां चरित पश्चात् लया ग्राह्यं सुखेन वै। ॥ ३४॥ ततोऽहमवदं तात ! गेहिसौख्यं हिताय नो । क्षणिक विद्यते पश्चात् कटुकं च विजायते
॥ ३५॥
联军来来来来龙老电配套素慧宅宅电影史名宅宅配起来
For
And Persone
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir Jain ArachanaKendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
मीवरंगवती
कथा
SEXKAKKARXXXKKRKEE
सम्पकमात्रसुरसा हृदयंगमञ्च, नेत्रादितोषणपरा परिणामदुःखाः। विद्वज्जनेरतितरां ग्रहणे निषिद्धा दुर्भाग्यतस्तदिह मूढजनाः पतन्ति ॥
क्रोधाविला नियममात्रविरुद्धचित्ताः, मोहेन तद्ग्रहणलालसया परीताः । गच्छन्ति केऽपि नरकं रुजया हि मृत्वा, पश्चाच्च ते विकलतां परमा लभन्ते
॥ ३७॥ दुर्गन्धिदूषिततनुव्यथितस्वलोका आलोकना विकलभीष्मकुनेत्रचेष्टाः । वागव्याकुलाः खरतरत्वचयाऽतिनिन्या, हाहा ! अधर्मदलिता न सुखं लभन्ते
॥३८॥ मन्दाऽविमूढमतयो गतिहीनपादाः, स्वस्वानुकूलधनधान्यविवर्जिताश्च । आस्यादिरोगगतभोगविषण्णचित्ता भाग्यात कदापि दधते भुवि धर्मसंगम्
॥ ३९॥ धर्माय वाञ्छा यदि वः प्रकाममुपायवाञ्छो कुरुत सचित्ते । मुनेः प्रसादः प्रथमोऽस्त्युपायः स एव पुण्येन ददाति धर्मम् ॥४०॥ सोढव्यौ बन्धुवर्गस्य रागद्वेपारनेकधा । निर्वाणेन समं तस्मानान्यदस्ति सुखापहम् (साधनम् ) ॥४१॥ सर्वथा मानवधर्ममार्गः सेव्यः प्रयत्नतः । स एव मोक्षदो नित्यं भव्यानां मोक्षकाक्षिणाम्
॥४२॥ यावनो मृत्युरायाति तावद् धर्मों मनीषिभिः । समुपायं समस्तार्थजनको हितकाम्यया ।
॥ ४३ ॥ युग्मम् मपिता मां पुनः प्राह संसारोऽतिभयंकरः । दुःसाध्योऽस्ति ततः पाल्यो जैनधर्मः प्रयत्नतः
॥४४॥ जालेषु स्युः यथा स्तेनास् तथेन्द्रियाणि यौवने । तथापि भवपायोधि वरतं निर्भयं युवाम्
॥४५॥
SXXEXE8888888KXBAKREXXXXXX
For Private And Personlige Only
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahasranAnahanekendra
Acharya:shaKailassagarsunGyanmandir
॥ ४६॥ ॥४७॥ ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५०॥
योग्ययोयोग्यसंयोगो महामोइविधायकः । ततः सम्बन्धिभिः कलसमचारैः सचेतनौ अत्वा मच्छ्वसुरौ सद्यः प्रोचतुः स्वामिनं मम । पुत्रदै शिक्षित केन नाऽस्मत्संगोऽस्ति किं प्रियः ? किं च ते पतितं दुःखं येन त्वं साधुतां पतः । वस्सलां मातरं मां च प्रिया च त्यक्तुमुद्यतः केवलाध्यात्मिका नैव धर्मकर्मरता अपि । संसारवासिनो धर्माल्लमन्ते स्वर्गसम्पदः संसारिणः पुरा भव्या भव्यकर्मविधायकाः । बहवः सिद्धिसम्पमाः श्रयन्ते जैनशासने संसारे रमणीरत्नमिति लोके निगद्यते । अप्सरोमिः समानाश्च वर्तन्ते ता गृहे तब संसारे भोगप्तिस्ते, 'यदा स्वाद्विरतेस्तदा ।। सेव्यः पन्थाः प्रसबेन त्वया निःश्रेयसार्थिना प्रमतां धनसम्पत्ति रम्यां श्रेष्ठिसुतामिमाम् । अस्मामपि परित्यज्य गन्तुं शक्तः कथं सुत ! इदानीमपि वर्षाणि कानिचिद्वै गृहाश्रमे । स्थित्वा भोगविलासानामानन्द मुश्व शोभन । पश्चातीवव्रतावस्थामवाप्यत् सुखतोऽङ्गज ! । मौन व्रतं प्रपद्येथा नाय कालो व्रतस्य ते "प्रेष्ठिसूनुर्दृढस्वान्तो दृष्टान्तैर्विविधैर्निजम् । पितरं विलपन्तं तं प्रत्युवाचेति युक्तितः" "कोशकीटो यथा मुग्धः स्वोपभोगाय निर्मिते । व्याकुलः सनिजे कोषे म्रियते स्वयमेव हि तथैवाजानतो मूढः पुरुषो भोगतृष्णया । रमणी मोहितोज्नेकदुःखानि लमतेऽवशः
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥५३॥ ॥ ५४॥
॥ ५७॥ ॥५८॥
For Private And Personlige Only
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
Achchan Gyan
मौतरंगवती
॥ ५९॥
॥ ६२॥
रक्तस्तडिच्चले रूपे विषयकण्टकाऽऽव॒ते । दुस्तरे भवकान्तारपथे भ्राम्यति मूढवत स्त्रीवियोगाद् यथा दुःख जायते देहिनस्तथा । तत्संयोगेऽपि शं नैव जायते मुग्धचेतसः ____भवे योगतः प्राप्तसंगोत्यदुःखोविरामे स्पृहावान् सलोनिबद्धः।
