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കളും ഒരിക്കലും മരിക്കും കിം കി ഒരിരം രകം ഒരിരം രാരാരീരികവും കാമം കിള
॥ ॐ अहं नमः॥ ॥ श्रीमुक्तिविमलजी जैनग्रंथमाला ग्रन्थाङ्कः ११ मः ॥ ॥ शांतमूर्ति परमपूज्य श्रीमद् पं० दयाविमलजीगणिपादप भ्यो नमः ।।
॥ कुमारपालप्रतिबोधप्रबंधः॥
सकलसिद्धांतवाचस्पति-अनेकसंस्कृतग्रंथप्रणेता-आबालब्रह्मचारी-पंन्यासप्रवर-श्रीमुक्तिविमलगणिवरस्यानन्यपट्टालंकार-व्याख्यानवाचस्पति-श्रीमद् पंन्यासश्रीरगंविमलगणिवरोपदेशेनमालवाडानिवासिश्रेष्ठिवर्य-उमाजी ओखाजीसुतश्रेष्ठि-मालाजी-मुलचंदजी
चीमनाजीप्रदतार्थिकसाहाय्येन श्रीमुक्तिविमलजैनग्रंथमालाकार्यवाहकशांतिलाल हरगोषनदासेन प्रकाशितम्
संशोधकः-पंडित मफतलाल झवेरचंद गांधी.
वीर सं. २४६६ ज्ञानसुरि सं. २१४ वि. सं. १९९६ मुक्ति सं. २२ प्रत ५०० aso90090090090090f9e1901960900900900900904999efactisedledi009049effefsefG
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प्रतिबोध 60 प्रबंध:
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शाह शांतिलाल हरगोवनवास
ठे. देवशानोपाडो-अमदावाद. मुद्रक :-गोविंदलाल मोहनलाल जानी
प्राप्तिस्थान:
पंडित मफतलाल झवेरचंद गांधी
ठे. खेतरपालनी पोल-अमदावाद. मुद्रणस्थान :-क्रिश्ना प्रिन्टरी, रतनपोळ-अमदावाद.
॥१॥
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समर्पण परमपूज्य, धर्मधुरंधर, जैनशासन नभोनभोमणि, सुविहितसाधुशिरोमणि, जैनागमपरिशीलनशाली, सद्धर्मोपदेष्टा, विद्वज्जनवृंदवंदनीय, आबाळब्रह्मचारी, व्याख्यानवाचस्पति कविदिवाकर,
परमकृपालु गुरुदेव अनुयोगाचार्य श्री १००८ श्री पंन्यासप्रवर श्रीमद्
रंगविमलजीगणिवरमहाराजसाहेबना करकमलमां आपश्रीनी प्रेरणा उपदेश अने लागणीथी आ महामूल्य ग्रंथरत्न प्रकाश पामे छे तो तेमा प्रतिपादित तत्त्वत्र यी बारव्रत अने जीवादि तत्वोनो निरंतर बोध करी जगतना भव्यप्राणीओने योग्य मार्गे दोरनार, परम उपकारी दीर्घ तपस्वी शास्त्रविशारद
महापुरुष आप मारा परमतारक गुरुदेवने
आ ग्रंथ समी कृतार्थ थाउंछु एज भवदीय लघु शिष्य कनकना कोटि वंदन.
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कुमार०
॥२॥
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॥ ॐ श्रीपार्श्वनाथाय नमः ॥
डानिवासि श्रीमान् श्रेष्ठीवर्य ऊमाजी ओखाजीनां सुपत्नी बाई नंदादेना जीवननो टुंक परिचय.
जगतमां सेंकडो माणसो जन्मे अने मरे छे, आ जन्मनार अने मरनार माणसोने दुनीया के तेनो आप्तवर्ग पण गण्या गांठया दीवसमां भूली जाय छे. पण जे माणसे जन्मी तेना जीवनमां परोपकार, नीति के योग्य मार्गमां कार्य कर्यु होय तेने दरेक माणस संभारे छे, अने तेना जीवननी तारीफ करवा साथे तेना जीवननी अनुमोदना करे छे. बाई नंदादे एक एवां सुशील बाई हतां के जेनी सरळता, धार्मिकता अने परोपकारिता समाजने ग्रहण करवा योग्य हती. ने तेथीज तेमनो टुंक परिचय नीचे प्रमाणे आपीए छीए.
बाई नंदादेनो जन्म वि. सं. १९२० मां अनेक जिनमंदिरो अने धर्मना आद्यस्थान तरीके शोभता मरुघरमां जोधपुर स्टेटमा सीलासणनामना गाममां धर्मनिष्ठ शेठ गोमाजी मेसदाजीने त्यां थयो हतो, मातपिताना धर्मनिष्ठ स्वभावे नंदादे धर्मनिष्ठ, जिनभक्तिपरायण अने व्यवहारदक्षताने जीवनमां एकमेक करतां योग्य ऊंमरे पहोच्यां.
तेओना पिता गोमाजी व्यवहारदक्ष होवाथी समानशील कुळ अने स्वभाववाळा साथे करायेल लग्न गृहस्थजीवनने
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प्रतिबं
प्रबंध
॥२
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स्वर्गसमान बनावे छे. ते बराबर जाणता होवाथी पोताना गामथी छ माईल दूर आवेल मालवाडाना रहीश गुणवान् शेठ ओखाजीना पुत्र ऊमाजीनी साथे पोतानी पुत्री नंदादेनां लग्न को.
धर्मनिष्ठ व्यवहारदक्ष अने नीतिपरायण नंदादेए पोताना जीवननी सुंदर छाप श्वसुरगृहे पाडी. अने जे श्वसुरगृह स्वभावे पण धर्मिष्ठ, जिनभक्तिपरायण अने परोपकारशील हतुं ते वधु दीपवा लाग्यु. शेठ ऊमाजी पण उछरती वयमां सामायिक, प्रतिक्रमण, जिनपूजा विगेरे धर्मानुष्ठानमां रक्त होवा साथे व्यवहारदक्ष अने नीतिपरायण हता, तेमणे पोतानो धंधो शरुआतथी मुंबईमां शराफीनो को. जो के ते धंधामां शरुआतमा जोइए तेटली सफळता न मळी छतां ते निराश के बेदील न बन्या अने तेमणे ते बखते विचायु के लक्ष्मी भाग्याधीन छे. छतां पोतानो पुरुषार्थ धर्मनी मर्यादामा रही छोडवो व्याजबी नथी तेथी तेमणे ते सराफीनो धंधो बंध करीने १९४५ लगभग कापडनो धंधो मुलजीजेठा मारकीटमां शरु कर्यो. शरुआतमां ठीक कमाणी थवा लागी पण १९४९ थी १९५३ नी साल सुधी नुकशानी थवाथी धंधो तद्दन बंध थयो ने माथे केटलुक देवू पण थयुं. छतां नीराश न थतां हीमत राखी ने फरीथी थोडो थोडो धंधो कापडनो करवा लाग्या. परंतु १९६७ सुधी खर्च जेटलुजं कमाया पण १९६८ थी धर्मना पसायथी कमाणी ठीक थवा लागी ने १९७२ मां मगनलाल केसरीमलनी दुकान करी ते पछी सारं कमावा लाग्या, ने मनुभाइ मुळचंदनी दुकान १९८३ मां करी तेमां तो घणुंज सारं कमाया. परिणामे पुरुषार्थथी मानवने लक्ष्मी आपो आप मले तेम तेओनी भाग्यदशा वृद्धिंगत थवा लागी अने धीमे धीमे संपत्ति वधवा लागी.
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प्रतियोष "संपत्तौ विपत्तौ च महतामेकरूपता"
*प्रबंध: संपत्तिनी वृद्धिमा अने संपत्तिनी हानिमां एक सरखं जीवन जीवनार शेठ ऊमाजी तथा नंदादेना सुखमय संसारना फलरुपे पुत्रीनो जन्म थयो अने तेनुं नाम मातपिताए गजरीबाई राख्यु, सुशील मातपिताना संस्कारे गजरीबाई नानी ऊमरमां पण जिनपूजा, व्याख्यान, दानशील विगेरे धर्ममा एकदील थइ सुंदर श्राविकाजीवन जीवी रह्यां छे, ने साथे साथे तेओ बहिरभावनो त्याग करवा माटे छह, अहम, वरसीतप, वर्धमानतप, नवपदनी ओळी, ऊपधानतप विगेरे ऊप्रतपश्चर्यामां जीवन व्यतीत करी रह्यां छे. जोके गजरीबाई एक आखं जीवन धर्म ध्यानमांज गाळी रह्यां छे.
आ सुपुत्रीना जन्मबाद धर्मपरायण आ दंपतीने मगनलाल (मालाभाई) मूलचंदजी (भीमाभाई) अने चीमनलाल (चीमनाजी) नामे त्रण पुत्रो थया. आ त्रणे पुत्रो जाणे पोताना पितानी प्रतिकृति न होय तेम धर्मद्रढ, नीतिपरायण अने : स्वभावे परोपकारशील छे. तदुपरांत एक बीजानी मर्यादा अने प्रेम सौ कोइने आकर्षण करे तेवो छे.
नाम तेनो नाश ए न्याये ऊमाजी शेठ नहिं जेवी मांदगी भोगवी. सं. १९८२ ना आसो शुदि ६ ना रोज स्वर्ग-2 वास पाम्या, स्वर्गबास थतां तेमणे तेमना पुत्रोने पोतानी लक्ष्मीनो सद्व्यय करवानो अने संपथी रहेवानुं सूचव्युं.
पिताश्रीना स्वर्गवास बाद पण त्रणे भाईओखुब प्रेम अने संपथी रहेवा लाग्या. आ संप अने प्रेमने परिणामे तेओ पोताना | जीवनमा धीमे धीमे सुखशील थता गया. [आ कापडना धंधानी शरुआत उमाजीना मोटा भाई केवळाजीना हाथथी थयेल छे.
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१९४५ नी सालथी मुळजीजेठा मारकीटमां ने १९४५ मां दुकानमां नुकशानी जवाथी ने केवळाजी १९५८ मां गुजरी जवाथी बधो भार ऊमाजीपर आवी पडयो, ने ते करजदारी उमाजीना हाथथी १९८० मां दरेक लेणदारने बोलावीने आपी दीधी.] परिणामे तेमणे मुंबईमां कापडनी दुकान शरु करी अने तेमां मगनलाल चीमनलाल अने मगनलाल केशरीमल सारं कमाणा. आ पछी पण तेमणे सं. १९८२ नी सालमां वीजी शा. मनुभाई मूळचंदना नामनी कापडनी पेढी शरु करी | अने तेमां पण खुबज संपत्ति मेळवी.
दान, भोग अने नाश ए लक्ष्मीना ऊपयोगना प्रकारमा दान ए सर्वोत्तम प्रकार के ए हृदयमां सारी रीते समजता आ त्रणे भाईओए लक्ष्मीना सद्व्यय माटे सं. १९८५ मां मातुश्री नंदादेनी इच्छाथी धर्मप्रभावक, ऊजमणुं | करवानो विचार कर्यो, कारणके आ प्रसंगे पोतानी जन्मभूमि मारवाडमां पूरजोसमां रोगचालो चालतो हतो अने तेने परिणामे जीवन माटे तलसता अनेक मानवो मृत्यु पामतां हतां, गामना लोकोनी अने पोतानी इच्छा पण तेनी कइ रीते है शांति थाय तेने माटे खुब तमन्ना हती, अने सौ कोई समजता हता के दैवी कोपनी शांति धर्ममार्ग सिवाय नथी आथी तेमणे तेमना वतनमा गमे तेवा उपद्रवोने शांत करनार शांतिस्नात्र भणाववानी महाजन पासे रजा मागी अने ते मलतां तेमणे साथे साथे भव्य नवछोडनु उद्यापन पण शरु कयु. अने तेमा रु. २७०००) सत्तावीश हजारनो खच कर्यो, जैन जैनेतर सौ कोईमां आनंद अने उत्साह वाप्यो. तेमज ते प्रसंगे याचक विगेरे वर्ग पण दान अने भेटथी संतोष पाम्यो हतो.
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कुमार
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॥४॥
प्रतिबोध सामान्य बाळजीवोने धर्ममार्गे लाववामां ऊत्सवो अने पर्वोनो फाळो किंमती छे. ऊद्यापन, अट्ठाईमहोत्सव, प्रबंध अने नोकारशी विगेरे धर्मप्रभावक कार्यों सामान्य जनताने धर्ममार्गे वाळनार छे. कारणके आवे प्रसंगे हजारो मानवो धर्मनी अनुमोदना करी बोधिवीज पामे छे, अने धर्ममां द्रढ बने छ. आ ऊद्यापन महोत्सव साधारण न हतो तेमज ते कोई एक व्यक्तिके कुटुंबनोज होय तेम पण श्रीसंघे ते लागवा दीधुं न हतुं. कारणके गामे पोताना गामनो महोत्सव वधु सुंदर दीपे। ते माटे खुबज जहमत अने तैयारी करी हती. आ प्रसंगे हाथी.निशान, पालखी, बेन्ड विगेरे मंगाववामां आव्यां हतां, तेमज ते अवसरे आठे दिवस वरघोडा, नोकारशी विगेरे करवामां आव्यां हतां, अने दशहजार जेटलां भाविक नरनारीओ पोताना आत्माने पावन करवा एकठा थयां हता. आ ऊद्यापनमहोत्सव आजे पण सौने याद आवे तेवी तेनी अपूर्वता अने जाहोजलालीपूर्वक उजवायो हतो आथीज तेना स्मरणनिमित्ते जेठ सुदि ३ ना रोज नंदादेना सुपुत्रो तरफथी दरवर्षे नोकारशी करवामां आवे छे. आ प्रमाणे ऊद्यापन करीने आ प्रदेशमा जैनशासननी ऊन्नति सारामां सारी करी हती..
आ ऊद्यापन महोत्सव उपरांत नंदादेए धर्ममार्गे पण पोतानी शक्तिमुजब सद्व्यय करवामां कमीना नथी राखी, आखरे पोतानी वृद्धावस्थाए पहोचतां ७५ वर्षनी ऊमरे संवत् १९९५ ना चैत्र महिनामां पोतानी पाछळ बहोळो परिवार मुकी स्वर्गवास पाम्यां, स्वर्गवास वखते तेमनी विचारपरिणति देवगुरु अने धर्ममां स्थिर हती. कारणके तेमनुं आ जीवन दान, शीयल, तप अने भावधर्मनी आराधना साथे परोपकार अने नीतिपरायण हतुं. जोके ते परोपकारशील नंदादे आजे चाल्यां गयां छतां तेमना गुणोने आजे तेमनुं कुटुंब अने आखंगाम संभारी तेमना जीवननी अनुमोदना करे छे.
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तेओने मगनलालभाई तथा मुलचंदभाई अने चीमनभाई नामना त्रण सुपुत्रो छे, अने तेओने पण विस्तृत पुत्रादिनो | परिवार छे. मगनलालभाईने एक पुत्री भीखीबाई अने नवलमल तथा ओतमचंदनामना बे पुत्रो छे. मुळचंदभाईने राजमल, शांतिलाल, अमरचंद नामे त्रण पुत्रो छे, अने चीमनभाईने वे पुत्री ने एक पुत्र छे.
आजे तेओना पुत्रोनी स्थिति पण खुवज चढती होवा साथे धर्मपरायण छे. तेओनी मुंबईमां मुळजी जेठा मारकीटमा अग्रगण्य अने प्रतिष्ठित शा. मनुभाई मुळचंदभाईना नामनी कापडनी पेढी अने तेज मारकीटमां माधवरायगलीमा | मगनलाल चीमनलालना नामनी पण बे दुकानो खुबज सारामां सारी आवकबाळी चाले छे, अने तेओ पोतानी आवकनी धर्ममार्गे सद्व्यय करी लक्ष्मीनो सदुपयोग करी रह्या छे.
अंतमा एज अमारी मनोकामना के ए त्रणे पुत्ररत्नो पोतानी सदलक्ष्मीनो जैनशासननी ऊन्नतिमां ने जैनसमाजनी ऊन्नतिमां हमेशां सदुपयोग करता रहे. एज इच्छा-प्रकाशक चैत्र शुक्ल त्रयोदशी १९९६
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कुमार
प्रतिबोध प्रबंध:
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वाई नंदादेना सुपुत्रोए करेली खास खास सखावतोनी नोंध नीचे आपवामां आवी छे. ५०१) श्रीमालवाडाना देरासरमा पार्श्वनाथनी आंगीना. २५१) श्रीसिद्धचक्र आराधनविधिनी चोपडी छपाववामां ४०० श्रीमालवाडाना देरासरमा तोरणना.
___आप्या ते. ५०१) यशोवृद्धि जैनवालाश्रम महुवा,
१२०१) ब्राह्मणवाडा तीर्थमां नोकारशी. ५०१) वीरतत्त्वप्रकाशकमंडळ.
२५१) ,, , बीजी तीथी. २००१) मेरवाडामां (सिद्धपुर पासे) ढोर माटे पाणी पीवानो १०००) शेठ आणंदजी कल्याणजी तरफथी श्रीशत्रुजयरखोकुवो तथा हवाडो बंधाव्यो.
पानी टीपमां सं. १९८५ मां. ७५१) राणी स्टेशने धर्मशाळा ऊपर होल बंधाव्या तेमां. २७०००) ऊद्यापन महोत्सवमा. ७०१) मालवाडानी पाठशाळामां छुटक छुटक.
३००) जीवदया प्रबोधक मंडळ. ७०१) मालवाडा जैनस्कुलना विद्यार्थीओने शत्रंजय ६०१) कुमारपाळप्रतिबोधसंबंध नामर्नु पुस्तक गिरनारनी यात्राना खर्चना.
छपाववामां. २५१) यशोविजयजैनगुरुकुळ पालीताणा.
२५१) मोटा राणीवाडाना देरासरमा प्रभुजीने झरीनुं २५१) श्रीसिद्धक्षेत्र जैन बालाश्रम पालीताणा.
पुठीयुं कराव्युं तेमां. तदुपरांत बीजी पण खानगी नानी मोटी रकमनी सखावतो घणी करी छे तेनी नोंध अत्रे लेवामां आवी नथी.
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कुमारपालप्रतिबोधप्रबंधस्य विषयानुक्रमः
विषय.
पृष्ठ
१-१
४-२
२-१
२-२
विषय. मंगलाचरणम्
___ तजिर्णोद्धारसंकल्पश्च शीलगुणसूरिभिःश्राद्धानामावेद्य बाल्ये वनराजरक्षाकरणं २-१ सज्जनमंत्रिकृतनेमिचैत्यजीणोद्धारः वनराजराज्याभिषेकः
| जयसिंहस्य रैवताचलोपरि आगमनम् 'यदत्र कृत्यं चापोत्कटकुलराज्यकालं
भवति तत्सर्वमपि त्वं कारयेत्यादेशपूर्वकं लीलादेवीपाणिग्रहः
२-२ देवदाये ग्रामद्वादशकार्पणं मूलराजराज्याभिषेकः
जयसिंहस्य हेमचन्द्रसूरिभिः सह समागमः मूलराजानन्तरं चामुंडराज-वल्ल
सिद्धराजविज्ञप्त्या 'श्रीहेमचंद्रसूरिकृता सिद्धहेमाभिभीमदेवराज्यं
३-२ धानव्याकरणरचना, महाडम्बरपूर्वकं कोशागारे राज्यं अनिच्छति क्षेमराज्ये कर्णस्य राज्यप्राप्तिः ३-२ स्थापनं च मणयल्लदेव्या सह कर्णस्य परिणयनं
४-१ | भिन्नभिन्नमतदर्शनेन संदेहदोलाधिरूढसिद्धराजजयसिंहस्य जन्म, कर्णस्य सोमनाथ-रैवताचलयात्रा
कृतप्रश्नस्य कलियुगे सर्वदर्शनाराधनेन मुक्ति
६-२
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प्रतियोध
कुमार
| प्रबंध
पदमित्याधुपदेशेन हेमचंद्रसूरिकृतसमाधानं ७-२ | कुमारपालस्योज्जयिन्यां गमनं, कुण्डगेश्वरमंदिरे मणयल्लदेव्या सोमनाथयात्रावसरे सिद्धराजकृतकरमोचनं ८-२ | पार्श्वनाथप्रतिमाप्रशस्तिमध्ये स्ववर्णनदर्शनं च, सिद्धपुरे रुद्रमहालयस्थापना
चित्रकूटदुर्गोत्पत्तिवर्णनम्
१४-२ कुमारपालस्य परिवारनिर्देशः
कान्यकुब्जे अपुत्रधनत्यागनियमसंकल्पः, आम्रवनसिद्धराजकृतत्रिभुवनपालघातः कुमारपालघाताय
निरीक्षणं, राजगृहे शालिभद्रजीर्णसौधावशेषदर्शनं, विविधप्रयत्नाश्च
९-२
जयपुरे सर्व पुष्पफलोपेतमनोरमोद्याने शक्रावतार सिद्धराजभयेन कुमारपालस्य तापसवेषाङ्गीकरण,
तीर्थनमस्करणं, कामाख्ये कामदेवीभवनदर्शनं च १६-१ वोसिरिमित्रेण सह देशाटनं, कुम्भकारगृहे प्रच्छन्न- कृष्णदेवभट्टस्य गृहे गमनं. सिद्धराजस्य देह
वृत्त्या वसनं, इभ्यवध्वा आहारलाभश्च १०-२ | त्यागः, कुमारपालस्य राज्याभिषेकश्च कुमारपालस्य स्तम्भनतीर्थे गमनं. तत्र हेमचन्द्रसूरि- कृष्णदेवस्योपहासशिक्षा. कृतोपकारान् सर्वानाहूय भिः सह समागमेन स्वराज्याप्तिकालस्य ज्ञानं
यथोचितं प्रत्युपकरणं उदयनमन्त्रिसम्बन्धश्च
११-१ हेमचन्द्रसूरिसमागमः जैनधर्मे मनो निधेहीत्युवटपद्रके खड्गं नाणके दत्वा चणकाहारः, महाल
पदेशकथनं, दिग्विजययात्रा, कविकृतप्रशस्तिश्च क्ष्म्याराधनं, कोलम्बपत्तने पूजासत्कारश्च ११-२ | मल्लिकार्जुनस्य राज्यपितामहविरुदश्रवणानन्तरं
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१९-२
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३३-१
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कुमारपालानुमत्या आम्बडकृतमल्लिकार्जुन
शुद्धधर्मतत्त्ववर्णनं ३२-१-३५-२ पराभवः चौलुक्याज्ञा प्रवर्त्तनं च। १-२ प्रथमं लक्षणं जीवदया-संयमस्वरूपवर्णनं आम्बडस्य दानाधिक्यं, हेमसरिजननीप्राहिणीदेवी
द्वितीयं लक्षणं-दशविधसत्यस्वरूपवर्णन ३३-२ स्वर्गवासश्च
२३-२ तृतीयं धर्मलक्षणं-अदत्तादानपरिहारस्वरूपकथनं जैनमुनयः अजितेन्द्रियाः, सूर्यममन्वानाः इति
चतुर्थ धर्मलक्षणं-ब्रह्मचर्यस्वरूपकथनं ३४-२ परतीर्थिककृताक्षेपद्यस्य हेमचन्द्राचार्यकृतसमाधानं २४-२ | पञ्चमं धर्मलक्षणं-अकिञ्चनतास्वरूपकथनं ३४-२ राजपिण्डत्यागवर्णनं, जैना वेदबायाः, शुद्रा
तपः-क्षमा-धर्म-ऋजुता-मुक्तिस्वरूपदशविधधर्मवणेनं ३५-२ मलाविलवस्त्राश्च इत्याक्षेपत्रयस्य हेमचन्द्र
कुमारपालस्य प्रतिबोधाय हेमचन्द्र सूरिप्रतिपादितसूरिकृतसमाधानं
२६-२ सम्यकत्वमूलद्वादशवतस्वरूपवर्णनं ३६-१ ४०-२ कल्पान्तस्थायियशःप्रसराय सोमनाथमहादेव
कंदमूलस्वरूपवर्णनं धनवपनसप्तक्षेत्रीवर्णनं च ४०-२ जीर्णोद्धारः, तत्पूण सोमेश्वरयात्रायां हेमचन्द्रसूरीणां
जीवतत्त्वस्वरूपवर्णनं ४१-२ ४३-१ नृपविज्ञप्त्यागमनं, शुद्धमहादेवस्वरूपवर्णनपूर्वकं
अजीव-पूण्य-पाप-आश्रव-संवर-निर्झरा-बन्धमहादेवस्तुतिः महादेवप्रत्यक्षदर्शनं च २९-२ मोक्षतत्त्ववर्णनं
४३-२ ४६-२ पिशितमद्यादिनियमाङ्गीकारः, शुद्धदेव-शुद्धगुरु- हेमचन्द्रसूरिप्रतिपादितश्रावकक्रियानुष्ठान तत्त्ववणेनं च ३०-२ हेमचन्द्रसूरिसंक्षिप्तजीवनपरिचयः
४७-१
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कुमार हेमचन्द्रसूरिप्रतिपादितसप्तव्यस नदुष्टतावर्णनं भैरवानंद - देवबोधिकृतव्यामोहनिरसनं हरीतकी प्रश्नस्योत्तरं
॥ ७॥
चन्द्रप्रभप्रसादगत चन्द्रोदय विध्यापनं कुमारपाल - सिद्धराज पूर्वभवस्वरूपकथनं कुमारपालकारितामारिप्रबंधन कंटकेश्वरदेवीकृतोपसर्गादिवर्णनं
घेवराणां भक्ष्याभक्ष्याप्रश्नस्य समाधानं
देवन्द्र प्रेषित लेख वर्णनं तृतीयवर्णनं चतुर्थवर्णनं
परिग्रहपरिमाणं
वामराशि भरड प्रबन्धवर्णनं
कुमारपाल महाव्यथावर्णनं वीतभयपत्तनात्प्रतिमानयनं
देवचन्द्राचार्यकृत सुवर्णसिद्धिप्रार्थना निषेधवर्णनं
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५० - १
५० - २
५१-२
५१-२
५२ - १
५५-१
५६-१
५६-२
५७-१
५७-१
५७ -२
५७-२
५८-१
५९ - १
५९-१
भगिनीवचसा शाकंभरीशेन सह युद्धकरणं अजाव्यापादकमुरांकशिक्षा, उदयनकृताभिग्रह
चतुष्टयनिष्ठापनवर्णनं च शकुनिकाविहारस्य जीर्णोद्धारः चाहडमंत्रिदान प्रकर्षवर्णनं अमावास्यादिने पूर्णिमाकरणं ब्राह्मणानां जैनधर्म कथं द्वेषः ?
इति प्रश्नस्य समाधानं प्राकृतभाषानिबद्धजैन सिद्धान्तनिन्दाक्षेपनिराकरणं कुमारपालस्यसंघाधिपतिमनोरथः शत्रुञ्जयरैवताचलमाहात्म्यवर्णनं तदुद्धारवर्णनं च शत्रुञ्जयरैवताच लतीर्थयात्रावर्णनं तीर्थ मालारोपणा व सरप्रसंगगतजगडुश्रावकप्रबंध वर्णनं च
कुमारपाल भूपाल कृतसंक्षितपूण्यकृत्यवणनं हेमचन्द्रसूरिनिर्वाणं, अजयपालप्रदत्तविषार्पणेन कुमारपाल स्वर्गगमनं तच्छोकवर्णनं च
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५९ - २ प्रतिबोध
प्रबंधः
६०-२
६१-१
६२-२
६३-१
६३-२
६४-१
६४-२
६४-२
६६-१
६७-१
६८-२
६९-१
॥ ७ ॥
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प्रस्तावना.
जिनागम अने जिनमंदिर ए बन्ने आ कालमां परमतारक छे ते निर्विवाद छे. ने तेनी विद्यमानतामां जैनशासनमा सर्व छे अने तेना अभावे कशं नथी.
धर्मविषयने प्रतिपादन करनार के तेनी प्रभावनाने अनुसरनार जे कोइ ग्रंथ होय ते जिनागम छे पछी भले ते गद्य पद्यात्मक तिहासिक, उपदेशात्मक, वार्ता साहित्य, आचार विषयक के धर्मविषयक मूल ग्रंथने अनुसरनार कोईपण ग्रथ होय.
आ कुमारपाल प्रतिबोध प्रबंध तिहासिक होवा छतां खरीरीते धर्मग्रंथज छ कारणके तेमां वर्णवेल कुमारपालनी जीवनगाथा सम्यक्त्वनी दृढता अने धर्मसन्मुख वाळवाना आशये शुद्धसत्योना संग्रहरूप छे. अने पूर्वपुरुषोनो तेनी रचना प्रत्येनो परिश्रम कुमारपालना धर्मदृढ अनेधर्मप्रभावक कार्योनाप्रचारद्वारा जगतमां धर्मभावनानी प्रगटता साथे धर्मप्रभावना थाय तेने लइने छे.
वास्तविक रीते आ ग्रंथमां विक्रम सं. ८०० थी १२३० सुधीनो शंखलाबद्ध गुजरातनो संक्षिप्त इतिहास अनेक घटनाओथी भरपूर रीते पूरी पाडवामां आव्यो छे अने साथे साथे बारव्रत, तत्वत्रयी, नवतत्त्व विगेरे अनेक विषयोनुं प्रतिपादन करवामां आव्युं छे.
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कुमार
PMLD.
आ ग्रंथर्नु नाम कुमारपालप्रतिबोधप्रबंध ग्रंथमा जणावेल छ परंतु प्रतिनी बाजुमां अने अंते कुमारपालप्रबंध लखेल छे तो पण अमे आ ग्रंथर्नु नाम कुमारपाळ प्रतिबोधप्रबंध राखेल छ जे खरेखर सार्थक छे, कारणके महाराजा कुमारपालनी जीवनघटनाओगें वर्णन होवा छतां ग्रंथर्नु मुख्य लक्ष तो कुमारपालनो प्रतिबोध हेमचंद्रसूरि महाराजे कह रीते कयों ते जणाववानुं छे, अने तेथीज नवतत्त्वर्नु स्वरूप, श्रावक आचार विगेरे विगेरे विविधविषयोनुं वर्णन कुमारपालद्वारा करायेल प्रश्नोना जवाब अने परतीथिकोना आक्षेपोर्नु पण निरसन करी कुमारपालने प्रतिबोध जे रीते थाय ते सर्वनुं सविस्तर वर्णन करवामां आव्युं छे.
आ ग्रंथ एकज प्रति उपरथी तैयार करवामां आव्यो छे आ प्रति सं. १४९७ नी सालमां लखायेल खुबज अशुद्धने जीर्ण छे. अमदावादना प्रसिद्ध डहेलाना उपाश्रयनी प्रतिओमां तेनी बीजी प्रति मळी शकी नथी तेथी तेनी शुद्धि पं. चतुरावजयजीगणिवर प्रकाशित कुमारपालप्रबंध अने प्रबंधचिंतामणि विगेरे द्वारा करवामां आवी छे. छतां ज्यां ज्यां तेनो विषय तद्दन जुदो के बंधबेस्तो न लाग्यो त्यां अक्षरे अक्षर तेवा स्वरुपमा मुक्यो छे. परंतु तेनो फेरफार करवामां नथी आव्यो. आ ग्रंथ कुमारपालप्रबंधनी प्रस्तावनामां जणावेल कर्तृनामरहित कुमारपालप्रबंधनो उल्लेख छ तेज कदाच होवो जोइए.. अंते प्रेसदोष दृष्टिदोष अने प्रमादने लइने थयेल स्खलना बदल क्षमा मागी अटकीए छीए. परमपूज्य शासन प्रभावक कविदीवाकर पन्यास प्रवर श्रीमद् रंगविमलगणिवर विनेयाणु
मुनिश्रीकनकविमलजी. १ श्रीकुमारपालस्य प्रारभ्यते प्रतिबोधप्रबन्धोऽयं, तत्र केऽपि जिशासवः प्रश्नयन्ति ... ... ... ...
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॥ नमः श्रीपार्श्वनाथाय ॥ परमपूज्य शांतमूर्ति श्रीमद् पंन्यास दयाविमलजीगणिवरपादपत्रेभ्यो नमः
कुमारपालप्रतिबोधप्रबंधः। स्वयंकृतार्थः पुरुषार्थभावैः, जगाद यस्तान जगतां हिताय
नाथः प्रजानां प्रथमः पृथिव्यां, जीया युगादौ पुरुषः स कोऽपि ॥ १ ॥ प्रणमामि महावीरं सर्वज्ञं पुरुषोत्तमम् , सुरासुरनराधीशैः सेव्यमानक्रमाम्बुजम् ॥२॥ परा मनसि पश्यन्ती, हृदि कंठे च मध्यमा, मुखे च वैखरीत्याहुर्भारती तामुपास्महे ॥३॥ अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया नेत्रमुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥४॥
सकलसुरासुरनरनिकरनायकशिरःशेखरायमाणपादारविन्दश्रीसर्वज्ञोपज्ञपथपांथ( प्रेष्ठस्य )प्रष्टस्य, कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमसूरिगुरूपदेशविवेकविशेषप्राप्ताशेषभूवलयप्रतिष्ठस्य, सकलजंतुजातजीवातुजीवदयाधर्मनिष्ठस्य, निजभुजबलकलितसकल भूपालस्य श्रीकुमारपालस्य प्रारभ्यते प्रतिबोधप्रबन्धोऽयम् । तत्र केऽपि जिज्ञासवःप्रश्नयन्ति-"कोऽयं कुमारपालभूपालः, कश्चायं कलिकालसर्वज्ञः श्रीहेमचन्द्रसरिगुरूः, कथं प्रतियोधस्तस्य" इति सर्वमिदमावेद्यमानं श्रूयताम्-तथाहि. अस्मिन् जंबूद्वीपे भरतक्षेत्रे युगलधर्मकाले प्रवर्त्तमाने तृतीयारकपर्यन्ते सप्त कुलकराः पुराऽभूवन् । तेषु सप्तमः
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प्रतिषोध
कुमार
॥
१
॥
श्रीनाभिकुलकरः । तस्यादियोगिनी मरूदेवी स्वामिनी धर्मपत्नी बभूव । तयोः पुत्रः सकलधर्मार्थकाममोक्षाणां चतुःपुरुषाथोणां प्रथमः साधकः, परेषामुपकाराय प्रथमोपदेष्टा, प्रथमः पुरुषः, प्रजानां सम्यग्योगक्षेमकरणात् प्रथमो नाथः, शैशवे प्रवरेक्षुयष्टिकृतावष्टंभहृष्टत्वात्प्रणामागतेंद्रस्थापितेक्ष्वाकुवंशः समग्रैश्वर्यादिगुणोपेतत्वात् प्रथमो भगवान् प्रथमो जिनः समजनि । तस्मिश्चक्ष्वाकुवंशे क्रमेण षट्त्रिंशद्राजकुलान्यभूवन् । तेषु महापुरुषरत्नसंकुले श्रीचौलुक्यकुले षट्त्रिंशल्लक्षग्रामाभिरामे कान्यकुब्जदेशे कल्याणकटकपुरे श्रीभूयडराजा राज्यं करोति । तेन राज्ञा स्वपुत्री मणयल्लदेवी गुर्जरधरित्रीशं विवाहसंबंधे दत्ता । इतश्च गुर्जरराष्ट्रैकदेशे (गुर्जरैकदेशे) वढियारदेशे पंचासरग्रामबहिःप्रदेशे श्रीशीलगुणसूरयः शकुनावलोकनार्थ गताः । वन गहनमध्ये वृक्षशाखानिबद्धझोलिकायां बालमेकं दृष्ट्वा समीपस्थां तन्मातरमूचुः । भद्रे ! कासित्वं ! तयोक्तं राजपत्न्यहम् । कान्यकुब्जदेशीयश्रीभृयडराजभयेन चापोत्कटकुलकमलबंधोरस्य पुत्रस्य गोपनार्थमत्र स्थिताऽस्मि । ततः सूरिभिरपराह्नेपि तवृक्षच्छायामनमितामालोक्य कोऽप्ययं महानगरेश्वरो भावीति । तत्स्वरूपं श्राद्धानामावेद्य (तस्य) रक्षा कारिता । स च चालकः श्रीगुरुदत्तवनराजनामाष्टवार्षिको राजचिह्नः क्रीडन् परवालकाऽसह्यतेजाः समभूत् । यतःपीऊण पाणीयं सरवरंमि पिट्टि न दिति सिंहडिम्भा। हो ही जाणकलावो पयइ चिय साहए ताण ॥१॥
ततः श्राद्धैः मातुः समर्पितः सन् स चौरमातुलेन सह वनधाट्यादौ परिभ्रमन् अन्यदा काकरग्रामे धनिगृहे खात्रं दत्त्वा प्रविष्टो दधिभाण्डे करे पतिते सति (भुक्त्वाऽतिमात्र) भुक्तोऽहं अत्रेति सर्व हित्वा गतः। प्रातस्तत्पुत्र्या श्रीदेव्या गोरसे हस्ताङ्गुलिचिह्नानि घृतभृतानि दृष्ट्वा कोऽप्ययं महापुरुषो भाग्यवानिति तं बांधवत्वेन प्रतिपद्य "तं दृष्ट्वा भोक्ष्यामि" इति कृता
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|॥१॥
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प्रतिज्ञा । तत्स्वरूपमाकर्ण्य रात्रौ गृहमागतो वनराजो गुप्तवृत्त्या भोजनवस्त्रादिना सत्कृतो मम राज्याभिषेके त्वयैव भगिन्या | तिलकं कार्यमिति प्रतिज्ञाय गतः।
अन्यदा वनराजेन कस्मिन्नपि वने जांबाको वणिक् रुद्धः । शरपंचकमध्याच्छरद्वयं भूमौ मुश्चन् पृष्टः कारणं । प्राह, यूयं त्रयो जनाः शरास्तु पंच तेन द्वाम्यामधिकाभ्यां किं प्रयोजनमिति प्रोक्ते कोप्ययं सत्त्वशाली शूरः पुमान् मम राज्यकाले महाऽऽमात्यो भावीति मुक्तो जांबाकः कृतप्रणामः किमपि शंबलादिकं दत्त्वा गतः। एकदा गुर्जरपंचकुलं षण्मासैरुद्वाहितसुराष्टमंडलं चतुर्विंशतिलक्षहमनाणकान् चत्वारिंशच्छतजात्यतुरंगमान् लात्वा व्याघुटयमाने पथि वनराजेन हत्वा सर्व जगृहे । ततो वर्ष यावत्कालुंभारवने स्थितिं कृत्वा कान्यकुब्जस्थितिरुत्थापिता । ततो नवीनपुरनिवेशाय भूमि विलोकयता वनराजेनाऽणहिल्लो नाम गोपः प्राप्तस्तेन यत्र शश केन श्वा त्रासितस्तत्स्थानं दर्शितम् । ततस्तन्नाम्नाऽणहिल्लपुरं पत्तनं सकलवास्तुविद्याविचारपुरस्सरप्राकारप्रातोलीपरिखा-प्रासाद-विहार-हर्म्य-हस्तिशाला-तुरंगमशाला-भाण्डागार--कोष्ठागारा--युधशाला-ाजसभा-ऽलंकारसभा-स्नानगृह-भूमिगृह-धर्मशाला-दानशाला-सत्रागार-पानीयशालानाद्य-नाटय-गृह-क्रीडागृहशान्तिगृह-शिल्पशाला-चंद्रशालादिभिर्विशालं स्थापितम् । ततः पंचाशद्वर्षवयसोवनराजस्य राज्याभिषेकः श्रीपत्तने संवत् ८०२ वर्षे शीलगुणसूरिभिः जैनमंत्रः राज्यस्थापना च कृता । ततः पुरा प्रतिपन्नभगिन्या तिलकश्चक्रे । तस्याः महाप्रसादः जांबाकः सर्वकार्यक्षमो महामात्यः समभूत् । श्रीगुरूपदेशेन राजा वनराजः पुण्यवान् कृतज्ञः पंचाशरग्रामे श्रीपार्श्वनाथप्रतिमालंकृतं निजाराधकमूर्तियुतं प्रासादमचीकरत् ।
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कुमार
प्रतिबोध | प्रबंधः
॥२॥
गुर्जराणामिदं राज्यं वनराजात्प्रभृत्यपि । स्थापितं जैनमंत्रैस्तु तद्वेषी नैव नंदति ॥१॥
इति लोके प्रसिद्धिरभूत् , ततःषष्ठिवर्षाणि वनराजस्य राज्यं, पंचत्रिंशद्वर्षाणि तत्पुत्रस्य योगराजस्य राज्यं, पंचविंशति वर्षाणि क्षेमराजराज्यं, एकोनत्रिंशद्वर्षाणि भूयडराजराज्य, पंचविंशतिवर्षाणि वैरसिंहराज्य, पंचदशवर्षाणि रत्नादित्यराज्यं, सप्तवर्षाणि सामंतसिंहराज्यं, एवं चापोत्कटकुले सप्त राजानोऽभूवन् । एवं अनुक्रमवर्षगणनैः संवत्सर १९६ ततो ९९८ वर्षे दौहित्रसंताने चौलुक्यकुले राज्यं गतम् । तदाह
कान्यकुब्जीयचौलुक्यश्रीभूयडराजस्य सुतः कर्णादित्यस्तत्पुत्रश्चंद्रादित्यस्तत्पुत्रः सोमादित्यस्तत्पुत्रो भोमादित्यस्तस्यराज-बीज-दंडकनामानस्त्रयः पुत्राः, प्रथमो राजकुमारः “'दीसइविविह" इति विचार्य देशान्तरेषु परिभ्रमन् देवपत्तने सोमनाथयात्रां कृतवान् , तत्र च स्वप्ने त्वया पत्तने गत्वा सामन्तसिंहभगिनी लीलादेवी पाणिग्रहः कार्यः इति सोमनाथवचसा श्रीपत्तने समायातः, सामंतसिंहनृपं चाश्वकेलिं कुर्वन्तं दृष्ट्वाऽश्वधाते राज्ञा दत्ते राजकुमारोऽनवसरदत्तेन कशाघातेन पीडितो हाहेति शब्दमकरोत् राज्ञा कारणं पृष्टोऽवदत् , देव ! अश्वे कृतशोभनगतौ कशाघातो मर्माभिघातः संजातः ततोराज्ञा तस्यर्पितोऽश्वः तेन चाश्वशिक्षाकुशलेन दर्शितं वाहकेलीकौतुकम् । जातस्तयोः सदृशो योगः यतः--
"अश्वः शस्त्रं शास्त्रं वीणा वाणी नरश्च नाराचः पुरुषविशेष प्राप्ता भवन्त्योग्याश्च योग्याश्च" ॥१॥
ततः सामन्तसिंहनृपेणाचारादिभिर्महत्कुलमाकलय्य १ दोसइ विविहच्चरियं, जाणिजइ सुयणदुजणविसेसो । अप्पाणं च करिजइ हिंडिजइ तेण पुहवीए ॥१॥
॥२॥
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"अभणंताणवि नजइ माहप्पं सुपुरिसाण चरिएण किं बुल्लन्ति मणीओ जाओ सहस्सेहिं धिप्पन्ति" ॥१॥
इति विचिंत्य राजकुमारस्य महताऽऽग्रहेण लीलादेवी नाम्नी स्वभगिनी ददे।
अन्यदा कालान्तरे साऽऽपनसत्त्वा जाता। तस्या अकाण्डमरणे सचिवरुदरं विदार्य कर्षितमपत्यं मूलनक्षत्रे जात. त्वान्मूलराजोऽयमिति नाम कृतम् । तज्जन्मतो राज्यादिवृद्धिं दृष्ट्वा मदमत्तेन सामन्तसिंहेन स राज्येऽभिषिच्यते गतमदेन चोत्थाप्यते । तदादिचापोत्कटानां दानमुपहासाय जातम् । तदुक्तम् "चाउडदाति" एकदा मदमत्तेन स्थापितो राज्ये मूलराजस्तेन च विकलोऽयं मातुल इति विज्ञाय विनाशितो गृहीतं स्वयमेव राज्यं संवत् ९९८ वर्षे जातो राज्याभिषेकः स चातुलबलपराक्रमः प्रतापाक्रान्तसकलसीमालभूपालः स्वबलेन लाखाकं नृपं जितवान् । तत्स्वरूपं यथा
परमारवंशे कीर्तिराजसुता कामलता शैशवे सखीभिः सह रममाणांधकारे प्रासादस्तंभान्तरितं फूल्हडाभिधं पशुपालं वृता. ततः कतिपयैः वर्षेः प्रधानवरेभ्यो दीयमाना पतिव्रता व्रतपालनाय तमेवोपयेमे. नयोः पुत्रो लाखाकः स कच्छाधिपः सर्वतोऽप्यजेयः एकादशवारांस्वासितमूलराजसैन्यः एकदा कपिलकोटे स्थितो मूलराजेन रुद्धो द्वन्द्वयुद्धं कुर्वाणस्तस्याजेयतां दिनत्रयेण विमृश्य तुर्ये दिने निजकुलदैवतमनुस्मृत्य ततोऽवतीर्णदेवतकलया लाखाको निजन्ने । तस्याजौ भूपतितस्य । भूपतेवातर्चलिते श्मश्रूणि पदं स्पृशन् मूलराजस्तज्जनन्या पतिव्रताव्रतनिष्ठया 'लुतारोगेण भववंश्या विनश्यन्तु ' इति शप्तो मूलराजः पंचपंचाशद्वर्षाणि यावद्राज्यं कृत्वा एकदा सांध्यनीराजनानंतरं ताम्बूले कृमिदर्शनात पूर्व गजादिदानं दत्त्वा सन्या| सपूर्व दक्षिणचरणाङ्गुष्ठे वह्निमोचनं कृत्वा 'अष्टादशभिदिनैः परलोकमगात् ।
१ अष्टादशप्रहरैरिति प्रत्यन्तरे ।
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प्रतियोध
कुमार०
ततस्त्रयोदशवषोणि चामुंडराजस्य राज्य, पड़ मासान् यावद् राज्यं बल्लभराजस्य, एकादशवषोणि षण्मासान् दुले
प्रबंधः भराजराज्यं । स स्वपुत्रं (नप्तार) श्रीभीमदेवं स्वराज्ये न्यस्य स्वयं वैराग्यवान तीर्थयात्रां कुर्वन् मालवके गतः। श्रीमुंजेन "छत्रादिक मुश्च वा युद्धं कुरु" इत्युक्तो धर्मान्तरायं मत्वा प्रशमवान् कार्पटिकवेषेण यात्रां कृत्वा परलोकमसाधयत् । तत्स्वरूपं भीमेन ज्ञातम् । ततः प्रभृति राजद्वयविरोधः, भोजराजेन सार्ध भीमदेवस्य । तस्य द्वे राझ्यौ एका बकुलदेवी नाम्नी पण्याङ्गना पत्तनप्रसिद्धरूपपात्रं गुणपात्रं च । तस्याः कुलयोषितोऽपि अतिशायिनी प्राज्यमर्यादां नृपतिनिशम्य तवृत्तपरीक्षानिमित्तं सपादलक्षमूल्यां क्षरिका निजानुचरैस्तस्यै ग्रहणके दापयामास । औत्सुक्यात्तस्यामेव निशि बहिरावासे प्रस्थानलग्नमसाधयत् । नृपतिर्वषेद्वयं यावत मालवमण्डपे विग्रहाग्रहात्तस्थौ । सा तु बकुलदेवी तहत्तग्रहणकप्रमाणेन तद्वर्षद्वयं परिहतसर्वपुरुषसंगाऽभंग शीललीलयैव तस्थौ । निस्सीमपराक्रमो भीमस्तृतीय स्वस्थानमागतो जनपरम्परया तस्यास्तां प्रवृत्तिमवगम्य तामन्तःपुरे न्यधात् । तंदगजः क्षेमराजः। द्वितीया राज्ञी उदयमती । तस्याः सुतः कर्णदेवः ।
"क्षेमराजकर्णदेवौ, तत्पुत्रौ भिन्नमातृकौ । परस्परं प्रीतिभाजौ. यथा राघवलक्ष्मणौ ॥१॥ कर्णमातुस्ततस्तेन, भीमदेवेन चैकदा । प्रतिपन्न राज्यदानं, श्रीकर्णस्य लघोरपि ॥२॥ वशीकमिव स्वर्ग, भीमदेवे दिवंगते । द्विचत्वारिंशद्ववर्षाणि, राज्यं कृत्वा मनोरमम् ॥३॥ सौन्दर्यवर्यगांभीर्य-प्रज्ञाबुद्धिगुणोत्तमैः । राज्यक्षमे क्षेमराजे, कर्णो राज्यं न वाञ्छति ॥ ४ ॥
॥३॥ राम इव क्षेमराजः, स्मृत्वा भाषां पितुस्ततः । कर्ण महोपरोधेन, स्वयं राज्ये न्यवीविशत् " ॥५॥ For Personal & Private Use Only
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तस्य राज्ञी मणयल्लदेवी तस्याः स्वरूपं किश्चिदुच्यते
शुभकेशिनामा कर्णाटराद तुरंगमेनापहृतः प्रांतरप्रान्तभूभौ नीतः कुत्रापि पत्रवृक्षच्छायां सेवमानःप्रत्यासन्नदावपावके प्राणानाहुतीचकार । तत्सूनुः जयकेशिनामा तद्राज्ये सचिवैरभिषिक्तः । तस्य राज्ञी विजया । तत्सुता मणयल्लदेवी नाम्नी समजनि । सा च शिवभक्तेः सोमेश्वरस्य नाम्नि गृहीतमात्र एव पूर्वभवमस्मार्षीत् । “यत्पूर्वभवेऽहं ब्राह्मणी द्वादशमासोपवासान् कृत्वा प्रत्येकं द्वादशवस्तूनि तदुद्यापनके दत्त्वा श्रीसोमेश्वरनमस्याकृते बाहुलोडनगरं प्राप्ता । तत्करं दातुमक्षमाऽग्रतो गंतुमलमभाना चाहमागामिभवे भवस्य करमोचनाय भूयासं इति कृतनिदाना विपद्यात्र जाता । इति पूर्वभवस्मृतिः। __अथ सा बाहुलोडकरमोचनाय गुजरेश्वरं प्रवरं वरं कामयमाना मातरं प्रति तं वृत्तान्तं निवेदितवती । तया जयकेशिराजानं जयकेशिराज्ञाऽपि तद् व्यतिकरो ज्ञापितः श्रीकर्णस्य स्वप्रधानपुरुषः, मणयल्लदेव्याः कुरूपतां निशम्य तस्मिन् मंदादरे तस्मिन्नेव राज्ञि निबंधपरां विज्ञाय तामेव स्वयंवरां प्राहिणोत् ।
अथ श्रीकर्णनृपो गुप्तवृत्त्या स्वयमेव तां कुत्सितरूपां विलोक्य सर्वथा निरादरो जातः । ततः सा दिक्कन्याभिरिव मूर्तिमतीभिरष्टाभिः सहचरीभिः सह नृपतयेहत्याकृते प्राणान् परिजिहीर्षुः, श्रीउदयमत्या राज्या तासां विपदं द्रष्टुमक्षमतया ताभिः सह प्राणसंकल्पश्चक्रे । यतः-- "स्वापदि तथा महान्तो न यान्ति खेदं यथा परापत्सु । अचला निजोपहतिषु प्रकंपते भूः परव्यमने ॥१॥
इति न्यायात् कदाग्रहात् अनिच्छुनाऽपि सर्वथा श्रीकर्णेन सा परिणिन्ये । तदनन्तरं दृग्मात्रेण सर्वथा तामसंभावयन् ।
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कुमार०
प्रतिबोध
॥४॥
कस्यामधमयोषिति साभिलाषं नृपं मुंजालमंत्रीकंचुकिना विज्ञाय तद्वेषधारिणीमणयल्लदेवी ऋतुस्नातां तामेव रहसि प्राहिणोत् ।। तामेव स्त्रियं जानता नृपतिना सप्रेमभुज्यमानायास्तस्या आधानं समजनि । तदा च तया संकेतज्ञापनाय नृपकरानाम्नांकित मंगुलीयकं निजाङ्गुल्यां न्यधायि । प्रातस्तदुर्विलसितात् प्राणपरित्यागोद्यताय नृपतये स्मातैस्तप्तताम्रमयपुत्तलिकालिङ्गनमितिनिवेदितप्रायश्चित्ताय तत्तथैव चिकीर्षवे स मंत्री यथावदथाऽवदत् । सुलग्ने जातस्य सूनोः नृपतिना जयासिंहेति नाम निर्ममे।
स बालकत्रिवार्षिकः सवयोभिः समं रममाणः सिंहासनमलंचक्रे । तद्व्यवहारविरुद्धं विमृशता नृपेण पृष्टैर्निमित्तिकैः तस्मिन्नेवाभ्युदयिनि लग्ने निवेदिते राजा तदैवाभिषेकं चकार । स्वयं तु देवयात्रायां गन्तुं मना अभूत् ।
पालयत्यन्यदा राज्यं, जयसिंहे नरेश्वरे । चचाल देवयात्रायां कर्णः कर्ण इवाऽपरः ॥ १॥ श्रीदेवपत्तनादर्वाग् , गव्यूतैः सतभिः स्थितः। प्रासाद सोमनाथस्य, दृष्ट्वाऽभिग्रहमग्रहीत् ॥२॥ यथा पापक्षयं हार, चंद्रादित्यख्यकुंडले । श्रीतिलकमङ्गदं च, परिधाय समाहितः ॥३॥ यदा सोमेश्वरं देवं, पूजयिष्यामि भक्तितः। भोक्ष्ये तदाऽशनं पानं, ताम्बूलमपि नान्यथा ।। ४ ।। स्नात्वा प्रभासे श्रीकर्णो, यदाऽयाचत भूषणम् । कोषाध्यक्षस्तदाऽऽह स्म नादिष्टं स्वामिभिस्ततः ॥५॥ आभरणं पत्तनेऽस्थात , विषण्णश्च ततो नृपः। तदा मदनपालाख्यो, मंडलिकोब्रवीदिति ॥६॥ मा विषीद महाराज! मंत्रसिद्धिधरा यतः । मया सन्ति सहानीताः, श्री धनेश्वरसूरयः॥७॥ अथ राज्ञाभ्यर्थितैस्तैरणहिल्लाख्यपत्तनात् । आकृष्टिमंत्रणाकृष्याभरणं तत्समर्पितम् ।।८।।
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सम्पूर्णाभिग्रहो राजा, प्राह सूरिवरं प्रति । युष्माभिर्जीवितं दत्तं, ममाभिग्रहपूरणात् ॥९॥ गृहाण तदिदं राज्यमित्युक्तः सूरिरब्रवीत् । रक्ष जीववधं राजन्नवरात्रद्वयेऽपि हि ॥१०॥ तथेति कृत्वा संसाध्य, सुराष्ट्रमंडलं नृपः। चकार वामनस्थल्यां, सज्जनं दंडनायकम् ॥११॥ ततो मदनपालेन, विज्ञप्तः कर्णभूपतिः। सार्ध धनेश्वराचार्यैरारूढो रैवताचलम् ॥ १२॥ सजनोऽपि स्वगुरुभिः, श्रीभद्रेश्वरसूरिभिः । चतुर्विधेन संघेन, साध राजानमन्वगात् ।। १३ ॥
श्रीनेमिभवनं जीर्ण, वीक्ष्य काष्ठमयं ततः। सजनो गुरूणाऽऽदिष्टे, जीर्णोद्धारकृते कृती ॥ १४ ॥ यतः-"जिणभुवणाई जे उद्धरंति भत्तीए सडिअपडिआई। ते उद्धरन्ति अप्पं, भीमाओभवसमुदाओ॥१५॥ अथवा-अप्पा उद्धरिउ चिय उद्धरिओ तह य तेहिं नियवंसो। अन्ने अभव्वसत्ता अणुमोअंता यजिणभवणं
॥१६॥ इति श्राद्धदिनकृत्ये" युक्तमिदमुपदेशकथनं साधूनाम् । यतः-- "राया अमच्च सिहि कुडुबिए वावि देसणं काउं। जिण्णे पुव्वाययणे जिणकप्पी वावि कारवई" ॥१७॥ जीर्णोद्धाराय विज्ञप्तः, सज्जनेन नृपस्ततः । सुराष्ट्रोद्राहितं दत्त्वाऽणहिल्लपुरमाययौ ॥ १८ ॥ अथ भद्रेश्वरः सूरिः, सज्जनेन सहाष्टमम् । तपः कृत्वांबिकादेवीमाह्वानयददीनधीः ॥ १९॥ प्रत्यक्षीभूय साऽप्यूचे, युवाभ्यां किमहं स्मृता । मरिराह नेमिचैत्यमुद्धरिष्यति सज्जनः ॥२०॥
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कुमार०
॥ ५॥
तदेनमनुजानीहि पाषाणखनिमादिश । अम्बाऽप्यूचे भवत्वेतदल्पायुः सज्जनः पुनः ॥ २१ ॥ दण्डाधिपः प्राह कार्यस्तीर्थोद्धारो विशेषतः । परलोकप्रस्थितानां, पाथेयं धर्म एव यत् ॥ २२ ॥ दीपे म्लायिनि तैलपूरणविधिस्तोयं द्रुमे शुष्यति । प्रावारो हिमसंगमे जलगृहं ग्रीष्मे ज्वरोजागरे निर्वातं कवचं शरव्यतिकरे रोगोद्भवे भेषजम् । धर्मो मृत्युमहाभये सति सतां संसेवितुं युज्यते ॥ २३ ॥ अम्बानुज्ञां ततो लब्ध्वा, पाषाणस्य खनिं च सः । श्रीनेमिचैत्यं षण्मास्यां, कलशान्तमकारयत् ।। २४ ॥ ज्येष्ठस्य सितपचम्यां, शिरोऽर्त्तोऽथ सज्जनः । अंबादेवीवचः स्मृत्वा, जातपंचत्वनिश्चयः ।। २५ ।। आदिश्य परशुरामं, स्वपुत्रं ध्वजरोपणे । भद्रेश्वरगुरोः पार्श्वे, संस्तारव्रतमग्रहीत् ॥ २६ ॥ दिनाष्टकं पालयित्वाऽनशनं सजनो मुनिः । दिवं जगाम पुत्रोऽस्य ध्वजारोपं व्यधापयत् ॥ २७ ॥ द्वयो राज्ञोर्नैकत्रावस्थानं युक्तमिति आशापल्लीनिवासिनं प्रबलभुजबलशालिनं आसाकं भिल्लं जित्वा कर्णावतीं पुरीं - विधाय एकोनत्रिंशद्वर्षाणि राज्यं कृत्वा पंचत्वमाप ।
अत्रान्तरे परशुरामेणाऽचिन्ति, राजा श्रीजयसिंहो दंडं शोधयिष्यति तदा किं भावि इति विचिन्त्य क्षोभपरे जाते तद्वामनस्थलीनिवासिभिर्व्यवहारिभिर्दण्डदानं प्रतिपन्नम् ।
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अथ पंचत्वमापन्ने कर्णदेवे महीपतौ । श्रीमान् जयसिंहदेवः स्वयं राज्यमपालयत् ॥ १ ॥ ततः समुद्रमर्यादा मही तेन वशीकृता । सिद्धो वर्बरकश्चाथ सिद्धराजस्ततोऽभवत् " ॥ २ ॥
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॥ ५ ॥
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इति घनतरेषु देशेषु निजाज्ञां जगन्मान्यां दापयित्वा वलमानो रैवताचलासनां वामनस्थली प्राप। तत्र दण्डनायकमाकार्य दण्डमयाचत । दण्डाधिपेनोक्तम-"श्रीरैवताचलोपरि महाऽभयस्थाने निक्षिप्तोऽस्ति” । ततो राजा रैवताचलं गन्तु मिच्छविर्मात्सर्यात लिंगाकारमिति निषिद्धोऽपि श्रीकणस्य निजपितुर्गमनं श्रुत्वा छत्रशिलायां छत्रमोचनं च कृत्वा गतस्तत्र गजेन्द्रपदकुण्डे स्नात्वा श्रीनेमिजिनपूजां विधाय तुष्टाव यथा
ज्योतिः परं परं ब्रह्मा-परमात्मनमित्यपि ये स्तुवन्ति बुधा नित्यं, स श्रीनेमिजिनः श्रिये॥१॥ चिदानंदमयं यस्य, स्वरूपं योगचक्षुषा । पश्यन्ति योगिनो नित्यं, स श्रीनेमिजिनः श्रिये ॥२॥
'इत्यादि स्तुत्वा धर्मशालायामुपविश्य प्रासादरम्यतां विलोक्योचे धन्यौ मातृपितरौ येनेदं मंदिरं कारितम् । अत्रान्तरे परशुराम उवाच- 'राजन् धरणीतले श्रीकर्णदेवमणयल्लदेव्यौ धन्ये ययोः सूनुर्भवान् । श्रीकर्णविहारोऽयं मत्पित्रा | कारितो वर्षत्रयोद्घाहितव्ययेन, यदि देवपादानां प्रासादेच्छा वर्तते तदा प्रासादः वा द्रव्येच्छा तदा द्रव्यं व्यवहारिगृहे स्थापितमस्ति'। तनिशम्य प्रमुदितो राजा प्राह, भव्यं सज्जनेन दण्डाधिकारिणा कृतम् , यदत्र कृत्यं भवति तत्सर्वमपि त्वं कारयेत्यादिश्य देवदाये ग्रामद्वादशक दत्त्वा श्रीशत्रुजयमाजगाम । आकृष्ट कृपाणकैर्विनिषिद्धो रात्रौ समारुरोह । श्रीयुगादिदेवस्य | सरोमांचः पूजां विधाय स्तुतिमकरोत् । यथा
नमो युगादिदेवाय, तस्मै ज्ञानमयात्मने । प्रावर्तन्त यतः सर्वहेयोपादेयबुद्धयः ॥ १॥ चराचरं जगत्सर्व, यस्याऽन्तःप्रतिबिम्बितम् । तस्मै युगादिदेवाय, परमज्योतिषे नमः ॥१॥
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प्रतिबोध प्रबंधः
॥६॥
इति श्रीआदिजिनं स्तुत्वा द्वादशग्रामान् देवदायं कृत्वा विविधतोरणपताकालक्षलक्षितं श्रीपत्तनं प्राप ।
प्रतिदिनं सर्वदर्शनिनेषु आशीर्वाददानायाहूयमानेषु यथावसरमाकारिता जैनाचार्याः श्रीहेमचन्द्रमुख्याः (सिद्धराजमागत्य) नृपेण दुकूलादिनाऽऽवज्जिताः सर्वैरपि कविभिप्रतिभाभिरामैः द्विधापि पुरस्कृतास्ततो नृपतये श्रीहेमचंद्र इत्याशिषं पपाठ
भूमि कामगवि स्वगोमयरसैरासिंच रत्नाकरा । मुक्ता स्वस्तिकमातनुध्वमुडुप त्वं पूर्णकुंभीभव छित्वा कल्पतरोदलानि सरलैर्दिवारणास्तोरणान्याधत्त स्वकरैर्विजित्य जगतीं नन्वेति सिद्धाधिपः॥
अस्मिन् काव्य निष्प्रपंचं प्रपंच्यमाने तद्वचनचातुरीचमत्कृतचेता नृपतिस्तं प्रशंसन् कैश्चिदसहिष्णुभिरस्मच्छास्त्राध्ययनबलादेतेषां विद्वत्तेत्यभिहिते राज्ञा प्रष्टाः श्रीहेमचंद्राचार्याः प्राहु:
"पुरा श्रीजिनेन-श्रीमन्महावीरेण इन्द्रस्य पुरतः शैशवे यद्याख्यातं तज्जैनेन्द्रव्याकरणमिति वयमधीयीमहि" इति वाक्यानन्तरं 'इमां पुराणवार्तामपहाय अस्माकमपि संनिहितं कमपि व्याकरणकर्तारं व्रत' इति तत्पिशुनवाक्यानन्तरं नृपं सूरयः प्राहुर्यदि सिद्धराजः सहायी भवति तदा कतिपयैरव दिनैपंचांगमपि नूतनं व्याकरणं रचयामः।" । ___ . अथ नृपेण प्रतिपन्नं 'राजन्निदं भवता निर्वहणीय'मिति अभिधाय विसृष्टाः स्वपदं सूरयः प्रापुः । ततो बहुभ्यो देशेभ्यस्तत्तद्वेदिभिः पण्डितैः समं सर्वाणि व्याकरणानि समानीय श्रीहेमचंद्राचार्यैः श्रीसिद्धहेमाभिधानं प्रधानमभिनवं पंचागमपि व्याकरणं सपादलक्षग्रन्थप्रमाणं. संवत्सरेण रचयांचक्रे । राजवाह्यकुंभिकुंभे तत्पुस्तकमधिरोप्य सितातपवारणे ध्रियमाणे चामरग्राहिणाभ्यां चामरयुग्मवीज्यमानं नृपमंदिरमानीय प्राज्यव्ययसपर्यापूर्वकं कोशागारे न्यधीयत । नृपाज्ञयाऽन्यानि व्याक
॥६॥
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- रणानि अपहाय तस्मिन्नेव व्याकरणे सर्वथाऽधीयमाने केनापि मत्सरिणा भवदन्वयवर्णनाविरहितं व्याकरणमिति व्याहरता क्रुद्ध है।
नृपे नृपांगवचनात् तदैव बुद्धया द्वात्रिंशच्छ्लोकान्नूतनान्निर्माय द्वात्रिंशत्सूत्रपादेषु तान् संबद्धानेव लेखयित्वा प्रातर्नुपसभायां वाच्यमाने व्याकरणे 'हरिरिव० १ 'चक्रे श्री० २ इत्यादिश्चौलुक्यवंशोपश्लोकान् द्वात्रिंशच्छ्लोकान् विलोक्य प्रमुदितो राजा व्याकरणं विस्तारयामास । ततो राजाज्ञया सर्वः कोऽपि हैमव्याकरणं पठति भणति चभ्रातः! पाणिनि! संवृणु प्रलपितं कातंत्रकथाकथाम् । मा कार्षीः कटु शाकटायनवचः क्षुद्रेण चांद्रेण किम् ? । कः कंठाभरणादिभिर्वठरयत्यात्मानमन्यैरपि । श्रूयन्ते यदि तावदर्थमधुराः श्रीसिद्धहेमोक्तयः ॥१॥
तथा श्रीसिद्धराजदिग्विजयवर्णनात्मको द्वाश्रयनामा ग्रन्थः समर्पितः
श्रीहेमसूरीनभ्यर्च्य, सर्वविद्याविशारदान् व्याकरणं सिद्धहेमं ततो राजा प्रवर्त्तयेत् ॥ १॥ . अथान्यस्मिन्नवसरे सिद्धराजः संसारसागरतितीषर्या सर्वदर्शनेषु सुदेवत्वसुधर्मत्वसुपात्रत्वजिज्ञासया पृच्छयमानेषु । निजस्तुतिपरनिंदापरेषु संदेहदोलाधिरूढमानसः श्रीसिद्धराजो हेमाचार्यमाकार्य विचार्य कायं पप्रच्छ । आचार्यैस्तु चतुर्दशविद्यास्थानरहस्यं विमृश्य इति पौराणिकनिणयो वक्तुमारेभे । “यत्पुराः कश्चिद्व्यवहारी पूर्वपरिणीतां पत्नी परित्यज्य नूतनगृहिणीसास्कृतसर्वस्वो जातस्ततः सदैव पूर्वपत्न्या पतिवशीकरणाय तत्तद्वेदिभ्यः कार्मणकर्मणि पृच्छयमाने कश्चिद्वौडदेशीय इति प्राहरश्मिनियंत्रितं तव पतिं करोमीति उक्त्वा किश्चिदविचिन्त्यं वीर्य भेषजं उपनीय भोजनान्तर्देयमिति भाषते स्म । कियहिनान्ते समागते क्षया(?)हनितया तथाकृते स प्रत्यक्षं वृषभतामाप । सा च तत्प्रतीकारमनवबुध्यमाना विश्वविश्वाक्रोशान्
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कुमार०
॥ ७ ॥
सहमाना निजदुश्चरितं शोचयन्ती कदाचिन्मध्यं दिने दिनेश्वरकठोरतरकरनिकरप्रसरतप्यमानाऽपि शाड्वलभूमिषु तं वृषभरूपं पति चारयन्ती कस्यापि तरोर्मूले विश्रान्ता निर्भरं विलपन्ती स्थिता, तस्याः आलापं नभसि अकस्मात् शुश्राव तदा तत्रागतो विमानाधिरूढः पशुपतिः, भवान्या तदुःखकारणं पृष्टो यथावस्थितं निवेद्य च तरोश्छायायां पुंस्त्वनिबंधनमौषधं तन्निर्वन्धादादिश्य तिरोदधे । सा तदनु तदीयां छायां रेखाङ्कितां निर्माय तन्मध्यवर्त्तिन औषधाङ्कुरानुच्छेद्य वृषभवदने निक्षिपन्ती तेनाप्यज्ञातस्वरूपेण औषधाङ्कुरेण वदनन्यस्तेन स वृषभो मनुष्यतां प्राप । यथा तदज्ञातस्वरूपेणापि भेषजांकुरेण सा समीहितकार्यसिद्धिं चकार । तथा कलियुगे मोहान्धिते तिरोहितपात्रपरिज्ञाने सभक्तिकं सर्वदर्शनाराधनेनाविदितस्वरूपमपि मुक्तिपदं भवतीति निर्णयः । पुनः पात्र परीक्षाविचारे श्रीहेमसूरयः प्राहुः "राजन् ! द्वैपायनयुधिष्ठिर भीमसंवादे पात्रपरीक्षायां भीम उवाच -- "मूर्खस्तपस्वी राजेन्द्र ! विद्वांश्च वृषलीपतिः । उभौ तौ द्वारि तिष्ठेते, कस्य दानं प्रदीयते" ॥ १ ॥ युधिष्ठिर उवाच
"सुखासेव्यं तपो भीम ! विद्या कष्टदुरासदा । विद्वांसं पूजयिष्यामि, तपसा किं प्रयोजनम् ” ॥१॥ भीमोप्यचे
"श्वानचर्मगता गंगा, क्षीरं मद्यघटस्थितम् । अपात्रे पतिता विद्या, किं करोमि युधिष्ठिर ! " ॥ २॥ द्वैपायन उवाच --
"न विद्यया केवलया, तपसा चापि पात्रता । यत्र ज्ञानं क्रिया चोभे, तद्धि पात्रं प्रचक्ष्यते " ॥ ३ ॥
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॥७॥
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एधंविधगुणपात्रभक्त्या मुक्तिरिति श्रीहेमचंद्राचार्यैः सर्वदर्शनसंमते निविदिते सति सर्वधर्मान् श्रीसिद्धराज आरराध। ___ अथ सा मणयल्लदेवी जातिस्मरणात् पूर्वभववृत्तान्तं श्रीसिद्धराजे निवेदिते सति श्रीसोमनाथयोग्यां सपादकोटिमूल्यां हेममयीं पूजां सहादाय बाहुलोडनगरे संप्राप्ता । तत्र पंचकुलेन कार्पटिकेषु कदर्थ्यमानेषु राजदेयविभागस्याप्राप्त्या सबाष्पं पश्चान्निवर्यमानेषु श्रीमणयल्लदेवी हृदयादर्शसंक्रान्तबाष्पा स्वयमेव पश्चादयाघुटन्ती अंतरा अंतरायीभूतेन श्रीसिद्धराजेन विज्ञापयांचके स्वामिन्यलममुना संभ्रमेण "कुतो हेतोः पश्चान्निवय॑ते" इति राज्ञाभिहिते यदैव सर्वथा अयं करमोक्षो भवति तदैवाहं श्रीसोमेश्वरं प्रणमामि नान्यथेति, किंचातः परमशननीरयोश्च नियमः इति राजा श्रुते पंचकुलमाकार्य तत्पट्टकस्यान्ते द्वासप्ततिलक्षान् उत्पद्यमानान् विमृश्य तं पट्टकं विदार्य मातुः श्रेयसे तं कर मुक्त्वा तत्करे जलचुलुकं स मुश्चति स्म। तदनु विप्राः पृष्टाः करमोक्षे किंफलं । तैरुचे--
"अकरे करकर्ता च गोसहस्रवधः स्मृतः। प्रवृत्तकरविच्छेदे गवां कोटिफलं भवेत्" इति स्मृतिः॥१॥ __तच्छ्रुत्वा मुदितो राजा, अथ सा सोमेश्वरं गत्वा तया सुवर्णपूजया अभ्यर्च्य तुलापुरुषगजाश्वगोदानादीनि । महादानानि दत्त्वा मत्सदृशः कोऽपि नाभून्न भविष्यतीति दर्याध्माता निशि निर्भरं प्रसुप्ता तपस्विवेषधारिणा तेनैव देवेन जगदे "इहैव मदीयदेवकुलमध्ये काचित्कार्पटिकनितम्बिनी समायाताऽस्ति । तस्याः सुकृतं याचनीयं त्वया" इत्थमादिश्य तिरोहिते तस्मिन् राजपुरुषैविलोक्य सा समानीता तस्मिन् पुण्ये याचितेप्यददाना कथमपि त्वया यात्रायां किं व्ययीकृतमिति उक्ता सती सा प्राह । “भिक्षावृत्त्या योजनशतानि देशान्तरमतिक्रम्य बस्तनदिवसे कृततीर्थोपवासा पारणदिने कस्यापि सुकृतिनः
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कुमार० ॥ ८॥
प्रतिबोध
सदने भोजनार्थमुपविष्टा । तदर्द्ध अतिथये दत्त्वा च स्वयं पारणकं अकार्षम् । भवती पुण्यवती यस्याः पितृभ्रातरौ नृपो पतिसुतौ च राजानौ बाहुलोडकर द्वासप्ततिलक्षान् मोचयित्वा सपादकोटिमूल्यया सपर्यया अगण्यपुण्यमर्जयन्ती महीयसि पुण्ये सत्यपि कृशेऽपि कथं लुब्धाऽसि । हे मणयल्लदेवि! यदि न कुप्यसि तदा किश्चिद्वच्मि । तत्त्वतस्तव पुण्यात् मम पुण्यं महीतले महीयः। यतः
"संपत्तौ नियमः शक्तौ सहनं यौवने व्रतम् । दारिद्रये दानमत्यल्पमतिलाभाय जायते" ॥१॥ . इति तस्या युक्तियुक्तेन वाक्येन सर्वकषगवं विससर्ज श्रीपत्तनं प्राप्ता । अन्यदा सिद्धपुरे रुद्रमहालयप्रासादे निष्पद्यमाने मंत्रिणा च चतुर्मुखश्रीराजविहाराख्यश्रीमहावीरप्रासादे कार्यमाणे पिशुनप्रवेशे राजा स्वयमवलोकनार्थमायातः पप्रच्छ च कोऽत्र विशेषः श्रीहेमस रिभिः प्रोक्तं देव ! महेश्वरस्य ललाटे चंद्रः श्रीजिनस्य पादान्ते नवग्रहा भवन्ति इति विशेषः राजा तन मन्यते । ततो वास्तुविद्याविशारदः सूत्रधारो विचारं प्राह-"सामान्यलोकानां गृहद्वारं पंचशाखं राज्ञां सप्तशाखं रुद्रादिदेवानां नवशाखं श्रीजिनस्यैकविंशतिशाखं द्वारम् । अष्टोत्तरशतं च मण्डपाः। रुद्रादिनामेक एव । श्रीजिनस्य पद्मासनं छत्रं सिंहासनं च नान्यदेवानां चेत्कश्चित्कारयति सूत्रधारः करोति तदा द्वयोः विघ्नमुत्पद्यते नान्यथा वास्तुविद्यायाः सर्वज्ञभाषितत्वात् । एतदाकर्ण्य सिद्धराजः प्रमुदितः स्वयं राजविहारे कलशारोपणादिकमकारयत् ।