महादुःखमध्येऽपि सौख्याऽऽशयाऽसौ, भवे दून दूनो न संयोग इष्टः धनान्यपि मनुष्याणां केवलं दुःखदानि हि । अर्जने रक्षणे दुःखं नाशोऽपि दुःखमेव च धनं भवति दुर्लभं तदपि नाशवद् वर्तते, करोति धनिनां धनं निधनमेव चोरादिभिः । ततोऽपि वरमद्भुतं स्वानयाश्च संशेरते, धनी भवति मोहतोऽहिमवगो धनं गर्हितम् माता पिता तथा भ्राता भार्याऽपत्यानि किङ्कराः । सम्बन्धिनश्च सर्वेऽपि रोधका मोक्षवर्मनि यात्रायां मीलिता लोका यथेच्छन्ति सहस्थितिम् । प्रवासदुःखमाजश्च व्रजन्ति सममेव वै भये तु ते पृथग्भूय कान्दिशीका: प्रयान्ति हि । तथा सम्बन्धिनः सर्वे भवेऽस्मिन् स्नेहबन्धनात सुखदुःखोपभोगाप मिथः साहाय्यहेतवे । मिलित्वाऽपि वियुज्यन्ते देहस्यान्ते बहिर्गताः
व्यसनमुपगता ये दूरमस्मात् प्रयातुं, स्वमित्र परजनं ते शोधयन्ति प्रयासात् । मिलितशुचिसहाया मोदमाना भवन्ति, मवति हि गुणिसंगोऽल्पोऽपि भ्रमात्र लोके
建起宏第老老老老老老老老老老长
॥६७॥
॥१८॥
1९६॥
For Private And Personlige Only
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Achh
aun Gym
本来案率来来来来来来来然来来来来来来来来来来来来
निर्वाणं न विना तेन प्राप्यते केनचित्खलु । निश्वित्यैवं सदा शीघ्रं सुधीर्मृत्युसमाक्रमात
॥ ६९॥ प्रागेव विजिताक्षः सन् ज्ञातसारो विवेकतः । कर्तव्यं साधयेत्कार्य निर्वाणाऽध्यप्रदीपकम्
॥ ७० ॥ विवेकनेत्रयुक्तेन मोक्षमार्ग यियासुना । सुखाय सर्वथा हेयो दुष्टसंगोऽतिदुःखदः
॥७१॥ यदि भवति विवेको मुक्तिमार्गोपकर्ता, किमिह गमनभङ्गं. दुष्टसंङ्गो विधाता
॥७२॥ इति मनसि न धार्य दुष्टसंगे विवेको-विलपमयति तस्माद्दष्टसंगो हि हेयः
॥७३॥ " कियद्वर्षाणि तिष्ठ वं" जीवितानन्दवाञ्छया ।। इति ते वचनं ' मोहग्रस्त मे माति केवलम् ॥७४ ॥
"स्वार्थों यः परमार्थ इत्यभिषया शास्त्रषु संपते, तत्सम्पक परिबोधनाय समयं दत्ते न यो दुस्त्यजः।
संसारममूलमस्ति विश्या-पत्राणि दुःखं फलं, तन्मोहान्धकृति-र्यया न यतते धर्माप कश्चित्सुमान " ॥७५ ॥ " मिथ्यात्वाऽसंयतानां निरनुभववतां स्वेतरे स्वत्वबुद्धिः, सौख्यभ्रान्तिस्वभावो भवति जगति यः सैव मोहः सदुक्तः । लोकोद्भुते सुखे यत्सुखमिति मनुतेऽन्तश्च मिथ्यात्वमस्ति, यन्मे मे समेतद्वदति स महिमा मोइराजस्य मन्ये " ॥ ७६ ॥ यतः संसारवासोऽयमनित्यः प्राणिनां खलु । जीवनं संकिपञ्चेति निर्णतुं नैव शक्यते
॥७ ॥ संसारखासः किल दुःखमिश्राः सुखं तु तस्मिन् क्वचिदेव किंचित् ।
नित्यः स चेद् हन्त सुदुःखितानां श्रमापनोदो न कदापि भावी " यतः-" दुःखं स्त्रीकुक्षिमध्ये प्रथममिह भवे गर्भवासे नराणां, बालवे चापि दुःखं मजमलिनतनुः स्त्रोपपासानमित्रम् ।
EXKAKOBXXXXXXXXXXXXXXX
For Private And Personlige Only
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवरंगवती कथा
॥ ९७ ॥
28808/
www.kobatirth.org
॥ ८० ॥
तारुण्ये चापि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोऽप्यसारः, संसारे रे! मनुष्या? वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किंचित्" ॥ ७९ ॥ मृत्योर्वारयितुं कोsपि शक्नोत्याज्ञां न मानवः । तस्माद्यावत्स नायाति तावद् ग्राह्यं व्रतोत्तमम् स्वकर्मपाकेन परिस्थितिवेत् विवर्तते साधनसंश्रितानाम् । न जातु मुक्तेरभिलाषयाऽस्यां त्यजन्ति हृत्स्वीकृतसाधनं ते ॥ आत्माऽस्ति नित्यः कुरुते प्रयासं पवेत्कदाचिद्विमतं शरीरम् । अन्यत्र जन्मन्यपि तत्त्रपत्स्येत् स्थान्मूर्खात ङ्गीकृतमोचनेन " | एवमादि वचवृन्दैः पितरौ बान्धवास्तथा । पश्चाद्वालयितुं श्रेष्ठिसूनुः स समबोधयत् बालमित्राणि येऽप्यासन् स्नेहपाशवशं गताः । तेऽपि विज्ञापितास्तेन गमनाय स्वसद्मनि पुत्रे चातिममत्वेन श्रेष्ठ नारुचद्गमः । व्रतवैमुख्यवार्ता च तदुक्ता नौ च नारुचत् यतः साधुत्रतेच्छा नौ पालने सुदृढाऽभवत् । तेन पार्श्वस्थिता लोकाः कथयामासुरीदृशम् निजेच्छासदृशं चैतौ साधयेतां निजात्मनः । कश्याणं जन्ममृत्युभ्यां पीड्यते वस्तुतो यतः " संसारविमुखं यश्च तपश्चरणसम्मुखम् । निवारयेत्सम् नो मित्रं शत्रुरेवाऽभिधीयते प्रकृतिरिहनिवस्तुं प्रेरयेत्येव नित्यं कृतमिह तु हितं किं यत्तचैव प्रयोक्त्रा । भवजलनिधिकूलाःखमूलादपेतुं कथयति सहमित्रं शत्रवः सन्ति चान्ये " इति लोकोपदेशेन स्वीकृताऽस्मद् गिराबलात्। श्रेष्ठिनाऽनिच्छताप्याऽऽज्ञा दत्ता चारित्रकर्मणि
For Private And Personal Use Only
॥ ८३ ॥
॥ ८४ ॥
॥ ८५ ॥
॥ ८६ ॥
॥ ८७ ॥ 1162 11
॥ ८९ ॥
1180 11
Acharya Shri Kasagarsun Gyanmandir
॥ ९७ ॥
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.bobatirth.org.