"मुद्गानुद्गतमुद्गरानुरुगदाघातोद्यतान् व्यन्तरान् । वेतालानतुलानलाभविकटान् झोंटीगचेटानपि । जित्वा सत्त्वरमाजितः पितृवने, नक्तंचराधीश्वरम् । बड्वा बर्बरवरीपतिरसौ चक्रे चिरात् किंकरम् ।। एवं सर्वत्राखण्डप्रतापो जयसिंहो राज्यं करोति।
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इतश्च क्षेमराजस्य, पुत्रो देवप्रसादकः । तस्य पुत्रास्त्रयस्त्रिभुवनपालादयोऽभवन् ॥ ४४ ॥ त्रिभुवनपालस्याऽभूत्सुतैका तनयास्त्रयः। आद्यः कुमारपालाख्यो, राजलक्षणलक्षितः॥४५॥ महीपालः कीर्तिपालस्तथा प्रीमलदेव्यभूत् । श्रीकृष्णदेवमदेन, वोढा मोहडवासके ॥ ४६॥ भायो भोपालदेवीति, कुमारस्य बभूव च । कुमारपालस्य पुत्री लालूः साङ्गसुन्दरा ।
अत्रान्तरे सिद्धराजो दैवज्ञ पृष्टवानिति ॥४७॥ मम पदे को भविता, सोप्यूचेस्ति महाभुजः । मध्ये दधिस्थलिकाया, यस्ते भ्रातृव्यनंदनः॥४८॥ राज्यं नो मम पुत्रस्य, जीवति भ्रातृनप्तरि । तत्तं ज्ञात्वा हनिष्यामीत्यचिंतयदथ नृपः ॥५०॥ ततोऽसौ पादचारेण, कपोतीमुद्वहन् स्वयम् । गत्वा प्रभासे पुत्रार्थ, सोमनाथमनाथयत् ॥५१॥ सोमनाथोऽप्यथोवाच, मया राज्यधरः पुरा । सृष्टः कुमारपालोऽस्ति, तदलं पुत्रयाञ्चया ॥५२॥ सविषादस्ततो भूपो, व्यावृत्तः पत्तनं प्रति । अस्मिन् जीवति, पुत्रोऽपि न मे भावीत्यचिंतयत् ।। ५३ ॥ मंत्रिणे कथिते त्वेतत् , सोप्यूचे युक्तमेव तत् । यदा पूर्व देवपादो, विजेतुं मालवान् गतः ॥ ५४ ॥ घाटे दुर्वलिकायाश्च, संरुद्धे यशवर्मणा । युष्माभिः ज्ञापितश्चाहं, पारापतप्रयोगतः ॥ ५५ ॥ त्रिभुवनपालस्यैतत्तदा राज्यं समर्पितम् । त्वत्समीपेऽहमायास्तेन राज्यं वशीकृतम् ॥ ५६॥ निर्जित्य यशवर्माणं, त्वया यातेऽपि वक्ति सः। राज्यं दास्ये स्वपुत्राय, हत्वा सिद्धनरेश्वरम् ॥ ५७ ॥
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कुमार
प्रतिबोध इति मंत्रिवचः श्रुत्वा, क्रुद्धः सिद्धाधिपस्ततः। त्रिभुवनपालं देवं, घातयामास घातकैः॥ ५८॥
प्रबंधः कुमारपालोऽप्यवन्त्यां, प्रेष्य भ्रातृपितृव्यकान् । भार्या भोपालदेवीं तु, दधिस्थल्याममुश्चत ॥ ५९ ॥ स्वयं तु स्त्रिपुरुषाणां, मठाधिपतिसन्निधौ । कपटेन जटाधारी, भूत्वा श्रीपत्तने स्थितः॥ ६० ॥ सिद्धराजोऽपि तत्रस्थं, ज्ञात्वा तं च कथंचन । क्षयाह्ने (प्रासादे) कर्णदेवस्य, द्वात्रिंशत्तापसैः सह ॥ ६१ ॥ तं निमन्त्र्य मठाधीश, पंक्त्या धावन् पदौ स्वयम् । ददर्श राजचिह्नानि, कुमारस्य च पादयोः ॥ ६२ ॥ उपलक्ष्य कुमार तं, राज्ञा पृष्टो मठाधिपः । अवोचच्च त्रयस्त्रिंशत्तापसा वयमास्महे ॥६३॥ नानाविधैर्भक्ष्यभोज्यैः, राजा संभोज्य तानथ । धौतपोतीकृते तेषां, भाण्डागारे स्वयं गतः ॥ ६४॥ अत्रान्तरे कुमारोऽपि, गृहीत्वा कुण्डिकां करे । उत्क्रान्तिाजतो नंष्ट्वा, कुंभकारगृहं गतः ॥६५॥ आपाके रच्यमाने तु, मृत्पात्राणां तु कृपालुना। आलिगेन तदन्तस्तं, निधायेति सुरक्षितः ॥६६॥ सिद्धराजोऽप्यदृष्ट्वा तं, पृष्टेऽप्रैपीच्च साधनम् । आगतं साधनं प्रेष्य, ययौ संमुखमालिगः॥६७॥ राट्पुरुषस्ततः पृष्टं, पुमान् कश्चिदिहाऽययौ । किमंधा यूयमग्रेऽपि, किन्न पश्यथ पावकम् ॥ ६८ ॥ राजलोके गते तेन, नाशि भो भो निशि ? (नाशितं निशि छन्त्रक)। दृष्ट्वा सैन्यं प्रगेऽकस्मात्कुमारो हालिकं जगौ॥ रक्ष मामिति तेनाऽपि, स छन्नः कण्टकाभरैः । तमदृष्ट्वा सैन्यममपि, गतं व्याघुट्य पत्तने ।। ७० ॥ निसृत्याऽथ कुमारोऽपि, मुंडाप्य विकटा जटा । गत्वा दधिस्थली रात्रौ, मिलितः स्वजनैः समम् ॥ ७१॥
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आकार्य वोसिरिं मित्रं, कुलालमालिगं तथा । गंतुं देशान्तरं ताभ्यां, सह यावदमंत्रयत् ॥ ७२॥ तावदुज्जागरोद्विनौ, जनकावुचतुस्तयोः । भवतां मन्त्रणैर्दग्धाः, केयं जागरिका मुधा ॥७३॥ यद्वा कुमारपालस्य, राज्यं यदि भविष्यति । तत्कथं वोसिरे तुभ्यं, लाटदेशं प्रदास्यति ॥ ७४ ॥ किंच रे आलिग तव, चित्रकूटस्य पट्टिकां । वबंध शकुनग्रन्थि तच्छ्रुत्वा राजनंदनः ॥ ७५ ॥ आलिगं भोपलदेव्या, सह प्रैषीदवन्तिकां । स्वयम् वोसिरियुक्तस्तु, चेले देशान्तरं प्रति ॥ ७६ ॥
व्रजन्नेवं कुमारोऽपि, नानाश्चर्यावलोकधीः । विश्रान्तस्तरुच्छायायां, यावदस्ति समाहितः ॥ ७७ ॥
तावद्विलान्मूषकं मुखेन रूप्यनाणकमाकर्षन्तं निभृततया विलोक्य यावदेकविंशतिसंख्यानि दृष्ट्रवा एक गृहीत्वा चिलं | प्रविष्टः कुमारपालः पाश्चात्यानि तु सर्वाणि गृहीत्वा यावन्निभृतीभूत्वा तिष्ठति तावन्मूषकस्तान्यनवलोक्य तदा विपेदे।। तच्छोकशंकाव्याकुलितमानसश्चिरं परितप्य चेतसीदं चिन्तयामास
अर्थानामर्जने दुःखं, अर्जितानां च रक्षणे । नाशे दुःखं व्यये दुःखं, धिगर्थे दुःखभाजनम् ॥१॥ धनेषु जीवितव्येषु, स्त्रीषु चान्नेषु सर्वदा । अतृप्ताः प्राणिनः सर्वे, याता यास्यन्ति यांति च ॥२॥ ___ तस्मात्पुरो व्रजन् कयाऽपि इभ्यवध्वा श्वसुरगृहात्पितुर्ग्रहं व्रजन्त्या पथि पाथेयाऽभावात् दिनत्रयक्षुत्क्षामकुक्षिः भ्रातृवात्सल्यात्कुमारपालः कर्पूरपरिमलशालिना शालिकरंबेन सुहितीचक्रे । तदौचित्येन हृष्टोऽचिन्तयतकरचलुयपाणिएण वि, अवसरदिन्नेण मुच्छिओ जियइ । पच्छा मुयाणु सुन्दरि घडसयदिनेण किं तेण ॥
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॥ १० ॥
जं अवसरेण न हुयं दाणं, विणओ सुभासियं वयणम् । पच्छा गयकालेणं, अवसरहिएण किं तेण ॥२॥ तस्मिन् करोटकग्रामे, उषित्वा जातलंघनौ । अच्छांबिभ्यां द्वितीयेऽह्नि, प्रयातौ महरद्वये ॥ १ ॥
कुमारो वोसिरिं प्राह, अद्य स्याद्भोजनं कथम् । सोऽप्याऽऽहाऽस्ति जननी मे, सा मे दास्यति भोजनम् ||२|| यतः - प्रतिदिनमयत्नलभ्ये, भिक्षुकजनजननि साधुकल्पलते । नृपनमनि नरकतारणि । भगवति ! भिक्षे ! नमस्तुभ्यम् ॥३॥
इत्युक्त्वा वोसिरिर्भिक्षां कृत्वा यातस्तदन्तिके । करंबकुम्भं संगोप्य, भिक्षामुण्डीमुपानयत् ||४|| क्वोभावपि सुप्त्वा च पूर्वमादाय वोसिरिः । करंचं यावदश्नाति कुमारोऽचिन्तयत्तदा ॥५॥ अहोsस्य न्यूनता येन, मुझे मय्येककोऽयसौ । जीर्णे करंबे सोप्याहोत्तिष्ठ भुक्ष्व नृपात्मज ! ॥६॥ ऊ कुमारः किं पूर्वमेकाकी भुक्तवान् भवान् । स ऊचे मम भिक्षार्थ, गतस्योक्तं स्त्रियैकया ||७|| करंबकुम्भं हे विप्र ! रात्रावुद्घटितं स्थितम् । गृहाण यदि ! ते कार्य, न पुनर्मम दूषणम् ||८|| वरं भवतु मे मृत्यू, रक्षणीयो भवान् पुनः । गोपितः स मयाऽऽदाय, स्वयं भुक्त्वा परीक्षितः ॥९॥ राज्ये दास्ये तव ग्राममेनमुक्त्वेति राजसूः । प्राप्तो डांगरिकाग्रामे, साध्वीलक्ष्मीश्रियो मठे ॥१०॥ तया च क्षुधितो ज्ञात्वा, भोजितश्चारुमोदकैः । तथैवार्पितपाथेयः, पटलापद्रकं गतः ॥ ११ ॥ तत्रेश्वरवणिग्वाट्यां प्रविष्टस्य पटी गता । न लब्धा चाभिरपि विषादोऽस्य महानभूत् ||१२||
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प्रावृत्य वोसिरिः पटी, स्तम्भतीर्थ गतस्ततः । श्रीहेमसूरीन पप्रच्छ, कदा सेत्स्यति वांच्छितम् ।।१३।। लोकोत्तराणि चिह्नानि, तदंगे वीक्ष्य सर्वतः । तेप्यचनपतिर्भावी, सार्वभौमो नरोत्तमः॥१४॥ तां वाणी निशम्याऽसौ, हर्षमालासमाकुलः । उवाच राज्यसंदेहो. म्रियते तु क्षुधाधुना ॥१५॥ श्रीविक्रमाद् शरदां नवनवत्यधिकेषु कार्तिके मासे, हस्तार्के द्वितीयायां गतेष्वेकादशशतेषु ॥१६॥
भवतस्तदाभिषेको न भवति यदि राज्यसंभवस्तन्मे । यावज्जीवं नियमोऽतः परं सनिमित्तस्य ।।१७॥
इति निश्चयं श्रुत्वा कुमारपालः प्राह यद्यदः सत्यं तदा त्वमेव राजाऽहं तव सेवकः । श्रीमरिर्वभाषे "राजन् सुरासुरनरनिकरनायकमुकुटमणिकिरणनीराजितपादारविन्दस्य श्रीसर्वज्ञस्य शासने प्रभावको भवतु भवान्" । इति प्रतिपन्नं राज्ञा । इतश्चागादुदयनो गुरुन्नन्तुं सुतैः सह । आख्यायाम्रबप्पभटयोर्दष्टान्तं हेमसूरिभिः ? ॥१॥ प्रोक्तं चेति कुमाराय, भविता परमार्हतः । सार्वभौमस्ततो मंत्रिन ! सन्मान्योऽयं महादरात् ॥२॥
अस्योदयनस्य पुण्योदयः कथ्यते यथापूर्व मरुमण्डलीवास्तव्यः श्रीमालवंश्यःउदा नामाभिधानो वणिक, प्रावृषि काले प्राज्याज्यक्रयाय निशीथे वजन् कर्म करैरकस्मात् केदारादपरस्मिन् पूर्यमाणेऽभोभिः के यूयमिति पृष्टे तैर्वयममुकस्य कार्मुका इति अभिहिते ममाऽपि क्वापि संतीति पृच्छन् तैः कर्णावत्यां तवाऽपि सन्ति इत्यभिहिते सकुटुम्बस्तत्र गत्वा वायडीयजिनायतने विधिवद्देवान्नमस्कुर्वन् कया छिपीकया श्राविकया साधर्मिक त्वां वन्दे पृष्टश्चेति भवान् कस्यातिथिस्तेनोक्तं वैदेशिकोऽहं इति भवत्या एवातिथिः इति तद्वाक्ये श्रुते तं सह
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प्रतियोध
कमारत
नीत्वा कस्यापि वणिजो गृहे कारितान्नपाकेन भोजयित्वा निजलके निर्मापितकायमाने निवास्य स्थापितः स तत्र संपन्नसंपत् इष्टकगृहं चिकीर्षुः खातावसरे निरवधिशेवधिमधिगम्य तामेव स्त्रियमाकार्य समर्पयन् तया निषिद्धः तत्प्रभावेन ततःप्रभृति उदयसंयुक्तत्वात् उदयननामा मंत्रीति । तेन कर्णावत्यां अतीतवर्तमान भविष्यच्चतुर्विंशतिजिनसमलंकृतश्रीउदयनविहारः | कारितः । तस्यापरमात्रिकाश्चत्वारः पुत्राः बाहड, सोल, आंबड, बाहडदेवनामानश्चत्वारः सुता अभुवन् ।
कुमारोऽपि उदयनस्य, गृहे तिष्ठंस्तदाऽन्यदा । केनाप्युक्तः सिद्धराजः, प्रेषीत्तत्प्रतिघातकान् ॥१॥ तच्छ्रुत्वा कुमारो भीतः प्राणत्राणकृते कृती । एकाकी निशि निर्गत्य, जगाम वटपद्रके ॥२॥ विशोपकैकचणकान् , कडूवणिज आपणे । क्षुधातों भक्षयित्वाऽसौ, खड्गं नाणके ददौ ॥३॥ निद्रव्यं राजपुत्रं तं विलोक्य वणिगूचिवान् । खड्गेनालं मंगलीके, भवन्तु चणकास्तव ॥४॥ कन्नालीसिद्धपुरके, जटीभूत्वाऽथ सोज्गमत् । सिद्धेश्वरस्य पूजार्थ, स्थापितस्तन्निवासिभिः॥५॥ तत्रैकदा शकुनिनं, मारवं पृष्टवानसौ । वाञ्छिताप्तिः कदा मे स्यात्सोप्यूचे प्रातरापतेः ॥६॥ प्रातमिलित्वा शकुनान्वेषणाय गतावुभौ । मुनिसुव्रतचैत्योचं दृष्ट्वा दुनों स्थितौ ततः ॥७॥ शुभचेष्टा करोत् दुर्गाऽमलसारे स्वरद्वयम् । स्वरत्रयं च कलशे. दण्डे स्वरचतुष्टयम् ।।८॥ हृष्टः शाकुनिकोऽवोचत , सिद्धिस्ते वाञ्छिताधिका । भाविन्येव विशेषात्तु, जिनभक्तिप्रभावतः॥९॥
वस्त्रैः संपूज्य कुमर-स्तन्मुक्त्वा तापसव्रतम् । गत्वाऽवंत्यां स्वजनानां, मिलित्वा सिद्धराभयात् ॥१०॥ tematonai
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क्वचिद्योगी क्वचिद्वौद्धः, क्वचित्तापसवेषभृत् । क्वचित्कार्पटिकाकारो, भृशं बम्राम भूतले ॥११॥ गत्वा कोलापुरेऽद्राक्षीत् , दानभोगादिसद्गुगम् । सर्वार्थसिद्धियोगीन्द्र, सेवित्वा चाप्यतोषयत् ॥१२॥ उवाच योगी मंत्री स्तः, एकः साम्राज्यदायकः । स्वेच्छया धनदाताऽन्यः, आद्यः सोपद्रवः पुनः॥१३॥ सत्त्वसारः कुमारोऽथ, मंत्रं जग्राह राज्यदम् । उक्ते तेन विधिना, पूर्व सेवां व्यधत्त सः ॥१४॥ ततः कृष्णचतुर्दश्यां गत्वा पितृवने निशि । शबस्य वक्षसि न्यस्य, वह्निकुण्डं स्वयं पुनः ॥१५॥ उपविश्य तस्य कटयां, यावद्होमं ददाति सः । करालमूर्तिः प्रत्यक्षस्तावत्क्षेत्राधिपोऽवदत् ॥१६॥ मामनभ्यर्च्य रे धृष्ट ! किमारब्धं मुमूर्षया । इति श्रुत्वाऽपि निःक्षोभः, सोऽपि जापं समापयत् ॥१७॥ तदा च भूत्वा प्रत्यक्षं, महालक्ष्मीरवोचत् । गुर्जराष्ट्राधिपत्यं ते, दत्तं वर्षैस्तु पंचभिः ॥१८॥ सिद्धमंत्रकुमारोऽपि, नत्वा सर्वार्थयोगिनम् । कल्याणकटके देशे, क्रमाकान्तीपुरीं ययौ ॥१९॥ यतः-पुष्पेषु जाति, नगरेषु कान्ति, नारीषु रंभा पुरुषेषु विष्णुः ॥
___ सतीषु सीता, द्रुषु कल्पवृक्षो। जिनोस्तु देवेषु नगेषु मेरुः ॥१॥ कुमारः कौतुकात्तस्या, भ्रमन्परिसरेऽन्यदा । कबंधमेकमद्राक्षीत् , वैरिणाऽपास्तमस्तकम् ॥२०॥ तत्पार्श्वे मिलितस्त्रीणां, शुश्रावाऽन्योन्यजाल्पतम् । अहो कचकलापोऽस्य, अहो श्रवणलंबता ॥२१॥ अहो घनत्वं कूर्चस्य, ताबूलव्यसनं तथा । अहो विरलदन्तत्वं, श्रुत्वेत्येका ततो जगौ ॥२२॥
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कुमार०
प्रतियोध प्रबंध:
॥ १२॥
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कथमेतत्ततस्ताश्चाऽवोचन् किं चित्रमत्र यत् । दीर्घवेणीसलं पृष्ठे, स्कन्धे कुण्डलयोः किणे ॥२३॥ आनाभिहृदि गौरत्वादृश्यते स्मश्रुणः फलम् । ताम्बूलव्यसनाच्चैषांऽङ्गष्ठश्चर्णेन चर्चितः ॥२४॥ नित्यं विरलदन्तानां, क्षित्या रक्ता कनिष्ठिका । तच्छृत्वाऽचिंतयदसौ बहुरत्ना वसुंधरा ॥२५॥ कृत्वा स्नानं कुमारोऽथ, सरस्यमृतसागरे । तीरे देवकुले गत्वाच॑मानं ददृशे शिरः ॥२६॥ तस्येति वृत्तं पृष्टश्च, कश्चन स्थविरोऽवदत् । पुरेह प्रवरे राज्ञा, कारिते सरसि स्वयम् ॥२७॥ पद्मकोशाद्विनिर्गत्य, शीर्षमेकं सकुण्डलम् । एकेन ब्रुडतीत्युक्त्वा, निमज्जद्ददृशे स्वयम् ॥२८॥ तदर्थ पण्डितैः पृष्टैः, पाप्य मासचतुष्टयम् । तं ज्ञातुं प्रेषिता विप्राश्चत्वारो वृद्धसन्निधौ ॥२९॥ यदेकः स्थविरो वेत्ति, न तत्तरुणकोटयः । यो नृपं लत्तया हन्ति, वृद्धवाक्यात्स पूज्यते ॥३०॥ तैश्च गत्वा मरौ देशे, स्थविरः कोऽप्यपृच्छयत । स्वपिता दर्शितस्तेन, तेनाऽपि स्वपितामहः ॥३१॥ स विंशतिशतवर्षदेशीयस्यास्य सन्निधौ । विगैरपृच्छि शीर्षस्य, बुडतीत्युक्तिकारणम् ॥३२॥ सोऽप्यूचे भोजयित्वा तान् . शुनीडिंभचतुष्टयम् । गृहीतेदं महामूल्यं, शुद्धयत्यध्वव्ययो यतः ॥३३॥ लोभाद्विप्रा अपि कटौ कृत्वा तांश्चलनाक्षमान् । व्याघुटतं वृद्धमूचुः, स्वसंदेहस्तथैव नः ॥३४॥
संशयछिन्न एवायमित्युक्ते तेन तेऽभ्यधुः । कथं स उचे शास्त्रज्ञा अप्येतदपि वित्थ न ॥३५॥ यदुक्तं-श्वानगर्दभचाण्डालमद्यभाण्डरजस्वलाः । स्पृष्ट्वा देवकुलं चैव, सचेलस्नानमाचरेत् ।।
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॥१२॥
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शास्त्रे निषिद्धः श्वस्पर्शो, विप्राणां युज्यते कथम् । तेऽप्यूचुबहुमूल्यानि, श्वडिंभानि त्वमभ्यधाः ॥३६॥ ततोऽस्माभिर्गृहीतानि, लोभाद्धि क्रियते न किम् ? । ऊचे वृद्धस्तदैवेदं, विश्वं ब्रूडति लोभतः ॥३७॥ इति ते छिन्नसंदेहाः, कुमारेहागताः पुनः। पण्डितः पुस्तकेष्वेव, लिखितोऽर्थः सविस्तरः॥३८॥ राज्ञेऽदर्शि नृपोऽप्याह, सत्यमेतच्छिरो यदि । श्रुत्वैनमर्थ न पुनः, सरसो निःसरिष्यति ॥३९॥ तथा कृते तथा जाते, चैत्यं निर्माय भूभुजा । देवस्थाने स्थापितं च, शीर्षमेतत्प्रसिद्धये ॥४०॥ तच्छ्रुत्वा विविधाश्चर्यदर्शनाज्जातनिश्चयः । कथंचित्कालं कुमारोऽपि, स्थित्वा कात्यां विनिर्ययौ ॥४१ ॥ मल्लिनाथजनपदे, गतः कोलंबपत्तने । महालक्ष्म्या च कोलंब-स्वामी स्वप्ने न्यगद्यत ॥४२॥ भविष्यो गुर्जरात्रायाः, स्वामी यस्तव पत्तने । समेष्यति जटाधारी, विधेयं तस्य पूजनम् ॥४३॥ चतसृषु दिक्षु मुक्तैः, पुरुषैः पुरसीमनि । यथोक्तलक्षणैर्वीक्ष्य, कुमारो भक्तिपूर्वकम् ॥४४॥ आहूय नृपतेः पार्श्व, समानिन्ये ततो नृपः । अभ्युत्थाय स्वकीया सने तं स न्यवेशयत् ॥४५॥ निगद्य च तमादेशं, राज्ञा राज्ये निमंत्रितः। निषिद्धः कुमरस्तस्य, पार्श्वे तस्थौ यथासुखम् ॥४६॥ सोचे तथापि तेऽभीष्टं, कुमार! किं करोम्यहम् । कुमारः प्राह येनाऽत्र, ज्ञायते मे समागमः ॥४७॥ दशगव्यूतिविस्तारे, कोलंबपत्तनान्तरे । भूमिमप्राप्य राजाऽथ, संकोच्य निजमन्दिरम् ॥४८॥ कुमारपालेश्वराख्यः प्रासादस्तत्र कारितः । कुमारपालनामाकं नाणकं च प्रवर्तिम् ॥४९॥
तद्दष्ट्वा कुमारश्चिन्तितवान्-अहो यस्य परमा प्रीतिः
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कुमार०
प्रतियोध प्रबंध:
॥१३॥
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“यथा चित्तं तथा वाचो, यथा वाचस्तथा क्रियाः। चित्ते वाचि क्रियायां च, साधूनामेकरूपता" ॥१॥
ततः कुमारो निर्याय, प्रतिष्ठानपुरं गतः। द्विपंचाशद्वीरकूपाद्याश्चर्याणि व्यलोकयत् ॥१॥ प्राप्तः क्रमेणोजयिन्यां, निजस्वजनसन्निधौ । भ्रमंस्तत्रान्यदा यातः, कुण्डगेश्वरमंदिरे ॥२॥
प्रणम्य लिङ्गं तन्मध्ये, व्याप्तं (पाच) सप्तफणाकुरैः । वीक्ष्य प्रशस्तिमध्ये तु, गाथामेतामवाचयत् ॥३॥ "पुण्णे वाससहस्से सयंमि वरिसाण नवनवइ अहिए। होही कुमरनरिन्दो, तुह विकमराय! सारिच्छो” ।
आत्मनो नामसाम्यं च, वर्षाणां वीक्ष्य पूर्णताम् । गाथार्थ कुमरोऽपृच्छज्जैनदर्शनसन्निधौ ॥४॥ सोप्याह पूर्वमत्रासीत् , सिद्धसेनो दिवाकरः । विक्रमादित्यभूपस्य, तेनाऽभ्यर्थनया किल ॥५॥ द्वात्रिंशद्वात्रिंशकाभिर्वीतरागः स्तुतस्ततः । कुण्डगेश्वरलिङ्गं च, स्फुटितं तस्य मध्यतः॥६॥ आविरभूद्धरणेन्द्रः, श्रीपार्श्वप्रतिमाधरः, । तं दृष्ट्वा विक्रमादित्यः, संजातः परमार्हतः ॥७॥ गुरूपदेशतस्तेन, कारितं भूमिमण्डलम् । अनृणं निजदानेन, ततः संवत्सरो महान् ॥८॥ तेनेकदा सिद्धसेनः, पृष्टः किं कोऽपि भारते । अतः परं जैनभक्तः, सार्वभामो भविष्यति ॥९॥ श्रुतज्ञानेन विज्ञाय, गाथेयं गुरुणोदिता । राज्ञा च लेखिताऽत्रैव, तच्छ्रुत्वा कुमरोऽवदत् ॥१०॥ आर्हतानामहो शक्तिरहो ज्ञानमहो व्रतम । अहो परोपकारित्वं, किममीषां हि नाद्भुतम् ॥११॥ ततः सज्जनभोपल्लदेवीवोसिरिभिः समम् । धृत्वा निर्झरवेषं स, उज्जयिन्या विनिर्ययौ ॥१२॥ दशपुरे पद्मासनासीनं प्रशमामृतधरं योगिनं विलोक्य ननाम स ध्यानं मुक्त्वा कुमारमूचे।
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"सर्वस्मिन्नणिमादिपंकजवने रम्येऽपि हित्वा रतिं । शुद्धां मुक्तिमरालिका प्रतिदृशं यो दत्तवान् आदरात् । चेतोवृत्तिनिरोधलब्धपरमब्रह्मप्रमोदावुभृत् । सम्यक्साम्यसरोजसंस्थितिजुषे हंसाय तस्मै नमः" ॥१॥ ___ ततः कुमारोऽपृच्छत्-योगिन् ! किं दानं किं स्नानं किं ध्यानं चेति-योग्यूचे
"स्नानं मनोमलत्यागो, दानं चाऽभयदक्षिणा । ज्ञानं तत्त्वार्थसंबोधो, ध्यानं निर्विषयं मनः" ॥१॥ एतदाकर्ण्य प्रमुदितः--
"मध्ये दशपुरे स्थित्वा, चित्रकूटनगरं गतः । शान्तिऋत्ये श्वेतभिक्षो, रामचंद्रस्य सन्निधौ " ॥१॥ जाते चित्रे चित्रकूटदुर्गोत्पत्तिमपृच्छयत । रामोऽप्यूचे-इतः क्रोशत्रयेऽभूत् मध्यमापुरी ॥२॥ तत्र चित्रांगदो राजा सोऽन्यदाभिनवैः फलैः । योगिना व्याघ्रयुक्तेन षण्मासावधि सेवितः॥३॥ पृष्टो हेतुरथो राज्ञा, योग्यूचे मंत्रसिद्धये । द्वात्रिंशल्लक्षणयुतः सान्निध्यात्ते भवेच्च स ॥४॥ राज्ञा पृष्टे पुनः कानि लक्षणानि महीतले । कौतुकं यदि ते तर्हि, श्रूयतां तानि भूधरः ! ॥५॥
नाभिः स्वरः सत्त्वमिति प्रतीतं, गंभीरमेतत्रितयं नराणाम् । उरो ललाटं वदनं च पुंसां, विस्तीर्णमेतत्रितयं प्रदिष्टम् ॥१॥ वक्षोऽथ कुक्षि खनासिकाऽऽस्य, कृकाटिका चेति षडुन्नतानि । हस्वानि चत्वार्यथ लिंगपृष्ठं, ग्रीवा च जंघेऽभिमतप्रदानि ॥२॥ नेत्रांतपादकरताल्वधरौष्ठजिह्वा, रक्तान्यमूनि ननु सप्त हितप्रदानि । .
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कुमार०
प्रतिबोध | प्रबंधः
सूक्ष्माणि पंच दशनाङ्गुलिपर्वकेशाः। साकं त्वचा कररुहाश्च न दुःखितानां ॥३॥ हनुलोचनबाहुनासिकास्तनयोरंतरमत्र पंचकम् । इति दीर्घमिदंतु सौख्यदं न भवत्येव नृणामभूभुजाम्४ त्रिषु विपुलो गंभीरस्त्रिष्वेव षडुन्नतश्चतुर्हस्वः । सप्तसु रक्तो राजा, पंचसु सूक्ष्मश्च दीर्घश्च ॥५॥
श्रुत्वेति मुदितो राजा, प्राह योगीन्द्रमुत्तमम् । किमु कार्य मयाऽख्याहि, यथा तथा करोम्यहम् ॥६॥ यतः-कृष्णचतुर्दश्यां, रात्रौ चित्रनगोपरि । मम सिद्धयति मंत्रश्चेवं तत्रोत्तरसाधकः ॥७॥ ओमित्युक्त्वा नरेन्द्रेण, स योगीन्द्रो व्यसृज्यत । राजपत्न्यान्तरतया, तच्छ्रुत्वाऽवाचि मंत्रिणे ॥८॥ उवाच मंत्री ज्ञाप्योऽहं, यदा तत्र व्रजेन्नृपः। ततो यथोक्तवेलायां, खड्गव्यग्रकरो नृपः॥९॥ एकाकी निययौ छनो, राज्या ज्ञात्वा च मंत्र्यपि । दक्षो नरेन्द्ररक्षार्थ, नृपेणाऽलक्षितो ययौ ॥१०॥ नृपोऽपि चित्रशैलाग्रमारूढो, वीक्ष्य योगिनम् । व्याघ्रं च होमसामग्री, ततोऽजल्पत् करोमि किम् ? ॥११॥ रक्षार्थ होमसामच्यामुक्त्वा तत्र नरेश्वरम् । योगी जलार्थ सव्याघ्रः, क्षीरकूपं गतः स्वयम् ॥१२॥ इतश्च प्रकटीभूय, नत्वोचे मंत्रिणा नृपः । देवोपकरणैरेभिः, साध्यते स्वर्णपूरुषः ॥१३॥ तत्वं सिसाधिषुर्योगी, होमित्वा त्वत्तनुं ध्रुवम् । तद्यतस्व स्वरक्षायै, इत्युक्त्वाऽन्तरितोऽपि सः॥१४॥ राज्ञा सह ततः स्नात्वा, जलमानीय योगिना । विलेपनविलिप्यांगं, होमार्थ ज्वालितोऽनलः ॥१५॥ उक्तश्च राजा त्वं देवः, प्रतिपन्नैकवत्सलः । तदस्य वह्निकुण्डस्य, देहि प्रदक्षिणात्रयम् ॥१६॥ राजा सशंकस्तं स्माह, त्वं योगिन्नाग्रतो भव । ततो योगी तथा कुर्वन्न च्छलं प्राप भृपतेः ॥१७॥
॥१४॥
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पि कास्मिटाचलाधिपः । सलमानपतति रात्रौ,'
अथ व्यावृत्य सहसा, नृपं यावज्जुहोति सः । तावन्नरेन्द्रमंत्रिभ्यां, स एवाग्नौ हुतो हठात् ॥१८॥ व्याघ्रोऽप्यनुप्रविष्टस्तं, संजातः स्वर्णपूरुषः । संपूज्य तं गृहीत्वा च, राजाऽगान्मध्यमां पुरीम् ॥१९॥ यच्छन् यथेच्छं द्रविणं, ख्याति स पाप सर्वतः । ततः स्वऋद्धिरक्षार्थमादिदेशेति मंत्रिणः ॥२०॥ यथा चित्रगिरेः पार्श्वे, कूटशैलोऽस्ति दुर्गमः । तस्योपरि महादुर्ग, कारयाभंगुरोद्यमः ॥२१॥ मंत्रिणाऽपि तथाऽरब्धे, यावच्चेचीयते दिवा । तावन्निपतति रात्रौ, षण्मासा इति जज्ञिरे ॥२२॥ तथाप्यभंगुरोत्साह, नृपं कूटाचलाधिपः । उवाच मा कृथा दुर्गमत्र कर्तुं न कोऽप्यलम् ॥२३॥ प्राणात्ययेऽपि कत्तोऽस्मि, नृपेणोक्ते सुरोऽब्रवीत् । यद्येवं निश्चयस्तहि, कुरु चित्रनगोपरि ॥२४॥ दुर्गस्य नाममध्ये तु, देयं मन्नाम भूपते ! । तत्र चित्रांगदश्चक्रे, दुर्ग चित्रनगोपरि ॥२५॥ नगरं चित्रकूटाख्यं, देवेन तदधिष्ठितम् । कोटीध्वजानां यन्मध्ये, सहस्राणि चतुर्दशः ॥२६॥ लक्षेश्वराणां योग्या च, कारिता तलहडिका । वापीकूपसरोमुख्यं, शेषं देवेन कारितम् ।।२७।। इतश्च स्वर्णपुरुषं, सिद्धं चित्रांगदस्य तम् । ग्रहीतुं कर्णकुब्जेशः, शंभलीशो नृपो बली ॥२८॥ अरौत्सीदुर्गमागत्य, ततश्चित्रांगदोऽपि हि । नियंत्रितपुरद्वारो, लसत्युपरि निर्भयः ॥ युग्मम् ॥२९॥ चराः कौरिकवेषेण, वर्षेः कतिपयैः पुरम् । प्रविश्य शुश्रुवुर्वाता, गृहे शुक्लाधिकारिणः ॥३०॥ गवाक्षस्था मंत्रिपुत्री, लालयन्ती सुतं निजम् । भाषते तात ! किं नैते, मुच्यन्ते वणिजारकाः ॥३१॥ हसित्वा तत्पिताऽहेति, न वत्से वणिजारकाः। शंभलीशचमूरेषाऽवात्सीदुर्गजिघृक्षया ॥३२॥
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कुमार० ॥ १५ ॥
वत्से जन्म यदा तेऽभूत्, तदेदं सैन्यमागतम् । त्वमूढा च पुत्रवती, जाताऽप्येतत्तथैव च ॥३३॥ तच्छ्रुत्वा शंभलीशोऽपि ससैन्यः दुर्गमे पुरे । प्राप्तः प्रोक्तो गवाक्षस्थबकरीवेश्यया यतः ||३४|| "गंडूपदः किमधिरोहति मेरुशृङ्ग, किं वा रवेरजगरो निरुणद्धि मार्गम् ।
शक्येषु वस्तुषु बुधाः श्रममारभन्ते, दुर्गग्रहग्रहिलतां त्यज शंभलीश !” ॥ १ ॥ अथापसृत्य राज्ञाऽपि, प्रेषिता गूढपूरुषाः । समर्प्य प्राभृतं तस्याः, प्रोचुः स्वामिनि ! नः प्रभुः || ३८५ ॥ जित्वा चित्रांगदं दुर्ग, जिघृक्षुस्त्वत्प्रसादतः । तत्प्रसीदादिशोपायं, साऽपि हृष्टा जगाद तान् ||३६|| सर्वाः प्रतोलीरुद्घाट्य, पूरितार्थिमनोरथः । भुङ्क्ते चित्रांगदो नित्यं प्रवेष्टव्यं तदा त्वया ||३७|| विवृणोमि गवाक्षस्था, यदा केशानहं तदा । ज्ञेया भोजनवेला सा, तं ज्ञात्वा शंभलीशराट् ॥३८॥ बक्करीगणिकाभेदाद्द्वितीये जगृहेऽह्नि तम् । दुर्गं चित्रांगदो राजा, गृहीत्वा स्वर्णपुरुषम् ||३९|| क्षीरकूपे ददौ झंप, तच्छ्रुत्वा शंभलीशराट् । क्षीरकूपाञ्जलं क्रष्वा, दृष्ट्वा तं स्वर्णपुरुषम् ||४०|| यावदाकर्षते तावत्पुनः पूर्णः स कूपकः । विलक्षोऽथ स मनसि, स्त्रीचरितमचिन्तयत् ॥४१॥ एता हसन्ति च रुदन्ति च कार्यहेतो- विश्वासयन्ति च परं न च विश्वसन्ति । तस्मान्नरेण कुलशीलसमन्वितेन, नार्यः श्मशानघटिका इव वर्जनीयाः ॥ अपि च- समोहयन्ति मदयन्ति विषादयन्ति, निर्भर्त्सयन्ति रमयन्ति विडंबयन्ति । एताः प्रविश्य सदयं हृदयं नराणां किं नाम वामनयना न समाचरन्ति ॥
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॥१५॥
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स उ वित्तह० पाहि स्त्री सवि वंकडी किनुपत्तिजइ तास । नीय सिरि घडउचडी वि करी पच्छइ दिजे
पास १ प्राप्तुं पारम्० ततो विलक्षश्चित्रांगः सुतं वाराहगुप्तकं । संस्थाप्य च स्वयं राज्ये, महोत्स्वपुरस्सरम् ॥१॥ शनैः शनैः वजन भूयः, कन्यकुब्जं पुनः गतः । स्वभााग्रे पठदुग्रं, भट्टोवागीश्वरोऽन्यदा ॥२॥
चित्रकूटमिदं भद्रे पृथिव्यामेकलोचनम् । द्वितीयलोचनस्याथै, तपस्तपति मेदिनी ॥३॥
कुमारः सपरीवारः तच्छृत्वाऽऽरुह्य तं नगम् । विस्मितः सर्वतो वीक्ष्य, दिगभागान् निजगाद च ॥४॥ शैलाः सर्वे गंडशैलानुकारा, वृद्धा ग्रामाः क्षामधामोपमानाः। कुल्याः तुल्याः प्रौढसिन्धुप्रवाहाः, संदृश्यन्ते दूरतोत्राधिरूढः॥ ततः श्रीरघुवंशमौक्तिकश्रीकीर्तिधरराजर्षिपुत्रस्य सुकोशलमहर्षेः पूर्वभवमातृव्याघ्रीकृतोपसर्गस्य समुत्पन्न केवलज्ञानस्य निर्वाणभूमिकां चित्रकूटासन्नां नत्वा ।
"ततस्तदीक्ष्य सोत्कंठः, कान्यकुब्जपुरं ययौ । आम्राणां लक्षशो वीक्ष्य, लक्षारामान् स विस्मयः" ॥१॥ पप्रच्छ कञ्चित् किमाम्रा, दृश्यन्ते गणनातिगाः । सोप्यूचे न करोऽत्रास्ति, चूतानां तद्घना अमी ॥२॥ राज्येऽहमपि चूतानां, करं मोक्ष्ये स्वनीवृति । विचिन्त्येति कुमारोऽगात् , काशी निर्झरवेषभाक् ॥३॥ भ्रमन्नेकेन वणिजा वस्त्राद्यैः सत्कृतः कृती। द्वितीयेऽह्नि लुटयमानं, तद्गृहं वीक्ष्य दुःखितः ॥४॥ कंचित् पप्रच्छ किमिदं, सोचे अद्याऽपुत्रको वणिक् । मृतोऽसौ तद्गृहं तेन, लुंट्यते राजपूरुषैः ॥५॥ श्रुत्वेति चकितः स्वान्ते, भवरूपं विभावयन् । यथा क्षणादसौ नष्टः, श्रेष्ठी सर्व तथा भवे ॥६॥
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असारः संसारः सरसकदलीसारसदृशः, स्फुरद्विद्युल्लेखा चकितचपलं जीवितमिदम् । यदेतत्तारुण्यं नगगतनदीवेगसदृशम् । अहो धाष्टय पुंसां, तदपि विषयान् धावति मनः ॥१॥ कुमारोऽचिन्तयदसौ धिग् राज्यं यदपुत्रिणाम् । म्लेच्छानामपि सर्वस्वं, राजा गृ ति पुत्रवत् ॥१॥ दुर्भिक्षोदयमन्नसंग्रहपरः पत्युर्वधं बंधकी, ध्यायत्यर्थपतेर्भिषक् गदगणोत्पातं कलिं नारदः। दोषग्राहिजनस्तु पश्यति वसनच्छिद्रं छलं शाकिनी । निःपुत्रं म्रियमाणमाढयमवनीपालो
.. हहा! वाञ्छति ॥१॥ राज्ये नाहं गृहीष्यामि, स्वदेशे स्वमपुत्रिणाम । प्रतिज्ञायेति कुमरो, गतः पाटलिपुत्रके ॥१॥ तत्र च पुरा संजातनवनंदकारितस्वर्णमयपर्वतादिस्वरूपं श्रुत्वा मनसीदमचिंतयत्येषां वित्तः प्रतिपदमियं पूरिता भूतधात्री, यैरप्येतदभुवनवलयं निर्जितं लीलयैव । तेऽप्येतस्मिन् भवगुरुहृदे बुदबुदस्तंबलीलाम् , धृत्वा धृत्वा सपदि विलयं भूभुजः संप्रयाताः ॥१॥ यद्यस्माकं वित्तचयो भविष्यति तदा दानभोगादौ व्ययं करिष्यामः इत्यादि बहु विचिन्त्याग्रे चचाल ।
ततो राजगृहं गत्वा वीक्ष्य वैभारपर्वतम् , श्रुत्वा समवसरणस्थानान्येष विसिष्मिये ॥१॥ तत्र प्राग्भवपुण्यप्राग्भारशालिनः श्रीशालिभद्रस्य सौधे निर्माल्योत्तीर्णस्वर्णमाणिक्यमणिमयाभरणप्रक्षेपवापीप्रमुखसमग्रस्थानानि निरीक्ष्य भोगलीलां वैराग्यं च श्रुत्वा विस्मयस्मेरमनाश्चिन्तयति स्म । यथा ब्रह्मज्ञानविवेकिनोऽमलधियः कुर्वन्त्यहो दुष्करम् । यन्मुच्यन्त्युपभोगभांज्यपि धनान्येकान्ततो निस्पृहाः॥
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न प्राप्तानि पुरा न संप्रति ननु प्राप्तौ दृढप्रत्ययाः। वांछामात्रपरिग्रहाण्यपि परं, त्यक्तुं न शक्ता वयम् ॥१॥
ततो वैभारगिरिमारुरोह । श्रीशालिभद्र पादपोगमानशनशिलातलादि निरीक्ष्य चेतसि चमत्कृतो वैराग्यवान् जातः। ततो नवद्वीपकदेशेषु गत्वा जयपुरं ययौ । तत्र बहिःसर्वर्तुपुष्पफलोपेतमनोरमोद्याने शक्रावतारतीर्थे गतस्तत्र कमपि पुरुषं तत्स्वरूपमपृच्छत् । तेनोक्तं पुरा श्रीयुगादिदेवस्य शतं पुत्रा आसन् । तेषु जयकुमारस्थापितमिदं जयपुरम् ।