ततः स प्राह “भो ! पुत्रौ ! युवां संयमपालने । तपोविधौ तथा तीव्रदुःखपारमवाप्नुताम् "
॥ ९१ ॥
॥ ९३ ॥
" तीव्रस्य दुःखस्य तु पारमेतुं स्वसंयमो वा तप आदरो वा । कृत्वा द्वयं सीदति नैव कश्चित्सतां स मान्यः प्रथमो विपश्चित् " ॥ यथा " यत्पूर्वार्जितकर्मशैलकुलिशं यत्कामदावानल - ज्वालाजालजलं यदुग्रकरणग्रामाऽहिमन्त्राक्षरम् । यत्प्रत्यूहतमः समूहदिवसं यल्लब्धिलक्ष्मीलता - मूलं तद्विविधं यथाविधि तपः कुर्वीत वीतस्पृहः " " यस्माद्विघ्नपरंपरा विघटते दास्यं सुराः कुर्वते, कामः साम्यति दाम्यतीन्द्रियगणः कल्याणमुत्सर्पति । उन्मीलन्ति महर्द्धयः कलयति ध्वंसं च यः कर्मणां स्वाधीनं त्रिदिवं शिवं च भवति श्लाघ्यं तपस्तन्न किम् १ ॥ ९४ ॥ सन्तोषः स्थूलमूलः प्रशमपरिकरः स्कन्धबन्धप्रपञ्चः, पञ्चाक्षीरोषश्चाखः स्फुरदभयदलः शीलसम्पद प्रवालः । श्रद्धाम्मः परसेका द्विपुलकुल वलैश्वर्य सौन्दर्यभोगः, स्वर्गादिप्राप्तिपुष्पः शिवपदफलदः स्यात्तपः कल्पवृक्षः " ॥ ९५ ॥ " न नीचैर्जन्म स्यात् प्रभवति न रोगव्यतिकरो, नवाप्यज्ञानत्वं विलसति न दारिद्र्यललितम् । पराभूतिर्न स्यात्किमपि न दुरापं किल यतस्तदेवेष्टप्राप्तौ कुरुत निजशक्त्यापि सुतपः यथेष्टानां पारं भवति नहि लोके जनिमतां, तथा नानाssकारं प्रभवति तपो भिख करणात् । न यत्प्राप्तौ किंचित् सुलभमिह संसाधनमहो, तदेवेष्टप्राप्तौ कुरुत निजशक्स्याऽपि सुतपः जंतूनां तपसा नूनं जायन्ते सर्वसम्पदः । निःश्रेयसपदं चैव सतपः सर्वकामदम् "
For Private And Personal Use Only
॥ ९६ ॥
॥ ९७ ॥ ॥ ९८ ॥
Acharya Shri Kassagarsun Gyanmandir
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahiyeJain AradhanaKendra
Acharyasha.KailassagarsunGvanmandir
बीवरंगवती
कथा ॥९८॥
क्षणसुखभवाम्भोधेर्जन्ममृत्युतरङ्गतः । नानायोनिजलावत्कर्माष्टमलिनादपि
॥९९॥ अभीष्टविरहाऽनिष्टसंगमकरणबजात् । सुदूरं तिष्ठतं मोहं सन्त्यज्य मुनिचर्यया तपसि यद्यपि कष्टमहोऽधिकं भवति किन्तु तदुत्तमसाधनम् । सुरवशीकरणं विविधेष्टदं सपदि केवलबोधविधायि च ॥११॥ उपकृतिकुशलानां या सदैव प्रधाना जगति जनिमतां तत्तद्धिते सावधाना । प्रणयविनयमूलं सर्वथा संदधाना, बहुगुणमुनिचर्या कस्प लोके प्रिया न ?
॥ १०२॥ ' इदृशैः श्रेष्टिनो वाक्यैर्दीक्षासम्मतिदायकैः । उत्साह धारयामास द्विगुणं नौ मनस्तदा' प्रभवति यदकस्मादन्तरायः कदाचित, हृदयमति दुनोति प्रायसस्तद्धताशम् । कथमपि शुभदैवाल्लभ्यते सम्मतिश्चेत्, द्विगुणितवर शुद्धोत्साह आयाति चित्ते
॥ १०४॥ “ मत्पिताऽधाऽवदडन्यो युवा यत् दुष्करं व्रतम् " | गृहीत्वा निवृत्तेमार्गे प्रयातौ प्रीतिपूर्वकम् ॥१०५॥ बहुगतभवपुण्यस्योदयाद्भाग्यमाजां, मवति मनसि कश्चित् पूर्णवैराग्यभावः । सुखपरिकरसंमेऽपि प्रधूप प्रमोह, दृढतरविरलाः केप्येव गृह्णन्ति दीक्षाम् क्लेशाऽऽगारं गृहस्थानां विहाय जीवनं गुदा, क्षणाजातौ विरक्तौ च प्रेमबन्धपरामुखौ।। ।। १०७॥ सुखदुःखसमानत्वं बोधयन्ति विवेकता, । युवाम्यां धर्मतयानि मोहमानि वृतानि बै
॥ १०८॥
BEEXXXXXXXXREEKAEKKAKEXXXX
For Private And Personlige Only
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
Acharya:sha.kaithssagarsunGvanmandir
SEXXXXXXXXXXXXXXXXXU
संच्छिद्य कामजालानि स्नेहपाशं विध्य च । मानक्रोधी समुत्सार्य धर्म धन्यः प्रपद्यते
॥१.९॥ अनादिकालोद्भवासनाभिः हातुं न कश्चिद् यतते सुखानि । जित्वाऽऽन्तरान् यः कुरुते स्वधर्म, स एव धन्यः सुधियां वरेण्यः ।। " वयं त्वद्यापि लोभेन भोगेषानन्दमानिनः । मोहं समाश्रिताः शक्ता नोऽभवन्मार्गमाश्रितुम्" ॥१११ ॥ श्रेष्ठिनैवं तदा साधु-व्रतस्योपर्यनेकधा । विवेचनं कृतं भूरि तत्वार्थपारदृश्वना
॥ ११२॥ पक्षद्वयस्व नार्यस्तु रुदन्ति स्म शुचा भृशम् । व्यलपन रुद्वकण्ठाश्चाऽस्मत्स्नेहसनियंत्रिता:
॥ ११३॥ मेघेनेव च सिक्ताऽभूदुद्यानभूमिकाऽखिला । तासामथुनिपातेन स्नेहबन्धनमीदृशम्
॥ ११४॥ स्नेहेन लोकः स्वहितं न वेत्ति निरन्तरं मजति मोहपङ्के आश्चर्यमेकं च महत्वदन करोति नैवोद्धरणाय यत्नम् ॥ ११५ ॥ ततोऽस्मत्पितरो नार्यश्चान्ये सम्बन्धिनोऽपि च । मित्राणि दासवर्गश्च रुदन्तो नगरं ययुः
।। ११६॥ गच्छन्तोऽपि मुखं पश्चाद्वालयित्वा मुहुर्मुहुः । व्यलोकयन् समाकृष्यमाणाः नः प्रेमरश्मिभिः ॥ ११७॥ हृदयमिदमपूर्व जायते रागरक्त, तदितरपरिबोधे शून्यतामादधाति । मुनिमपि बलदेवं वीक्षमाणाऽन्धरागा निजनवशिशुकण्ठे काऽपि रज्जु पबन्ध
॥११८॥ संसारत्यागतोऽस्माकं चकिता श्रद्धया युताः । एते सबै जना भव्या प्रयान्ति स्म यथागतम् ॥ ११९॥ अथैका व्रतिनी तत्र श्रमणश्रीसमाश्रिता । गणिनी सद्गुणाढ्या च प्रभावप्लावनक्षमा
॥१२० ॥
KAKKKEEKEXXXXXX
For Private And Personlige Only
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीतरंगवती
कथा ॥ ९९ ॥
EEEEECH
RESSESS
www.kobatirth.org
जिनोपदिष्टधर्मस्य साध्वीतां च सदैव हि । रथाविधायिनी ज्ञाने तपःसु च प्रसिद्धिभाक् विख्यातायाश्चन्दनायाः साध्या वीरस्य शासने । शिष्या साऽभून्महाप्राज्ञा जैनतस्त्रविचक्षणा भक्तिभावा ततो नत्वा धर्मिष्ठं तं मुनिं तया । तत्सार्थो वन्दितः पश्चाद्विधिवद्धर्मबोधकः सदसद्व्यक्तिनिष्णातो मुनिस्तां समचीकथत् । विरक्तां स्त्वमिमां सार्थी निजशिष्यां विधेहि मो ! तयाऽपि तन्मुनेर्वाक्यं स्वीकृतं हर्षयुक्तया । गुरूणां वचनं शिष्यैः पालनीयं विवेकिभिः श्रद्धां विश्वाससंयुक्तां स्थिरेण मनसा सह । विधाय गुरवः सेव्यास्ते हि कारणमद्भुतम् विनयमति विधाय प्रेमपूर्व गुरूणां वचनमनतिलंध्धं पालनीयं सुशिष्यैः । यदि भवति विवेको वर्तते चेच्छुभाशा, गुरुचरणसरोजे वस्तुमिष्टा यदीच्छा मामवोचन्मुनिः पश्चात्साध्वीमेतां प्रपूजय । एषा ते व्रतदानं च पालनं संकरिष्यति पञ्चमहावते धर्मे साफल्यं प्राप्तवत्यसौ । साध्वीयं सुत्रता नाम्ना सद्गुणैः सुविभूषिता या सा वन्दिता पश्चाद्यथावद्विहितांजलिः । ललाटे तत्क्रमस्पर्शस्ततोऽकारि विनम्रथा परमगुरुकृताङ्काऽऽराधनस्यानुरोधाद् गुरुगुणविहिताऽऽर्या सेवनीया प्रयत्नात् तदितरचरणस्पर्शो नैव योग्यो यदस्याः विमलमपि चतुर्थ पाल्यते सवतं च
For Private And Personal Use Only
॥ १२१ ॥
॥। १२२ ।।
॥
१२३ ॥
१२४ ॥
॥ १२५ ॥
।। १२६ ।।
॥
11 220 11
।। १२८ ।।
॥ १२९ ॥
॥ १३० ॥
11 232 11:
XXX
Acharya Shri Kaissagarsun Gyanmandir
॥ ९९ ॥
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:sha.KathssagarsunGvanmandir
XXXXXXXXXXXXXXXXII
मोक्षसोपानमारोढुं भक्तियुक्तेन चेतसा । भवाटवीश्रमक्लान्तस्वान्तया शान्तये तदा । ॥१३२॥ स्वदर्शनमनोहरं विषयवृक्षवाटीवृतं, रुपा वसवि नागिनी मदमजोऽस्ति यत्र प्रगन् । न यत्र पथि निर्गमो भवति मूञ्छितो मोहतः, भवामिघमहावनादति बलो हि यो निःसरेत महंतु केवलं धर्म वीतरागैः प्रकाशितम् । दर्शयिष्यामि मुक्त्यर्थ प्रदाय देशनां शुभाम्
॥१३४॥ सापि मामाभिलक्ष्याथ ददावाशीर्वचः शुभाम् । अतिदुष्करमेतद्वै भूयते सफलं व्रतम् यदि त्वं शुद्धचितेन धर्मे यत्नं करिष्यसि । निर्वाणपदवी लम्या स्वया तव नान्यथा
॥ १३६॥ यदि शुभमनसा त्वं त्यक्तलोभाऽमिकांक्षा, अहितहितसमाना धर्ममाराधयित्री। तव विमलगुणाया दुर्लभो नैव मोक्षः, कुरु तदिह समत्वे शुद्धधर्मे प्रयत्नम्
॥१३७॥ गुरूपदेशश्रवणं व्रतेच्छा, निमित्तमात्रं मुनिमिनिरुक्तम् । स्वयत्नसाध्या प्रथिता तु मुक्तिस्तदू यत्नवान मुश्चति कर्मपाशम् ॥ " अमंदवैराग्यनिमग्नबुद्धयः तनूकताशेषकषायवैरिणः । ऋजुस्वभावाः सुविनीतमानसा मजन्ति भव्या मुनिधर्ममुत्तमम् ॥ ततोत्रोचमई 'पूज्ये ! जन्ममृत्युभयावहे । भ्रमणाद् भवकान्तारे भीताऽस्मि बहुदुःखदात
॥१४०॥ भक्ते वचनं मान्यं करिष्याम्येव सर्वथा । ' त्वामेव भक्पाथोधि-तारिणीं वेम्पहं पुनः' ॥१४१॥ गुरुरेव महत्तच गुरुरेवोपकारकः । गुरुरेव । समुद्वा गुरुस्तम्वनिवेदकः
॥१४२॥ "विना गुरुम्यो मुणनीरधिम्योस्तर्च न जानाति विचक्षणोऽपि ।
SXEEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
For Private And Personlige Only
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.kobahrth.org
Acharya hasarten Gym
भीतरंगवती
कथा ॥१०॥
धर्माणामुपदेशेन व दीप्तदेहस्ततपारश तथा । मोवलक्ष्मीनाक्ष्मीपदानाम
आकर्णदीर्घाऽऽयतलोचनोऽपि, दीपं विना पश्पति नान्धकारे"
॥ १४३॥ यः संसाराग्नितप्तानामुद्धारं विदधाति सः । गुरुः पूज्यतमो लोके चोभवीति भवान्तकृत
॥ १४४॥ अधिकगुणगरिष्ठः साधितार्थाद्यमीष्टः विदलितहरनिष्ठः श्रीगुरुः सत्प्रतिष्ठः । भवविघटनकारी मोक्षमार्गप्रचारी महदतिशयपूज्यस्तत्स्मृतः पूज्यपादः
॥ १४५॥ धर्माणामुपदेशेन तथैवाऽऽचरणेन च । गुरुः पूज्यतमो लोके, मान्यते शास्त्रवेदिभिः मया प्रयाणकालेऽथ दीप्तदेहस्ततपोंशुभिः । मुनिरेष मया भक्त्या श्रद्धापूर्व नमस्कृता
॥१४७॥ " मुनीनां वन्दनं धर्मदेशिनामर्हता" तथा । मोक्षलक्ष्मीप्रदातृणां सर्वमङ्गलकारकम्
॥१४८॥ अहितहित इति द्वे लोकतत्वे यदास्तस्त-दुभयमपि नस्ते मोक्षजक्ष्मीप्रदानाम् । परमिह शुभसौख्यं वर्तते तेन शास्त्रे प्रभवति किल मोक्षः कारणं मङ्गलानाम्