अन्यदात्र शक्रादिसुराऽसुरनरनिकरनायकसेव्यमानपादारविन्दः श्रीऋषभदेवः समवासार्षीत् तदा समवसरणस्थाने शक्रनिर्मितः प्रासादोऽयं षद् ऋतुमयमुद्यानं च भगवतः पूजार्थमिदम् । एतदाकर्ण्य चेतसीदमचिंतयत् । अहो अनादिकालीनोऽयं श्रीजिनधर्ममहाप्रभावश्च । ततस्तत्रादिदेवं ननाम । ततोऽपि कामरूपेऽगात्कामाख्ये क्षणकौतुकी । तत्र कामाख्यदेवीभवने गतः। पूजार्थमागतं निजरूपनिर्जितकामवामाक्षीगर्वसर्वस्वं स्त्रीवृन्दं देशस्वभावान्मुक्तमर्यादं सकलकलाकुशलमवेक्ष्याचिंतयत् ।
संसार ! तव निस्तारपदवी न दवीयसी । अंतरा दुस्तरा न स्युर्यदि रे मदिरेक्षणाः ॥१॥ वैरिवारणदन्ताग्रे समारुह्य स्थिरीकृता । वीरश्रीर्य महासत्वाः योषिद्भिस्तेऽपि खंडिताः॥२॥
ततोऽगात्तत्र यत्रास्ति, सर्परूपेण भूपतिः । भौतिकं दैविकं चापि, यद्राज्ये न भयं भवेत् ॥३॥ कुमारः कस्यापि वृद्धस्य पार्थे सर्पराज्यकारणमपृच्छत् । तेनोक्तं भो पुरा नागकुमारदेवस्थापितं नागेन्द्रपत्तनमिदम् ।। तत्र श्रीकान्तो राजाऽत्यन्तश्रीमान् दाता भोक्ता विवेकी प्रजामियः। परं यदपि तदपि कारणं प्राप्य तस्य क्रोध उत्पद्यते । यत:नाकारणरूषां संख्या, संख्याताः कारणे क्रुधः। कारणेऽपि न कुप्यन्ति, ये ते जगति पंचषाः ॥१॥
ततः स राजा क्रोधान्धो व्रजन् सौधान्धकारके स्तंभाभिघातमूच्छितो निःपुत्रो मृत्वाऽऽर्तध्यानवशात् सप्त
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फालकृतः सोऽभूत् स्वभाण्डागारे, मंत्रिभिर्वारंवारं हिर्मुक्तः स्वद्रविणमोहितः पुनः पुनस्तत्रैव याति । राज्यं पुत्रं विना शून्यं जातम् । वैरिभिः निरुद्धं ततो महति संकटे लोकैः पुरस्थैः एको नागकुमारदेवः स्मृतः स समायातः । “स जातिस्मरणो नागः सप्तफणालंकृतोऽस्मदीयकुलोत्पन्नो पुराऽप्यस्य पुरस्य स्वामी ततोऽयमेव राजा भवतु" इति नागकुमारदेवकृतराज्याभिषेकः तत्प्रभावाद्राज्यं करोति देवः सौस्थ्य विधाय स्वस्थानमगात् । तदिदं नागराजसाम्राज्यम् । एतन्निशम्य कुमारेण चिन्तितम्-अहो दुर्गतिदाता क्रोधस्ततः पुरमध्ये बभ्राम ॥
कुमारोऽगाचर्मकारबालचंद्रापणेऽन्यदा । उपानदर्थ तेनाऽपि सादरं पूर्वनिर्मितं ॥१॥ उपानयुगलमेतद्युज्यते तव पादयोः । मूल्येनालं तव स्वामिन् ! मंगलीके मया कृतम् ॥२॥ हृष्टश्च शुभवाक्येन, शुश्राव कुमरस्तदा । “पत्तने पादुकाराज्यं, मरणं सिद्धभूपतेः" ॥३॥ कुमारपालं राजानं, शृणोषि पत्तने यदा । शीघ्रमेयास्तदामंत्र्य, मोचिकं कुमरस्ततः ॥४॥ उज्जयिन्यां सानुचरो, गत्वाऽखंडप्रयाणकैः । कन्नालीसिद्धपुरेऽगाल्लात्वा शेषकुटुम्बकम् ॥५॥ ततः पूर्वप्रतिपन्नमातुलस्य द्विजन्मनः । गृहे मुक्त्वा स्वकुटुम्बमेकाकी पत्नने ययौ ॥६॥ गत्वा गृहे कृष्णभट्टदेवस्य भगिनीपतेः । रात्रौ ननाम भगिनीं, कुमारःप्रीमिलाभिधाम् ॥७॥ भ्रातेति प्रत्यभिज्ञाय, तयाऽपि स्नापितः स्वयम् । स्नाननीरे वीक्ष्य, स्नातां दुर्गा शाकुनिकोब्रवीत् ॥८॥ सप्ताहान्तभवान् राजा, प्रमाणं शकुना यदि । तदाकर्ण्य भगिन्यापि, विज्ञप्तं पत्युरात्मनः ॥९॥
मंडलेश कृष्णदेवः, कुमारं परिरभ्य तम् । तवैव राज्यं नाऽन्यस्य, मा विषीदेत्युवाच सः॥१०॥ t emational
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महितटदेशाधीश, विजयपालराणकम् । मित्रमाकार्य कृष्णेन, पर्यालोचः कृतस्ततः ॥११॥ अग्रे प्रधानैश्चौलुक्यैस्तौ द्वौ राज्यार्थमाहूतौ । महीपालरत्नपालौ राज्यं, त्वस्यैव मे मतिः ॥१२॥ द्वितीयेऽह्नि प्रधानानां, ज्ञापयित्वेति तौ ततः। आह्वयतः कुमारं च श्रीजयसिंहमेरुके ॥१३॥ ततः प्रधानैः संभूय, पूर्व राज्यार्थमाहूतः। महीपालस्तु तान्नत्वा, दत्तादेशं करोमि किम् ॥१४॥ तं विसृज्य रत्नपालस्तैराहतो महेश्वरम् । प्रणम्य सचिवादींश्च प्राञ्जलिः, प्राह पूर्ववत् ॥१५॥ विसृष्टः सोऽप्यथाऽऽहूतः, कुमारपाल ईश्वरः । नत्वा सहेलमावार्योत्तरीयाञ्चलसंचयम् ॥१६॥ कुमारपालः पृष्टस्त्वं, कथं राज्यं करिष्यसि । ततः कृपाणमादशि, केनापि पठितं यतः ॥१७॥ न श्रीः कुलक्रमायाता, शासने लिखिता न तु । खड्गेनाक्रम्य भुञ्जन्ति, वीरभोग्या वसुन्धरा ॥१८॥ तानाह्वास्ताभिषेकाय मृगेन्द्रासनमास्थितः। ततः कृष्णादिभिः प्रोचे, परामर्श विमुच्य भोः॥१९॥ अत्रार्थे मा बिलम्बध्वं, कार्य चेज्जीवितेन वः । तद्भीतैस्तैस्तथाचक्रे, कुमारगुणरञ्जितैः ॥२०॥ मुक्तानां सेतिका क्षिप्रा, तच्छीर्षेऽभूत्सफल्लिका । कृष्णदेवभट्टमुख्यैस्ततो राजेत्यसौ नतः ॥२१॥ श्रीकुमारपालदेवो, वेष्टितो मंडलेश्वरैः । पट्टहस्तिसमारूढो, मेघाडंबरमण्डितः ॥२२॥ चामरैर्वीज्यमानस्तु, गृह्णन् पौरजनाशिषः। विविधातोद्यनिर्घोषैर्बधिरीकृतदिग्मुखः ॥२३॥ हास्तिकाश्वीयपादातिरथकट्यादिकोटिभिः। पुरतः पार्श्वतः पश्चाल्लोकैश्च परिवरितः ॥२४॥ प्रदत्तछंटकैः कुम्भिमंदर्भृगमदैरिव । ददद्दानं तदर्थिभ्यो राजा प्रासादमासदत् ॥२५॥
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कुमार
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ततः श्रीमत्कान्हडदेवमुख्यैः समस्तैरपि पंचांगचुम्बितभूतलं नमोऽकारि । स प्रौढतया देशान्तरपरिभ्रमणनैपुण्येन राज्यशास्तिं स्वयं कुर्वन् राज्यवृद्धानां प्रधानानामरोचमानस्तैः संभूय व्यापादयितुं व्यवसितः । सान्धकारगोपुरेषु न्यस्तेषु घातकेषु प्राक्तनशुभकर्मणा प्रेरितेन केनाप्याप्तेन विज्ञापितस्तद् वृतान्तः तं प्रदेशं विहाय द्वारान्तरेण वर्ष प्रविष्टस्तदनु तान् प्रधानान् यमपुरीं प्रति माहिणोत् । स भावुकमण्डलेश्वरः श्यालकसंबंधात् राजस्थापनाचार्यत्वात् राजपाटिकायां सर्वावसरेषु प्राक्तनदुःखावस्था समर्मतया जल्पति स्म । राज्ञोक्तं त्वयाऽतःपरं एवंविधं सभासमक्षं न वाच्यम् । विजने तु यदृच्छया वाच्यम् । यतः-आज्ञाभंगो नरेन्द्राणां, महतां मानखण्डनम् । मर्मवाक्यं च लोकानांमशस्त्रवध उच्यते ॥१॥ __ याचको वंचको व्याधिः पंचत्वं मर्मभाषकः। योगिनामप्यमी पंच, प्रायेणोद्वेगहेतवः ॥२॥
. इति राज्ञोपरुद्ध उत्कटतया अवज्ञाया वशात् च रे ! अनात्मज्ञ! इदानीमेव पदं त्यजसि इति भाषमाणः औषधमिव तद्वचःपथ्यमपि न जग्राह । नृपस्तदाकारसंवरेणापहवं विधायापरस्मिन् दिवसे नृपसंकेतितैः मल्लैस्तदंगभंगं कृत्वा नयनयुगलमुद्धृत्य ततस्तं तदावासे प्रस्थापयामास । ग्रन्थान्तरेऽप्युक्तम् "काकेशोचमित्यादि" यतः
'शास्त्रं सुनिश्चलधिया परीचिन्तनीयम्।। आदौ मयैवायमदीपि नूनं न तदहेन्मामवहिलितोऽपि । इति भ्रमादंगलिपर्वणाऽपि स्पृश्येत नो दीप इवाऽवनीपः ॥१॥
१ शास्त्रं सुनिश्चलधिया परिचिन्तनीयमाराधितोऽपि नपति ! परिशन्नीयः ।
आत्मीकृताऽपि युवतिः परिरक्षणीया, शास्त्रे नपे च युवतौ च कुतः स्थिरत्वम् ॥ intematonai
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इति विमृशद्भिः समंततः सामन्तैः भयभ्रान्तचित्तैः ततः प्रभृति स नृपतिः प्रतिपदं सिषेवे । पट्टाभिषेकानन्तरं सोलाकनामा गंधर्वः अवसरे गीतकलया अतुलया रंजिताद्राज्ञः षोडशाधिकं शतं प्रासादे द्रम्माणामवाप्य तैः सुखभक्षिकामादाय संतपर्यन् बालकान राज्ञे दानमनल्पमित्युपहसन् कुपितेन शाज्ञा निर्वासितो विदेशं गतः । तत्रत्यभूपतेः परितोषि ताद्गजयुगलमानीयोपायनीकुर्वन् चौलुक्यभूपालेन सन्मानितः । कदाचित्कोऽपि वैदेशिकगंधर्वो मुषितोऽस्मीति तारं बम्बारवं कुर्वाणः केन मुषितोऽसीति राज्ञाभिहितो मम गीतिकलयाऽतुलया सामीप्यमुपेयुषा कौतुकार्पितगलशृंखलेन नश्यता मृगेगेणेति विज्ञपयामास । तदनु सोलाभिधानो गंधर्वराट् नृपतिना समादिष्टः " तं मृगमनाय" अटवीमटन्तं स्फीतगीताकृष्टिविद्यया गलखेलत्कनकशृंखलं मृगं नगरान्तः समानीय तस्य भूपतेः सभासमक्षं दर्शयामास । अतस्तत्कलाकौशलेन चमत्कृतमानसो नृपतिः सोलाकं गीतकलाया अवधिं पप्रच्छ । सशुष्कं शाखाखण्डं राज्ञोङ्गणे कुमारमृत्तिकाक्लप्तालवालं मल्हारवर्णाप्तानवद्यगीतिकलया सद्यः प्रोल्लसत्पल्लवितं निवेदयन् स सपरिवारं नृपं तोषयामास । तदा तुष्टेन राज्ञा पारितोषिके ग्रामयमलं दत्तम् । वयकारसोलाप्रबन्धः।
"कृतोपकारानाकार्य सर्वान् सत्त्वहितस्ततः। कृतज्ञः कृतवान् राजा, तेषां पूजां यथोचिताम्" ॥१॥
स्वामिभक्तो जनोत्साही, कृतज्ञो धार्मिकः शुचिः। अकर्कशः कुलीनश्च शास्त्रज्ञः सत्यभाषकः ॥२॥ विनीतः स्थूललक्षश्चाव्यसनी वृद्धसेवकः । अक्षुद्रः सत्त्वसंपन्नः, प्राज्ञः शूरोऽचिरक्रियः ॥३॥ पूर्व परीक्षितः सर्वो-पधासु निजदेशजः । राजार्थस्वार्थलोकार्थकारको निस्पृहः शमी ॥४॥ अमोघवचनः कल्पः, पालिताऽशेषदर्शिनः । पात्रौचित्येन सर्वत्र, नियोजितपदक्रमः॥५॥
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आन्वीक्षिकीत्रयीवार्ता,दंडनीतिकृतश्रमः। क्रमागतो वणिकपुत्रो भवेन्मंत्री न चाऽपरः ॥६॥
इति नीतिं विमृश्य तेन राज्ञा पूर्वोपकारकर्तुः श्रीमदुदयनस्यांगजः श्रीवाग्भट (वाहड) देवो महामत्यश्चक्रे। आलिगनामा ज्यायान् प्रधानो महापूजास्थाने स्थापित उदयनदेवश्च । तदा चौलुक्यराज्ञा कृतज्ञतास्थाने चक्रवत्तिना आलिगकुलालायसप्तशती ग्राममिता चित्रकूटपट्टिका ददे। ते तु निजान्वये लजमाना अद्यापि सगरा इत्युच्यन्ते यैश्च छिन्नकटकान्तरे प्रक्षिप्य रक्षितस्ते स्वांगरक्षापदे प्रतिष्ठिताः। वोसिरिब्राह्मणाय लाटमण्डलं, तिलककारिण्यै धवलकं, वटपद्रपुरं चणकदातृकाय । विस्मृताः श्रीहेमसूरयः।
. अन्यदोदयनमंत्रिणाऽऽहूताः श्रीहेमचंद्रसूरिवराः श्रीपत्तने समायाताः समहोत्सवम् । कदाचिद्गुरूभिरूचे हे मंत्रिन् तं भूपं रहो ब्रूयाः "अद्य त्वया नवीनराज्ञीगृहे न सुप्तव्यं रात्रौ सोपसर्गत्वात् " केनोक्तमिति पृच्छेच्चेत्तदा अत्याग्रहे मम नाम ब्रूयाः । ततस्तेन मंत्रिणा तथोक्ते राज्ञा च तथाकृते निशि विद्युत्पातात् तस्मिन् गृहे दग्धे तस्यां च राज्यां मृतायां राजा चमत्कृतः । जगाद सादरं मंत्रिन ! कस्येदमनागतं ज्ञानं महत्परोपकारित्वं च। राज्ञा निर्वधे कृते सति मंत्रिणा श्रीगुरूणामागमनमूचे । तच्छ्रुत्वा मुदितो राजा तानाकारयामास । राजसभायामुपागतानभ्युत्थाय ववन्दे प्राञ्जलिरुवाच । भगवनहं निजास्यमपि | दर्शयितुं नाऽलम् । तत्रभवता तदा स्तंभतीर्थे रक्षितः भाविराज्यसमयचिट्ठडिका चार्पिता परमहं प्राप्तराज्योऽपि नास्मार्ष युष्माकं, | निष्कारणप्रथमोपकारिणामहं कथंचनापि नाऽनृणीभवामि । सूरिभिरूचे
" इत्थं किं विकत्थसे कस्मात्त्वमात्मानं मुधा नृप!। उपकारक्षणो यत्ते संप्रत्यस्ति समागतः" ॥१॥ कृतज्ञत्वेन चेत्प्रत्युपचिकीर्षुस्त्वं तर्हि विश्वजनीने श्रीजैनधर्मे निजं मनो निधेहि राज्ञा च तत्प्रतिपद्योक्त युस्माभिरि
॥१९॥
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हानिशमागन्तव्यमिति एवमाचार्यैः सह राज्ञः संगतिः समजनि ।
अथ श्रीकुमारपालः सकलसामंतचक्रवालचतुरंगचमचंक्रमणचलाचलभूवलयः दिग्विजययात्रायै चचाल । तत्र प्रथम दक्षिणाशां प्रति प्रतस्थे । लाटमहाराष्ट्रकर्णाटतिलंगादिदेशानाविंध्याचलमसाधयत् । तदा दक्षिणसमुद्रनिकटेष्टन् कल्लोलान् दृट्वा कंपकारणमगृच्छत् । तत्र कवयः प्रोचुःप्राप्तश्रीरेष कस्मात्पुनरपि मयि तं मंथखेदं विधित्सुः, निद्रामप्यस्य संप्रत्यनलसमनसो नैव संभावयामि। सेतुं बध्नाति भूयः किमिति च सकलद्वीपनाथानुयातस्त्वय्याऽऽयाते विकल्पानिति दधत इवाभाति
कंपः पयोधेः॥१॥ सपादलक्षटंकानौचित्येऽदात् । ततः सेतुबंधं विलोक्य श्रीरामदेवप्रशस्तिमवाचयत् । यथाशय्या शाड्वलमासनं शुचि शिला, सद्म द्रुमाणामधः। शीतं निर्झरवारिपानमशनं कंदाः सहायाः मृगाः। इत्यप्रार्थितलभ्यसर्वविभवे दोषोऽयमेको वने । दःप्रापार्थिनि यत्परार्थघटनावंध्यत्र (वंद्यैर्वृथा)
स्थीयते॥१॥ ___ अहो रामस्य वदान्यता वनेऽपि । ततः परशुरामस्याश्रमं विलोक्योवाच । अहो क्रोधस्य विस्फूर्जितम् । यः पूर्व स्वां जननीमघातयत् । ततो| येन त्रिःसप्तकृत्वा नृपबहुलवचसा सान्द्रमास्तिक्यपङ्कप्राग्भारेऽकारि भूरिच्युतरुधिरसरिद्वारिपूरे
भिषेकः।
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कुमार० ॥ २० ॥
यस्य स्त्री बालवृद्धावधिनिधनविधौ निर्दयो विश्रुतोऽसौ राजन्योद्यानकूटकथनपटुरट घोरधारःकुठारः ॥ अहो प्राणिनां सकलपुरुषार्थप्रत्यर्थी सदा सन्निहितः क्रोधः आचान्द्रार्कमयशःपटुपटहघटनापण्डित इति संचिन्त्य पश्वाद्वयाघुट्यमानः पथि प्रविणजनवाणीमशृणोत् यथा
तावकीने कटके रथोद्धत धूलयो जगति कुर्युरंधताम् । चेदिमाः करिधटा मदाभ्मसा भूयसा प्रशमयेन्न सर्वतः ॥१॥
सपादलक्षदानमत्र । अथ पश्चिमां प्रति चचाल तत्र सुराष्ट्रब्राह्मणवाहकपंचनदसिन्धुसौवीरादिदेशान् साधयामास । तत्र सिन्धुपश्चिमतटे पद्मपुरे पद्मनृपपुत्री पद्मिनीव पद्मावती नाम्नी स्वप्रतिहारीमुखेन श्रीकुमारपालदेवस्यातिरूपादिस्वरूपं श्रुत्वा ततः कृतनिश्चया पित्रा विसृष्टा सप्तद्रव्यकोटीयुता सप्तशत सैन्धवतुरङ्गमपरिवृता स्वसमानषोडशवारांगनासहिता स्वयंवरा समायाता । राज्ञा परिणीता । अस्मिन्नवसरे कश्चित्पपाठ ।
एकस्त्रिधा हृदि सदा वसति स्म चित्रं चित्तम्, यो विद्विषां च विदुषां च मृगीदृशां च । तापं च संमदभरं च रतिंच कुर्वन् शौर्योष्मणा च विनयेन च लीलया च ॥१॥
अत्रापि सपादलक्षदानम् । ततः पश्चादागच्छन् द्वारकासन्नः केनापि विज्ञतः देवोऽत्र कृष्णराजो बालनिकन्दनो राज्यकरोत् । तत्रदेवदायैने द्वादश ग्रामान् ददौ ।
arrai प्रति प्रतस्थे तत्र काश्मीरोद्भियानजालंधरसपादलक्षपर्वतषसादिदेशानामाहि नाऽऽहि माचसमसाधयत् । तत्र गंगातटे नानावेषक्रियाशास्त्रदेवतादिभेदेन परस्पराक्षि पपरान् विवदमानान् बहुविधतीर्थिकान् अवलोक्याचिन्तयन् । प्रसन्नस्यास्तसंगस्य वीतरागस्य योगिनः भवन्ति सिद्धयः सर्वा विपर्यसे न काश्चन ॥ १ ॥
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॥ २० ॥
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सर्वज्ञता नास्ति मनुष्यलोके, नात्यंतमूर्वोऽपि जनो हि कश्चित् ।
ज्ञानेन हीनोत्तममध्यमेन, यो यद्विजानाति स तेन पण्डितः ॥२॥ तेन तत्र राजा निजकीर्तिप्रसरावसरमवेत्य सकलपाखण्डिनां यथाकामं दानमदात् । ततो वाणारस्यां भूतानंदयोगिनं बहुपरिवारवृतं अनेकविद्यामंत्रतंत्रयंत्रादिविचित्रकलाकौशलेनात्मीयकृतबहुजनं दृष्ट्राचिन्तयत् ।
ये लुब्धचित्ता विषयार्थभोगे, बहिर्विरागा हृदि बद्धरागाः।
ते दांभिका वेषधराश्च धूर्ती, मनांसि लोकस्य तु रंजयन्ति ! ॥१॥ • कुलीनाः सुलभाः प्रायः, सुलभाः शास्त्रशालिनः। सुशीलाश्चापि सुलभाः, दुर्लभा भुवि तात्त्विकाः॥२॥
ततः प्राची प्रति प्रतस्थे तत्र कुरुसूरसेनकुशावर्त्तपांचालविदेहदशार्णमागधादीन् देशानसाधयत् । ततो राजाऽग्रतो गच्छन् क्वापि वने निर्विर्जने रहःप्रदेशे कमपि मुनिपुङ्गवमेकाकिनमन्तःसमाधिस्वाधीनमनःप्रयोगं नासाग्रविन्यस्ताऽर्धनिमीलितनयनम् , प्रशमपीयूषपानसहितं, सकलपाणिवर्गस्य निजसंसर्गप्रणाशितनिसर्गवैरम् स्वान्तैकान्तभावज्ञातनृपनिर्मितप्रणाम विलोक्य राजा सविस्मयं चिन्तयति स्म ।
तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गस्तृणं शूरस्य जीवितम् । विरक्तस्य तृणं नारी, निरीहस्य तृणं नृपः ॥१॥ ___ ततो राजा क्षणान्तरे कृतप्रणामः पुनः सकलभवक्लेशनाशिनी धर्माशिष समासाद्य प्रश्नमकरोत् । भगवन् ! कथं दुरन्तविषयाशा निराशा चक्रे। मुनिरुवाच राजन् ! यस्यात्ममनसोभिन्नरुच्योमैत्री प्रवर्तते योगविघ्नैकनिघ्नेषु तस्येच्छा विषयेषुका
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कुमार
॥२१॥
तनिशम्य राजा सपरिकरः क्षणं मुनिप्रभावात् प्रशान्तस्वान्तश्चेतसि चिन्तयाञ्चकार । अहो स्वार्थ कृतस्यापि साम्यस्य महिमा
प्रबंधः नहि मानगोचरः। यतः
सारंगी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नंदिनी व्याघ्रपोतम्। मार्जारी हंसवालं प्रणयपरवशा केकिकान्ता भुजङ्गम् ॥ वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जंतवोऽन्ये त्यजेयु
दृष्ट्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम् ॥१॥ ततो मुनिस्वरूपं निरूप्य स्वात्मानं निनिन्द । अहो विषयाशाकलुषितं जगत् । ततो मुनिदेशनां निशम्य कतिभिः | प्रयाणैः साधितभूवलयः निभृतं भृतभाण्डागारः चतुरंगचमूचंचलीकृतचतुराशः पूरितार्थिजनाशः कृतकुनीतिप्रणाशः प्रादुः । कृतधर्ममार्गप्रकाशः यशःपुञ्जपूरितत्रिभुवनावकाशः श्रीकुमारपालनरेश्वरः कृतप्रवेशमंगलमहोत्सवः श्रीपत्तनमाजगाम । द्वास- | सतिसामंतभूपालैः कृतराज्याभिषेकः साम्राज्यं करोति स्म । _ अथान्यदा श्रीचौलुक्यचक्रवर्ती सर्वावसरे स्थितः कौंकणदेशीयस्य मल्लिकार्जुनस्य राज्ञो मागधेन राजपितामहेति बिरुदमभिधीयमानमशृणोत् । यथा
जित्वा प्राग् निखिलानिलापतिवर
कृत्वा चात्मवशंवदानविरतं तान् पौत्रवत्सर्वदा। धत्ते राजपितामहेति बिरुदं यो विश्वविश्वश्रुतम् । सोऽयं राजति मल्लिकार्जुननृपः कोदण्डविद्यार्जुनः॥
तिः
।
॥ २१ ॥
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एतदाकर्ण्य सोष्माणं राजानमधिगम्यागाधबुद्धिनिधिर्मागधः पुनरभ्यधात् । "रवेरेवोदयः श्लाध्यः कोऽन्येषामुदयग्रहः। न तमांसि न तेजांसि यस्मिन्नभ्युदिते सति" ॥१॥ इति मागधवचनरुद्दीपितो राजाऽवदत् । अहो अविज्ञाताहंकारस्वरूपोऽयं भूपः । यतः“अहंकारे सति प्रौढे, वदत्येवं गुणावलीः । अहंकारे पतिष्यामि, समा याता तवान्तिके" ॥१॥
ततस्तदसहिष्णुतया स्वसभां निभालयन् नृपचित्तविदा मंत्रिणा श्रीआंबडेन कृतं ललाटे करसंपुटं दृष्ट्वा चमत्कृतो भूपतिः समाविसर्जनानन्तरं अञ्जलिबंधस्य कारणं अपृच्छत् । ततो मंत्रिपुत्रोऽवदत् । देव ! यदस्यां सभायां स कोऽपि
सुभटोस्ति यो मिथ्याभिमानं नृपाभासं चतुरंगनृपवन्मल्लिकार्जुनं जयतीति युष्मदाशयावदा मया स्वाम्यादेशक्षमेणायम| जालिबन्धश्चक्रे इति तद्वचः श्रुत्वा राजाऽवदत् । अहो अस्य चातुर्यम् ।।
"उदीरितोऽर्थः पशुनापि गृह्यते । हयाश्च नागाश्च वहन्ति नोदिताः।
अनुक्तमप्यूह्यति पण्डितो जनः, परेङ्गितज्ञानपला हि बुद्धयः" ॥१॥
ततस्तद्वचःसमनन्तरमेव नृपस्तं प्रति प्रयाणाय दलनायकं कृत्वा पंचांगप्रसादं दत्त्वा समस्तसामन्तैः समं विससर्ज। स चाविच्छिन्नप्रयाणैः कौंकणदेशमासाद्य दुरवारिपूरां कालम्बिनिनाम्नी नदीमुत्तीर्य परस्मिन् कूले गते सैन्ये तं संग्रामासनं विमृश्य मल्लिकार्जुनः सोभिसारेण प्रहरन् तत्सैन्यं त्रासयामास ।
अथ तेन पराजितः स सेनापतिः कृष्णवदनः कृष्णवसनः कृष्णच्छत्रालंकृतमौलिः कृष्णगुडुरेषु निवसन् श्रीपत्तनबहिःप्रदेशे स्थितः। अथ विजयदशमीदिने राजपाटकागतेन श्रीचौलुक्यभूभुजा विलोक्य कस्याऽसौ सेनानिवेशः? इति पृष्ट कश्चिदुवाच ।
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कुमार
॥२२॥
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प्रतिबोध देव! कौंकणात्प्रत्यावृत्तस्य पराभूतस्यांबडसेनापतेः सेनानिवेशोऽयमिति । तदीयलजया चमत्कृतो नृपश्चिंतयति स्म । अहो।
प्रबंधः अस्य लजाशीलत्वम् । अत्रान्तरेऽवसरपाठकः पपाठ
लज्जां गुणौघजननी जननीमिवार्यामत्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाः। .
तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति, सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ॥१॥
ततोऽस्य सपादलक्षदानमदात् । पुनः प्रसादललितया दृशा आम्बडं संभाव्य तदऽपरैः बलवद्भिः सामन्तैः समं मल्लिकार्जुनं जेतुं प्राहिणोत् । ततः कतिभिः प्रयाणैः पुनस्तां नदीमासाद्य प्रवाहबंधे विरचिते तेनैव पथा सैन्यमुत्तार्य सावधानवृत्त्या सम्मुखमायातमल्लिकार्जुनसैन्येन सहासमसमरारंभे जायमाने हस्तिस्कंधारूढं वीरवृच्या मल्लिकार्जुनमेव रुरोध । द्वयोश्चिरं खड्गाखड्गि दृष्ट्वा मागधः पपाठ ।
"अभिमुखागतमार्गणधोरिणिध्वनितपल्लवितांयरगह्वरे।
वितरणे च रणे च समुद्यते भवति कोऽपि परं विरलः परः" ॥१॥ ___ इति श्रुत्वा वद्धिंतोत्साह आंबडः सुभटो दंतिदंतमुसलसोपानेन कुंभस्थलमधिरुह्य माद्यदुद्दामरणरस प्रथमं त्वं प्रहर इष्टं वा दैवतं स्मर इति उच्चरन् घोरकरवालाहारात मल्लिकार्जुनं भूपीठे लोठयित्वा सामन्तेषु तन्नगरलुण्टनव्यापृतेषु केसरिकिशोर इव करेणुं तं लीलयैव जघान । तन्मस्तकं सुवर्णेन वेष्टयित्वा तस्मिन् देशे श्रीचौलुक्यनृपाज्ञां दापयित्वा त्रिशती
॥२२॥ जालान् प्रज्वाल्य श्रीपत्तनमाजगाम । ततः सभानिषण्णेषु द्वासप्ततिसामन्तेषु तस्य कोशमार्पयत ।
"शाटी शृंगारकोट्याख्या, पटं माणिक्यनामकं । पापक्षयंकरं हारं, मुक्ताशुक्तिं विषापहाम् ॥१॥
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हैमान द्वात्रिंशतं कुम्भान् मनुभारान् प्रमाणतः । षण्मूटकांस्तु मुक्तानां स्वर्णकोटीश्चतुर्दशः ॥२॥ विंशं शतं च पात्राणां, चतुर्दन्तं च दन्तिनम् । श्वेतं सेदुकनामानं दत्त्वा नव्यं नवग्रहम् ” ॥३॥
"
इत्यादि अपरमपि तत्सत्कं सर्व समर्प्य तच्छिरः कमलेन स्वस्वामिनः श्रीकुमारपालस्य पादौ पूजयामास । महावदातप्रीणितेन आंबडस्य "राजपितामह" इति बिरुदं दत्तम्, चतुर्विंशतिजात्यतुरङ्गमांश्च प्राप्य तेन स्वगृहादर्वाक् सर्वे याचकेभ्यः प्रदत्ताः । अत्रान्तरे पिशुनप्रवेशः ।
यतः - " जम्मेवि जं न हूअं, न हु होही जं च जम्मलक्खेहिं । तं चिय जंपंति तहा, पिसुणा जह सचसारिच्छम् " || ततः प्रभाते किञ्चिद् दूनेन राज्ञा सेवावसरे समायातः प्रणामपर्यन्ते श्री आंबडः प्रोक्तः । त्वं मम दानादपि अधिकमियत्कस्मात् दत्से ? यतः सेवकेन स्वामिन आधिक्येन दानं न देयमिति सेवाधर्मः । अत्रावसरे मागधः पपाठ --
राजसभायां - " शय्या शैलशिला गृहं गिरिगुहा वस्त्रं तरूणां त्वचः । सारंगाः सुहृदो ननु क्षितिभृतां वृत्तिः फलैः कोमलैः ॥
येषां नैर्झरमंबुपानमुचितं रत्यैव विद्यांगना, मन्ये ते परमेश्वराः शिरसि यैर्बद्धो न सेवाञ्जलिः ॥ १ ॥ मंत्रिणा लक्षमौचित्ये दत्तम् । राज्ञः समधिकः कोपः । ततो मन्त्रिणा प्रोचे राजन् ! त्वं द्वादशग्रामस्वामिनः त्रिभूवनपालस्य पुत्रः । अहं तु अष्टादश देशाधिपत्यभुजस्तव पुत्रः । ततः स्तोकमिदं मम दानमिति श्रत्वा प्रमुदितो राजा पुत्रपदमदात् द्विगुणं च प्रसादमकरोत् अत्रान्तरे राज्ञो मागधः पपाठ
ते गच्छन्ति महापदं भुवि पराभूतिः समुत्पद्यते । तेषां तैः समलंकृतं तैरेव लब्धा क्षितिः ॥
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कुमार
प्रतिबोध
॥२३॥
तेषां द्वारि नदन्ति वाजिनिवहास्ते भूषिता नित्यशो। ये दृष्टाः परमेश्वरेण भवता रुष्टेन तुष्टेन वा" ॥१॥ राजा सपादलक्षदानमदात् । ततः
यः कौबेरीमातुरुष्कर्मेंद्रीमात्रिदिवापगां याम्यामविंध्यमासिन्धुं पश्चिमां यो ह्यसाधयत् ॥१॥ अष्टादशदेशेषु राज्ञ आज्ञा प्रवर्तिता श्रीआंबडेन ।
'अथान्यदा श्रीहेमसरिमाता पाहिणदेवी प्रव्रजिता कालांतरे कृतानशना नमस्कारकोटिपुण्ये दत्ते सति श्रीपत्तने पुण्यवरे त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रादिलक्षग्रथो नवीनः कार्यः इति प्रोक्ते सति सूरिणा सा मृता। कर्णमेरुप्रासादाग्रे विप्रैस्तथा मरडकैरसूयया तद्विमाने भग्ने अत्यंतदूनाः श्रीसूरयः तदुत्तरक्रियां निर्माय तेनैव मन्युना मालवकदेशे संस्थितस्य कुमारपालस्य स्कंधावारमलंचक्रुः। “प्रभुः स्वयं यदि भवेत्स्वकरे वा यदि प्रभुः । स शक्नोति तदा कार्य कर्तुं नैवान्यथा पुमान " ॥१॥
("आपण प्रभु होई") इति वचस्तत्त्वं विचिंतयंतः श्रीमदुयनमंत्रिणा नृपतेनिर्वेदितागमनाः कृतज्ञशिरो त्नेन नृपेण परोपरोधान्महोत्सवपुरस्सरं सौधमानीताः तद्राज्यपाप्तिनिमित्तज्ञानं स्मारयन् नृपस्तत्रभवद्भिः सदैव देवपूजावसरेषु समागम्यमिति प्राह । सूरि उवाच भुंजीमहि वरं भैक्ष्यं, जीर्ण वासो वसीमहि । शयीमहि महीपृष्ठे, कुर्वीमहि किमीश्वरैः ॥१॥ राजाह-हे महर्षे! अहं परलोकसमाचरणाय समतृणमणिभिर्भवद्भिः सह संगति संगतमित्यभिलषामि ।
"एक मित्रं भूपतिर्वा यति" १ एकं मिंत्र भूपतिर्वा यतिर्वा, एका भार्या सुन्दरी वा दरी वा। एको देवो शंकरो वा जिनो वा, एको वासः पत्तने वा वने वा ॥
॥२३॥
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"विना गुरुभ्यो गुणनीरधिभ्यो, जानाति धर्म न विचक्षणोऽपि । आकर्ण दीर्घोज्ज्वललोचनोऽपि, दीपं विना पश्यति नांधकारे" ॥१॥
महाकविप्रणीतत्वात्-"किं मित्रं यन्ननिवर्तयति पापात्". श्री सर्वज्ञशासने महाप्रभावनां ज्ञात्वा श्रीगुरुभिरप्रतिषिद्धं तद्वचनम् । ततो नृपस्तस्य महर्षेः परीक्षितचित्तवृत्तिः श्रीमुखेन सार्वावसरं वेत्रिणामादिदेश । अथ तत्र यातायाते संजायमाने सूरीणां गुणग्रामस्तवं कुर्वत्युवर्वीपतौ पुरोधा इत्यभ्यधात् । अमीन नमस्कारार्हाः अजितेन्द्रियत्वात् । कथमिति राज्ञा पृष्टे प्राह"विश्वामित्रपरासरप्रभृतयो येऽचांबुपत्राशिनः। तेऽपि स्त्रीमुखपंकज सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः॥ आहारं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवाः। तेषामिन्द्रियनिग्रहः कथमहो! दंभः समालोक्यते" ॥
इति वचः श्रुत्वा श्रीसूरिरुचे । न चैवमाहारं आहारयन्ति मुनयःन चैकान्तेनाजितेन्द्रियत्वकारणमाहारः किन्तु मोहनीयकर्मणः प्रकृतिरपि तीव्रमंदमंदतरभेदा । तथा च
"सिंहो बली द्विरदसूकरमांसभोजी, संवत्सरेण कुरुते रतमेकवारम् ।
पारापतः खरशिलाकणभोजनोऽपि, कामी भवत्यनुदिनं वद कोऽत्र हेतुः" ॥१॥ इति तन्मुखमुद्राकारिणि प्रत्युत्तरेऽभिहिते नृपः प्रभुदितः। पुनः कियदिने गते नृपप्रत्यक्षं केनापि मत्सरिणाऽभाणि राजनैते जैनाः सूर्य न मन्यन्ते प्रत्यक्षदैवतम् । तत्र श्रीसूरिः पाह--
आधाम धामधामैव वयमेव स्वचेतसि । यस्यास्तव्यसने जाते, त्यजामो भोजनोदके ॥१॥
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कुमार०
प्रतिबोध प्रबंधः
॥ २४॥
इति प्रमाणाद्वयमेव वयमेव भक्ताः सूर्यस्य न चैते तत्त्वतः।
पयोदपटलैः छन्ने नाश्नंति रविमण्डले । अस्तंगते तु भुञ्जानाः, अहो भानोः सुसेवकाः॥१॥ व्यासेनापि प्रोक्तम्__ ये रात्रौ सर्वदाऽऽहारं वजर्यन्ति सुमेधसः। तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते ॥१॥
इति तन्मुखबंधे जाते कदाचिद्देवपूजाक्षणे सौधमागते मोहान्धकारतिरस्कारचन्द्र श्रीहेमचन्द्रे यशश्चंद्रगणिना रजोहरणेनासनपदंप्रमार्य तत्र कंबले निहितेऽज्ञाततत्त्वेन किमेतदिति नृपेण पृष्टाः श्रीगुरवः प्रोचुः 'राजन् ! कदाचिदिह कोऽपि जंतुर्भवति तदा तत्पीडापरिहाराशायासौ यत्नः सर्वजन्तुरक्षारूपत्वाद्धर्मरहस्यस्य । यदा प्रत्यक्षतया दृश्यते जंतुस्तदेवेदं युज्यते नाऽन्यथा वृथा प्रयासहेतुत्वादिति युक्तियुक्तां नृपोक्तिमाकर्ण्य श्रीगुरुभिरुक्तं राजन् ! यथा भवद्भिश्चौराद्यभावेऽपि नगररक्षार्थ प्रत्यहमारक्षकाः स्थाप्यन्ते कटकाभावेऽपि गजतुरगादिचमः श्रमाभ्यासं काराप्यते मा मुष्णन्तु नगरमिति तथा तत्रापि ज्ञेयम्। | राजव्यवहावद्धर्मव्यवहारः। तथा चागमः
"पाणेहिं संसत्ता पडिलेहा होइ केवलीणं तु । संसत्तमसंसत्ता छउमत्थाणं तु पडिलेहा ॥ तित्थयरा रायाणो साहआरक्खिभंडगं च पुरं । तेण सरिसाय पाणातिग च रयणा भवो दंडो" ॥१॥ तथा धर्मसमुद्देशेऽप्युक्तम्--
"आत्मवत्सर्वजीवेषु कुशलवृत्तिचिंतनम् । धर्माधिगमनोपायः शक्तितस्त्यागतपसी च" ॥
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एतदाकर्ण्य राजा चमत्कृतोऽवादीत् अहो जैनागमगंभीरता जीवरक्षादक्षता च । ततः समधिकः श्रीजिनमतानु रागः समजनि नृपस्य ।
अथ राज्ञा श्रीगुरूणां हैमटंकलक्षं पुरो मुक्त्वा योगक्षेमकरणाय गृह्यतामित्युक्ते श्रीसूरिभिरूचे, सर्व दीयमानं विप्रा गृह्णन्ति न वयम् । राज्ञोचे भगवनेते सर्वेऽपि परदर्शनिनो मया दीयमानं सर्व गृह्णन्ति परं ब्रह्मचारिभिर्निग्रन्थैर्भवद्भिः कस्मात्किमपि नादीयते । सूरयः प्राहुः राजन् सर्वशास्त्रविरोधहेतुत्वात्पतिषिद्धं राजपिण्डम् । यतः स्मृतिः--
"अधीत्य चतुरो वेदान् , सांगोपांगान सलक्षणान् । शूद्रात्प्रतिग्रहं कृत्वा, खरो भवति ब्राह्मणः ॥१॥ खरो द्वादशजन्मानि, षष्टिर्जन्मानि शूकरः । श्वानः सप्ततियोनिश्च, इत्येवं मनुरब्रवीत् ॥२॥ राज्ञः प्रतिग्रहो घोरो, मधुस्वादविषोपमः । पुत्रमांसं वरं भुक्तं, न तु राजप्रतिग्रहः ॥३॥ राजप्रतिग्रहदग्धानां, ब्राह्मणानां युधिष्ठिरः!। 'सटतामिव बीजानां, पुनर्जन्म न विद्यते" ॥४॥
महाभारते शांतपर्वण्युक्तं तथा जैनागमेऽपिसंनिहीगिहमत्तेय रायपिंडे किमिच्छए । संवाहणदंतपहोयणायसंपुच्छण देहपलोअणाय ॥१॥
एतत्सर्वं साधुनामनाचीर्ण"आचेलुक्कु उद्देसिय सिज्जायर रायपिण्ड किइकम्मे । वयजिट्ट पडिकमणे मासं पज्जोवसणकप्पे" ॥१॥
१ प्रत्यन्तरे दग्धानां.