॥१९॥ मोहमुख्यमापन सुगृहीतव्रतोत्तमम् । वणिग्मुनिं च तं नत्वा प्रयाण कृतवत्यहम्
॥ १५०॥ नारीमात्रनिवासार्हे काष्ठागारेऽस्तकल्मषे । आर्यया सह वासाय नगरं प्राचलं मुदा
॥१५१ ।। नमोविभूषणं भानुर्दिशं तावत् समाश्रयद् । वारुणी विश्रमायेव दीर्घ संचरणमात्
॥१५२॥ "नव कुंकुमाऽरुणपयोधरया, स्वकारावशक्तरुचिराम्परया-अतिशक्तिमेत्य वरुणस्य दिशा, भृशमन्वरज्पदतुपारकरः ॥
KRAEKXANKRASAXSEEKERAKER
१०.॥
For Private And Persone
Only
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
XE8
www.kobatirth.org
रहो निशायामुभावव्रताद् ध्रुवं च्यावयते तदस्याम् । सम्यग् विचारं परमेष्ठि मंत्रं स्वाध्यायमेकाग्रमनाः प्रकुर्यात् ॥ १५४ ॥ ज्ञानवैराग्ययो व कुर्वन्त्या श्रद्धया तदा। विज्ञाता न गताः रात्रिर्मयाऽऽनन्दितचितया विरतिरससमोतप्रोतपूज्या वचोभिः, श्रवणरसवशाऽहं श्रोत्रमात्रेन्द्रियासम् । स्मृतिरियमधुनापि ह्लादयत्येव चित्तं, निजनिजपरविज्ञाः केवलानन्दमग्नाः
।। १५५ ।।
॥ १५६ ॥
।। १५७ ।।
॥ १५८ ॥
पटुगतिहरणीयं दीर्घदृष्टिः सशंका, वसति विपिनदेशे सत्वरोत्फाल चाला | मधुरवरवीणा तारझंकारचित्ता, श्रवणरसमुपेता कां दिशां नैव विन्ते ? द्वितीयदिवसे साधुः शिष्यवृन्दसमन्वितः । स्थानं किमध्यनिश्वित्य विजहार महीतले संगस्त्वनः कथितोऽस्ति शास्त्रे स धर्मणां किन्तु सुखाय संगः। वर्षामृते नैत्र वसन्ति सन्तो विहार एषां परमः प्रियोऽस्ति ॥ प्रवर्तिन्या तथा दत्ता मां शिक्षाऽनुकम्पया । द्विधा अपि प्रमोदेन चरणकरणादिका आसेवनग्रहणमेदविभिन्नरूपा, लोकोत्तरा गुणवती द्विविधाऽस्ति शिक्षा | शास्त्रान्तरालगत शुद्ध रहस्यविद्भिः संमण्यते मुनिवरैः करुणाऽनुरूपैः दृढा तपोविधानेऽहं वैराग्यामृववासना । जाता निर्वाणमार्गेक-प्रियोत्साहप्रपूरिता
॥ १६० ।।
चारित्रे वर्तमानैवं विहरन्ती प्रतिस्थलम् । साध्वीभिः शुद्धशीलाभिः समायावाऽत्र साम्प्रतम्
For Private And Personal Use Only
॥। १६१ ॥
॥ १६२ ॥
।। १६३ ॥
Acharya Shri Kalasagarsun Gyanmandir
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
tanah satunya
बीवरंगवती
कथा
KEEEEEEEEEEEEEEEEEEKREET
राजगृहमिदं धन्यं नगरं धार्मिकैर्युतम् । षष्ठपारणकं कर्तृ भिक्षार्थ समुपागता
॥१६॥ श्रेष्ठिनि ! कथितं सर्व तव प्रश्नानुसारतः । इहाऽमुत्र समुद्भूतं सुखंदुःखं च वर्णितम् परिणामे च यज्जातं तत्सर्व सुनिवेदितम् । कोऽत्र लंघयितुं शक्तो बलीयो दैवशासनम् हरिश्चन्द्रोऽपि राजेन्द्रश्चण्डालं यदसेवत । तेन सर्वत्र देवाज्ञा दुर्लध्या सद्भिरादृता
॥ १६७॥ तीशा अथ चक्रवर्तिनिवहा वासुदेवादयः, सर्वे ते किल देवशासनवशीभता इहोवीतले । तत्के वा बलवत्तरा न कुरुते दैवं च यान्स्ववशे, दुर्लध्यं किज दैवशासनमिदं शक्तश्च को लंघने' ॥१६८॥ तमात्र विस्मयः कार्यों भवचक्रं हि तादृशम् । तूर्ण तद्विषमं हातुं यत्नः कार्यों विमुक्तये
॥१६९॥ चक्राकारे भवेऽस्मिन्नभिमतविमतादिप्रकारप्रपञ्चे, तत्पान्तस्थक्रमेण स्वविधिवशतयाऽऽयान्ति यान्ति स्वभावात् । सों भावः स्वकीयो भवति परिणमन नात्र शंकाऽवकाशः। राजा रंको मनुष्यः पशुरथ जननी जायते यत्र जाया ॥ १७० ॥ कुत्स्ने तरङ्गवत्येवं, स्ववृत्तान्ते निवेदिते । श्रेष्टिपत्नी मनस्येवं विस्मयेन व्यचिन्तयत् दुष्करं सुकुमार्याऽपि कृतं कर्माऽनया भुवि । अहो ! सुकोमलं वर्म तारुण्यमपि शोभनम्
॥ १७२ ॥ उमे ते व्रतचर्यायाः परौ शत्रू स्मृतौ बुधैः । तथापि धैर्यतो दूरीकृत्य सर्वप्रलोभनम्
॥ १७३ ॥ अगाधमब्धि खमनन्तपारं दारिदैन्यं च तरन्ति धीराः । आरब्धकार्य च समापयन्ति, धैर्य विमा नाऽप्यलभन्त किंचित् ॥
SEXRXXXEKKEKXXXXSXEEEKKER
For Private And Personale Only
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
MS*********************
www.kobatirth.org
।। १७५ ।।
।। १७६ ।।
॥ १७७ ॥
गृहीता या कथनस्यात्तपश्चर्याऽतिदुष्करा । प्राह- 'तां श्रेष्ठिनी पश्चाच्छूलक्ष्णं मधुरया गिरा त्या मया पृष्टो वृत्तान्तो दीक्षिते ! तव । तेन योऽजनि ते क्लेशस्तदर्थं मां क्षमस्त्र वै " साधवः सुत्रताचाराः प्राणिषु हि दयालवः । ब्रुवाणैवं तदीयांघ्रि - पद्मयोर्न्यपतत्तथा अपारभवकान्तार - दुःखिताऽचकभत्पुनः । संसारपंकसंममा मोहान्धतमसावृता भादंष्ट्रा गृहीतावलानां प्रयत्नो जिनानां वचस्येव कार्यः । समुद्दिश्य सम्यक् गृहीतव्रतानां पदोपासना दुर्गवेर्नाशनाय ॥ कर्मभिर्भ्राम्यमाणाच प्राप्यस्यामः कां गतिं वयम् । स्वया तु प्राक्तनैः पुण्यैरुत्तमं भवतारकम् साधुत्रतं गृहीतं तच्छाधि नः शरणं गता । पूनर्जन्मादिकक्लेशस्तोमो लीयेत येन हि
॥
१७८ ॥
11 800 11
॥ १८१ ॥
॥ १८२ ॥
44 ततस्तरङ्गवत्याह श्रेष्ठिनि । त्वं मुनिवते । न शक्ता वेद गृहाणाऽथ गृहिधर्म जिमोदितम् 'सकलविरतिरेषा सर्वथोपासनीया, भवति यदि न शक्तिस्तचदंशोऽपि रम्यः । न वरमविरतानां जन्म भोगाऽभिभ्रतं भवति परिणतौ यत् श्रभ्रपातादिदुःखम्
' साध्यास्तस्या निशम्यैतत्पीयूषसदृशं वचः । मुमुदे श्रेष्ठिनी तेन मेने तस्याः कृपाभरम् विनिश्चित्य ततः श्रद्धा - पूर्णया गृहिणां व्रतम् । अङ्गीकृतं यथा जैन - सिद्धान्तप्रतिपादितम् सजीवान् रक्षितुं साथ सजीवाजी क्योर्मिदाम् । जानाति स्म विशेषेण जिनधर्मानुसारिणी
For Private And Personal Use Only
॥ १८३
॥
॥ १८४ ॥
॥ १८५
॥ १८६
॥
॥
买联聚蜈颥联报报报
Acharya Shri Kissagarsun Gyanmandir
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahavir JanArchanaKendra
Acharya:sha.KailassagarsunGvanmandir
श्रीवरंगवती
कथा ॥१०२॥
॥१८८॥
॥१८९॥ ॥ १९॥
गृहिब्रतानि पञ्चैवमपरा सस्क्रिया अपि । धा नैकविधा श्रेष्ठाः स्वीकरोति स्म सा तदा नवयौवनशालिन्यो दास्योऽपि श्रुततत्कथाः । अर्हद्दिष्टाऽध्वसंरूढश्रद्धाधर्म प्रपेदिरे " विवेकवलदुर्बलस्मयमनोजलोभादयः, भवोद्भवमहाभयाऽऽकलितचेतसो ये नरा।
तृषाविकल चेतसा जलमिव प्रियं प्राणिनां, जिनेश्वरवचोऽमृतं भवति जात पुण्यात्मनाम् जिनेश्वरोपदेशं च सादरममृतोपमम् । निपीय निर्मलस्वान्तास्तस्मिन्नेवाऽभवत् स्थिराः साध्वी स्वसहचारिण्या ततो मिक्षा निजोचिताम् । जग्राह प्रासुकां दृष्ट्वाऽगमत्स्वस्थानमौर्यया
“ साधुत्वसाध्यगमनेन सुभाषया च, वेषानुमावविनयादि गुणेन युक्ता ।
धान् जनान सपदि कत्तुमसौ प्रवीणा धर्मस्थिरा किन तरंगवती सुसाध्वी " श्रोतृणां वाचकानां च सम्पग् ज्ञानाऽऽसये मया । कथेयं कथिता शस्ता जैनतत्त्वसमन्विता अस्याः श्रवणमात्रेण " दुरितान्यखिलानि वै । दूरीभवन्तु “चित्तानि रमन्तां जैनशासने 'पुराभवमह ! मोह-जन्यानि दुरितानि मे जैनधर्मप्रभावेण ' नाशं गच्छन्तु सत्वरम् भव्या ! मव्यमति प्राप्य कथामेतां सुनिर्मलाम् । शृण्वन्तु सादरं येन श्रेयः सद्यो विजायते
Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
॥ १९२ ॥ ॥ १९३॥ ॥ १९४॥ ।। १९५॥
For Private And Personlige Only
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendr
EXEEEEEEEE
www.kobatirth.org
उपाश्रयान्तर्गमनादनन्तरं सदा निमग्ना स्वप्रमादयोगे । चारित्रनिष्ठाक्रमतो गुणानां वृद्धि परां चेतसि साधयन्ती ॥ १ ॥ धर्मावधानप्रयता च शुक्लध्यानस्थिता नाशितघातिकर्मा । तरंगवत्यल्पतरेण कालेनैव प्रपेदे किल के लिलम् ॥ २ ॥ सहस्रपत्रे सुरनिर्मितेन्जे स्थिता प्रभूतान् भविनः प्रबोध्य । सा ध्यानयोगात्परिभूतबाधां निर्वाणनिः श्रेणिमथाऽऽरुरोह ॥ ३ ॥ धर्माषको धर्मगुरुस्तदीयः पतिः पुरागो मुनिपद्मदेवः । उमौ समाराध्य सुचित्रतानि समीयतुः केवलिनौ च सिद्धिम् ॥ ४ ॥ मातापिताऽथ वसुरौ च तस्याः सुश्राविका धर्ममनाथ सोमा । स्वर्गं गताः सार्व मणुत्रतस्थाः सेत्स्यन्ति चैवे तु महाविदेहे ॥५ चण्डप्रद्योतननृपभार्याऽङ्गारवतीदुहिता पतिधर्मा । वासवदत्तोदायनसुराज्ञी धर्मरता सुगतिश्च बभ्रत्र ॥ ६॥
स वत्सराजोदयनोऽपि सम्यक्धर्मस्य ले मे फलमिष्टलोकम् । तत्संगिनी सारसिकाऽपि जैन-व्रतेहिनी सद्गतिमाप्स्यतीष्टाम् ॥७॥ श्रीकोणिकाऽवेर्मगधाधिभर्तुः श्रीवत्सराजोदयनस्य काले । तरंगवस्थाः प्रकटंगवाया इथं कथा ख्यातिमत्राप लोके ॥ सा पाठकान् विस्मयिनः करोति श्राद्धांश्च धर्मे प्रयतान्विधत्ते । निर्वापयन्ती विषयान् कषायान् देशे पुरे सर्वजनप्रियाऽभूत् ॥ ९ ॥ १ अविर्नाथे वो मेषे शैमूषिककम्बले ॥ इतिमेदिनी ॥
4
For Private And Personal Use Only
Acharya Shri Kaissagarsun Gyanmandir
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीरंगवती
कथा
॥ १०३ ॥
www.kobatirth.org
प्रशस्तिः ( 2 )
-+1013
॥ ५॥