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कुमार०
प्रतिबोध
__इति दशधा साधूनां सामाचारीकल्पः । इत्याकर्ण्य राजा प्रमुदितो जैनाचारप्रशंसामकार्षीत् लज्जिताश्च द्विजाः सर्वेऽधोमुखा अभूवन् । _ अथ कतिभिर्दिनः राजा श्रीपत्तनमाजगाम । अन्यदा सभायां निषण्णे राजनि सपरिकरे कोऽपि मत्सरी प्राह राजनेते जैना वेदान्न मन्यन्ते अतो वेदबाह्या न नमस्कारार्हाः किमेतदिति पृष्टा राज्ञा श्रीसूरयः प्राहुः। राजन् ! यदि वेदेषु जीव
दयाधर्मोऽस्ति तर्हि सकलशास्त्रसंवादशुद्धं दयाधर्म कुर्वाणा वयं कथं वेदबाह्याः ।। - यदाहुः--"अहिंसा प्रथमो धर्मः, सर्वशास्त्रेषु विश्रुतः । यत्र जीवदया नास्ति, तत्सर्व परिवर्जयेत् ॥१॥ ध्रुवं प्राणिवधो यज्ञे, नास्ति यज्ञोऽहिंसकः । सर्वसत्त्वेष्वहिसैव, दयायज्ञो युधिष्ठिर! ॥२॥
स्वर्गश्च खलु इष्यते । संसारमोचकानां च, ततः स्वर्गोऽभिधीयते ॥३॥" जैनागमश्च-"सव्यभूयप्पभूयस्स समं भूयाय पासउ । पिहियासवस्स दन्तस्स पावं कम्मं न बंधइ ॥१॥
सव्वजीवा वि इच्छंति, जीवियं न मरिज्जियं । तम्हा पाणवहं घोरं, निग्गंन्था धज्जितेण"।।
अथ वेदेषु नास्ति जीवदया तर्हि वेदा न प्रमाणं, चार्वाकधर्मशास्त्रवत् दयाविकलत्वात् "किमस्माकं दयाधर्मनिष्ठानां तैःप्रयोजनम्" इति श्रुत्वा ते सर्वे तूष्णीभूत्वा स्थिताः । चमत्कृतो राजा दयाधर्मे मनो दधौ । अन्यदा विप्रैः सम्भूय प्रोक्तं देव ! “शूद्राः एते न प्रणामार्हाः" । श्रीगुरुभिरुक्तं-किं नाम तच्छद्रत्वं ब्राह्मणत्वं वा किमुच्यते । न तावदेकान्तेन जात्या
शूद्रत्वं ब्राह्मणत्वं वा भवति । M यदुक्तं-“शूद्रोऽपि शीलसंपन्नो, गुणवान् ब्राह्मणो मतः । ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीनः, शुद्राऽपत्यसमो भवेत् ॥
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अतः---सर्वजातिषु चाण्डालाः, सर्वजातिषु ब्राह्मणाः। ब्राह्मणेष्वपि चाण्डालाश्चाण्डालेष्वपि ब्राह्मणाः ॥२॥
कृषिवाणिज्यगोरक्षा, राजसेवां चिकित्सनम् । ये च विप्राः प्रकुर्वन्ति, न ते कौन्तेय ! ब्राह्मणाः ॥३॥ हिंसकोऽनृतवादी च, चौर्ययाभिरतश्च यः । परदारोपसेवी च, सेवे ते पतिता द्विजाः॥४॥ ब्रह्मचर्यतपोयुक्ताः, समानलोष्ठकांचनाः । सर्वभूतदयावन्तः, ब्राह्मणाः सर्वजातिषु ॥५॥ क्षान्त्यादिकगुणैयुक्तो, व्यस्तदण्डो निरामिषः । न हन्ति सर्वभूतानि, प्रथमं ब्रह्मलक्षणम् ॥६॥ सदा सर्वानृतं त्यक्त्वा, मिथ्यावादाद्विरज्यते । नानृतं च वदेद्वाक्य, द्वितीयं ब्रह्मलक्षणम् ॥७॥ सदा सर्व परद्रव्यं, बहिर्वा यदि वा गृहे । अदत्तं नैव गृह्णाति, तृतीयं ब्रह्मलक्षणम् ॥८॥ देवासुरमनुष्येषु, तिर्यग्योनिगतेषु च । न सेवते मैथुनं, यश्चतुर्थ ब्रह्मलक्षणम् ॥९॥ त्यक्त्वा कुटुम्बवासं तु, निर्ममो निःपरिग्रहः । युक्तश्चरति निःसंगः, पंचमं ब्रह्मलक्षणम् ॥१०॥ एवं लक्षणसम्पन्नः, ईदृशो यो भवेद्द्विजः । तमहं ब्राह्मणं मन्ये, शेषाः शूद्रा युधिष्ठिर ! ॥११॥ कैवर्तीगर्भसंभूतो, व्यासो नाम महामुनिः । तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम् ॥१२॥ हरिणीगर्भसंभूतः, ऋष्यशृङ्गो महामुनिः। तपसा ब्राह्मणो ज.त-स्तस्माज्जातिरकारणम् ।।१३।। शुकीगर्भसंभूतः, शुको नाम महामुनिः । तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम् ॥१४॥ मंडूकीगर्भसंभूतो, मांडव्यश्च महामुनिः । तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम् ॥१५॥ उर्वशीगर्भसंभूतो विशिष्ठस्तु महामुनिः । तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम् ॥१६॥
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कुमार
प्रतिबोध प्रबंधः
॥२६॥
न तेषां ब्राह्मणी माता, संस्कारश्च न विद्यते । तपसा ब्राह्मणाः जातास्तस्माज्जातिरकारणम् ॥१७॥ यद्वत्काष्ठमयो हस्ती, यद्वचर्ममयो मृगः । ब्राह्मणस्तु क्रियाहीनत्रयस्ते नामधारकाः" ॥१८॥ इति श्रुत्वा निरुत्तरेषु विप्रेषु प्रमुदितो राजा जातं मनसि स्थैर्य श्रीजिनधर्मे
अन्यदा कैश्चिन्मत्सरिभिः प्रोक्तम् “राजनेते मलाविलवस्त्राः स्नानाभावादपवित्रगात्रा राजसभायां स्थातुं नोचिताः" इति श्रुत्वा तत्र सकलराजवर्गसमक्षं श्रीसूरिभिरभिदधे कस्य नामापावित्र्यं शरीरस्यात्मनो वा । यदि शरीरस्य तर्हि सर्वेषां शरीरस्य सप्तधातुमयत्वात् पावित्र्यापावित्र्यविभागः कर्तु केनापि नो पार्यते । आत्मनश्चेत्तयुष्मादृशामनतिशयदृशां प्राकृतपुरुषाणामतीवदुर्लक्षमेव, जलक्षालनकृतं तु यत् पावित्र्यापावित्र्यविवेचनं तन्मूढविस्मापनम् ।। "यदुक्तं-शौचमध्यात्मिकं त्यक्त्वा, भावशुद्वयात्मकं शुभम् । जलादिशौचं यददृष्टं, मूढविस्मापनं हि तत्"॥
कुर्याद्वर्षसहस्राणि प्रत्यहं मजनं महः । सागरेणापि, कृच्छ्रेण, वधको नैव शुद्धथति ॥२॥ चित्तं रागादिभिः क्रान्तमलीकवचनैर्मुखम् । जीवहिंसादिभिः कायो, गंगा तस्य पराङ्मुखी ॥३॥ चित्तमंर्तगतं शुद्धं, वदनं सत्यभाषणैः । ब्रह्मचर्यादिभिः काया, शुद्धो गंगां विनाऽप्यहो४॥ ब्रह्मचर्येण सत्येन, तपसा संयमेन च । मातंगा अपि शुद्धयन्ति, न शुद्धिस्तीर्थयात्रया ॥५॥ शृंगारमदनोत्पादं, यस्मात् स्नानं प्रकीर्तितम् । तस्मात्स्नानं परित्यक्तं, नैष्ठिकैब्रह्मचारिभिः ॥६॥
मुखशय्यासनं वस्त्रं, ताम्बूलं स्नानमंडनम् । दंतकाष्ठं सुगंधं च, ब्रह्मचर्यस्य दूषणम् ॥७॥ | सत्यं शौचं तपः, शौचं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया शौचं, जलशौचं च पश्चमम्" ॥८॥
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इति शास्त्रोक्तं युष्माभिरपि किं न दृष्टं वा न श्रुतम् ? येनेयं चर्चा क्रियते । इति निशम्य नृपः सपरिकरः प्रमुदितो ज्ञातः शौचस्य समाचारः प्राह च तदा अहो श्रीहेमसूरीणां स्वपरशास्त्ररहस्यस्मृतिः सदाचारचतुरता च यतः--
एहिरे याहिरां चक्रे, केषां न श्रुतिषु श्रुतम् । परं परिमलस्तस्य विलीनो विमलात्मसु॥१॥ ज्ञातं च जलशौचं मूढजनमनोविस्मापकम् ।
अथान्यदा मापतिः पप्रच्छ । कयापि युक्त्याऽस्माकमपि यशःप्रसरः कल्पान्तस्थायी भवति इति तदीयां गिरमाकर्ण्य विक्रमार्क इव विश्वस्यानृणकरणात् यद्वा श्रीसोमेश्वरप्रासादं वारांराशितरंगनिकरासन्नांभोभिः शीर्णप्राय युगान्तकीतये समुद्धर इति चन्द्रातपनिभया श्रीहेमचंद्रगिरा उद्वेलप्रमोदांभोधिर्नृपस्तमेव महर्षि पितरं दैवतं गुरुं मन्यमानो नितरां द्विजा. निन्दन तदैव प्रासादोद्धराय दैवज्ञनिवेदिते सुलग्ने तत्र पंचकुलं प्रस्थाप्य प्रासादप्रारम्भमचीकरत् ।
. अथ सोमेश्वरस्य प्रासादप्रारम्मे खरशिलानिवेशे संजायमाने सति पंचकुलप्रहितवर्द्धापनिकाविज्ञप्तिकां नृपतिः श्रीहेमचन्द्रगुरोरदर्शयत् । अयं प्रासादप्रारंभः कथं निःप्रत्यहं प्रमाणभृभिमधिरोहतीति पृथिवीपरिवृढेनानुयुक्तः श्रीमान् किश्चि दुचितं विचित्य गुरुरुचिवान् । यदस्य धर्मकार्यस्यान्तरायपरिहाराय ध्वजाधिरोपं यावद् ब्रह्मसेवानियमोऽथ मद्यमांससेवानियमः द्वयोरेकतरं किमप्यंगीकुरु । इति तद्वचनमाकर्ण्य नृपतिः मद्यमांसनियममभिलषन् श्रीनीलकंठस्योपरि जलं विमुच्य तमाभग्रहं जग्राह । संवत्सरद्वयेन तस्मिन् प्रासादे कलशध्वजाधिरोपं यावद् गते सति तं नियम मुमुक्षुर्गुरूननुज्ञापयन् तैरुचे यद्यनेन निजकीर्तनेन साधंअर्द्धचन्द्रचूडं प्रेक्षितुमर्हति भवान तद्यात्रापर्यन्ते नियममोचनावसरः इत्यभिधायोत्थिते श्रीहेम
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॥२७॥
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प्रतिबोध चन्द्रमुनीन्द्रे तद्गुणैरुन्मीलन्नीलीरागरक्तहृदयस्तमेकमेव संसदि प्रशंसन् निनिमित्तो वैरी परिजनस्तेजःपुञ्जमसहिष्णुः करि
| प्रबंधः न्मिथ्यादृष्टिः राज्ञोऽग्रे। "उज्ज्वलगुणमभ्युदितं, क्षुद्रो द्रष्टुं न कथमपि क्षमते। दग्ध्वा तनुमपि शलभो दीपे दीपार्चिमपहरति ।।
इति न्यायात्पृष्ठमांसादनं दोषमप्युररीकृत्य तदपवादमेवावादीत् यदयममंदच्छन्दानुवृत्तिपरः सेवाधर्मी कुशलः केवलं प्रभोरभिमतमेव भाषते । यद्येवं न तदा प्रातरुपेतः श्रीसोमेश्वरयात्रायां भवान् सहागच्छतु इति गदितः स च परतीर्थपरिहाMरान तत्रागमिष्यति इति अस्मन्मतमेव प्रमाणम् । नृपस्तद्वाक्यमादृत्य प्रातरूपागतं श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरं श्रीसोमेश्वरयात्रार्थ )
अभ्यर्थयन् बुभुक्षितस्य किं निमंत्रणं उत्कंठितस्य केकारवश्रवण इति लोकरूढिः । तपस्विनामधिकृततीर्थयात्राधिकाराणां को नाम नृपतेरयं निबंधः, इत्थं गुरोरंगीकारे युष्मद्योग्यसुखासनादिप्रभृतिवाहनादि किश्चित्सज्जीक्रियतामिति ईरते वयं पादचारेण संचरन्तः पुण्यमुपलभामहे । परं वयं इदानीं त्वामापृच्छय मितैः प्रयाणैः श्रीशत्रुञ्जयोज्जयन्तादिमहातीर्थानि नमस्कृत्य भवतां श्रीदेवपत्तने प्रवेशोत्सवे मिलिष्यामः । इत्युदीर्य ते तत्तथैव कृतवन्तः।
नृपतेः पुरः विप्राः प्रवदन्त्यदः । राजन् ! हेमसूरिनष्ट्रा गतः क्वापि स न समेष्यति श्रीसोमपत्तने नृपः समग्रसामच्या कतिपयैः प्रयाणैः श्रीपत्तनं प्राप । हेमसूरीननागतान् वीक्ष्य सर्वत्र योजनमध्ये विलोकापिताः परं न श्रता न दृष्टाः । यावत्किञ्चिन्नृपश्चिन्तयति तावत्प्रभुरग्रे धर्माशिमं बभाण चमत्कृतो राजा विस्मितश्च । प्रभुरुचे अद्याधुना वयं श्रीरवताचलोपरि ॥ २७॥ देवान्नमस्कृत्य भवतां प्रवेशमहोत्सवं मत्वा समायाताः । तदा तच्छ्रुत्वा सर्वेऽपि द्विजादयो ग्लानिं प्राप्ताः। अथ महोत्सवेन पुरं प्रविश्य श्रीसोमेश्वरप्रासादसोपानकेष्वाकान्तेषु भूपीठलुठनानन्तरं विरतरातुल्यायल्लकानुमानेन ?
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गाढमुपजुगृहे श्रीसोमेश्वरलिङ्गे एते जिनादपरं देवतं न नमस्कुर्वन्ति इति मिथ्याग् वचसा भ्रान्तचित्तस्य श्रीहेमचन्द्रं प्रति एवंविधगीराविरासीत् यदि युज्यते तदेतैरुपहारैरेभिर्मनोहारिभिः श्रीसोमेश्वरमर्चयन्तु भवन्तस्तत्तथेति प्रतिपद्य सद्यः क्षितिपकोशादागतेन कमनीयोद्गमनीयेनालंकृतकायाः नृपतिनिर्देशात् पतीयाणाविप्रश्रीबृहस्पतिना दत्तहस्तावलंबाः प्रासाददेहलीमधिरुह्य किञ्चिद्विचिन्त्य प्रकाशं अस्मिन् प्रासादे कैलाशवासी श्रीमन्महादेवः साक्षादस्तीति रोमांचकंचुकितां तनुं विभ्राणा द्विगुणी क्रियतामुपहार इत्यादिश्य शिवपुराणोक्तदीक्षाविधिना आह्वनावगुंठनमुद्राकरणमंत्रन्यासविसर्जनोपचारादिभिः पचोपचारविधिभिः शिवमभ्यर्य तदन्ते ।
"यत्र तत्रसमये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिधाय या तया ।
वीतदोषकलुषः सचेद्भवानेक एव भगवन्नमोऽस्तु ते ॥१॥ प्रशान्तं दर्शनं यस्य, सर्वभूताभयप्रदम् । मांगल्यं च प्रशस्तं च, शिवस्तेन विभाव्यते ॥२॥ महत्वादीश्वरत्वाद्यो, महेश्वरतां गतः । रागद्वेषविनिर्मुक्तं, तमहं वन्दे महेश्वरम् ॥३॥ महाक्रोधो महामानो, महामाया महामदः । महालोभो हतो येन, महादेवः स उच्यते ॥४॥ महावीर्य महाधैर्य, महाशीलं महागुणः । महापूजाघहत्वाच्च, महादेवः स उच्यते ॥५॥ एकमृत्तित्रयो भागा, ब्रह्माविष्णुमहेश्वराः । तान्येव पुनरुक्तानि, ज्ञानचारित्रदर्शनैः ॥६॥
कार्य विष्णुः, क्रिया ब्रह्मा कारणं तु महेश्वरः। 'कार्यकारणसंपन्नो महादेवः स उच्यते ॥७॥ १ कार्यकारणसम्पन्ना एकमूर्तिः कथ भवेत् ? प्रत्यन्तरे ।
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कुमार
प्रतिबोध प्रबंधः
॥२८॥
प्रजापतिसुतो ब्रह्मा, माता पद्मावती स्मृता। अभिजिजन्मनक्षत्रं, एकमूर्तिः कथं भवेत? ॥८॥ वसुदेवसुतो विष्णुः, माता वै देवकी मता। 'श्रवणं जन्मनक्षत्रमेकमूर्तिः कथं भवेत ? ॥९॥ पेढालस्य सुतो रुद्रो, माता वै सत्यकी स्मृता । मूलं तु जन्मनक्षत्रमेकमूर्तिः कथं भवेत् ॥१०॥ रक्तवर्णो भवेद्ब्रह्मा, श्वेतवर्णो महेश्वरः । कृष्णवर्णो भवेद्विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् ॥११॥ चतुर्मुखो भवेद्ब्रह्मा, त्रिनेत्रस्तु महेश्वरः । चतुर्भुजो भवेद्विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥१२॥ ज्ञानं विष्णुः सदा प्रोक्तं, चारित्रं ब्रह्म उच्यते । सम्यक्त्वमीश्वरः प्रोक्तं, अर्हन्मूर्तिस्त्रयात्मिका ॥१३॥ क्षितिजलपवनहुताशनयजमानाकाशसोमसूर्याख्याः । इत्येत एव वाष्टौ वीतरागगुणाः स्मृताः ॥१४॥ क्षितिरित्युक्ते शान्तिर्जलं या च प्रसन्नता । निःसंगता भवेद्वायुः, हुताशो योग उच्यते ॥१५॥ यजमानो भवेदात्मा, तपोदानदयादिभिः । अलपकत्वादाकाशसङ्काशः सोऽभिधीयते ॥१६॥ सोममूर्तिर्भवेचंद्रो, वीतरागः समीक्ष्यते । ज्ञानप्रकाशकत्वेन, आदित्यः सोऽभिधीयते ॥१७॥ अकारेण भवेद्विष्णुः, रेफे ब्रह्मा व्यवस्थितः । हकारेण हरः प्रोक्तः, तस्यान्ते परमं पदम् ॥१८॥ पुण्यपापविनिर्मुक्तो, रागद्वेषविवर्जितः। अतोहयो नमस्कारः, कर्तव्यः शिवमिच्छता ॥१९॥ हंसवाहो भवेद्ब्रह्मा, वृषभवाहो महेश्वरः । गरुडवाहो भवेद्विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥२०॥
पग्रहस्तो भवेद्ब्रह्मा, शूलपाणिमहेश्वरः। शंखचक्रधरो विष्णुरेकमर्तिः कथं भवेत् ? ॥२१॥ १ 'रोहिणी प्रत्यन्तरे । २ सम्यकत्वं तुं शिवं प्रोक्तम् । ३ 'चक्रपाणिर्भवेद्' प्रत्यन्तरे ।
॥२८॥
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भवबीजाकुरजनना रागाद्या, क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥२२॥
इत्यादिस्तुतिभिः सकलराजलोकान्विते राज्ञि सविस्मयमवलोकमाने दण्डप्रमाणपूर्व स्तुत्वा श्रीहेमचन्द्राचार्येषु निषण्णेषु सत्सु भृपतिः श्रीबृहस्पतिना ज्ञापितः प्रजायै समधिकवासनया शिवार्चानन्तरं धर्मशिलायां शिव शिवेति जल्पन् तुलापुरुषगजाश्वादीनि दानानि वितीर्य समग्रराजवर्ग अपसार्य तद्गर्भग्रहान्तः प्रविश्य न महादेवसमो देवः न मम तुल्यो | नृपतिः न श्रीहेमसूरिसदृशो महर्षिरितिभाग्यवैभववशादयत्नसिद्धस्त्रिकसंयोगोऽभूत्।
अथ कर्पूरारात्रिकावसरे कोऽपि मिथ्याहगाह यदनेन सूरिणार्धनारीनरेश्वरो राज्यप्रदाता नात्मीयदेवो नमस्कृतः । किन्तु वीतरागो मुक्तिर्दाता । राजा प्राह यदनेन मुक्तिन भवति तदाऽस्माकं राज्यं पुराऽप्यस्ति अधुना मुक्तिर्विलोक्यते मुक्ति प्रदे आरात्रिकं करिष्यामः परमेष्ठिमूर्तिर्मुक्तिदात्री तत्रारात्रिकं कुरु इत्युक्त्वा तत्र गत्वा परमेष्ठिमृत्तिमवलोक्य यावदारात्रिकं करोति तावद्रामचन्द्रनामा चारणः पपाठ__काहुं मनिविसंतडी अजीमणीयडागुणेइ । अक्खयनिरंजण परमय अजयजइ न लहेइ ॥१॥
इति श्रुत्वाऽऽरात्रिकं मुक्त्वा स्थितः । बहुदर्शनप्रमाणप्रतिष्ठासंदिग्धे देवतत्त्वे मुक्तिपदं दैवतं अस्मिस्तीथे तथ्यया गिरा निवेदयं राज्ञा इत्यभिहिते श्रीहेमचंद्राचार्याः किश्चिद्धिया निधाय नृपतिं प्राह अलं पुराणदर्शनोक्तिभिः श्रीसोमेश्वरमेव . तव प्रत्यक्षीकरोमि यथा तन्मुखेन मुक्तिमार्गमवैषि इति तद्वाक्यान् नृपतिश्चिन्तयति किमेतदपि जाघटीति इति विस्मयापनमानसे नृपै निश्चितमलमत्र तिरोहितं दैवतमस्त्येवेति आर्चायादिगुरूतगिरा निश्चलावाराधको तदित्थं द्वन्द्वसिद्धौ सत्यां सुकरं दैवतप्रादुःकरणम् । मया प्रणिधान भवता कृष्णागुरुक्षेपश्च तदा परिहार्यो यदा व्यक्षः प्रत्यक्षीभूय निपेवति ।।
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कुमार
॥२९॥
अथोभाभ्यां तथा क्रियमाणे धूपधूमान्धकारिते गर्भगृहे निर्वाणेषु नक्षत्रमालाप्रदीपकेषु आकस्मिके प्रकाशे द्वादशा
RA)प्रतिबोध
प्रबंधः त्ममहिसीव प्रसरति नृपो नयने संभ्रमादन्मृज्य यावदालोकते तावजलाधारोपरि जात्यजांबूनदार्ति चर्मचक्षुषां दुरालोक अप्रतिमरूपं असंभाव्यस्वरूपं तपस्विनमेकमद्राक्षीत । तं पांदागुलीप्रभृतिजटाजूटावधिं करतलेन संस्पृश्य निश्चित्य देवतावतारं पंचांगचुम्बितावनितलं यथाभक्त्या नत्वा भूमानिति विज्ञापयामास "जगदीश ! भवदर्शनात्कृतार्थे मयि आदेशप्रसादात कृतार्थय कर्णयुगलम्" । इति विज्ञप्य तूष्णीस्थिते नृपे तन्मुखादिति गीरभूत । "राजन्नयं महर्षिः सर्वदेवतावतारः अजिह्मपरब्रह्मावलोककरतलकलितमुक्ताफलवत् विज्ञातकालत्रयस्वरूपः । एतदुपदिष्ट एवासंदिग्धो मुक्तिमार्ग" इत्यादिश्य तिरोभूते भूपतो उन्मनीभावं भजन भूपतिं प्रति रेचितप्राणायामपवनः श्लथीकृतासनबंधः श्रीहेमाचार्यो यावदिति वाचमुवाच । तावदिष्टदेवतसंकेतात्यक्तराज्याभिमानोऽनीचपादोऽवधार्यतां अधनोत्थीयतां इति व्याहृतिपरो विनयनम्रमौलियत्कृत्यमादिशेति व्याजहार।
अथ तत्रैवं नृपतेर्यावजीवं पिशितमद्यादिनियमं दत्त्वा ततः प्रत्यावृत्तौ क्षमापनीः श्रीअणहिल्लपुरं पत्तनं प्रापतुः। अथ प्रत्यहं राजसभायां विचारेषु जायमानेषु राजा श्रीजिनोक्तं धर्म सत्यतया मन्यमानोऽपि परं निजकुलक्रमायातं धर्म द्विजादीनां लज्जया मोक्तुं न समीहते परापवादभीतः।
"कामरागस्नेहरागावीषत्करनिवारणी । दृष्टिरागस्तु पापीयान् , दुरुच्छेदः सतामपि ॥१॥ कुलक्रमेण कुर्वन्ति, मूढा धर्म कुबुद्धयः । विपश्चितो विनिश्चित्य, स्वचिते तु परीक्षया ॥२॥
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आगमेन युक्त्या च, योऽर्थः समभिगम्यते । परीक्ष्य हेमवद्ग्राह्यः, पक्षपातग्रहेण किम् ? ॥३॥ श्रोतव्ये च कृतौ कणों, वाग्बुद्धिश्च विचारणे । यः श्रुतं न विचारत, स कार्य विन्दते कथम् ? ॥४॥
इति श्रीगुरुवचनमाकर्ण्य राजा परापवादभीरुः सर्वदर्शनसंवादेन धर्म जिघृक्षुः सर्वदर्शनविज्ञान पंडितमन्यान् विदुषः | समाहूय सर्वसमक्षं सभायां धर्मस्वरूपं पप्रच्छ । तेपि च यथाज्ञातस्वस्वागमाचारं निजं निजं धर्मस्वरूपं प्ररूपयामासुः, तत्र देवतत्त्वविचारणायां क्रियमाणायां सर्वदर्शनिभिर्नाटयाट्टहाससंगीतरागद्वेषप्रासादकोपजगज्जननस्थेमविनाशादरशस्त्रस्त्रीपरिग्रहादिसकलसांसारिकजंतुजातसाधारणे दैवतस्वरूपे निरूप्यमाणे श्रीगुरवः प्रोचुः--न चैवमर्वाचीनजनैः प्रोच्यमानं परमेश्वरस्वरूपं, यदुक्तम्--
प्रत्यक्षतो न भगवान् वृषभो न विष्णुरालोक्यते न च हरो न हिरण्यगर्भः।
तेषां स्वरूपगुणमागमसंप्रभावात्, ज्ञात्वा विचारय कोऽत्र परावादः ॥१॥ माया नास्ति जटाकपालमुकुटश्चंद्रो न मुर्दावली। खट्वांगं न च वासुकिन च धनुः शूलं न चोग्रं मुखम् ॥ कामो यस्य न कामिनी न च वृषो, गीतं न नृत्यं पुनः। सोऽयं पातु निरञ्जनो जिनपति-देवाधिदेवः परः॥
राजनैवंविधेऽपि भगवति निर्दोषे जिनेन्द्रे यत्परप्रवादा मत्सरिणः स्युः तत्स्वशासनानुरागेण परशासनाभिमानस्य विजृम्भितम् । इति सर्वसमक्षं वीतरागस्य देवतत्वमवस्थाप्य सर्वेषां स्वरूपज्ञापनार्थ निजां प्रतिज्ञा प्रादुरकार्पः--
इमां समक्षं प्रतिपक्षसाक्षिणामुदारघोषामवघोषणां ब्रुवे । न वीतरागात्परमस्ति दैवतं, न चाप्यनेकान्तमृते नयस्थितिः ॥१॥
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कुमार०
प्रबंध:
॥ ३०॥
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इति प्रतिज्ञां श्रुत्वा सर्वेषु दर्शनिनेषु मौनमवलम्ब्य स्थितेषु सर्वेऽपि सभासदः विस्मयस्मेरमानसा मनसि श्रीवीतरागं । देवं प्रपद्य "नमः श्रीजिनेन्द्राय निरञ्जनायेत्यूचुः" ज्ञातं च सर्वैरपि देवतत्त्वं, यथा--
'सर्वज्ञो जितरागादिः(इत्या०), ध्यातव्योऽयमुपास्योऽय०(इत्या०) ये स्त्रीशस्त्राक्षसूत्रादि(इत्या०)॥ नानाशस्त्रजुषः कथं गतरुषः स्त्रीसन्निधानात्कथम् । नीरागाः पशुनाशयागकरणात् कारूण्यवंतः कथम् । छत्राद्यष्टमहाविभूतिविरहाद्देवाधिदेवाः कथम् । तस्मात्सर्वगुणर्द्धिमान् विजयते श्रीवीतरागः प्रभुः॥
न कोपो न लोभो न मानं न माया, न लास्यं न हास्यं न गीतं न कान्ता । न वा यस्य पत्तिन शत्रुर्न मित्रं तमेकं प्रपद्ये जिनं देवदेवम् ।।
॥ इति देवतत्त्वम् ॥
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॥ अथ गुरुतत्त्वम् ॥ त्यक्तद्वाराः सदाचारा, मुक्तभोगा जितेन्द्रियाः । जायन्ते गुरवो नित्यं, सर्वभूताभयप्रदाः॥१॥
१ सर्वशो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः । यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः ॥४॥ २ ध्यातव्योऽयमुपास्योऽयमयं शरणमिप्यताम् । अस्यव प्रतिपत्तव्यं, शासनं चेतनाऽस्ति चेत् ॥१॥ ३ ये स्त्रीशस्त्राक्षसूत्रादिरागाद्यकलडिन्ताः । निग्रहानुग्रहपरास्ते देवाः स्युन मुक्तये ॥२॥ यो द्वि०
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॥ ३०॥
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तपः शीलसमायुक्तं, ब्रह्मचारिदृढव्रतम् । अलोभमशठं दान्तं, जानीयाद्गुरुमीदृशम् ॥२॥ स्नानोपभोगरहितः, पूजालंकारवर्जितः । मद्यमांसनिवृत्तश्च, गुणवान् गुरुरुच्यते ॥३॥
अवद्यमुक्त पथि यः प्रवर्तते" इत्या० “२विदलयति कुबोधं" (इत्या०) राजनिति गुरुलक्षणानि।
"गृणाति तत्वमिति गुरुः" न तु नाममात्रेण कुलकमायातस्य कस्यापि गुरुत्वमस्ति । सर्वेषां प्राणिनां अनादिकाल. मेकेन्द्रियादिचतुरशीतिलक्षजीवयोनिषु भ्रमतां यस्मिन् भवे यस्य कस्यापि प्राणिनोऽज्ञानांधकारमग्नस्य यस्तत्वातत्त्वव्यक्ति दर्शयति स एव गुरुगुणैर्गौरवा) गुरुरुच्यते । नापरे वंचका स्वार्थप्रिया गुरवः यदुक्तंदुःप्रज्ञावललुप्तवस्तुनिचया विज्ञानशून्याशयाः। विद्यते प्रतिमन्दिरं निजनिजस्वार्थोद्यता देहिनः॥ आनन्दामृतसिन्धुसीकरचयैर्निर्वाप्य जन्मज्वरम् । ये मुक्तेर्वदनेन्दुवीक्षणपरास्ते सन्ति केचिबुधाः ॥१॥
वाङ्मात्रसाराः परमार्थशून्या, न दुर्लभाश्चित्रकथा मनुष्याः। ते दुर्लभा ये जगतो हिताय, धर्मे स्थिता धर्ममुदाहरन्ति ॥२॥
ये तु स्वरुचिकल्पिताचाराः, परस्परविरोधोद्यता मत्सरिणः । १ अवद्यमुक्त पथि यः प्रवर्तते, प्रवर्त्तयत्यन्यजनं च निस्पृहः। स एव सेव्यः स्वहितैषिणा गुरुः, स्वयं तरंस्तारयितुं क्षमः परम् ॥
२ विदलयति कुबोधं बोधयत्यागमार्थ, सुगतिकुगतिमार्गी पुण्यपापे व्यनक्ति । अवगमयति कृत्याऽकृत्यभेदं गुरुयो, भवजलनिधिपोतस्तं विना नास्ति कश्चित् ॥
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कुमार०
प्रतिबोध प्रबंधः
॥३१॥
सदाचारनिंदकाः कथं ते गुरवः सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः
श्रीमहाभारतेऽप्युक्तम्ये शान्तदान्ताः श्रुतिपूर्णकर्णाः, जितेन्द्रियाः, प्राणिवधान निवृत्ताः ।
परिग्रहात्संकुचिता गृहस्थास्ते ब्राह्मणास्तारयितुं समर्थाः ॥१॥ ततः श्रीहेमसूरयः सभायां गुरुकुगुरुस्वरूपमभिधायाऽवादिषुः--
प्रकाशयन्ति भुवनं, भूयांसो भास्करादयः । हार्द पुनस्तमो हन्ति, गुरुरेव गुणैर्गुरुः॥१॥ अत्रान्तरे कश्चित्पपाठ--- जीवोऽयं विमलस्वभावसुभगः, सूर्योपलस्पर्द्धया । धत्ते संगवशादनेकविकृतीलृप्तात्मरूपस्थितिः॥ यव्यामोति रवेरिवेह सुगुरोः, सत्पादसेवाश्रमम् । तज्जातोर्जिततेजसैव कुरुते, कर्मेन्धनं भस्मसात् ॥१॥
इति श्रुत्वा सर्वेऽपि दानं ददुः। . ॥ इति गुरुतत्त्वं ज्ञेयम् ॥
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॥ अथ धर्मतत्त्वमपृच्छत - श्रीसूरयः प्राहुः ॥
तत्र प्रथमं धर्मलक्षणम् --
श्रूयते सर्वशास्त्रेषु सर्वेषु समयेषु च । अहिंसालक्षणो धर्मस्तद्विपक्षश्च पातकम् ||१|| वेदादिप्रामाण्येन यद्धिंसा विधीयते तत्तेषां जाडयलिङ्गम् वेदस्यापौरुषेयत्वेनाप्रमाणत्वात् । आप्ताधीनां हिं वाचां प्रमाणता ।
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व्यासेनाऽप्युक्तम्
दीयते मार्यमाणस्य, कोटिं जीवितमेव वा । धनकोटिं न गृह्णाति, सर्वो जीवितुमिच्छति ॥ १ ॥ यो दद्यात्कांचनं मेरुं कृत्स्नां चैव वसुन्धराम् । सागरं रत्नसंपूर्ण, न च तुल्यमहिंसया ||२|| अमेध्यमध्यकीटस्य, सुरेन्द्रस्य सुरालये । समाना जीविताकांक्षा, तुल्यं मृत्युभयं द्वयोः ॥ ३ ॥ यावंति पशुरोमाणि, पशुगात्रेषु भारत ।। तावद्वर्षसहस्राणि, पच्यन्ते पशुघातकाः ||४|| पृथिव्यामप्यहं पार्थ! वायावग्नौ जलेऽप्यहम् । वनस्पतिगतश्चाहं, सर्वभूतगतोऽप्यहम् ||५|| यो मां सर्वगतं ज्ञात्वा न च हिंसेत्कदाचन । तस्याऽहं न प्रणस्यामि, स च मे न प्रणस्यति ॥६॥
॥ इति विष्णुवाक्यम् ॥ "यत्र जीवस्तत्र शिव इति" यो वेत्ति भक्तितः । दयां जीवेषु कुर्वाणः स शिवाराधकः स्मृतः ॥ १ ॥ क्व मांसं व शिवे भक्ति, क्व मद्यं क्व भवार्चनम् । मद्यमांसप्रसक्तानां, दूरे तिष्ठति शंकरः ॥२॥
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कुमार०
प्रतिबोध
प्रबंधः
॥३२॥
॥ इति भगवद्गीतायाम्-॥ यदा न कुरुते पापं, सर्वभूतेषु दारुणम् । कमणा मनसा वाचा, ब्रह्म संपद्यते तदा ॥१॥ क्षमातुल्यं तपो नास्ति, न सतोषात्परमं सुखम् । न मैत्रीसदृशं दानं, न धर्मोऽस्ति दयासमम् ॥२॥
इति सर्वेषां जीवदया मता । अथ जीवहिंसाभेदानाह । न च हिं जियवहं करणं कारावण अणुमईय जोगेहि कालतियेण ? गुणिउ पाणिवहो दुसयतेयालो । - तत्र पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पति-द्वित्रिचतुःपंचेन्द्रिया इति नवभेदाः मनोवाक्कायैः सह गुणिता जाताः सप्तविंशतिभेदास्ते च करणकारणानुमतिभिर्गुणिता जाता एकाशीतिस्ते चाऽतीतानागतवर्तमानकालत्रयेण गुणिताः जातास्त्रयश्चत्वारिंशत् द्वे शते सब प्राणिवधभेदाः कालत्रयेऽपि हिंसासंभवोऽस्तीति कालत्रयग्रहणं यदुक्तम्
अइय निंदामि पडिपन्नं संवरेमि अणागयं पञ्चक्खामि इति ॥ ___ अथ राजन्नाकर्ण्यतां जीवदयास्वरूपं संयमस्वरूपं च । तथाहि-पृथव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुपंचेन्द्रियाणां मनोवाकायकर्मभिः करणकारणानुमतिभिश्च संरंभारंभसमारंभवर्जनमिति नवधा संयमः । पुस्तकवस्त्रपात्रदंडकादीनां यतनया धरणमजीवसंयमः। स्थडिलादिकं चक्षुषा प्रेक्ष्य शयनाशनादि कुर्वीतेति प्रेक्षासंयमः । सावधप्रवृत्तगृहस्थाव्यापारणेनोपेक्षासंयमः । स्थंडिलादौ रजोहरणादिना प्रमृज्य शयनाशनादीनि कुर्वतः प्रमार्जनासंयमः । भक्तपानादिकमनेषणीयमनुपकारि च निर्जन्तुस्थण्डिले परिष्ठापयतः परिष्ठापनासंयमः । मनसोऽशुभपरिणामनिवृत्तिः शुभे प्रवृत्तिः मनःसंयमः । अशुभभाषात्यागः
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शुभभाषाभाषणं वागसंयमः अशुभक्रियानिवृत्तिः शुभप्रवृत्तिः कायसंयमः। इतिप्राणिदयारूपः सप्तदशधा संयमो यतीनामन्यथा यतित्वाऽभावः।
अथ राजा गृहस्थानां कथमयं संयमः इत्यपृच्छत् तदा श्रीसूरयः प्राहुः राजन् ! देशतो विरतानां गृहस्थानां देशतः संयमोऽस्तीति श्रूयताम् । यथास्थूला सूहमा जीवा संकप्पारंभओ य ते दुविहा । सावराहनिरवराहा साविक्खा चेव निरविक्खा ॥१॥
. तत्र प्राणिवधो द्विविधो ज्ञेयः स्थूलजीवानां सूक्ष्मजीवानां च । तत्र स्थूला द्वीन्द्रियादयः । सूक्ष्मास्त्वेकेन्द्रियादयो न तु सूक्ष्मनामकर्मोदयवत्तिनस्तेषां व्यापादनाऽभावात् स्वयमायुष्कक्षयेण मरणात् । तत्र गृहस्थानां स्थूलपाणिवधान्निवृत्तिः, न तु सूक्ष्मप्राणिवधात् , पृथ्वीजलानिलादिषु प्रवृतत्त्वादारंभस्तेषां, स्थूलपाणिवधोऽपि द्विविधः आरंभजः संकल्पजश्च । संकल्पान्मारयाम्येनं कुलिङ्गिनमिति मनः संकल्परूपाज्जातः (संकल्पजः) । आरंभजस्तु कृष्यादिषु प्रवृत्तस्य द्वीन्दियादिव्यापादनं तस्मानिवृत्तः शरीरकुटुम्बादिभरणनिर्वाहाऽभावात् । संकल्पजोऽपि द्विविधः सापराधो निरपराधश्च । तत्र निरपराधानिवृत्तिः । सापराधेऽपि यतना विधेया । इति गृहस्थानामपि देशसंयमः । अथ द्वितीयं लक्षणं सत्यं नाम तत्सत्यं दशधा
जणवय संमय ठवणा नामे रुवे पडुच्च सचेय । ववहारभावजोगे दशभेउ कम्मसच्चे य ॥१॥ एकत्राऽसत्यजं पापं, पापं निःशेषमेकतः। द्वयोस्तुलाविधृतयोराद्यमेवातिरिच्यते ॥२॥ दीक्षा भिक्षा गुरोः शिक्षा-ज्ञानं ध्यानं जपस्तपः । सर्व मोक्षार्थिनामेतत् सत्येन सफलीभवेत् ॥३॥
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कुमार ॥३३॥
प्रतिबोध | प्रबंधः
अन्यैरप्युक्तं
यदा सत्यं वदेद्वाक्यं, मृषाभाषाविवर्जितः । अनवद्यं च भाषेत, ब्रह्म संपद्यते तदा ॥३॥ अथ राजन् तृतीयधर्मलक्षणं अदत्तादानपरिहाररूपं
अयशःपटहं दत्त्वा, भुक्त्वा विविधवेदनाः । इहलोके नरकं यान्ति, परलोकेऽदत्तहारिणः ॥४॥ परद्रव्यं यदा दृष्ट्वा, सकुलेऽप्यथवा रहः । धर्मकामो न गृह्णाति ब्रह्म संपद्यते तदा ॥५॥
___अदत्तदानेन भवेद् दरिद्री, दरिद्रभावात् तु करोति पापं।
पापं हि कृत्वा नरकं प्रयाति, पुनः दरिद्री पुनरेव पापी ॥६॥ अथ राजन् चतुर्थ धर्मलक्षणं-ब्रह्मचर्यरूपं यतःविदंति परमं ब्रह्म यत्समालम्ब्य योगिनः। तद्वतं ब्रह्मचर्य स्यात्, धीरा धौरेयगोचरं ॥७॥
यः स्वदारेषु संतुष्टः, परदारपराङ्मुखः । स गृही ब्रह्मचारी च, मुक्तिमामोति पुण्यवान् ॥८॥ अन्यैरप्युक्तम्एकरात्रोषितस्यापि, या गतिः ब्रह्मचारिणः । न सा क्रतुसहस्रेण, प्राप्तुं शक्या युधिष्ठिर ! ॥१॥ भोगिदष्टस्य जायन्ते, वेगाः सप्तैव देहिनः । स्मरभोगीन्द्रदष्टानां, दश स्यस्ते महाभयाः॥२॥ प्रथमे जायते चिन्ता, द्वितीये द्रष्टुमिच्छति । स्युस्तृतीये च निश्वासाश्चतुर्थे भजते ज्वरः ॥३॥ पंचमे दहते गात्रं, षष्ठे भुक्तं न रोचते । सप्तमे स्यान्महामूर्छा, उन्मत्तश्च तथाऽष्टमे ॥४॥
॥३३॥
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नवमे प्राणसंदेहो, दशमे मुच्यतेऽसुभिः । एभिर्दोषैः समाक्रान्तं, जीवलोकं न पश्यति ॥५॥ यस्तपस्वी व्रती मौनी, संवृत्तात्मा जितेन्द्रियः । कलंकयति निःशंकः, स्त्रीसखः सोऽपि संयमम् ॥६॥
अथ राजन् ! पंचमं धर्मलक्षणं अकिञ्चनता - संतोषरूपं धनं धान्यं स्वर्णरूप्यकुप्यानि क्षेत्रवास्तुनी द्विपाच्चतुःपाच्चेति स्युः नव बाह्याः परिग्रहाः ।
मिच्छत्तं वेतिगं हासाई छक्कगं च नायव्वं । कोहाइण चउकं चउदस अभिन्तरा गंधा ॥ १ ॥ बाह्यानपि हि यः संगान्, न मोक्तुं मानवः क्षमः । सोऽन्तरंगान् कथं क्लीवस्त्यजेदिह परिग्रहान् ||२|| यानपात्रमिवाम्भोधौ, गुणवानपि मज्जति । परिग्रहगुरुत्वेन, संयमी जन्मसागरे ॥ ३ ॥ न यान्ति वायवो यत्र, नाप्यर्केन्दुमरीचयः । आशामहोर्मयः पुंसां, तत्र यान्ति निरर्गलाः || ४ || अधीती पण्डितः प्राज्ञः, पापभीरुस्तपोधनः । स एव येन हित्वाऽऽशां, नैराश्यमुररीकृतम् ॥५॥ वाक्येनैकेन तद्वच्मि, यद्वाच्यं वाक्यकोटिभिः । आशा पिशाची शान्ता चेत्संप्राप्तं परमं पदम् ||६|| एतानि पंच सर्वविरतत्वात् साधूनां महाव्रतान्युच्यन्ते । यदुक्तं-
महत्त्वहेतोर्गुणिभिः श्रुतानि महान्ति मत्वा त्रिदशैर्नुतानि । महासुखज्ञाननिबंधनानि महात्रतानीति सतां मतानि ॥१॥ अथ राजन् षष्ठं धर्मलक्षणम् - तपो बाह्याभ्यन्तरं द्वादशधा । बाह्यं तपः
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कुमार
॥३४॥
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"अणसणमूणोयरिया०" इत्यादि।
प्रतिबोध
प्रबंधः अभ्यन्तरं तपः--
२"पायच्छित्तं विणओ" इत्या० यदुक्तं-निर्जराकारणात् बाह्यात् , श्रेष्ठमाभ्यन्तरं तपः । तत्राप्येकातपत्रत्वं, ध्यानस्य मुनयो जगुः ॥ यस्माद्विघ्नपरंपरा विघटते, दास्यं सुराः कुर्वते । कामः शाम्यति दाम्यतीन्द्रियगणः कल्याणमुत्सर्पति॥ उन्मीलन्ति महर्द्धयः कलयति, ध्वसंच यः कर्मणाम् । स्वाधीनं त्रिदिवं शिवं च भवति, इलाध्यं तपस्तन्न किम् ॥
संतोषस्थूलमूलः, प्रशमपरिकरस्कन्धबन्धप्रपञ्चः। पचाक्षीरोधशाखः स्फुरदभयदलः, शीलसंपत्प्रवाल: श्रद्धाम्भःपूरसेकाद्विपुलकुलबले-श्वर्यसौन्दर्य भोग-स्वर्गादिप्राप्तिपुष्पः शिवपदफलदः स्यात्तपःपादपोऽयम् ।।
इति सकलदर्शनमान्यं तपो लक्षणम् ।
अथ सप्तमं धर्मलक्षणं क्षमा सा च क्रोधत्यागाद्भवति । अथ राजन् ! अष्टमं धर्मलक्षणम्-मार्दवं मृदुत्वं मदनिग्रहाद्भवति "जातिलाभधनश्वर्य" इत्या० । मानप्रतिपक्षो मादेवम् । यदुक्तम्
मानग्रन्थिमनस्युच्चैर्यावदस्ति नृणां दृढः । तावद्विवेकमाणिक्यं प्राप्तमप्यपसर्पति ॥३॥ अथ नवमं धर्मलक्षणं ऋजुता मायारहितत्त्वमिति । यदुक्तम्-- १ अणसणमुणोयरिया वित्तिसंखेवणं रसच्चाओ, कायकिलेसो संलीणयाय बज्झो तवो होइ ।
॥३४॥ २ पायच्छित्तं विणओ, बेयावश्यं तहेव संज्झाओ झाणं उस्सग्गो वि अ अम्भितरओ तवो होइ ।
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कूटद्रव्यमिवासारं, स्वमराज्यमिवाफलम् । अनुष्ठानं मनुष्याणां मन्ये, मायाविलम्बिनाम् ॥१॥
नृपाः कूटप्रयोगेण, वणिजः कूटचेष्टितैः । विप्राः कूटक्रियाकाण्डैर्मुग्धं वंचयते जनम् ॥२॥ दंपती पितरः पुत्राः, सोदाः सुहृदो जनाः। ईशा भृत्यास्तथाऽन्येऽपि, माययाऽन्योन्यवंचकाः ॥३॥ मायायां पटवः सर्वे, जलस्थलखचारिणः । देवा मायापराः केपि, नारकाच किमुच्यते ॥४॥ अज्ञानामपि बालानामार्जवं प्रीतिहेतवे । किं सर्वशास्त्रार्थ-परिनिष्ठितचेतसाम् ॥५॥
अशेषमपि दुःकर्म ऋज्वालोचनया क्षिपेत् । कुटिलालोचनां कुर्वन्नल्पीयोऽपि घिवर्द्धयेत् ॥६॥ मायाप्रतिपक्षऋजुता। __ अथ राजन् ! दशमं धर्मलक्षणं मुक्तिः सा च बाह्याभ्यन्तरवस्तुषु तृण्णाविच्छेदरूपा लोभाभाव इत्यर्थः । यतः-- अहो लोभस्य साम्राज्यमेकच्छत्रं जगत्त्रये । तरवोऽपि निधि प्राप्य, पादैः प्रच्छादयन्ति यत् ॥१॥ भुजंगगृहगोधाऽऽखुमुख्याः पंचेन्द्रिया अपि । धनलोभेन लीयन्ते निधानस्थानभूमिषु ॥२॥ तथा पिशाचमुद्गल-प्रेतयक्षादयोधनं, स्वकीयं परकीयं वाप्यधितिष्टन्ति लोभतः ॥३॥ विमानोद्यानवाप्यादौ, मूञ्छितास्त्रिदशा अपि । त्यक्त्वा तत्रैव जायन्ते, पृथ्वीकायादियोनिषु ॥४॥ परप्रत्यायनासारैः, किंवा शास्त्रसुभाषितैः । मीलितामा विमृशंतु, संतोषास्वादजं सुखम् ।।५।। किमिन्द्रियाणां दमनैः, किं कायपरिपीडनैः । ननु संतोषमात्रेण, मुक्तिस्त्रीसंमुखीभवेत् ॥६॥
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कुमार०
३५ ॥
इति सभायां सर्वसमक्षं धर्मलक्षणं श्रीगुरुमुखादाकर्ण्य श्रीकुमारपालमुख्याः सर्वेऽपि सभ्याः प्रमुदिताः संजाताः श्रीजिनधर्मप्रणीतधर्मानुरागाः किमस्माभिरतः परं विधेयमिति प्रश्नमकार्षुः ततः श्रीगुरवः प्राहुः राजन् !