हर्षपुरीयगच्छे बभ्रुव सूरिः श्रीवीरभद्रो हि । तच्छिष्यनेमिचन्द्रो जग्रन्य प्राकृते कथां रम्यान सच्चारित्रवतां श्रेष्ठस्तपागच्छशिरोमणिः । बुद्धिसागर सूरीन्द्रः शास्त्रागमविदांवरः तत्पादपङ्कजालिः श्री - सूरिरजितसागरः । प्रसिद्धक्ताऽभूद्भव्य-प्रबोधनपरायणः रचिता गीर्वाणगिरा तेनैवेयं ततः सुबोधाय । पठनोत्सुकभव्यानां विनेयमेन्द्र सागराऽर्थनया चम्पूमयी कथेयं स्यादित्यासीन्महाभिलाषो मे । पद्यैस्तथापि दृब्धा मन्दधियामपि यथा भवेद्बोधः पाण्डित्यकाङ्क्षी नहि निर्मिर्ति व्यधाम, जनान् सनुतुमयं मम श्रमः । ग्रन्थान्तराणां वचनानि चान्तरा, न्यवेशयं ज्ञानविवृद्धये सताम लब्धेन कारुण्यकणान्मनीषिणां ज्ञानस्य लेशेन च यत्नमादधे । विवेकदीपेन मनो गुहातमो, यथा विलीनं भविनां प्रजायतेः ।। नेत्रवस्त्रङ्कसंख्ये ( १९८२ ) विक्रमार्कस्य हायने । माधवस्य सिते पक्षे पूर्णिमायां गुरोर्दिने रोहिणी विधौ भव्ये मुहूर्ते विजये वरे । मधुपुर्यां समाप्तेयं कथा बोधविधायिनी पुरीयं सर्वदा भव्या मन्यानामुपकारिणी । विद्यापुरसमीपेऽस्ति मह सुमनोहरा तुङ्ग तुङ्गतरंगधौत विषमप्राकारलम्बत्तटा, नानारंगविद्दङ्गवृन्दमिलि तारण्यद्वयी सच्छटा ।
॥ ८ ॥
॥ ९ ॥
॥ १० ॥
For Private And Personal Use Only
॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥ ३ ॥ 11 8 11
Acharya Shri Kassagarsun Gyanmandir
॥ १०३ ॥
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥१२॥
ना
॥ १४ ॥
स्वच्छ स्वादुपवित्रवारिवहन प्राप्तोरुयादो यशाः, शान्ता स्वाभ्रमती नदी परिसरे यस्याः सदा राजते क्वचिद् रेणवो वेणवोऽरण्यजाताः, क्वचिद् वारिविद्योतमाना विहंगाः । कचित्स्वच्छवस्त्रावृता पौरनार्यः, शिरस्यात्तपानीयकुम्भाश्चलन्ति कचित्स्नान्ति विप्राः स्वधर्म विधातुं, तरुग्यः क्वचिद् वै रमन्ते रसेन । कचित्सारसी सैकते सारसेन, सुखं क्रीडति क्रीडया शब्दभाजा मन्दिरं शोभते तुझं यत्र पद्मप्रभोवरम् । भव्येष्टपूरको घण्टा-कर्णवीरश्वकास्ति च श्रद्धालवः समायान्ति नानादेशविदेशतः । आम्रश्रेण्या सदा रम्या देशाचतो हरन्ति हि मधुरैश्च पिकालापैर्मुग्धतां यान्ति देहिनः । कवीनां च कवित्वं वै द्विगुणं यत्र वर्धते बुद्धिसागरयोगीन्द्र-सुन्दरध्यानमन्दिरम् । जिज्ञासा योगमार्गस्य दिशत्येव निरन्तरम् चरितं तरङ्गवत्या विषदं भवरोगहारकं सततम् । जयतु जगत्यामेतद्यावच्छ शधरदिवाकरोद्योतः उदयतु वसुधायां सन्ततं " बुद्धि " सूर्यः, प्रसरतु च तदीयं दिव्यतेजोऽ "जितं " वै । विकसतु शुचि भव्यस्वान्त “ हेमाम्बुजा "ऽऽलि,-विलसतु रमणीया मोक्ष " लक्ष्मी रजस्रम् मङ्गलं भगवान्वीरो मङ्गलं गणनायकाः । मङ्गलं धर्मशास्त्राणि जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम्
॥१७॥ ॥१८॥
॥१९॥ ॥२०॥
For
And Persone Oy
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shra
d hananda
Achanaha
n
Gyaan
भीतरंगवती
कथा ॥१०४।
॥१॥ ॥२॥
प्रशस्तिः (२)
-*श्रीतीर्थकरनामकर्मपरिपाकाआऽसतीर्थेशतो-जातो जातकुले अन्तिमो जिनारः श्रीवईमानप्रभुः । तत्पद्वेऽर्हतयाऽईतो गणधरै- संघरक्षाविधी, ज्ञात्वा स्थापितवान् चिरायुरुचितः सामी सुधर्माऽभवत बोधयन्तं जगच्छिष्यपरिपाटिवचोऽमृतः, संघायाऽर्पितशर्माणं सुधर्माणं स्मरेन का ? चतुश्चत्वारिंशत्तमविशदपट्टेऽस्य गणिनः, जगच्चन्द्राऽचार्योऽभवदमलतेजोऽतुलतपाः । य आचाम्लं चक्रे यमनियमतो द्वादशसमाः, तपागच्छे हेतुर्वदमलतपोस्तीष्टपदवी यत्तपस्तर्पितस्वान्या तपागच्छमहानदी । वर्धतेऽद्यापि तं वन्दे जगच्चन्द्रं महागुरुम् कर्मग्रन्थिदुरूहतावनिरुत्साहोत्थखेदश्लथान्, लोकानाऽऽगममार्गमूढमनसो वीक्ष्य कृपार्दोऽथ यः। कर्मग्रन्थचयाँचकार निरती(ति)चारक्रियावाऽचरन्, तत्पट्टोदयहेतवे समभवद्देवेन्द्रमरिः प्रभुः कर्मग्रन्थरहोभावविकासनविभाकरः । देवेन्द्रसूविर्य तं वन्दन्ते कर्मवेदिनः । प्रामाण्यं पदवाक्ययोविशदयन्यो व्याकृति निर्ममे, विद्यानन्दविभुर्बभूव वरदस्तस्पट्टसंदीपनः । तत्पढेऽथ बभूव धीरधिषणः श्रीधर्मवोषाभिधः, मरीन्द्रो यदनिन्द्य नाम जगति प्राभाविकं श्रूयते
BOSXXXEEKEXEEEEEXXXXSEX
॥४॥
॥७॥
१.४॥
•XXX
।
For Private And Personlige Only
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
विद्यानन्दधर्मघोषो वन्दे सूरीन्द्रसत्तमौ । ज्ञानेन क्रिपया याभ्यां मोक्षमार्गः स्थिरीकृतः तत्पट्टपूर्वाद्रिरविर्महीयान् विद्वत्सु सोमप्रभसूरिरासीत् । सोमादिमश्रीतिलकाख्यश्वरिः तत्पदृगोऽभूत्समगच्छमान्यः ।। विद्वान्प्रमाघरवरश्च तदीयपट्टे श्रीदेवसुन्दर कृतीवरसूरिरासोत् । प्रभावको पहिमालमुनीन्द्रमध्ये यन्नाम गायतितरां गुणगृह संचः । तारंगशैलशिखरे जिनराजमूर्त्ती- यतिष्ठिपत्स उचितातिसमृद्धियोगात् । श्री सोमसुन्दरगुरुर्मुनिसार्वभौमः, तत्पट्टभाग्यतरणिः समभ्रत्प्रभावी सहस्रावधानेन लोकान् जयन् यो चकार प्रभूतान् महाग्रन्थराशीन् । मुनेः सुन्दरः सूषियों महात्मा स तत्पट्टपूर्वाद्रिव बभूव
॥ १२ ॥
॥
१४ ॥
॥ १५ ॥
तदीयपट्टे गुरुरत्नशेखरः सूरीन्द्रवर्यः प्रवभूव बुद्धिमान् यः शुद्धचारित्रधरोप्यनेकशः ग्रन्थाथ काराऽप्रतिमहत्या ॥ १३ ॥ लक्ष्मीसागरसूरीन्द्रस्तत्पदेऽभूत्प्रभावकः | जिनबिम्बप्रतिष्ठायाः कारको विश्वतारकः तत्पट्टे सुमतिः साधुः सूरीन्द्रोऽभवदुज्ज्वलः । तस्पट्टे हेमविमलः सूरीन्द्रो विमजक्रियः तदनु च विमलाऽऽनन्दाऽभिधः सूरिराजः । तपसि सदनुरागो यः क्रियोद्धारकर्ता विहितसफलयत्नः शुद्धचारित्रकार्ये । विमलगिरिवरे यश्चक्रिवान् संघयात्राम् श्रीमद्विजयदानाख्यः सूरीन्द्रस्तत्पदेऽभवत् । यच्छिष्योऽन्त्यन्तमेधावी श्रीहीरविजयोऽमात्
For Private And Personal Use Only
|| 2 ||
11 22 11
।। १६ ।।
॥ १७ ॥
Acharya Shri Kassagarsuri Gyanmandir
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीवरंगवती कथा
।। १०५ ।।
www.kobatirth.org
विद्यासिद्धिचरित्रता दिगुणैराकृष्य विद्वज्जनान्, स्वायत्ते भुवने ततान परितो यो जैनधर्म विभुः ।
प्राप्तोऽकञ्चरतो' जगद्गुरु 'रिति श्रेष्ठामुपाधिश्रियं, - मार्यास्तीर्थकराच्च, मोचितजनोऽसौ तस्य पट्टे बभौ ॥ १८ ॥ विविधधार्मिक कृत्यविधायको नृपतिशाहवरात्करमोचकः । विजय सेन गुर्खरसूरिराट् तदनु तस्य पदेऽभवदुज्ज्वलः ॥ १९ ॥ तत्पट्टे गुणगोरो जातः श्रीविजयदवसूरन्द्रिः । यं च जहांगीरनृपः सपादहीरेति कीर्तितवान् ॥ २० ॥ तपस्वी च प्रभाशाली विजयी देवसूरिराट् । समाचारी विशुद्धा च यस्येदानीं प्रवर्तते सहजसागरनामकवाचकस्तदनु तत्पदपट्टमधिश्रितः । विजयहीरगुरुक्रमसेवनात् सहजसिद्धिमवाप दयाघनः || २२ || तच्छ्रीमतो विशदपट्टपरपरायां श्रीनेमि सागरगुरुः प्रबभूव धीमान् |
॥ २१ ॥
॥ २४ ॥
उत्सार्य कृत्यशिथिलत्वमसौ मुनीन्द्रः संवेगिसाधुनिवहं विदधे स्वतन्त्रम् तत्पपालनपरो रविसगराह्नः, शान्त्या महाव्रत विधानदृढाऽनुरक्तः । सत्कर्मणा वचन सिद्धमवाप येन, लक्ष्मीप्रसादमतुलं जनताऽपि लेमे शान्तप्रभावी गुरुभक्तिपूर्णः सेवाविधौ नम्रतया प्रवृत्तः । वासिद्धि सिद्धः सुखसागराऽऽह्नस्तत्पदृशोभामतुलं तवान || रूपेणाप्रतिमेन सुस्वरवता वाक्यप्रयोगेण च, प्रायः साध्वहितेन मेध्यमनसा विश्वत्रिकं योऽजयत् । यश्चाष्टोत्तर पुण्य पुस्तकशतं चक्रे महायोगविद् आचार्योत्तमबुद्धिसागरमहाराजोऽमवत्तत्पदे
॥ २६ ॥
For Private And Personal Use Only
॥ २३ ॥
Acharya Shri Kalassagarsun Gyanmandir
।। १०५ ।।
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ २७॥
॥२८॥
भारतादिषु विख्यातो योगविद्याविचक्षणः । बुद्धिसागरसूरीन्द्रस्तेनेऽध्यात्ममतोमतिम् तच्छिष्यः कविकोविदो विदितवक्ता शान्तमूर्तिहान, नानाग्रन्थविधानपाटवघरः सौम्पप्रभाभासुरः । तत्पट्टेजितसागराऽभिध उदारः सरिवयों बभौ, दृन्धा येन च पूरिता मधुपुरीमध्ये बरेयं कथा भावैर्भूता वरतरंगवती कथेयं, श्रीपादलिपमुनिना( मूरिणा रचिता प्रकृत्या । पश्चादनेककविसाधुभिरिष्टवाण्या, संवर्धिता जगदिदं परमं पुनाति दीक्षागुरोरजितसागरसूरिनरेः शिष्याणुना निवसता समवाप्य हर्षम् । हेमेन्द्रसागरमहात्मसुवाचकपुङ्गवेन, दिव्यात्ममग्नमनसा रचिता प्रशस्तिः रसखखकरवर्षे ( २००६ )वक्रमे मासि माघे धवलितदलपंचम्यामर्थतत्कथायाः । जिनवरगुरुधर्माराधकथाद्धपूर्णे प्रथमनवप्रसिद्धिर्नाम्नि विद्यापुरेऽभूत
॥ २९ ॥
॥३०॥
॥३१॥
For Private And Persone
Only
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
ShriMahiyeJain AradhanaKendra
Schach
agusun Gym
ARMAatma
3
कथा
इति श्रीतपागच्छाधिपतियोगनिष्ठाऽध्यात्मज्ञानदिवाकरशास्त्र. विशारदजैनशासनप्रभावकश्रीमदाचार्यवर्यश्रीबुद्धिसागर
सूरीश्वरचरणसरोजचश्चरिकापमाण-प्रसिद्धवक्तृव्याख्यानवचस्पतिकविकोविद-जैनाचार्यश्रीमदजितसागरसरिणा संस्कृतभाषया रचितेयं तरङ्गवतीकथा समाप्ति
मगात् ॥
3EBOOXOXEXXXXRBE
.
..
..
..
..
...
..
.
.
.
..
.
.....
.
.
For Private And Personlige Only
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir
११ विश्वरचना प्रबंध
१२ दिनशुद्धि दीपिका
श्री चारित्रस्मारक ग्रंथमालाना प्रकाशित ग्रंथो
२९ श्री चारित्रपयावली
३०
३१
३२
३३ श्री जिनगुण स्तवनवाटिका
१९ वृहद्धारणा यंत्र
२० बिहार दर्शन (भाग १-२ )
२२ पट्टावली समुचय भा. १
१-८.
२-८
016
१-४
१-८
जगद्गुरुकी पूजा स्तवनादि
श्वेतांबर - दिगंबर भा. १-२
पर्शधिराज श्रीपर्युषणाष्टाहिका
उपाय छे पर्व कथा-संग्रह
आ० श्रीविजयलक्ष्मीयरिकृत
प्राप्तिस्थान :
शेठ सुबोधचंद्रभाई पोपटलाल.
ठे. मांडवीनी पोळमां, नागजी सुदरती पोळ,
अमदावाद,
नोट- उपर शिवायमा पुस्तको स्टोकमां न दोवाथी आई ते ते नंबरो आपेल नथी.
२-४
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________ POPIVANO Pose my