हीनं संहननं तपोऽतिविषमं कालश्च दुःखावहः । सिद्धान्तः कुवितर्ककैश्चविवृतो नानावतालिङ्गिनः ॥ ant भिन्नरुचिर्जst जनमतं तत्त्वज्ञवेद्यं सदा, मत्वैवं सुविवेकिभिः सुचरितैर्वार्या अनार्यक्रियाः ॥ प्राणित्राणप्रकारैर्जगदुपकृतिभिर्भक्तिभिः श्रीजिनानाम् । सत्कारैर्धार्मिकाणां स्वजनजनमनः प्रीणनैर्दानपानैः ॥ जीर्णोद्धारैर्यतिभ्यो वितरणविधिना शासनोद्योतनैश्च । प्रायः पुण्यैकभाजां भजति सफलतां श्रीरियं पुण्यलभ्या ॥ इति गुरुणामुपदेशं श्रुत्वा राजा प्राह भगवन् ! -
निद्रा मोहमयी जगाम विलयं सदृष्टिरुन्मीलिता । नष्टा दुष्टकषायकौशिकगणा माया ययौ यामिनी ॥ पूर्वाद्रिप्रतिमे विवेकहृदये सज्ज्ञानसूर्योदयात् । कल्याणांबुजकोटयो विकशिता, जातं प्रभातं च मे ॥ १ ॥ अत्रान्तरे कश्चिद्विद्वान् पपाठ --
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आधारो यस्त्रिलोक्या जलधिजलधरार्केन्दवो यन्नियोज्याः । प्राप्यन्ते यत्प्रभावादसुरसुरनराधीश्वरैः संपदस्ताः ॥
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॥ ३५॥
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आदेश्या यस्य चिन्तामणिसुरसुरभिकल्पवृक्षादयस्ते ।
श्रीमान् जैनेन्द्रधर्मः किशलयतु स वः शाश्वती मोक्षलक्ष्मीम् ॥१॥ लक्षदानमत्रापि।
॥ इति धर्मतत्त्वम् ।। इति तत्त्वत्रयीज्ञाता सर्वैरपि श्रीकुमारपालभूपालोऽपि गृहस्थोचितं धर्ममपृच्छत् । श्रीगुरवः पाहुः 'सम्यक्त्वमूलानि पंचाणुव्रतानि । अज्ञानसंशयविपर्यासपरिहारेण यत्सम्यक् परमार्थरूपं तस्य भावः सम्यक्त्वम् । द्वादशवतानि गृहस्थानां धर्मः सम्यक्त्वमूलानि । एकविंशतिगुणैर्युक्तो धर्मयोग्यो भवति ।
“अक्षुद्रो रूपसौम्यो बहु विनययुतः क्रूरताशाठ्यमुक्तो, मध्यस्थो दीर्घदर्शी परहितनिरतो लब्धलक्षः कृतज्ञः। सद्दाक्षिण्यो विशेषी सदयगुणरुचिः सत्कथः पक्षयुक्तो, वृद्धा) लज्जनो यः शुभजनसुभगो धर्मरत्नस्य योग्यः॥
२" या देवे देवताबुद्धिः" सर्वज्ञो जितरागादिः०" १ सम्यक्त्वमूलानि पश्चाणुव्रतानि गुणास्त्रयः । शिक्षापदानि चत्वारि व्रतानि गृहमेधिनां ।।१॥ योग द्वितिय प्रकाश.
२ या देवे देवताबुद्भिर्गुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधीः शुद्धा, सम्यक्त्वमिदमुच्यते ॥२॥ ३ सर्वज्ञो जितरागादि-दोषत्रैलोक्यपूजितः । यथास्थितार्थवादी च देवोऽहन् परमेश्वरः ॥४॥
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कुमार
प्रतिबोध
॥३६॥
सम्यक्त्वभूषणानि-"स्थैर्य प्रभावना भक्ति."
स्थैर्य जिनधर्मे, प्रभावना अष्टधापावयणी धम्मकही वाई नेमित्तिउ तवस्सीय । विज्जासिद्धोय कवी अट्टेव पभावगा भणिया ॥१॥
___ भक्तिः-विनयवैयावृत्यरूपा कौशलताऽनार्यदेशवार्द्रकुमारोऽभयकुमारेण प्रतिबोधितः। तीर्थसेवा द्रव्यतीर्थ भावतीर्थ च, चैत्यादि द्रव्यतीर्थ, भावतीर्थ ध्यानादि । पंच सम्यक्त्वलक्षणानि "शमसंवेग" क्षमा, संवेगो मोक्षाभिलाषः निर्वेदो भववैराग्यं, अनुकंपा चित्तसार्द्रता, आस्तिक्यं जिनमते दृढनिश्चयः। अथ दूषणानि
____"शंका कांक्षा." अथ सम्यक्त्वाद्विविपरीतं मिथ्यात्वं तत्स्वरूपमाहुः । तत्पंचधा-- "अभिग्गहियं अणभिग्गहिय, तह अभिनिवेसियं चेव । संसइमणाभोगं मिच्छत्तं पंचहा होइ" ॥ आभिग्गहियं किल दिक्खियाण, अणभिग्गहियं च रायाण गुट्ठामाहिलमाईण तं अभिणिवेसियं जाण ॥ संसइयं मिच्छत्तं जा संका जिणवरस्स तत्तेषु । एगेन्दियमाईण तमणाभोगं तु निद्दिढें ॥१॥
इति मिथ्यात्वं तत्र प्रथमं पाखण्डिनां स्वशास्त्रनिरतानां, द्वितीयं सर्वे देवाः सर्वे गुरवः सर्वे धर्माश्च, तृतीयं तत्त्वाऽ तत्त्वज्ञानतोऽपि अभिनिवेशात्परूपणा, चतुर्थ संशयो जीवादितत्त्वेषु अनाभोगिक विवेकविचारशून्यस्यैकेद्रियादेर्वा विशेषज्ञानविकलस्य ।
१ स्थैये प्रभावना भक्तिः, कौशलं जिनशासने । तीर्थ सेवा च पंचाऽस्य भूषणानि प्रचक्षते ॥१६॥ २ शमसंवेगनिर्वेदानुकम्पाऽस्तिक्यलक्षणः । लक्षणैः पंचभिः सम्यक् सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते ॥१५॥ ३ शंकाकांक्षा विचिकित्सा, मिध्यादृष्टिप्रशंसनम् । तत्सत्सवश्च पंचाऽपि, सम्यकत्वं दूषयन्त्यलम् ॥१८॥ यो० द्वि.
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॥३६॥
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जन्मन्येकत्र दुःखाय, रोगो ध्वान्तं रिपुर्विशन् । अपि जन्मसहस्रेषु, मिथ्यात्वमचिकित्सितम्॥१॥ 'अतो मुहुत्तमित्तंपि इति सम्यक्त्वमिथ्यात्वयोः स्वरूपं श्रुत्वा राजा गुरुमुखेन सम्यक्त्वं जग्राह । अथ राजा अणुव्रतानां स्वरूपमपृच्छत्-श्रीसूरयः प्राहुः "विरतं स्थूलहिंसादे० १"
"पंगुकुष्टिकुणित्वा०२" मार्यमाणस्य हेमाद्रि, राज्यं वा संप्रयच्छतः। तदनिष्टं परित्यज्य, जीवो जीवितुमिच्छति॥ स्थूलेषु सर्वसत्त्वेषु, यः करोति दयां त्रिधा । सूक्ष्मेषु यतनां कुर्वन् , गृहस्थोऽपि स मुक्तिभाक्॥ ___ अथ तृतीयाणुव्रतं- मन्मनत्वं काहलत्वं. कन्यागोभूम्यलीकानि०॥ असत्यं त्रिषु लोकेषु, निन्दितं पापकारणम् । दुःखितास्ते न जायन्ते, दिवि दानवमानवाः ॥ इह लोके गृहस्थोऽपि, यशः प्रामोति निर्मलम् । सत्येन परलोकेषु, सुलभाः स्वर्गसंपदः ।।
अथ द्वितीयाणुव्रतं-दौर्भाग्यं प्रेष्यतां दास्य०१ १ अंतोमुहुत्तमित्तपि फासियं जेण हुज्ज सम्मत्तं । तेसिं अवड्ढ पुग्गलपरियट्टो व संसारो ॥१॥ २ विरतिं स्थूलहिंसादेविविधत्रिविधादिना । अहिंसादीनि पंचाणुव्रतानि जगदुर्जिनाः ॥१८॥ ३ पंगुकुष्टिकुणित्वादि दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः । निरागस्त्रसजत्नां हिंसां संकल्पतस्त्यजेत् ॥१५॥ ४ मन्मनलं काहलतं, मूकर मुखरोगिता। वीक्ष्याऽसत्यफले कन्याऽलीकाद्यसत्यमुत्सृजेत् ॥५३॥ ५ कन्यागोभूम्यलीकानि, न्यासापहरणं तथा । कूटसाक्ष्य च पंचेति, स्थूलासत्यान्यकीर्तयत् ॥५४॥ ६ दोर्भाग्यं प्रेष्यतां दास्यनंगच्छेदं दरिद्रताम् । अदत्तात्तफलं ज्ञात्वा, स्थूलस्तेयं विवर्जयेन् ॥६५॥ योग. द्वितीयप्रकाश.
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तिबोध
कुमार
प्रबंधः
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दानशीलतपोभावैः, कृतं धर्मचतुर्विधम् । निःफलं प्राणिनां सर्व, परद्रव्याभिलाषिणाम् ॥ गृहिणोऽपि हि धन्यास्ते, माननीया महात्मनाम् । कुर्वन्ति स्वकरे मुक्तिं, ये परस्वपराङ्मुखाः॥
अथ चतुर्थव्रतम्-"पंढत्त्वमिन्द्रियच्छेद०" "रम्यमापातमात्रे यत्" ब्रह्मचर्य भवेद्येषां स्वाधीनं गृहिणामपि । धन्या जगत्सु ते वश्यं, लभन्ते परमं पदम् ।। अथ पंचमाणुव्रतम्--3"असंतोषमविश्वास." __४"असंतोषवतः सौख्यम्"
"सन्निधौ निधयस्तस्य" न विश्वसिति कस्यापि, परिग्रहविमूढधीः । षट्सु जीवनिकायेषु, करोत्यारंभमन्वहम् ॥ अनंतदुःखं संसारे, ततः प्रामोति मूढधीः। परिग्रहमहत्त्वेन, परलोकपराङ्मुखः॥ इति श्रुत्वा श्रीकुमारपालः गुरुमुखेन यथाविधि पंचाणुव्रती जग्राह । अथ गुणव्रतान्याहुः--
१ षंढत्वमिन्द्रियच्छेदं वीक्ष्याऽब्रह्मफलं सुधीः । भवेत्स्वदारसंतुष्टोऽन्यदारान् वा विवर्जयेत् ॥६॥ २ रम्यमापातमात्रेण परिणामेति दारुणम् । किंपाकफलसंकाशं तत्कः सेवेत मैथुनम् ॥७७॥ ३ असंतोषमविश्वासमारंभं दुःखकारणम् । मत्वा मूर्छाफलं कुर्यात्, परिग्रहनियंत्रणम् ॥१०६॥ ४ असंतोषवतः सौख्यम्, न शकस्य न चक्रिण: । जन्तोः संतोषभाजो, यदभयस्येव जायते ॥११६॥ ५ संनिधौ निधयस्तस्य कामगव्यनुगामिनी । अमरा किंकरायन्ते, संतोषो यस्य भूषणम् ॥११॥ यो० द्वि.
॥३७॥
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"दशस्वपि कृता दिक्षु यत्र सीमा०" २"चराचराणां जीवानाम्" Pal यतः-तत्तायगोलकप्पो पमत्तजीवणिवारियप्पसरे । सव्वत्थ किं न कुज्जा पावं त कारणाणुगओ ॥१॥
___ "जगदाक्रममाणस्य." अथ द्वितीयगुणव्रतम्--४"भोगोपभोगयोः संख्याः " "सकृदेव भुज्यते यः"
"मद्यं मांसं नवनीतं०" तत्र मयं द्विधा काष्टपिष्टनिष्पन्नं द्विधा मांसं त्रिधा जलस्थलखचारिमेदात् । नवनीतं * गोमहिष्यजाविकाभेदाच्चतुर्धा, मधु त्रिधा माक्षिकं भ्रामरं कौतिकं चेति, तत्र मद्यदोषाः।
रसोद्भवाश्च भूयांसो, भवन्ति किल जन्तवः । तस्मान्मयं न पातव्यं, हिंसापातकभीरुणा" ॥ असत्यं वचनं ब्रूते, मद्यमोहितमानसः। अदत्तं धनमादत्ते, बलाद्भुक्ते परस्त्रियम् ॥
१ दशस्वपि कृता दिक्षु यत्र सीमा न लंध्यते । ख्यातं दिग्विरतिरिति प्रथमं तद् गुणवतम् ॥१॥ २ चराचराणां जीवाना, विमईननिवर्त्तनात् । तप्तायगोलकल्पस्य, सद्वृत्तं गृहिणोऽप्यदः ॥२॥ ३ जगदाकममाणस्य प्रसरलोभवारिघेः । स्खलनं विदधे तेन, येन दिग्विरतिः कृता ॥३॥ ४ भोगोपभोगयोः संख्या, शक्त्या यत्र विधीयते । भोगोपभोगमान तद् , द्वैतीयकं गुणवतम् ॥४॥ ५ सकृदेव भुज्यते यः स, भोगोऽननगादिकः । पुनः पुनः पुनभोंग्य, उपभोगोऽजनादिकः ॥५॥ ६ मद्य मांसं नवनीतं, मधूदूंबरपञ्चकम् । अनन्तकायमज्ञातफलं रात्रौ च मोजनम् ॥६॥ यो• तृतीय
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कुमार
प्रतिबोध प्रबंधः
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'विवेकः संयमो ज्ञानं सत्यं शौचं दया क्षमा"
अथ--२"चिखादिषति यो मांसं" "सद्यः सन्मूञ्छितानंत०" अहो मूढधना धर्म, शौचमूलं वदन्ति च । सप्तधातुकदेहोत्थं मांसमनंति चाऽधमाः ॥१॥ यदुक्तं--शुक्रशोणितसंभूतं, मांसमश्नति ये नराः । कुलेन शौचं कुर्वन्ति, हसन्ते तत्र देवताः॥
शाकिनी मांसभक्षी च, समानमनसाविमौ । पुष्टाङ्गं पश्यतो यं यं तं हन्तुं मतिस्तयोः॥
मद्ये मांसे मधुनि च, नवनीते तक्रतो बहिनीते । उत्पद्यन्ते सद्यः तद्वर्णानंतजन्तवः॥ यदुक्तमागमे-उच्चारे पासवणे खेले संघाणवंतपित्ते य । सुक्के सोणियगयजीवकलेवरे नगरनिद्धमणे ॥
महुमज्जमसमक्खणत्थीसंगे सव्व असुइठाणेसु । उप्पज्जन्ति चयन्ति य, समुच्छिमा मणुय पंचिंदी ॥ परसमये याज्ञवल्क्यस्मृतौ। "उदुम्बरेषु जंतुसद्भावं" लौकिका अपि पठन्ति । कोऽपि क्वापि कुतोऽपि कस्यचिदहो चेतस्यकस्माजनः । केनापि प्रविशत्युदम्बरफलप्राणिक्रमेण क्षणात्॥ येनास्मिन्नपि पाटिते विघटिते विस्फोटिते शेटिते। निस्पिष्ट परिगालिते विदलिते, निर्यात्यसौ वा नवा ॥
१ विवेकः संयमो ज्ञानं सत्यं शौचं दया क्षमा । मद्यात्प्रलीयते सर्व तृण्या वह्निकणादिव ॥१६॥ २ चिखादिषति यो मांसं प्राणिप्राणापहारतः । उन्मूलयत्यसो मूलं दयाख्यं धर्मशाखिनः ॥१८॥ ३ सद्यः संमूच्छितानंतजंतुसंतानदूषितं । नरकाध्वनिपाथेय, कोऽश्नीयात् पिशित सुधीः ॥३३॥
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KAKKKEE.
अनन्तकायिकानां तु लक्षणमिदम् ।
साहारणपत्तेया वणस्सइ जीवा दुहा मुए भणिया । जेसिमणताणं तणू एगा साहारणा तेउ॥ सव्वाउ कन्दजाई, सूरणकन्दो य वज्जकंदो य । अल्लहलिद्दा य तहा, अदं तह अल्लकच्चूरो॥ सत्तावरी विराली, कुंयारि तह थोयरी गडूचीय । लसणं च सकरिल्ला, गज्जर तह लूणउ लोढा ।। गिरिकन्न-किसलपत्ता, करिसुया थेग अल्लमुच्छाय । तहलूणरुक्खछल्ली, खिल्लहडा अभयवल्लीय ॥ मूला तह भूमिरुहा विरुहाई तह टक्क वब्बूलो । पढमो सूयरवल्लो य, तहा पल्लंको कोमलं बिलिया । आलू तह पिंडालु, हवंति एए अणंतनामेणं । बत्तीसं च पसिद्धा, वज्जेयव्या पयत्तेणम् ॥
गूढसिरसन्धिपव्वं, समभंगमहीरुहं च छिन्नरुहम् । साहारणं सरीरं, तन्निवरीयं च पत्तेयम् ।। इत्यनंतकायविचारः । रात्रिभोजनं सर्वशास्त्रनिषिद्धम् ।। नोदकमपि पातव्यं रात्रावत्र युधिष्ठिर । तपस्विना विशेषेण गृहिणा च विवेकिना॥ त्रैलोक्याशेषभावानां यो ज्ञाता ज्ञानचक्षुषा । न भुङ्क्ते सोऽपि सर्वज्ञो रात्रौ किमपरे जनाः॥ सर्वदेवैः परित्यक्तमृषिभिः पितृभिस्तथा । तद्रात्रौ भोजनं निंद्यं, विधेयमितरैः कथम् ॥ अथामगोरससंपृक्तं द्विदलम् । द्विदललक्षणमिदम् । जंमिउ पीलिज्जतो न होइ वितितं विदलं विदले विहु उप्पन्नं नेह जुयं होइ नो विदलं ॥
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कुमार
प्रतिबोध प्रबंधः
॥३९॥
अथ वर्जनीयवस्तून्याहुःपंचुंबरि चउ विगई हिमविस करगाय सव्वमट्टीय । राईभोयणगंचिय बहुबीयअणंतसंधाणं ॥ घोलवडा वायंगण अमुणियनामाणि फुल्लफलयाणि । तुच्छफलं चलियरसं वज्जह, अभक्खाणि बावीसं ॥ यदुक्तंः--भक्ष्याभक्ष्याणि वस्तूनि, यो न जानाति मूढधीः । स जानाति कथं धर्म, सर्व जीवदयाभयम् ॥ तत्र पंचोदुंबरी-वटपिप्पलप्लक्षकाकोदुंबरीफलरूपा । सूक्ष्मबहुजीवभृतत्त्वात् घर्जनीया।
चतस्रो विकृतयः मद्यमांसमधुनवनीतरूपाः सद्यस्तत्रानेकजीवसंमूर्च्छनात, हिमं शुद्धासंख्याऽप्कायरूपत्वात्, विषं जीवघातादि संभवात् । करका अप्कायाऽसंख्यातत्वात् । मृत्तिका सर्वापि दर्दरादिपंचेन्द्रियप्राणि-उत्पत्तिनिमित्तत्वात् । सर्वग्रहणंखटिकादिनं । रजनीभोजनं-बहुविधजीवहिंसाप्रदं । बहुवीज-पंपोटकादि प्रतिबीजं जीवोपकर्दकत्वम् । अनंतजीववधहेतुत्वात् । संधानबिल्वकादीनां जीवसंसक्तिहेतुत्वात् । घोलवटकानि आमगोरससंपृक्ताद्विदलादिमध्ये सूक्ष्मजीवोत्पत्तेः केवलिदृष्टत्वात् । वृन्ताकानि निद्राबाहुल्यकामोद्दीपनादिदोषदुष्टत्वात् , अज्ञातफलपुष्पाणि नियमभंगसंभवात् , विषफले पुष्पे मृत्युरपि, तुच्छं फलमर्द्धनिष्पन्नं कोमलं बिल्वादिः चलितरसं कुथितान्नपुष्पितौदनादि अद्वयातीतं च दधि वर्जनीयम् , प्राणातिपातादिदोषसंभवात् एतान्यभक्ष्याणि।
अथ कर्मतो भोगोपभोगः अंगारकर्म-वनकर्म-शकट-भाटक-दंत-वाणिज्य-लाक्षा-रस-केश-विष-यंत्रपीडा-निलाञ्छनासतीपोष-दव-दानसर शोषाः इति कर्मादानानि वर्जयेत् । तदा राजा श्रीकुमारपालः श्रीगुरुमुखेन परिग्रहप्रमाणं भोगोपभोगव्रतस्याकरोत् अथानर्थदण्डव्रतमाहुः
जाणा
॥ ३९ ॥
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आत्तरौद्रुमपध्यानं पापकर्मोपदेशिता, हिंसोपकारि दानं च प्रमादाचरणं तथा ॥१॥ तत्र ध्यानं चतुर्दाआर्ते तिर्यग्गतिस्तथा गतिरधो ध्याने तु रौद्रे सदा । धर्मे देवगति शुभं बत फलं शुक्ले तु जन्मक्षयः ॥ तस्माद्व्याधिरुगंतके हितकरे संसारनिस्तारके । ध्याने शुक्लवरे रजः प्रमथने, कुर्यात्प्रयत्नं बुधाः॥ 'वृषभान्दमय क्षेत्रं०३
यंत्रलाङ्गलशास्त्राग्निमुशलोदूखलादिकम् । दाक्षिण्याविषये हिंस्रं नार्पयेत्करुणापरः ॥१॥ 'जलक्रीडांदोलनादि०-
अथ सामायिकव्रतम् त्यक्तारौद्रध्यानस्य० १ सावजजोगपरिवजणाउ सामाईयं केवलियप्पसत्थं गिहत्थधम्मा पर मंति नव्वा कुज्जा बुहो आयहियं परत्था 'सामाइय वय जुत्तो. "सामाइयम्भि।
अथ 'दिव्रते परिमाणम् य० ॥१॥ इति राजन् देशावकाशिकवतं । तत्र कृतारंभपरिहाररूपं । १ वृषभान् दमय क्षेत्रं कृष पंढय वाजिनः । दाक्षिण्या विषये पापोपदेशोऽयं न युज्यते ॥७६॥ २ अलक्रीडांदोलनादि, विनोदो जंतुयोधनम् । रिपोः सुतादिना बरं, भक्तस्त्रोदेशराटकथाः ॥७९॥ ३ त्यक्तातरौद्रध्यानस्य, त्यक्तसावद्यकर्मणः । मुहूर्त समता या तां, विदुः सामायिकं व्रतम् ॥२॥ यो० तृतीय ४ सामाइयवयजुत्तो, जाव मणे होइ नियम संजुत्तो। छिन्नइ असुहं कम्मं सामाइय जत्तिा वारा ॥१॥ ५ सामाइयम्मि उकए समणो इव सावओ हवइ जम्हा । एएण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुज्झा ॥२॥ प्रतिक्रमणसूत्रे०
६ दिग्वते परिमाणं यत्तस्याऽसंक्षेपणं पुनः । दिने रात्रौ च देशावकाशिवतमुच्यते ॥४॥ sain Edull ematonai
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कुमार०
|| 80 ||
अथ पोषधं -
'चतुष्प चतुर्थ्यादि । आवश्यकचूर्णी-
आहारपोसहो खलु शरीर सकारपोसहो चेव बंभव्वावारेसु य तइयं सिक्खावयं नाम । दोससच्वे य तहा इकका इत्थ होइ नायव्वो सामाइये विभासा देसे इयरंभि नियमेण । इति श्रावकप्रज्ञप्तौ
अथातिथिसंविभागवतम् - राजन् दानं चतुर्विधाहार ०
वसहीसयणासण० अत्राष्टौ कथानकानि वाच्यानि यदुक्तं ।
एलापूगफलाई साहूणं अकप्पिया अचित्ता वि रागंगं जेण न तेसेिं दाणं न वा गहणं ॥ अथवा अविश्य सव्वफलं गणहरमाईएहिं नायव्वा । लोगोत्तरिया धम्मा अणुगुरुणो तेण वज्जाउ || १॥ सर्वाणि सचित्ताचित्तादिभेदभिन्नानि कंदमूलादिभेदाद्दशविधानि तथा हि.
--
मूले कंदे तहा खंधे तयायसाले पवालपत्तेय, पुप्फे फले य बीए सुत्तुत्ता भेया इमे मुणसु प्रलंबानि अनाचीर्णानि अविसेसेण विरहितरागं तहवि खलु अणाइनं एसणधम्मो पवयणस्स । यदा श्रीवीरोराजगृहादुदयनन रेन्द्रप्रवाजनार्थं सिन्धुसौवीरदेशे वीतभयं पुरं प्रस्थितस्तदा किल चांतराले बहवः साधवः क्षुधार्त्तास्तृषार्त्ताः
१ चतुःपर्व्या चतुर्थादि कुव्यापारनिषेधनम् । ब्रह्मचर्यक्रियास्नानादित्यागः पौषधव्रतम् ॥८५॥
२ दानं चतुविधाहार पात्राच्छादनसद्मनां । अतिथिभ्योऽतिथिसंविभागव्रतमुदीरितं ॥८८॥
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प्रतिबोध प्रबंधः
॥ ४० ॥
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| संज्ञासंबाधिताश्च बभुवुः यत्र च भगवान् वासितः तत्र तिलभृतानि शकटानि पानीयपूर्णश्च हुदः समभौमं च गर्ताबिलादि
वजितं स्थंडिलं अभवत् । अपि च विशेषेण तत्कालोदकस्थण्डिलजातं विरहिततरमतिशयेनागन्तुकैस्तदुत्थैश्च जीवैर्वजितं । तथापि भगवताऽऽनाचीणं नानुज्ञातं एषो नु धर्मः प्रवचनस्य सर्वैरपि अनुगन्तव्यः एवमन्यदपि कल्पाऽकल्पं प्रासुकमपि न देयं दात्रा लेयं च साधुना, न स्वर्णादीनि दानानि देयानीत्यहतां मतं । अन्नादीन्यपि पात्रेभ्यो दातव्यानि विपश्चिता । अन्यैरप्युक्तम् ।
क्षेत्रं यंत्रं प्रहरणवधूलांगलं गोतुरङ्ग, धेनुर्गन्त्री द्रविणतरवो हर्म्यमन्यच्च चित्रम् ।
यत्सारंभं जनयति मनोरत्नमालिन्यमुच्चैः तादृक् दानं सुगतितृषितैनॆव देयं न लेयम् ॥ पात्रदाने फलं मुख्यं, मोक्षं शस्यं कृषेरिव । पलालमिव भोगास्तु, फलं स्यादानुषङ्गिकम् ॥१॥
इति श्रुत्वा राजा श्रीगुरुमुखेन सम्यक्त्वमूलानि व्रतानि जग्राह । एवं व्रतस्थितो भक्त्या सप्तक्षेत्र्यां . धनं वपति । सप्तक्षेत्री स्वरूपं चाहुः--
नवीनप्रासादनिर्मापणं जीर्णोद्धरणं तत्र महामहिम्ना पूजाकरणं, गीतनृत्यवादित्रादिसकलपताकातोरणछत्रचामर,गार शालिभञ्जिकाचंद्रोद्योतविचित्रचित्रशोभादिकरणं तत्प्रथमं क्षेत्रम् । विंबं स्वर्णरूप्यमणिविद्रुमशैलमयं तत् द्वितीय क्षेत्रम् । पुस्तकेषु श्रीजिनागमलिखापनं तच्छुश्रूषणं तृतीय क्षेत्रम् । चतुर्विधसंघभक्तिश्चेति सप्तक्षेत्री य स बाह्यमनित्यं च । एतदाकर्ण्य नवीनप्रासादजीर्णोद्धारजिनबिंबपुस्तकसाधुसाध्वीश्रावकश्राविकादिषु तेषु साधर्मिकवात्सल्यादिभक्तिषु पुण्यकृत्येषु सादरोऽभूत ।
अथ राजा जिनोक्तानि नवतत्त्वान्यपृच्छत् । श्रीगुरवः प्राहुः तत्रेदं जीवस्वरूपं-- tematonai
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कुमार
॥४१॥
जीवो अणाणिइनिहणो अविणासी अक्खओ धुवो निच्चो। दवट्टियाइ णिच्ची परियायगुणेहिं अ अणिच्चो॥१॥प्रति
प्रतिबोध
| प्रबंध: • कालो जहा अणाई, अविणासी होइ तिसु वि समयेसु।तह जीवो वि अणाई, अविणासी तिसुवि कालेसु॥
अक्खयमणंतमउलं, जह गयणं होइ तिसुवि कालेसु । तह जीवो अविणासी अवडिओ, तिसुवि कालेसु॥ गयणं जहा अरूवी, अवगाहगुणेहिं धिप्पए तं तु । जीवो तहा अरूवी, नाणाहिं गुणेहिं चित्तव्यो॥४॥
इत्यादिजीवव्यवस्थापना, षट्त्रिंशितिकातो जीवस्वरूपं ज्ञेयं बुधैः।
अथ जीवभेदानाहुः-जीवा द्विविधा मुक्ताः संसारिणश्च. मुक्तानां स्वरूपमिदं-अनादिभवसंस्कारविकाराकारवर्जिताः। स्वस्वरूपमयाः सिद्धाः केवलज्ञानगोचराः। संसारिणस्तु चतुदर्शधा तद्यथा-पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिरूपाः एकेन्द्रिया सूक्ष्मनामकर्मोदयाज्जाताः सूक्ष्माः, बादरनामकर्मोदयाज्जाता बादराश्चेति द्विभेदाः। द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः। असंज्ञिनः संज्ञिनश्चेति द्विभेदाः पञ्चेन्द्रियाः। एवं भेदाः सप्त । तत्र संज्ञास्वरूपमिदं आहारसंज्ञा वनस्पतीनामपि जलादेः आहारः, भयसंज्ञा च्छिद्यमाना लज्जालू संकुचति, मैथुनसंज्ञाऽऽशोकादीनां स्त्रीपादप्रहारादिभिः फलोदमः, परिग्रहसंज्ञा वल्लीबालकैः कंटकान् वेष्टयन्ते क्रोधसंज्ञापि कोऽपि कंदो हुकारान मुंचति. मानसंज्ञापि रुदती वल्ली छिद्यमाना बिन्दन् श्रवति, मायासंज्ञा वल्यः फलानि पत्रै दयन्ति, लोभसंज्ञाऽधःस्थनिधाने वृक्षस्य प्ररोहसंभवात् । लोकसंज्ञा कमलशम्यादीनां रात्रौ संकोचः, ओघसंज्ञा वल्यो मार्ग त्यक्त्वा वृक्षानाश्रयन्ति, इयं दशधाऽप्येकेन्द्रियाणां । यया तु इष्टानिष्टेषु छायातपादिषु वस्तुषु स्वदेहपालनाहेतोः प्रवृत्तिनिवृत्ती विधत्ते सा हेतुवादोपदेशिकी इयं तु द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां एताः सामान्यसंज्ञारूपत्वात् स्तोका तथाभूतापि
॥४१॥ मोहोदयजन्यत्वादशोभनाऽतो नाऽनयाऽधिकारः किन्तु महत्या शोभनया विशिष्टज्ञानाचरणकर्मक्षयोपशमजन्यया मनोज्ञान
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संज्ञयैवेति यया दीर्घमपि कालमतीतमर्थं स्मरति भविष्यच्च वस्तु चिन्तयति कथं नु नामकर्त्तव्यमिति दीर्घकालाद्युपदेशिकी इयं च सुरनारकगर्भजमनुष्यतिरथां मनः पर्याप्त्यापर्याप्तानां स्यात् । यया तु हिताऽहितप्राप्तिपरिहारौ सम्यग्दृष्टिसाध्य सा दृष्टिबादोपदेशिकी । इयं सम्यकदृष्टेरेव भवति यदुक्तं
पञ्चन्हमोहसन्ना हेऊसन्ना बि इंदियाईणं, सुरनारयगन्भन्भवजीवाणां कालिकी सन्ना । छउमत्थाणं सन्ना सम्मद्दिट्ठीण दिट्टिवाईया, मइवावारविमुक्का सन्नाईआओ केवलिणो ॥१॥ संज्ञाऽस्यास्तीति संज्ञी पञ्चेन्द्रियो मनःपर्याप्त्यापर्याप्त इतरे पृथ्व्यादय एकेन्द्रियाः विगलेन्द्रियाः संमूर्च्छन पंचेन्द्रियावासंज्ञिन एवमेकेन्द्रियाः सूक्ष्मबादराः द्वित्रिचतुरिन्द्रिया असंज्ञिसंज्ञिपंचेन्द्रियाश्च सर्वे सप्तापि भेदा पर्याप्तापर्याप्तभेदाच्चतुदेशधा संसारिजीवाः ।
पर्याप्तयस्त्विमाः
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आहारसरीरिन्दिय पज्जत्ती आणपाणभासमणे । चउ पंच पंच छप्पिय इग विगला संनिसन्नीणं ॥ १ ॥ पत्तेयतरुं मुत्तुं पंचवि पुढवाईणो सयल लोए । सुहुमा हवंति नियमा अन्तमुहुत्ताउ अहिस्सा ||२|| एगेंदिय पंचिंदिय, उड्ढे य अहे य तिरिय लोएअ। विगलिंदिय जीवा पुण, तिरिय लोए मुणेयच्वा ॥३॥ पुढवी आउ वणस्सई, बारसकप्पे सत पुढवीसु । पुढवी जा सिट्ठिला तेउ नरखित्ततिरयलोए ||४|| अइया होही पुच्छा, जिणाण मग्गंमि उत्तरं तईया । एग्गस्स निगोयस्य, अनंतभागो असिद्धिगर ||५| गोलाइ असंखिज्जा, असंखनिगोअउ हवइ गोलो । इक्किकमि निगोये अणतजीवा मुणेयव्वा ॥ ६ ॥
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कुमार०
॥ ४२ ॥
अस्थि अणता जीवा जेहिं न पत्तो तसाइ परिणामो । उप्पज्जन्ति चयंति य पुणो वि तत्थेव तत्थेव ||७|| सामग्अिभावाओ ववहाररासीय अप्पवेसाओ । भव्वा वि ते अणंता, जे सिद्धिसुहं न पावन्ति ||८|| सिद्धन्ति जत्तिया खलु, इह यं ववहाररासिमज्झाओ । इन्ति अणाइवणस्सइ, मज्जाओ तत्तिया चैव ॥९॥ अक्खीणजीवखाणि, हुंति निगोआउज्जिणसमक्खाया । तेण न दोसो संसार - रित्तया संभवो होइ ॥ १०॥ लोए असंखजोयण-माणे पइजोयणं गुलासंखा । पइतं असंखयं सा पइअसंखअसंखया गोला ॥ ११॥ गोला असंखनिग्गोओ, सोणंतजिउ जियं पर पएसा । असंख पइपएसं, कम्माणं वग्गणाऽणंता ॥१२॥ पइवग्गणं अनंता, अणूय पइ अणुअणंत पज्जाया । एवं लोगसरूवं भाविज्ज तहत्ति जिणवुत्तम् ॥१३॥ पत्थेण व कुडवे व जह कोइ मविज्ज सव्वधन्नाई । एवं मविज्जमाणा हवन्ति लोगा अनंताओ || १४ ॥ लोगागासपएसे, निगोअजीवं खिवेइ इक्किकम् । एवं मविज्जमाणा हवंति लोगा अणंताओ ||१५|| एवं जीवतत्वे व्याख्याते सति कश्चित्तीर्थान्तरीयः प्राह हे महात्मन् ! एवं युष्मदुक्तयुक्त्या सूक्ष्मैर्बादिरैश्च त्रसैः स्थावरैश्व जीवैः सर्वत्र व्याप्ते लोके कथमहिंसकत्वं नाम कथं च सर्वप्राणातिपातविरतिव्रतं तदा श्रीसूरयः प्राहुः भो वादिन् ! तत्वाऽतत्त्वपरिज्ञानानभिज्ञत्वेनेयं भवदुक्तिः यतः हिंसापरिणामपरिणत एवात्मा हिंसक इत्युच्यते न त्वपरिणतस्या हिंसकत्वात् । यदुक्तमहिंसापरमवेदिभिः श्रीसर्वज्ञैः --
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अज्झत्थविसोहीए जीवनिकाएहिं संकुडे लोए । देसिअमहिंसकत्तं जिणेहिं तेलुकदंसीहिं ॥ १ ॥ नाणी कम्म सखयद्धमुट्ठिउ नो डिओउ हिंसाए, जयइ असढं अहिंसत्थमुट्ठिउ अवहउ सो उ ॥२॥
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प्रतिबोध प्रबंधः
॥ ४२ ॥
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अणुमित्तो वि न कस्सय, बंधे परवत्थु पव्वया भणिओ । तहवि अ जइणो परिणामविसोहिमिच्छंता ॥३॥ जो पुण हिंसाययणेसु बट्टई तस्स न णु परिणामो । दुट्ठो नय तं लिंगं, होइ विसुद्धस्स जोगस्स ॥४॥ तम्हा सया विसुद्धं, परिणामं इच्छया सुविहिएणं । हिंसाययणा सव्वे, वज्जेयन्वा पयत्तेणं ॥५॥ वज्जेमित्ति परिणउ, संपत्तीपविमुच्चए वेरा । अवहंतो वि न मुचइ, किलिट्ठभावोववायस्स ॥६॥ न य हिंसामित्तेणं, सावज्जेण विहिंसओ होइ । सुद्धस्स उ संपत्ती, अफला भणिया जिणवरेहिं ॥७॥
जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स । सा होइ णिज्जरफला, अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ॥७॥ अन्यैरप्युक्तं-अधीत्य सर्वशास्त्राणि, जीवहिंसां करोति यः। मनोवाकायसंश्लिष्टः, स पापी सर्वतोऽधमः ॥८॥
अकुर्वाणोऽपि पापानि, क्लिष्टभावो हि बध्यते । विमुच्यतेऽक्लिष्टमनाः कुर्वन्नपि कथंचन ॥९॥ वचोभिरुच्यते सर्वैः, दयायां जीवेषु दर्शनैः । क्रियते वाङ्मनःकायैराहतैः किन्तु सर्वदा ॥१०॥
॥ इति जीवतत्त्वम् ॥
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कुमार
प्रतिबोध प्रबंधः
॥४३॥
॥ अथ अजीवतत्त्वम् ॥ अथाजीवतत्त्वमाहुः
अजीवा दुविहा पन्नत्ता तं जहा पुग्गल अस्थिकाओ नो पुग्गल अस्थिकाओ पुग्गला यतो पुग्गला छबिहा पन्नत्ता तं जहा-सुहुमसुहुमा, सुहुमा सुहुमबायरा, बायरवायरा बायरसुहुमा बायरा तत्र सुहुमसुहमा परमाणुपुग्गला, सुहमा दुप्पएसियाओ आढत्ता जीवसुहमपरिणओ अणंत पइसिउ खंधो, सुहुम बायरा गंधपुग्गला, बायरसुहमा वाउकायसरीरा उस्साइणं, वायरबायरा बायरा तेउवणस्सई पुढविसरीराणि अथवा चउव्विहा पुग्गला तं जहा-खंधा खंधदेसा खंधपएसा परमाणु पुग्गला एस पुग्गलात्थिकायउगहणलक्षणो स्पर्शरसगंधवर्णशब्दास्तत्र स्वभावजाः संघातमेदनिष्पन्नाच, नोपुग्गलत्थिकाउ तिविहो | पन्नत्तो त जहा धम्मत्थिकाया अधम्माथिकायाउ आगसात्थिकायाउ। .. ते त्रयोऽपि तत्तदवच्छेदकवशात् , स्कंध स्कंधदेश स्कंधप्रदेशरूपैर्भदै प्रत्येकं त्रिभेदा एवं भेदाः। तत्र गतिपरिणतजीवपुगलानां प्रत्युपष्टंभकारणं धर्मास्तिकायो यथा चक्षुष्मतो ज्ञानस्य प्रदीपः मत्स्यानां जलं तथा गतिपरिणतजीवपुद्गलानां स्थित्युपष्टंभकारणं अथाधर्मास्तिकायो यथा तिष्ठतः पुरुषस्य भूः मत्स्यानां स्थलम्, तथा जीवानां पुद्गलानां धर्माधर्मास्तिकाययोश्चावगाहकानां अवकाशदमाकाशं यथा बादराणां घटाकाशः। कालस्तु समयावलिकामुहूर्त्तदिवसपक्षमासादिः तत्र समयः परमतमसूक्ष्मः स च कालस्य निर्विभागो भागस्तैरसंख्यातेरेका आवलिका ताभिः मिताभिः क्षुल्लकभवग्रहणानि निगोद जीवाः पूरयन्ति उच्छ्वासप्रमाणो मुहूर्तः त्रिंशता तैरहोरात्र नैःपंचदशभिः पक्षः, ताभ्यांद्वाभ्यां मासः, इत्यादि कालः सर्वत्र नवपुराणतादिपर्यायोत्पत्तिहेतुलक्षणो ज्ञेयः एवं षोडशभेदं चतुर्दशभेदं वाऽजीवतत्त्वं, एतत्परिज्ञानमन्तरेण जीवसंयमो न भवति ।
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अथ पुण्यतत्वं-येन जीवः सुखमनुभवति तत्सुखवेदनीयं पुण्यप्रकृतिः, उच्चैर्गोत्रपुण्यप्रकृत्या धनबुद्धिरूपादिरहितो लोके पूजां लभते । यया पुण्यप्रकृत्या मानुष्यं लभते सा मनुष्यगतिः यया वृषभनासिकारज्जुकल्पया द्विसमयादिवक्रेण गच्छन् जीवो मनुष्यगतावानीयते सा मनुष्यानुपूर्वी, एवं देवगतिदेवानुपूर्वीपंचेन्द्रियजातिः औदारिकशरीरं तिर्यग्मनुष्याणां वैक्रियमौपपातिकं लब्धिप्रत्ययं च, आहारकं चतुर्दशपूर्वविदः कारणे स्यात् , तैजसं भुक्तानपरिणतितेजोलेश्याहेतुः, इत्यादिपुण्यतत्वं ज्ञेयम् । पापतत्त्वं आश्रवतत्वं संवरतत्वम् तथैवावगन्तव्यं सुगमत्वेन नोच्यते ।
अथ निर्जरातत्वं निर्जरयति रसहान्या कर्मपुद्गलान् जीर्णान् करोति या सा निर्जरा । सा च द्विभेदा सकामनिर्जरा अकामनिर्जरा च । तत्र अकामनिर्जरा सहनपरिणाममन्तरेण । सकलचातुर्गतिकजीवानां स्वयंपरिपाकसमायातकर्मफलवेदनम् । सकामनिर्जरा तु परिज्ञातकर्मविपाकनिर्जरणोपायानां कर्मक्षयार्थ सहनपरिणामवतां सर्वविरतदेशविरतादीनां सा द्वादशधा तपोरूपा-तत्र अणसणं-अनशनं द्विधा इत्वरं यावत्कथिकं च तत्रेत्वरं चतुर्थषष्ठमादि यावत् संवत्सरं तपः, यावत्कथिकं तु भक्तपरिज्ञा-इंगिनी-पादपोपगमरूपात् त्रिधा । ऊनोदरता द्विधा द्रव्यतो भावतश्च तत्र द्रव्यतः । कवलाणयपरिमाणं कुकुडिअंडगपमाणमित्ताणं, जं ऊणं कीत्तिरइ उणोयरिया सा दब्वेभावतः-॥ कोहाईणमणुदिणं वाउजिणं वयणभावणाउओ, भावेणोणोयरिया पन्नत्ता वीयरागेहिं ।।
वृत्तिसंक्षेपगोचराभिग्रहादिश्चतुर्की द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च तत्र द्रव्यतो निर्लेपादिग्राह्यं । उक्तं चः--
लेवणमलेवणं वा अमुगं दव्वं च अज्ज घिच्छामि अमुएण व दवेणं इय दव्वाभिग्गहो नाम गोअरभूमिए |
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कुमार ॥४४॥
विषभमित्तगहणं व सग्गामपरग्गामे एब खित्तम्मि, काले अभिग्गहो पुण आईमज्झ तेहेव अवसाणे, अपत्ते सइकाले आई ठिई मज्झतईयं ते उखित्तमाई वरगा भावजुया खलु अभिग्गहा हुन्ति गायन्तो व रुयंतो जं देइनिसनमाईया। रसाःक्षीरदधिधृतादित्यागस्तपः । उक्तं चःविगई विगईभीओ, विगइगयं जो यमुंजए साहू । विगई विगइसहावा विगई विगई बला नेइ । कायक्लेशो वीरासनादिभेदाचित्रः कायोत्सर्गादि मलीनता चतुर्धा ॥ इंदियकसायजोए पडुच्च संलीणया मुणेयव्वा, तह य विवित्ता चरिया पन्नत्ता वीयरागेहिं । सद्देसु अ भद्देसु पावएसु सोयविसयमुवगएसु, रुटेण तुट्टेण व रुटेण व समणेण सया न होयव्वं ॥
एवं शेषेन्द्रियेषु निरोधकरणे संलीनता । उक्तं च बाह्यं तपः पायच्छित्तं । पावं छिन्दई जम्हा, पायच्छित्तं उ भन्नए तम्हा । पाएण वा विचित्तं, विसोहइ तेण पच्छित्तम् ॥ तद्दशधा
आलोयणपडिकमणे मीसविवेगे तहा वि उस्सग्गे। तवच्छेयमूल अणवठ्ठयाय पारंचिए चेय ॥
प्रमाददोष व्युदासप्रमादनैः शल्या नवस्थाब्यावृत्तिमर्यादात्याग संयमदाढर्याराधनादिप्रायश्चित्तफलं, विनीयतेऽष्टप्रकारं कर्म येन स विनयः स च त्रिधा कायवाग्मनोभिर्यथा
. अभ्युट्ठाणं अंजलिं आसणदाणं अभिग्गहकहाअ अणुगच्छण संसाहण काय अट्ठविहे हिअमिअअपुरुसवाई अणुवीई भासिवाई उ विणउ अकुसलमणोनिरोहो कुसलस्सउदीरणं चेव वैयावृत्यं दशधा आयरिउवज्ज्ञाए थेरतवस्सीगिलाणसेहाणं साहम्मियकुलगण संघसंगयं तमिह कायव्वम् ।
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वाचनापृच्छनापरावर्त्तनाऽनुप्रेक्षा धर्मकथारूपः पंचधा स्वाध्यायः, ध्यानं धर्मऽशुक्लरूपं, व्युत्सर्गों द्विधा द्रव्यतो
भावतश्च यदुक्तम् —
दव्वे भावे य तहा दुहा वुसग्गो चउब्विहो दव्वे । गणदेहोवहिभत्ते भावे कोहाइ चाउत्ति ॥ इति तथा द्वादशधा तपो निर्जरातच्चम् ।
या कर्माणि शीर्यन्ते, बीजभूतानि जन्मतः । प्रणीता ज्ञानिभिः, सेयं निर्जरा शीर्णबन्धनैः ॥ १॥
अथ राजन् बंधतत्वं - अंजनचूर्णपूर्णसमुद्भकवन्निरंतरं पुद्गलनिचितलोके हेतुभिर्मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगादिभिः सामान्यै : प्रत्यनीकत्वनिह्ववत्वादिविशेषरूपैश्च कर्मयोग्यवर्गणापुद्गलैः संगृहीतैरात्मना वह्नययः पिण्डवदन्योन्यानुगमात्मकः संबंधो बन्धः स च चतुर्विधो यथा प्रकृतिबंध, स्थितिबंधः अनुभाग - रसबन्धः प्रदेशबन्धः ।
प्रकृतिः परिणामः स्यात्स्थितिः कालावधारणं अनुभागो रसो ज्ञेयः प्रदेशो दलसंचयः । प्रकृतिस्थित्यादीनाश्रित्य मोदकदृष्टान्तो यथा कश्चिन्मोदको वातनाशकद्रव्यनिष्पन्नः प्रकृत्या वातमपहरति पित्तापहारिद्रव्यनिष्पन्नः पित्तम्, श्लेष्मापहारिद्रव्यतः निष्पन्नः श्लेष्माणं स्थित्या तु स एव कश्चिद्दिनमेकमवतिष्ठतेऽपरस्तु दिनद्वयं यावन्मासा दिकमपि, कश्चित् अनुभागेनापि स्निग्धमधुरत्वलक्षणेन स एव कश्विदेकगुणानुभागोऽपरस्तु द्विगुणानुभागः इत्यादि, प्रदेशाश्व कणिकादिरूपास्तैः स एव कश्चित् एकप्रसृतिमानः परस्तु द्व्यादिप्रसृतिमानः, एवं कर्मापि किञ्चित्प्रकृत्या ज्ञानाच्छादकम् किञ्चिदर्शनाच्छादकम् इत्यादि । स्थितिः त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटयादिका, तस्य रस एकस्थानादिः, प्रदेशाः अनं
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कुमार०
॥ ४५ ॥
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ताणुरूपाः, एवं कर्म्मग्रन्थानुसारेण सविस्तरं बंधतत्त्वं ज्ञेयम् ।
अथ मोक्षतत्त्वं तत्रात्मनः स्वरूपावरणीयानां कर्मणां क्षयात् यः स्वरूपलाभः स मोक्षः, स च तादात्म्येन संबद्धयो जवकर्मणोः पृथक्करणं कर्मक्षयः, न तु सर्वथा क्षयः, कर्मपुद्गलानां नित्यत्वात्, यदुक्तं
जीवस्स य जणिएहिं चैव कम्मपुब्बबद्धस्स सव्व वियोगो जो तेण तस्स हवइ उ मुक्खो तस्य च सत्पदप्ररूपणा यथा - सत् - विद्यमानं मोक्ष इति पदं शुद्धशब्दवाच्यत्वात् नत्वसत् - - अविद्यमानं वन्ध्यास्तनंधय-गगनकुशेशय-खरविषाणादिवदशुद्धशब्दवाच्यम् यदुक्तम्—
बइकुणं संतपयं सारपयंमिणं दढेण धित्तव्वं अच्छिजउ परमपयं जयणा जा रागदोसेहिं ॥१॥
गत्यादिषु मार्गणास्थानेषु चित्यमानं नरगतावेव पंचेन्द्रियत्वे सत्वे भव्यत्वे संज्ञित्वे यथाख्यातचारित्रे क्षायिकसम्यक्त्वे अनाहारकत्वे केवलज्ञानदर्शने च मोक्षपदं, न शेषेषु । द्रव्यप्रमाणचिन्तायां सिद्धानामनन्तानि जीवद्रव्याणि गृहांतः प्रदीपितशतसहस्रप्रदीपप्रभावदन्योन्यं समवगाढानि संति ।
जत्थय एगो सिद्धो, तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का । अनुन्नसमोगाढा पुट्ठा सव्वे वि लोगंते । फुसइ अनंते सिद्धे सब्वपयेसेहिं नियमसो सिद्धो, ते वि असंखिज्जगुणा देसपएसिहिं जे पुट्ठा । क्षेत्रं - चतुर्दशरज्ज्वात्मक लोकाग्रे पंचचत्वारिंशत्योजनलक्षप्रमाणसिद्धिशिलारूपं यदुक्तंःपणयाललक्खजोयणविक्खंभा सिद्धसिलफलिहविमला, तदुवरि जोयणंते लोग्गन्ते तत्थ सिद्धगई । अथवा चरमभवशरीरप्रमाणा तृतीय भागोनावगाहनारूपं क्षेत्रं तदुक्तं
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ॐ प्रतिबोध प्रबंधः
॥ ४५ ॥
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दीहा वारह जोयण चरमभवे भविज संठाणं तत्थ तिभागहीणा सिद्धाणोगाहणा भणिया
नाधिका पटसु दिक्षु स्पर्शनाधिक्यात, एकसिद्धमाश्रित्य काल: सादिरनंतश्च पश्चात्प्रतिपाताभावात सिद्धानां नान्तरं । सर्वसांसारिकजीवानां अनन्ततमे भागे सिद्धाः । सिद्धानां दर्शनज्ञाने क्षायिके भावे जीवत्वं तु पारिणामिके भावे सर्वस्तोका नपुंसकसिद्धाः ततोऽसंख्यातगुणाः स्त्रीसिद्धास्ततोऽपि पुरुषसिद्धा असंख्यातगुणाः।
असरीरा जीवघणा उवउत्ता दसणे य । नाणे य सागारमणागारं लक्वणमेयं तु सिद्धाणाम् ॥१॥ विच्छिन्नसबदुक्खा जाइजराबंधणविमुक्का, अव्वाबाहं सुक्खं अणुहवंति सासयं सिद्धा ।।२।। न वि अत्थि मानुसाणं तं सुक्खं न वि य सक्कदेवाणं, जं सिद्धाणं सुक्खं अव्वाबाहं उवगयाणं ॥३॥ सुरगणसुहं समग्गं, सव्वद्धवापिंडियं अणंतगुणं । न वि पावइ मुत्तिसुहं, अणंताहिं विवागवग्गूहिं । अन्यैरप्युक्तं-- स्थितिमासाद्य सिद्धात्मा तत्र लोकायमंदिरे । आस्ते स्वभावजाऽनंतगुणैश्चर्योपलक्षितः ॥१॥ यद्देवमनुजाः सर्वे सौख्यमक्षार्थसंभवं । निर्विशन्ति निराबाधं सर्वाक्षप्रीणनक्षमम् ॥२॥ सर्वेणातीतकालेन यच भुक्तं महद्धिकः, भाविनो यच्च भोक्ष्यन्ति स्यादिष्टं स्वान्तरंजकम् ॥३॥ अणंतगुणितं तस्मादत्यक्षं स्वस्वभावजम् । एकस्मिन् समये भुंक्त तत्सौख्यं परमेश्वरः॥४॥
अनंतदर्शनज्ञानसौख्यशक्तिमयः प्रभुः । त्रैलोक्यतिलकीभूतस्तत्रैवास्ते निरञ्जनः ॥५॥ ... राजन्नेवं नव तत्त्वानि'जीवाइ नव पयत्थे जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं । भावेण सद्दहंतो अयाणमाणेवि सम्मत्तं' ॥१॥
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कुमार०
॥ ४६ ॥
सव्वाई अंतोमुद्दत्तमित्तंपि अंतर्मुहूर्त्तमष्टसमयोर्ध्वं घटीद्वयमध्यं यावदित्यर्थः तच्चान्तर्मुहूर्त्तप्रमाणं सम्यत्वमौपशमिकमुच्यते यथोपरं दग्धं वा वनदेशं प्राप्य दवः स्वयमुपशममेति तथा जीवोऽपि ग्रन्थिभेदानन्तरमंतर्मुहूर्त्तमतिक्रम्य मिथ्यात्वस्यानुदयमधिगम्यांतर्मुहूतिकमेतत्सम्यक्त्वं लभते, उत्कृष्टतः पुनः सम्यक्त्वप्राप्तिकाल किञ्चिन्न्यूनः पुद्गलपरावर्त्तः, तस्येदं स्वरूपम् -
उस्सप्पिणी अनंता पुग्गलपरियट्टओ मुणेयब्वो, ते णंता तीयद्धा अणागयद्वाणंत गुणा ॥१॥ इति तचानि, अन्येऽपि च श्रीजिनोक्तभावास्तच्चज्ञैज्ञेयाः यदुक्तंतत्त्वानि व्रतधर्मसंयमगतिज्ञानानि सद्भावनाः । प्रत्याख्यानपरीषहेन्द्रियदमध्यानानि रत्नत्रयम् ||१|| लेश्यावश्यककाय योग समितिप्राणप्रमादास्तपः । संज्ञाकर्मकषायगुप्त्यतिशया ज्ञेयाः सुधीभिः सदाः ॥२॥ इत्येतानि नव तत्त्वानि श्रीगुरुमुखेन श्रुत्वा श्रीकुमारपाल भूपालोऽधिगतजीवाजीवादितत्त्वः परिज्ञातषद्रव्यस्वरूपः परमार्हतः परमश्रावकः समजनि । अथान्यदाऽनेकभूपालचक्रवालपरिवृतः श्रीकुमारपालः पंचांगप्रणामेन श्रीपरमगुरूणां क्रमपद्म प्रणम्य गृहस्थानामुचितामाहोरात्रिकीं क्रियामपृच्छत् ततः श्रीगुरवः प्राहुः - राजन् ! संसारविरक्तानां यतिधर्मानुरक्तानां परमश्रावकाणामाहोरात्रिकी क्रिया श्रूयताम् तथाहि
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निसाविरामि विबुद्धएणं, सुसावरणं गुणसायरेण । देवाहिदेवाण जिणुत्तमाणं, किच्चो पणामो विहिणारेणं ॥ १ ॥
सज्जाठाणं पमुत्तृणं चिंट्ठिजा धरणीयले । भावबंधुं जगन्नाहं नमुक्कारं तओ पढे ||२||
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प्रतिबोध प्रबंधः
॥ ४६ ॥
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मंताणमंतो परमो इमुत्ति धेयाण धेयं परमं इमत्ति । तत्ताण तत्तं परमं पवित्तं संसारसत्तदुहाहयाणं ॥३॥
___ को हं पुणो के मि कुलं मि जाउ, किं सम्मदिट्ठी वययमारथोऽहं । किमत्थि हं दंसणमित्तजुत्तो, एयं तु अन् पि विचिंतइजा ॥४॥
ब्राह्म मुहर्ते उतिष्ठेत् ॥ प्रारभ्य इत्याहोरात्रिकी चयां यावत् श्रीयोगशास्त्रमध्यात् वाच्यं दिनचर्यास्वरूपं चेति । अन्यदा श्रीहेमचन्द्रगुरोलोकोत्तरैगुणैरपहृतहृदयो नृपतिः उदयनमंत्रिणं सभायां पप्रच्छ, यत् ईदृशं पुरुषरत्नं समस्तवंशावतंसे वंशे देशे समस्तपुण्यप्रदेशे निःशेषगुणाकरे नगरे च कस्मिन् समुत्पन्नमिति नृपादेशादनु स मंत्री जन्मप्रभृतितचरित्रं पवित्रमाहुः
अर्धाष्टमनामनि देशे धुंधकानामनगरे श्रीमन्मोढवशे चाचिगनामा व्यवहारी सतीजनमतल्लिका जिनशासने देवीव तस्य सधर्मचारिणी पाहिनी नाम्नीति, तस्याः पुत्रश्चामुंडागोत्रजायाः आद्याक्षरणांकेन चांगदेवो समजनि । प्रवरभाग्यसौभाग्यपवित्रगर्भ पुष्पितसहकारी गृहांगणात् पौषधशालायां फलितः इति स्वप्नसूचितः, स चाष्टवर्षदेशीयः श्रीदेवचन्द्राचार्येषु श्रीपत्तनात् श्रीतीर्थयात्रायै प्रस्थितेषु धुंधुके श्रीमोढवसहिकायां देवनमस्करणार्थ प्राप्तेषु सिंहासनस्थिततदीयनिषद्यायां सहसा निषण्णः। सवयोभिः शिशुभिः समं धर्मदेशनादिकां क्रीडां कुर्वाणस्तैः व्याघुट्यमानैः दृष्टः, तदंगप्रत्यंगानां जगद्विलक्षणानि निरीक्ष्य चिंतितं यद्ययं क्षत्रियकुले जातस्तदा सार्वभौमो नरेन्द्रः, यदिवणिक्विप्रकुले तदा महामात्यः चेद्दीक्षां गृह्णाति तदा युगप्रधान इव तुर्ये युगे क्रतयुगमवतारयतीति ततस्तापित्रोः तस्य च नामादिकं शिशुभ्योऽधिगम्य तन्नगरनिवासिश्रीसंघ मेलयित्वा तत्स्वरूपं निरूप्य तस्य गृहे गताः श्रीसरयः । चाचिगे ग्रामान्तरगते मात्रा भाग्ययोगेन गृहागतः श्रीसंघः स्वागतकरणादिना
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तोषितः । मम पुत्रार्थमायातः श्रीसंघः इति हर्षाणि मुंचती स्वां रत्नगर्भा मन्यमानापि विषण्णा यतस्तत्पिता सुतरां
प्रतिबोध
प्रबंधः मिथ्यादृष्टिः परं तादृशोऽपि ग्रामे नास्ति तर्हि मया किं कर्तव्यं इति क्षणं मढचित्ताऽभूत् । ततः प्रत्युत्पन्नमतिः माता श्रीसंघेन समक्षं हे वत्स! श्रीतीर्थकरचक्रवर्तिगणधरैरासेवितां सुरासुरनरनिकरनायकमहनीयां मुक्तिकान्तासंगमदूतीं दीक्षां त्वं लास्यसि ? इति प्रोक्ते स च बालकुमारकः प्राग्भवचारित्रावरणीयकर्मक्षयोपशमेन संयमश्रवणमात्रसंजातपरमवैराग्यः ओमित्युवाच । ततो मात्रा स्वजनैश्चानुमतं पुत्रं संयमानुरागपवित्रं लात्वा श्रीतीर्थयात्रां विधाय कर्णावती जग्मुः श्रीगुरवः। तत्रोदयनमंत्रिगृहे तत्सुतैः समं वालधारकैः पाल्यमानः सकलसंघलोकमान्यः संयमपरिणामधन्यः वैनयिकादिगुणविज्ञो यावदास्ते । तावता ग्रामान्तरागतश्चाचिगः पत्नीनिवेदितश्रीगुरुमंघागमनपुत्रार्पणादिवृत्तान्तः पुत्रदर्शनावधिसंत्यक्तसमस्ताहारः कर्णावत्यां गतः, तत्र वंदिताः गुरवः । श्रुता धर्मदेशना । श्रुतानुसारेणोपलक्ष्य विचक्षणतयाऽभाणि श्रीगुरुभिः ।
"कुलं पवित्रं जननी कृतार्था, वसुंधरा भाग्यवती च तेन । ___ अबाह्यमार्गे श्रुतसिन्धुमग्नं, लग्नं परब्रह्मणि यस्य चेतः ॥१॥ कलंकं कुरुते कश्चित् , कुलेऽपि विमले सुतः । धननाशकरः कश्चित् , व्यसनैः पुण्यनाशनैः ।।२।। पित्रोः संतापकः कश्चित्, यौवने प्रेयसीमुखः । बाल्येऽपि म्रियते कोऽपि, स्यात्कोऽपि विकलेन्द्रियः॥३॥ सर्वाङ्गसुन्दरः किन्तु, ज्ञानवान् गुणनीरधिः । श्रीजिनेन्द्रपथाध्वन्यः, प्राप्यते पुण्यतः सुतः ॥४॥ इति श्रीगुरुमुखादाकर्ण्य संजातप्रमोदः प्रसन्नचित्तश्चाचिगः तत्र श्रीगुरुपादारविन्दनमस्याये समायातेनोदयनमंत्रिणा
॥४७॥ वधिया निजगृहे नीत्वा गुरुगौरवेण भोजयांचक्रे । तदनु चांगदेवं तदुत्संगे निवेश्य पंचांगपणामपूर्वकं दुकूलत्रयं
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द्रव्यलक्षत्रयं चोपनीय सभक्तिकं चावर्जितः चाचिगः सानंद मंत्रिणमवादीत् । मंत्रिन ! क्षत्रियमूल्ये अशीत्यधिकः सहस्रः अश्वमूल्ये पंचाशदधिकानि सप्तदशशतानि, सामान्यस्यापि वणिजो मूल्येन नवनवतिगजेन्द्राः एतावता नवनवतिर्लक्षा भवन्ति, त्वं तु लक्षत्रयमर्पयन् स्थूललक्षायसेऽतो मत्सुतोऽनय॑स्त्वदीया भक्तिस्त्वनय॑तमा तदस्य मूल्ये सा भक्तिरस्तु न तु मे द्रव्येण प्रयोजनमिति, शिवनिर्माल्यवदस्पर्शा मे, दत्तो मया पुत्रो भवताम् , इति चाचिगवचः श्रुत्वा प्रमुदितमना मंत्री तं परिरभ्य साधु युक्तमेतत् इति वदन् पुनस्तं प्रत्युवाच, त्वयाऽयं पुत्रो मम चार्पितः योगिमर्कट इव सर्वेषामपि जनानां नमस्कारं कुर्वन् केवल. मपमानपात्रं भविता परं श्रीगुरूणां समर्पितः श्रीगुरुपदं प्राप्य बालेन्दुरिव महतां महनीयो भवतीति विचार्यतां यथोचितम् । ततः स भवद्विचार एव प्रमाणमिति वदन् सकलश्रीसंघसमक्ष रत्नकरण्डमिव रक्षणीयं उदुंबरपुष्पमिव दुर्लभं तं पुत्रं क्षमाश्रमणपूर्वकं श्रीगुरूणां समर्पयामास श्रीगुरुभिरमाणि। "धनधान्यस्य दातारः सन्ति क्वचित् केचन । पुत्रभिक्षाप्रदः कोऽपि दुर्लभः पुण्यवान् पुमान्" ॥१॥ "धनधान्यादिसपत्सु लोके सारा हि सन्ततिः। तत्रापि पुत्ररत्नं तु तस्य दानं महत्तमम्" ॥२॥ स्वर्गस्थाः पितरो वीक्ष्य, दीक्षितं जिनदीक्षया। मोक्षभिलाषिणं पुत्रं तृप्ताः स्युः स्वर्गसंसदि ॥३॥ महाभारतेऽप्युक्तम्"तावद्भ्रमन्ति संसारे, पितरः पिण्डकाङ्क्षिणः। यावत्कुले विशुद्धात्मा, यती पुत्रो न जायते" ॥
इति श्रुत्वा प्रमुदितेन चाचिगेन प्रव्रज्योत्सवः श्रीस्तंभतीर्थे आलिगवसहिकायां कारितः । सोमदेवमुनि म दत्तम् । यथाऽन्यदा नागपुरे धनदेवनाम्नः श्रेष्ठिनो गृहे प्रथमालिकार्थं गतस्तद्गृहे रब्बा भोजनं स्वर्णराशिं च दृष्वाऽग्रगं
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प्रतिबोध प्रबंध:
॥४८॥
वृद्धसाधुं प्राह । यथा--"कस्मादस्य गृहेऽसमंजसमीदृशं । एकतः स्वर्णराशिः। भोजने तु रब्बा" स साधुरिति ? चऽभाग्यवशेनाऽयं निर्धनो जातो निधानगतमपि स्वर्णमंगारीभूतं राशीकृतमस्ति । सोमदेवमुनिना प्रोक्तं मया तु स्वर्णराशिददृशे । गवाक्षस्थेन श्रेष्ठिना तन्निशम्य क्षुल्लकमाहूय अंगारकराशौ करो दापितः तत्सर्व स्वर्ण जातं । तत्प्रच्छादकः कश्चित् व्यंतरः परब्रह्मतेजोऽसहिष्णुनष्टः । ततः संजातचमत्कारेण श्रेष्ठिना श्रीसंघेन च 'हेमचंद्र' नाम दापितं । ततः शनैः शनैज्ञानेन तपसा विनयादिगुणैर्यशसा च वर्धमानो निजौदार्यगांभीर्यादिगुणैरावर्जितः श्रीगुरुगच्छ श्रीसंघलोकः।
कदाचित् श्रीगुरूनापृच्छथ युगादौ लोकोपकाराय परब्रह्ममयपरमपुरुषप्रणीतमातृकाऽष्टादशलिपिन्यासप्रकटनप्रवीणा या ब्राह्मयादिमूर्तिस्तां विलोकनाय काश्मीरदेशं प्रति प्रस्थितः श्रीहेमचंद्रः। ततः कियति मार्गेऽतिक्रान्ते सति 'मिथ्यात्वतमःकरालेऽस्मिन् कलिकाले अस्य श्रीजिनशासनप्रभावकस्य महापुरुषस्य बहपायसंकुले पथि माभूभ्रमणप्रयासः' इति सा भगवती स्वयं दिव्यरूपधारिणी संमुखीना समाजगाम निशार्धे । अजिह्मपरमब्रह्मवर्चसं पद्मासनासीनमर्धनिमीलितलोचनं समाधियोगस्वाधिनस्वातं ध्यानाधिरूढं श्रीहेमचंद्रं दृष्ट्वा प्रोवाच । रुद्ध प्राणप्रचारे वपुषि नियमिते संवृतेक्षप्रपंचे । नेत्रस्पंदे निरस्ते प्रलयमुपगते सर्वसंकल्पजाले ॥ भिन्ने मोहांधकारे प्रसरति महसि क्वापि विश्वप्रदीपे।
धन्यो ध्यानावलंबी कलयति परमानन्दसिन्धौ प्रवेशं ॥१॥ संकल्पमात्रादपि सिद्धिकार्या, वांछन्ति तेनैव तथापि किञ्चित् । इच्छाविनाशेन यदस्ति सौख्यं, त एव जानंति गुस्पसादात् ॥२॥
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तथाऽप्ययं परमपुरुषः सकलपुरुषार्थप्रणेताऽस्मिन्निरतिशये काले श्रीशासनस्य प्रभावको भावीति कृत्वा कतिपयविद्यामंत्रान् श्रीविद्याप्रवादसंवादसुंदरान् आम्नायान् प्रदाय प्रमुदिता भगवती भारती कृतस्तुतिस्तिरोऽभूत् । पुनः पश्चादागताः ।
एकदा श्रीगुरूनापृच्छयान्यगच्छीयदेवेन्द्रसरिमलयगिरिभ्यां सह कलाकलापकौशलाद्यर्थ गौडदेशं प्रति प्रस्थिताः। खिल्लूरग्रामे गतास्तत्र ग्लानो मुनिवैयावृत्यादिना प्रतिचरितः। श्रीरैवतकतीर्थे देवनमस्करणकृतातिवद्ग्रामाध्यक्षश्राद्धेभ्यः सुखासनं तद्वाहकांश्च प्रगुणीकृत्य रात्रौ सुप्तास्तावत् प्रत्यूषे प्रबुद्धाः स्वं रैवतके पश्यन्ति । शासनदेवता प्रत्यक्षीभूय कृतगुणस्तुनिभर्भाग्यवतां भवतामत्रस्थितानां सर्व भावीति गौडदेशगमनं निषिध्य महौषधिरनेकान मंत्रान् नामप्रभावाद्याख्यानपूर्वक माख्याय स्वं स्थानं जगाम ।
एकदा श्रीगुरुभिः सुमुहूर्ते दीपोत्सवचतुर्दशीरात्रौ श्रीसिद्धचक्रमन्त्रः साम्नायः समुपदिष्टः । स च पद्मिनीस्वीकृतोतरसाधकत्वेन साध्यते ततः सिध्यति । याचितं वरं दत्ते नाऽन्यथा । ततोऽन्यदा कुमारग्रामे धौतां शोषणार्थ विस्तारितां शाटिकां समालोक्य पृष्टो रजकस्तैः, कस्या इयं शाटिका इति । सोऽवदत् ग्रामाध्यक्षपत्न्या इयं । ततो गतास्तस्मिन् ग्रामे ग्रामाध्यक्षप्रदत्तोपाश्रये स्थिताः । स च प्रत्यहं समेति, धर्मदेशनां शृणोति । तेषां ज्ञानक्रियावैराग्याऽप्रपंचादिगुणान् दृष्टा तथाविधभव्यत्वपरिपाकाद्गुणानुरागरंजितस्वांतः प्रमुदितः प्राह-यूयमनिच्छपरमेश्वराः । किमपि कार्यमसाध्यं ममाऽऽदिशन्तु । ततस्ते तं स्वांतनिवेदिनं गुणानुरागगम्भिरवेदिनं ज्ञात्वा प्राहुः । 'अस्माकं श्रीसिद्धचक्रमंत्रः साधयितुमिष्टोऽस्ति । स च पद्मिनीस्वीकृतोत्तरसाधकत्वेन सिध्यति नाऽन्यथा, तेन तव पद्मिनी स्त्री वर्त्तते तां लात्वा त्वं कृष्णचतुर्दशीरात्रौ रैवतकाचले समागच्छ अस्माकमुत्तरसाधकत्वं कुरु । विकारदर्शने शिरच्छेदस्त्वयैव विधेयः । इत्याकर्ण्य ग्रामाध्यक्षो विस्मयस्मेरमना
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प्रबंधः
॥४९॥
मनाविमृश्य चिंतयांचकार । एते तावन महर्षयः समतृणमणिलोष्ठकाञ्चनाः परब्रह्मसमाधिसाधकास्तहिं एतेषामिदं काये | वर्य समर्यादमनया स्त्रिया चेद् भवति, तदा तथास्तु किं बहविचारेणेति विचित्य तैरुक्ते दिने तैः समं सस्त्रीकः सुतरां निर्भीकः श्रीरैवताचलमौलिमलंचकार । ते च त्रयः कृतपूर्वकृत्याः श्रीअंबिकाकृतसानिध्याः शुभध्यानधीरधियः श्रीरेवतदैवतदृष्टौ त्रियामिन्यामाह्वानावगुंठनमुद्राकरणमंत्रन्यासविसर्जनादिभिरुपचारैर्गुरूक्तविधिना समीपस्थपद्मिनीस्वीकृतोत्तरसाधकक्रियाः श्रीसिद्धचक्रमसाधयत् । तत इन्द्रसामानिकदेवोऽस्याऽधिष्ठाता श्रीविमलेश्वरनामा प्रत्यक्षीभूय पुष्पवृष्टिं चकार, स्वेप्सितं वरं वृणुतेत्युवाच । ततः श्रीहेममूरिणा राजप्रतिबोधः, देवेन्द्र मरिणा निजावदातकरणाय कांतीनगयोः प्रासाद एकरात्री ध्यानबलेन सेरिसकग्रामे समानीत इति जनप्रसिद्धिः । मलयगिरिसूरिणा सिद्धांतवृत्तिकरणवर इति त्रयाणां वरं दत्त्वा देवः स्वस्थानमगात । प्रमुदितो ग्रामाधीशः प्रत्युपे बहुवित्तव्ययेन प्रभावनां विधाय त्रयाणां ध्यानस्थैर्य ब्रह्मदाढर्थ देवकृतप्रशंसा वरप्रदानं च जनेषु प्रकटीकृत्य निजजायां गृहीत्वा स्वग्रामं जगाम ।
अथ श्रीपत्तने गुरुभिः सह सिद्धराजसभायां गतो हेमचंद्रमुनिः स्वविद्वत्तयाप्रतिमः प्रीणितांतर्वाणिगणः प्रमुदितेन सिद्धभूपतिना कारिताचार्यपदमहोत्सवः प्रत्यहं कलाकौशलेन कालं गमयति । अथान्यदा नृपेण किं वाच्यतेः अद्य कल्येति पृष्टेऽजिह्मपरजिमैककारणव्रतविचारे स्थुलभद्रमुनीन्द्रचरित्रमित्युक्ते राजा समग्रमामूलतस्तत चरित्रं पप्रच्छ । ततः सविस्तरं कथिते चरित्रे राजा प्रमुदितः। अत्रावसरे मिथ्यागालिगो मंत्री प्राह । अहो संप्रतिकाले व मनुष्याणामेवंविध इंद्रियजयः। यतः--"विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो" ॥१॥
॥४९॥
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BREAKKCEEEEERBERBER33
ततः श्रीसूरिभिः प्रत्युत्तरमदायि
1"सिंहोचली द्विरद०" ॥१॥ इति श्रुत्वा राजा चत्कृमतः । नवीनं व्याकरणं कृतं एते ते हेमसूरयः इति श्रुत्वा राज्ञा श्रीकुमारपालेन श्रीमोढज्ञातीयानां लोकानां चामराः | दत्ताः । इति दीक्षाप्रबंधः। अन्यदा श्रीगुरवः सभायां व्यसनानि निराकर्तुं प्राहुः
'द्युतं च मासं च सुरा च वेश्या, पापार्द्धि चोरी परदारसेवा।
एतानि सप्त व्यसनानि राजन् ! घोरातिघोरं नरकं नयन्ति॥१॥ 'द्युताद्राज्यविनाशनं नलनृपः प्राप्तोऽथवा पाण्डवाः, मद्यात्कृष्णनृपश्च राघवपिता पापर्धितो दूषितः।। मांसात् श्रेणिकभूपतिश्च नरके चौर्याद्धतो मंडिको, वेश्यातःकृतपुण्यको, गतधनोऽन्यस्त्रीमृतो रावणः ॥२॥
ततः सभायां एतानि सप्तकथानकानि व्यसनदोषप्रकाशकानि श्रीगुरुमुखेन श्रुत्वा राजा लोकानां ज्ञापनाय सप्तव्यसनानि मृन्मयानि कारयित्वा रासभेष्वारोप्य राजमार्गे भ्रामयित्वा लुकुटादिभिर्हन्यमानानि श्रीपत्तनात निजदेशाच्च निरवासयत् ।
अथान्यदा श्रीजिनधर्माभिमुखं नृपं ज्ञात्वा श्रीपर्वताद् भैरवानंदनामायोगी पंचशतयोगिपरिवृत्तः श्रीपत्तनमागतः। संमुखगमने पृष्टाः श्रीसूरयः प्राहुः । शोभनमिदं परं परीक्षा क्रियते । ततो गम्यते । समस्यापदं राजपुरुषकरेण प्रेषितं ।
१ सिंहो बली द्विरदशूकरमांसभोजी संवत्सरेण रतिमेति किलैकवारम् । पारापतः खरशिलाकणभोजनोऽपि कामी भवत्यनुदिनं वद कोऽत्र हेतुः ॥
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कमार०
यथा--'चारि घायं यो जयइ स जोइ-'
प्रतिबोध
प्रबंधः इति एतत्समस्यापदं विचार्य कीदृशाश्चत्वारो घाता भविष्यंतीति भीतस्त्रियामिन्यां नष्टः । प्रत्यूष घातस्वरूपं राज्ञा पृष्टाः गुरवः प्राहु:MI "एय अउब जोई मुद्दामण मेहुण अणवाई निद्दा । एय मत्थुत बुज्झइ कोई चारि घाय यो जयइ सो जोई"॥
अथ गंगातटे दीपकाख्यद्विजात्रैपुरं मंत्रं प्राप्य नर्मदातटे देवबोधिद्विजोऽसाधयत् । तुष्टा त्रिपुरा तस्यैकवाक्येन । याचस्व वरमित्युवाच प्रत्यक्षा, सोऽपि बुद्धिमान् भुक्तिमुक्तिसरस्वतीरिति ययाचे, ततः प्रभृति महेन्द्रजालादिविद्यावान् चूडामण्यादिशास्त्रैरतीतादिज्ञाता, कदलीदंडपत्रमयं आमसूत्रतंतुबद्धसुखासनमधिरोहति । चतुरशीत्यासनकरणप्रवीणः, कायगत षट्चक्रविज्ञानचक्रवर्ती, पोडशाधारधीरधीः, लक्षत्रयदक्षः, व्योमपंचकपंडितः, पूरककुंभकरेचकादिप्राणायामक्रियाकुशलः, रुढा
पिंगलामुखम्लागांधारीहस्तिीनीप्रमुखदशमहानाडीवातसंचारचतुरः, आद्विजमातंगमार्थकगृहेषु यथाहरूपकरणाद् भुंक्त । श्रीजिनAधर्मानुरक्तं नृपं ज्ञात्वा स श्रीपत्तने समायातः । सर्वद्विजैः सत्कारितः चमत्कारदर्शनात् लोकैश्च राजगुरुरिति मत्वा राजापि
संमुखमागतः। कदलीपत्रसुखासनस्थः शिशुकारितवाहका राजादिपरिवारपरिवृतः शालाग्रे समायातः । कौतुकातुलितसकलपरिवारप्रेरितो मध्ये प्रविष्टः । सूरयस्तु पुरापि पुरितासनमुद्राः प्राणायामलघुभूतशरीराः शिष्याकर्षितसिंहासना निरालम्बाः स्थिताः संति । तान् तदवस्थान् दृष्टा विस्मितो देवबोधिः, सर्वेऽपि लोका विस्मयस्मेरमानसाः प्रोचुरहो सूरीणां निराधारमाकाशेऽवस्थानमिति । तेन कवित्वशक्तिपरीक्षार्थ समस्यापदमर्पितं ।
यथा-'योषिता रुदती मुखं च नयने स्वे गर्हते कन्यका'।
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तदाकर्ण्य भगवन् ! किमुच्यते युष्मच्छिष्याणां विदुषां सरस्वतीसर्वस्वमुषां प्रथममहमेव भगवदाज्ञया पूरयामिति प्रमाणं कृत्वा कपर्दीश्रावकः सर्वान् निवार्य पूरयामास । "नैतस्याः प्रभृति द्वयेन सरलो शक्येऽपि धातुं दृशौ, रुद्धाक्षी च विलोकते शशिमुखी ज्योत्स्नांवितानैरिव"। इत्थं मध्यगता सखीभिरसकृत् दृग्मीलना केलिषु योषिद्वा रुदती मुखं च नयने स्वे गर्हते कन्यका ॥१॥
श्रीहेमसूरिसेवापरश्रावकस्यापि शीघ्रकवितां दृष्ट्या विस्मयस्मेरः शोभनोऽयं वयं समुत्सुकाः स्मेत्युक्त्वा गतः। राज्ञांत्यजान् निमंत्रापितस्तेन मानितं निमंत्रणं, द्विजानां विमर्शः, कथं अंत्यजगृहे भोजनं करिष्यतीति । सहस्रलिंगसरोवरटोडकयोर्मोचितं भोज्यं । राजा तु राजपरिपाटिकामिषेण सरोवरसमीपे समायातः। देवबोधिः स्नानार्थ जलांतः प्रविष्टः। कृष्णश्वा भूत्वा निर्गतो भुक्तं तद् भोजनं पुनः जलांतः प्रविश्य देवबोधिर्भूत्वाऽगात् । राज्ञश्च सर्वेषां लोकानां विस्मयोऽभूत् ।। राज्ञा निजावासे निमंत्रितः तस्य विविधा भक्तिः कृता ।
अन्यदिने देवार्चावसरे सप्तपूर्वजानां मस्तकानि अतिनिकटरावृत्तानि पोचुः-हे वत्स ! अस्माभिस्तुभ्यं राज्यं दत्तं । त्वं महतीं प्रौढी नीतोऽस्मन्मार्ग मुक्त्वा जैनोऽभूत् । तेन राज्यं पश्चाद्ग्रहीष्यामः, सप्तमे नरके पातिता वयं, त्वया किं कृतं । त्यक्तः स्वकुलाचारः त्यजाऽधुनापि कुमार्गप्रवृत्ति । एतदाकर्ण्य राजा विज्ञातपरमार्थः किंकर्त्तव्यताजडोऽभृतस । विषादमिदमचिंतयत् । अहो सकलशास्त्रसंवादसुंदरोऽयं जीवदया धर्मः सर्वप्राणिप्रियः कथं कुमार्गः कथ्यते ? किमत्र तत्र ।
तस्मिन् दिने लोकमध्ये महाप्रभावोऽभूत् मिथ्यादृगशासने । द्वितीयदिने व्याख्यानावसरे प्रथमं परिमलः सुगंधः पश्चाद्विमानं विमानादुत्तीर्य मूलराजप्रभृतयः पूर्वजा गुरुन्नम-12
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कुमार०
॥५१॥
स्कृत्य श्रीकुमारपालं प्रति प्राहुः । वत्स ! त्वया नरकांतं राज्यं प्राप्य कलिकालेऽपि महतां महनीयस्त्रिभुवनोत्तमः श्रीजिन
प्रतिबोध
प्रबंध: धर्मः प्रतिपन्नः । स्वर्गस्था वयं प्रमुदिता देवसंसदि एतग्निशम्य राजा सचमत्कारमनाः प्राह । भगवन् ! तत्र तादृशमत्रेदृशं किमत्र तत्त्वं । श्रीगुरवः प्राहुः । नरेश्वर ! तत्रात्रापि नरकस्वर्गादिदर्शनं सर्व कलाकौशलमिदं तव पूर्वजाः यत्र स्वकर्मणा गताः तत्र संति । जिनवाक्यमेतत् पूर्वोक्तदशलक्षणो धर्मः । ततो लज्जितो राजा क्षामिताः गुरवः,
एकदा कोऽपि ब्राह्मणः परीक्षार्थ हरीतकी मृष्टौ बध्वोवाच । हेमसूरिस्तं । "मुंकरि किसिउं हरडइ काइ रडेइ । जेण कारणि हं घल्लिउ सव्विह वंजणच्छेहिं" ॥१॥
न राटष्यति युष्माभिः स्वनामाग्रे स्थापितोऽस्ति । इत्यादि वाक्थैब्राह्मणैर्विरुद्भिः। सह प्रीतिरुत्पन्ना।
यतः--"असारसंसारमहीरुहस्य सुधोपमं स्वादुफलं तदेकं ।
परस्परं मत्सरवर्जितानां यद्वर्धते प्रीतिरियं नराणाम् ॥१॥ एकदा व्याख्यानमध्ये श्रीगुरुभिहाहेति प्रोचे । इद्रयशगणिना तु हस्तौ घृष्टौ मुक्ते व्याख्याने तु राज्ञा पृष्टं भगवन् ! युवाभ्यां किं कृतं ? श्रीचंद्रप्रभप्रासादे दीपेन चंद्रोदयो लग्नोऽस्माभिदृष्टः स च हस्तौ घृष्ट्या अनेन विध्यापितः । राजा चमत्कृतः। स्वपुरुषैनिर्णयं व्यधात् । अहो निरतिशये काले श्रीभवतां ज्ञानं पूर्वभवमपि मे ज्ञास्यंतीति तदपृच्छत् । भगवन् ! इदमपि ज्ञायते यदहं पूर्वभवे कीदृशोऽभूत् । श्रीगुरुभिरुक्तं-राजन् । निरतिशयकालोऽयं यतः श्रीवीरनिर्वाणात ॥५१॥ वर्षाणां चतुःषष्ट्या चरमकेवली श्रीजम्बूसिद्धिं गतः । तेन सह द्वादशवस्तुनि त्रुटितानि ।
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'मणपरमोहि पुलाए आहारखवगउवसमे कप्पे । संयमतियकेवल सिज्झणा य जंबूमि बुच्छिन्ना ॥ १ ॥
सह प्रकर्षेण सर्व पूर्वगतं श्रुतं व्यवच्छिन्नं, संप्रति तु अल्पं श्रुतं, तथाऽपि देवतादेशेन विज्ञाय किमपि कथयिष्यते । ततो रात्रौ शुभध्यानस्थिताः समायातः पूर्वाराधितश्रीसिद्धचक्रसुरः पृष्टो राज्ञः पूर्वभवं तेन निवेदितं सर्वभवस्वरूपं ।
ततः प्रभाते राज्ञः समग्रसभासमक्षं कथितं । यथा- राजन् ! पूर्वभवे मेदपाटपरिसरे जयपुरे जयकेशी राजाऽभूत् तत् पुत्रो जयताकः सप्तव्यसनवान् पित्रा निष्काशितो मेदपाटपरिसरे पर्वतश्रेण्यां पल्लीपतिर्जातः । अन्यदा नरवीरस्य सार्थ - वाहस्य सार्थः सर्वेऽपि लुण्टितः तेन, सार्थवाहस्तु मालवदेशं गत्वा तत्र राजानं विज्ञाप्य सैन्यमानीय पल्लीमवेष्टयत् । तन्महद्बलं मत्वा जयताको नष्टः । नरवीरेण वणिजा पल्ल्यां कीटमारिः कारिताः । तत्पत्नी सगर्भा हता । भूपतितो बालः शिलायामास्फालितः । ततो मालवकदेशे राज्ञोऽग्रे स्वरूपे निरूपिते राज्ञा हत्याद्वयं - स्त्रीबालरूपं तव लग्नं । अतोऽयं अद्रष्टव्यमुखोस्तीति निष्काशितः स्वदेशात् । स च सार्थवाहो नरवीरः पदे पदे लोकैर्निद्यमानः पश्चातापपरो वैराग्यात् तापसो भूत्वा तीव्रं तपस्तप्त्वा जयसिंहदेवो जातः । स च हत्याद्वयादपुत्रः । जयताकोऽपि देशांतरं गच्छन् रूपसौभाग्यवान् आकर्णकृष्टकोदंडो मृगयापरः मार्गे श्रीयशोभद्रसूरिभिर्दृष्टः प्रोक्तश्च ।
"क्षत्रियोऽसि नराधीश ! प्रतिसंहर सायकं । आर्त्तत्राणाय वः शस्त्रं न प्रहर्तुमनागसि ॥ १ ॥ भो क्षत्रिय ! एवंविधं पवित्रं क्षात्रगोत्रमवाप्य मा जीवहिंसां कुरु । एतदाकर्ण्य लज्जितः प्राह"बुभुक्षितः किं न करोति पापं ? क्षीणा नरा पापपरा भवंति । आख्याहि भद्रे ! प्रियदर्शनस्य न गंगदत्तः पुनरेति कूपे ॥१॥
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कुमार०
॥ ५२ ॥
ततः श्रीगुरुवचसा व्यसनानि मुक्तानि श्राद्धैः शंबलादिकं दत्तं । शनैः शनैः प्राप्तप्रतिबोधो नवलक्षतिलंगे देशे प्रतिबोध लंगलपुरे ओढरवणिग्गृहे भोजनादिवृत्याऽस्थात् ।
एकदा पर्युषणपर्वणि स श्रीमानुदरः श्रावकः पुत्रपौत्रमित्रादिपरिकरः प्रधानपूजोपकरणः श्रीजिनगृहमगात् । तत्र विधिना जिनस्य स्नात्रं विधाय पूजात्रसरे जयताकं प्राह - "गृहाणेदं पुष्पादिकं कुरु जिनेंद्रपूजां गृहाण स्वजन्मजीवितफलं" । ततः स तदाकर्ण्याऽचिंतयत्-- अदृष्टपूर्वोऽयं देवः परमेश्वरः प्रसन्नवदनः नासाग्रन्यस्तदृग् परमयोगमुद्रासीनः नीरंजनस्वरूपः तत्कथं परकीयैः पुष्पैः पूज्यते ? I ततः स्वकीयपंचवराटकक्रीतपुष्पैः पूज्यते । ततः स्वकेयपंचवराटकक्रीतपुष्पैरानंदाश्रु प्लावितदृग् प्रसन्नमनोवाक्कायः पारमैश्वरीं पूजामकरोत् । ततोsहो यद्येते भोगभाजोऽपि व्यवहारिणोऽद्य तपः कुर्वति । ततः पुण्यमद्यतनं दिनमित्यहमपि विशेषतस्तपः करोमीति । गुरूणां मुखेनोपवासमकरोत् । प्रभाते विशुद्धश्रद्धया साधूनां दानमदात् । ततः स्त्रं कृतार्थं मन्यमानः कृतपुण्य सन् मृत्वा त्वं त्रिभुवनपालपुत्रो जातः, उढरश्रावकस्तु उदयनमंत्री, यशोभद्रसूरयस्तु वयं । त्वं पुनरितो निजायुः प्रांते महर्द्धिकव्यंतर देवत्वमधिगम्य ततश्युत्वा च अत्रैव भरतक्षेत्रे भद्दिलपुरे शतानंदनृपधारिण्यो पुत्रः शतबलाह्नः पैत्रिक राज्यमवाप्य भाविश्रीपद्मनाभजिनेंद्रधर्मदेशनां श्रुत्वा प्रतिबुद्धः परित्यक्तराज्यलक्ष्मीः प्रव्रज्य एकादशमगणधरो भूत्वा केवलज्ञानमासाद्य मोक्षं यास्यसि । एतन्निशम्य राजा विस्मितः प्राह-भगवन् ! कोऽत्र प्रत्ययः ! श्रीगुरुभिरूचे राजन् ! अद्याप्योढारवंशीयाः सति । उलंगलपुरे तेषां गृहे जीर्णदासी पूर्ववृत्तान्तान् जानाति । सा गत्वा पृष्टा सती सर्व कथयिष्यति । ततो राज्ञा निजपुरुषैस्तत्सर्वं स्वरूपं ज्ञातं दास्या जयताकभवसत्कं, ज्ञातं विजयसिंहदेवेन सह वैरकारणं, चिंतितं च निजमनास अहो वैरकारणं, दारुणः संसारः आत्मनः । ततो
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॥ ५२ ॥
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- राजा संवेगनिर्वेदाभ्यामालिंगितः संजातश्रीजिनधर्मस्थैर्यः श्रीहेमसूरीणां "कलिकालसर्वज्ञ" पदमदात् ।
कस्मिन्नप्यवसरेऽणहिल्लपुरे श्रीकुमारपालनामा नरेश्वरो वाहकेल्यां व्रजन् सौन्दर्यवर्यनिर्जितसुरसुंदरी बालेन्दुवदनां | IN कामप्यवला बालिकामालोक्य तद्रपापहृतहृदयः संनिहितं प्रसादवित्तकं प्रति केयमित्यादिशेस्तेनेति विज्ञपयांचवे अपार
श्रुतापारदृष्वतया संजातकलिकालसर्वज्ञप्रसिद्धादशभिन्नतपःसमाराधनक्शबंदीकृताऽष्टमहासिद्धेनिशेषभूपालमौलिचुम्बित पादपीठस्य आयुष्मतः श्रीहेमचंद्रमहर्षराश्रमनिवासिनी. अहिंसानाम्नी कनीयमिति निशम्य सद्यः कदाचित् तान् महपनि हर्षभाक् सभक्तिकं सौधमाकार्यस्तद्धृतान्तं पृष्टं तैरूचे त्रिजगदेकसार्वभौमस्य श्रीमदहद्धर्मस्य अनुकंपानामपत्नी-कथं . धर्मस्य राज्ञत्वं । ___ यतः "जिनमतनगरेऽस्मिन् मोहमत्तारिजेता, जयति जनितधामा धर्मनामा नरेन्द्रः।
नियतमपरिभूतं यस्य राजेन्द्रभूतं, विलसति नयपूतं तत्वसप्तांगमेतत् ॥१॥ - अर्धासनोपविष्टाऽनुकंपानाममहादेवी तस्याः कुक्षिसरसि राजहंसीव निःसीमसौन्दर्याऽहिंसाभिधा यस्मिन् लग्ने सूताऽजनितल्लनग्रहबलं तत्पित्रा सर्वविदा एवमादिष्टं, यदीयं अतीवपुण्यवती दुहिता पुत्रजन्मोत्सवादप्यस्या जन्म श्लाध्यं । क्रमेण वर्धमाना कन्या साऽनुरूपवराऽप्राप्त्या वृद्धकुमारी भूत्वाऽनुरूपेण केनाऽपि महीमहेंद्रेण सोपरोधमूढा तं च स्वं जनकं परामुन्नतेः कोटिं नेष्यति इति तद्वाक्यपर्यते तदथिनानुकुल्याय तस्याः सविधे सद्बुद्धिनाम्नी दूतीं नृपः प्राहिणोत् । सा तां सपश्रयं पणिपत्य स्वामिनि ! राजकन्ये! धन्यतमासि यत् त्वाम् अष्टादशदेशसम्राट् समस्तसामंतसीमंतमणिमयूखमलंकृतचरणकमलयुगलश्वौलुक्यचक्रवर्ती त्वामुद्वोढुमभिलपतीति । तद्वचसा मुखमोटनयाऽविनयं नाटयंती सोपहासं सैवं प्राह
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कुमार
प्रतिबोध प्रबंधः
॥५३॥
'निकिंचनेन दयितेन विवाहितेन, यद्योषितां सुखपदं न तदीश्वरेण । भागीरथीं वहति यां शिरसा गिरीशो, लक्ष्मीपतिः स्पृशति नैव पुनः कदापि ॥१॥ अलं नरकांत्माज्यसाम्राज्यप्राप्ति-प्रलोभनवार्तया सत्यवाक् पर लक्ष्मीमुक्
सर्वभूताभयप्रदः सदा स्वसारतुष्टश्च संतुष्टो मे पतिर्भवेत् ॥२॥ इति तस्याः दुश्रवं प्रतिश्रवमाकर्ण्य सा विफलवैदग्ध्यमानी स्वं पदमुपगता । स्वामिनं ! सर्वथा निराशयमकरोत् । तदनु तं नृपं तद्वियोगाग्निमग्नमाकलय्य श्रीहेमसरिस्तमिति प्रतियोधितवान् । ___"यः कन्याया इतरलोकदुष्करः संगरः स चाऽप्युभयलोकहितस्तदनुकुलताहेतुश्च अतस्तमपि निर्मापय निर्मापय । सुकलत्रस्य संपत्तिः पुंसां भाग्यनिबंधनं । या प्रीतिर्जन नीजन्योः सौभाग्योपरि मंजरी ॥१॥
स्थाने निवासः सुकलं कलत्रं, पुत्रः पवित्रः स्वजनानुरागः।
आयाच वित्तं सुहितं च चित्तं, नि छद्म धर्मश्च सुखानि सप्त ॥२॥ सा च सर्वथा परिणेतुं उचितेव। यतः-"धन्यां सतीमुत्तमवंशजातां, लब्ध्वाऽधिकां याति न कः प्रतिष्ठां।
क्षीरोदकन्यां गिरिराजपुत्री, गोपस्तथोग्रश्च यथाधिगम्य" ॥१॥ इति तेन महर्षिणा प्रतिबोध्य तानशेषानभिग्रहान् ग्राहयित्वा तस्याः प्रदानं चक्रे।
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX और
॥५३॥
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__ अथ संवत बारसोलोत्तरा वर्षे मार्गशुक्लद्वितीयायां लग्ने बलवति संवेगमत्तंगजारूढो, रत्नत्रयवस्त्रालंकृतो, दक्षिणपाणिवद्धोरुदानकङ्कणः, सम्यक्त्वानुचरेण समं, श्रद्धासहोदर्याकृतलवणावतारो, गुरुभक्तिदेशविरतिजानिणीभ्यां दीयमानधवलमंगलः, पौषधवेश्मद्वारि अनुकंपाकन्याजनन्या कृतप्रोखणः, श्रीमन्महादेवार्हतः साक्षि स नृपतिरहिंसायाःप्राणि जग्राह । तदा तारामिलनपर्व । अथ षट्त्रिंशत्सहस्रप्रमाणं त्रिषष्ठिचरितं नवांगदेवीमहोत्सवादानीय वेदिपद्या स्थाने कपईप्रत्येक विंशतिः वीतरागस्तवाः । तस्यैकस्यां वेदिकायां वंश ३ तथैकं शमीकाष्ठं तत्पदे श्रीयोगशास्त्रप्रकाश १२ तथा लक्षणसाहित्यतर्केतिहासप्रमुखशास्त्ररचनाभिर्मूलोत्तरगुणाभ्यां च दृढीकृत्य वेदिकायां ज्ञानाऽनलमुद्दीप्य तत्परितो मंडलचतुष्टयदापनं चत्तारिमंगलमित्यादि, द्वासप्ततिलक्षप्रमाणरुदतीद्रव्यकरमोचनं तस्याः कन्यायाः मुखमण्डने दत्तं । तत्कालमेव तस्याः पट्टबंध कारयित्वा तत्पितुर्योग्यान आवासान् विहारान् १४४४ कारयामास । - ततः सा हिंसा स्वसपत्न्याः अहिंसायाः परमोन्नतिं तद्विधामालोक्य भर्तुः पराभवनिवेदनाय पितुर्धातुः समीपे समु
पागता । चिरदर्शनात् अभिभवविरूपत्वाच अनुलक्षिता तेनेत्यभिदधे। * का त्वम् सुंदरि? मारिरस्मि तनया ते तात धातः प्रिया। किं दीनेव पराभवेन स कुतः किं कथ्यतां कथ्यतां ॥
"हेमाचार्यगिरा परार्धगुणभाक् हृद्वक्त्रहस्तोदरात् । मामुत्तार्य कुमारपालनृपतिः क्षोणीतलादाकृषत्" ॥१॥ - इति तद्भणितेरनंतरं श्रीकुमारपालदेवस्य सत्यप्रतिज्ञस्यापि तस्य लिङ्गिनो गिरा त्वयि विरक्तचित्ततां विमृश्यऽतः परं भवत्याः स कोपि वरः प्रवरः करिष्यते । यस्तववेकातपत्रं कुरुते । धीरा भवतां संबोध्य स्वसमीपे स्थापयांचक्रे ।
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कुमार०
प्रतिबोव प्रबंध:
॥५४॥
हिंसा पिता पापनामा नरेन्द्रवरं विलोकयन वाणारस्यां जयचंद्रनृपं सप्तशतीयोजनभूमिनाथं दृष्टवान् । अन्यराजकं दासमिव मन्यमानश्चत्वारिंशच्छतानि गजेंद्राः षष्टिलक्षाश्च वाजिनः द्वादशशतानि पित्तलमयानि श्वानानि, गंगायमुनायष्टीविना क्वापि गन्तुं न शक्नोति तेन पङ्गराजेति बिरुदं वहति । तस्य गोमती दासी ६०००० अश्वेषु प्रक्षरी निवेश्याभिपेणयंती परचक्रं त्रासयति, राज्ञः श्रम एवकः, तत्र वाराणस्यां तस्मै नृपाय ददौ ।
सा वार्ता श्रीकुमारपालेन श्रुता, मदीयपत्न्या गृहांतरमकारि । ततो दूनमनाः निजप्रधानपुरुषाः हेमकोटिद्वयं हयसहस्रद्वयं चित्रपट्टमेकं समर्प्य प्रेषिताः। तैस्तत्र गर्बहद्रव्यव्ययेन कैवर्तकाखेटकादिपघकान् कृत्वा तत्कर्म निवारितं । कालेन राज्ञा जयचंद्रेण ज्ञातं । तत्पृष्टा ग्राममहत्तरास्तैः प्रधानपुरुषाः कथिताः ततो राज्ञाऽऽहुताः प्रधानपुरुषा जयचंद्रसभायां गताः । श्रीकुमारपालप्रेषितं हेमकोटिद्वयं हयसहस्रद्वयं चित्रपटादिकं प्राभृतं समर्पितं । राजा जयचंद्रो यावत् पट्टमुद्घाटय पश्यति । तावत्तत्र स्वमूर्ति-श्रीकुमारपालमूर्ति-जीवहिंसादिकपापफलं नारकिकछेदनभेदनादियातना-कुंभीपाक-वैतरणीतारण-कूटशाल्मलिवृक्षोल्लंबनाऽसिपत्र-वनप्रवेशनादिकं दृष्ट्वा चित्रस्थं संजातमहापापभयः. प्रकम्पमानः शरीरः । पुनः पुरः सम्यगजीवरक्षादि पुण्यफलं-स्वर्गविमानं दिव्यदेह-देवांगना-दिव्याभरणगीतनृत्यवाद्यविविध-क्रीडारूपसौभाग्यश्रृंगारभोगादिकं चित्रस्थं दृष्ट्वा विस्मयस्मेरमनाः प्रधानपुरुषाणां प्रसादमकरोत् । जीवरक्षार्थ श्रीकुमारपालेन प्रेषिता वयमिति स्वरूपे प्रोक्ते जयचंद्रनृपः स्वदेशे सर्वत्र जीवरक्षामकारयत् । १८ लक्षजालप्रज्वालनं कृतं, द्विगुणं च प्राभृतं श्रीकुमारपालाय प्राहिणोत् । पुनरपि मारिः पितुः पार्श्वमगात् । ततो म्लेच्छकुले गर्जनपुरे दत्ता। अथ वर्षासु कटकारंभे नियमिते तवृत्तान्त ज्ञात्वा प्रापराभवसंजातामर्षों गर्जनपुरेशः त्वामभिषेणयितुमागच्छती
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ति चरैः प्रोक्ते दूनो नृपः श्रीपत्तनेऽपि साध्वसमभूत् , विज्ञप्तं तत्गुरूणां तैश्च स्तंभितः । स तत्रस्थः षट्मासान् जीवदया पणे कृते मुक्तः। मारिः कुत्रापि स्थितिं ना लेभे।
श्रीगुरुणामुपदेशेनाज्ञाकारिषु नृपेष्वाष्टादशदेशेषु चतुदर्शवत्सराणि सर्वपाणिप्रियां अमारिमकारयत् । "सारैरपि मारिं न कश्चित्कथयति सौनिकव्याध कैवर्त्यपालादि पदकान् । अपाटयत् क्वचिच्छक्त्या भक्त्या चार्थव्ययात् क्वचित् ॥१॥
अथैकदाऽश्वपर्याणस्थमूक्ष्मजीवप्रमार्जनपरं राजानं दृष्टा नपाः परस्परं भ्रसंज्ञया स्मितमकार्षः। तद्विज्ञाय विज्ञजनशिरोमणिर्लाहकटाहत्रयं बाणेन प्रस्फोटय कुंताग्रेण लोहभृतगोणिमुत्पाटय स्वभृजबलमदर्शयत् । तजिताश्च ते रे ! किमेमिर्व
राकैः सूक्ष्मजंतुभिरल्पसत्वैहतैरिति । ततः कुमारगिरौ राजाज्ञयाऽष्टौ लक्षास्तुरंगमा गालितं जलं पिबन्ति । अमारिपटहकः | सर्वत्र पुरग्रामादिषु भ्रमति । राजपुरुषाश्चामारिं कारयंति।
अथामारि प्रवर्तयति राजनि अश्विनशुक्लपक्षोऽगात । तत्र कंटैश्वर्यादिदेवतार्चकैविज्ञप्तं । देव! सप्तम्यां सप्तशतानि पशवः सप्त महिषाश्च देवतानां पुरा दीयन्ते राज्ञा, एवमष्टम्यां अष्टशतानि, नवम्यां नवशतानीति, राज्ञा तदाकर्ण्य श्रीगुरून् समायातान् विज्ञप्तं तत्स्वरूपं । गुरुवचनमादाय भाषितास्ते देयं दास्यामोवहि । क्रमेण रात्रौ देवीनां सद्य सुनीक्षिप्ताः पशुमहिषा, दत्तानि तालकानि मुक्तास्तत्र रक्षकाः । प्रातः समायातो राजा उद्घाटितानि तालकानि मध्ये दृष्टाः पशवो रोमधायमानाः । राजा सर्वसमक्षमिदं जगाद । भो अवेटिका पश्वादयोऽमूभ्यो दत्ताः परं न ग्रस्ताः तस्मात् अवध्या एव । मांसं रुचितं नामभ्यस्तत् कथं जीवान् हन्मि । ततस्ते सर्वेऽपि विलक्षा मौनमालंब्य स्थिताः। छागादिमूल्येन नैवेद्यानि
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कुमार
।। ५५ ।।
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कारितानि । देवीनां महाहिंसादिनं मत्वा राजा नवम्यां कृतोपवासो निशि चंद्रशालायां दयारसमयः शुभध्यानस्थितो बहिरारक्षाः मुक्ताः । निशीथसमये दिव्यनेपथ्यधारिणी स्त्री प्रत्यक्षा जगाद । 'राजन् ! अहं तव कूलदेवी कंटकेश्वरी । एषमो - वर्षे किमिति त्वयाऽस्मभ्यो देयं न दत्तं' । राजा उवाच । 'दत्तं मया सर्व परं भवतीभिर्न ग्रहीतं । तदहं करुणामयः कथमशरणान् प्राणिनो निहन्मि ?' । ततः सा क्रुद्धा 'अहो ! वचसा मामयं विप्रतारयति' इति त्रिशुलेन राजानं शिरसि हत्वा गता ।
क्षणांतरे राजा स्वशरीरे कुष्ठत्रणानि दृष्ट्वा विषण्णोऽभूत् तदा सद्य उदायनमंत्रिणमाहूय प्रोवाच 'मंत्रिन् ! अद्य देवी प्रत्यक्षा पशून् याचते किं दीयते नवा ? मंत्री प्राह 'राजन् ! अहं किम् वेद्मि ? परमिति जाने येन केनाप्युपायेन स्वामि| रक्षा क्रियते ।
यतः - जेण कूलं आयात्तं पुरिसं आयरेण रक्खिज्जा । न हु तुंषमि विणट्ठे अरगा साहारगा हुंति ॥ १ ॥
तदाकर्ण्य राजा निःसत्वो वणिगसि भक्तिवचांसि भाषसे । श्रुणु 'आजलधिमेखलां खलाः स्वाज्ञां मया ग्राहिताः सकलार्थसार्थप्रार्थना सफलीकृता भीणिता सप्तक्षेत्री पवित्रस्ववित्तेन आराधितः श्रीधर्मस्तत् किं मम जीवितेन कार्य, केवलं रहः काष्ठानि देहि, येन प्रातर्माम् ईदृशं दृट्टा लोकः श्रीधर्मस्य निंदां करिष्यति । मंत्री आह 'महत्कष्टं पारवश्यमूल्यं नियोगं धिगिति क्षणं विमृश्य उवाच । देव ! पूर्वं श्रीगुरूणां स्वरूपं विज्ञाप्यते । राज्ञा उक्तं एवमस्तु । मंत्री गतः श्रीगुरूणां पदांते निवेदितं तत्स्वरूपं क्षणं स्मरणकरणीयं कृत्वा गुरुभिर्जलमभिमंत्र्याऽर्पितं, तदाच्छोटनमात्रेण राजा सविशेषशरीरशोभा भागभूत् । अत्यंत श्रीगुरुभक्तिभावितश्च प्रातर्महामहोत्सवेन श्रीगुरुपादारविंदं वंदितुं यावद् याति तावद् धर्म्मशालाप्रथमप्रवेशे स्त्रीकरुण स्वरं
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3 प्रतिबोध प्रबंधः
॥ ५५ ॥
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प्रेणिकः।
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शुश्राव ततस्तामेव कंटकेश्वरी मंत्रयंत्रितां च पश्यति । तावता सा उवाच 'राजन् ! मोचापय मां सरिप्रयुक्तमंत्रबंधनात् तवाज्ञावधिदेशेषु जीवरक्षातलारकत्वं करिष्यामीति' । श्रीगुरुवचसा मोचिता ।
कवयः सर्वे स्वमातिभिः प्रोचुः"श्रीवीरे पारमेश्वरेऽपि भगवत्याख्याति धर्म स्वयं । प्रज्ञावत्यभयेऽपि मंत्रिंणि न य अक्लेशेन कुमारपालनृपतिस्तां जीवरक्षा व्यधात्, यस्यासाद्य वचः सुधां स परमः श्रीहेमचंद्रो गुरुः"॥
"पातु वो हेमगोपालः कंबलं दंडमुद्वहन् । षड्दर्शनपशुग्राम, चारयन जैनगोचरे" ॥२॥ "नाभवद्गविता नैव हेमसूरिसमो गुरुः । श्रीमान् कुमारपालश्च, जिनभक्तो महीपतिः" ॥३॥ "राजा लुठति पादाग्रे, जिह्वाग्रे च सरस्वती । शश्वत् स श्रेयसे श्रीमान् , हेमसूरिनवः शिवः"॥४॥
"सप्तर्षयोऽपि गगने, सततं चरंतो, मोक्तुं क्षमा नहि मृगी मृगयोः सकाशात् ।
जीयात् पुनश्चिरतरं प्रभुहेमसूरि-रेकेन येन भुवि जीववधो निषिद्धः" ॥५॥ "प्राणित्राणे व्यसनिनां, शान्तिसुव्रतनेमिनां । हेमाचार्योऽत्र चातुर्ये, तुर्यः किंतु स दुर्युगे" ॥६॥ सर्वेषां कवीनां लक्षंलक्षं ददौ ।
अथान्यदा भोजनं कुर्वतो राज्ञो घेबरभुक्तौ किंचित विचिंत्य कृतसकलाहारपरिहारः पवित्रीभय इति प्रमं पप्रच्छ भगवन् ! घेबराः किं भक्ष्या वाऽभक्ष्याः। श्रीगुरुभिरुक्तं राजन् ! भक्ष्या अभक्ष्याश्चेति भणितं । पुनर्भगवन् । भक्ष्याश्चेत् अभक्ष्याः कथम् ? अभक्ष्याश्चेत् भक्ष्याः कथम् । श्रीगुरुभिरभाणि--'राजन् ! ये क्षत्रियादयः पूर्वज्ञातमांसास्वादास्तेषामभक्ष्या
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कुमार०
प्रतिबोध ये तु वणिगब्राह्मणादयोऽज्ञातमांसास्वादास्तेषां भक्ष्याः' इत्याकर्ण्य मुदितः अहो! प्रभूणां युक्ता कलिकालस
प्रबंधः मानसिकपारणामोऽपि येषां प्रत्यक्षः।
ततो राजा दंतपातनसोद्यतः श्रीगुमिनिषिद्धः॥ कृतघेवरभक्षणनियमः प्रायश्चित्तपदे द्वात्रिंशत्प्रासादानेकस्मिन्पीठबंधेऽकारयत् । द्वात्रिंशत् प्रकाशान् प्रत्यहं गुणयति प्रत्यूषे ।
अन्यदा एकस्मिन् ग्रामे तैलिकेन रात्रौ युका हता, कटेश्वर्या राज्ञो ज्ञापिता । स दण्डितस्तद्रव्येण यकावसति कारिता । पुरा गृहीतेनाऽखुद्रव्येणाऽखुवसतिश्च । यस्याः करेण पुरा करंबो भुक्तः तस्या देवश्रियो नाम्ना करंबावसतिः ।
अथ श्रीस्तंभतीर्थेशमान्ये आलिगवसहिकाप्रासादे यत्र दीक्षाक्षणः प्रभूणां बभूव तत्र रत्नबिम्बालंकृतो निरुपमो जीर्णोद्धारः कारितः।
अन्यदा ब्रह्मकविः कृतकृत्रिमदेवरूपः केनाऽपि अनुपलक्ष्यमानः करे गृहितलेखपत्रः सभायां समेतः । कृतः प्रणामः पृष्टो राज्ञा भोः ! कस्त्वं कुतः समायातः । तेनोक्तं देव ! देवेन्द्रेण प्रेषितोऽस्मि युष्मदंतिके लेखसमर्पणाय इति उक्त्वा लेखं समर्पितवान् । सभायां लेखः प्रस्फोटथ वाचितः । यथा:-स्वस्तिश्रीमति पत्तने नृपगुरुंश्रीहेमचंद्रं मुदा, स्वःशक्रः प्रणिपत्य विज्ञपयति स्वामिंस्त्वया सत्कृतम्।।
. चंद्रस्यांकमृगे यमस्य महिषे यादस्सुयादापते-विष्णोर्मत्स्यवराहकच्छपकुले जीवाऽभयं तन्वता ॥१॥ 'तस्य राजा लक्षं पारितोषिकमदात् ।
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अन्यदा गुरुभिर्तृतीयव्रताधिकारेःदुर्भिक्षोदयमन्नसंग्रहपरः पत्युर्वधं बंधुकी, ध्यायत्यर्थपते भिषग् गदगणोत्पातं कलिं नारदः। दोषपाहिजनश्च पश्यति परछिद्रं छलं शाकिनी । निःप्पुत्रं म्रियमाणमाढयमवनीपालो हहा वाञ्छति॥१॥
तन्निशम्य श्रीगुरुगिरा द्वासप्ततिलक्षमृतकद्रव्यपत्रं पाटितवान् । केनापि कविना प्रोक्तं । . "अपुत्राणां धनं गृह्णन् , पुत्रो भवति पार्थिवः । त्वं तु संतोषतो मुश्चन् , सत्यं राजपितामहः ॥१॥
अपरेण तु । 'न यन्मुक्तं, पूर्वैरघुनहुषना भागभरत प्रभृत्युर्वीनाथैः ? कृतकृतयुगोत्पत्तिभिरपि । विमुञ्चन् कारुण्यात्तदपि रुदतीवित्तमधुना । कुमारक्ष्मापाल, त्वमसि महतां मस्तकमणिः ॥२॥ लक्षमत्राऽपि
॥ इति तृतीयव्रतम् ॥
॥ अथ चतुर्थवते ॥ "एका भार्या सदा यस्य, त्रिधा शीलं घनागमे । दिनं प्रत्येकशो यस्य द्वात्रिंशत् स्तवनस्मृतिः" ॥१॥ अथ परिग्रहप्रमाणंजन्तून् हन्मि न, वच्मि नानृतमहं स्तेयं न कुर्वे परस्री! यामि, तथा त्यजामि मदिरां मांसं मधु प्रक्षणं। नक्तं नाद्मि परिग्रहे मम पुनः, स्वर्णस्य षट्कोटयस्तारस्याऽष्टतुलाशतानि च महार्हाणां मणीनां दश ॥१॥ १ धनैर्बाहुभ्येऽपि कृतकृतयुगोत्पत्तिभिरपि, न यन्मुक्त पूर्वैर्भरत प्रभृतिभिर्नपबहुलैः ।
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कुमार०
प्रतिबोध राप्रबंधः
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__ कुंभखारीसहस्र द्वे प्रत्येक स्नेहधान्ययोः। पंचलक्षाश्च वाहानां सहस्राण्यष्टहस्तिनां ॥२॥
अयुतानि गवामष्टौ, पंच पंच शतानि च गृहाऽपणसभायानपात्रासनानामपि ॥ एकादशशतानीमाः रथाः पंचायुतप्रमाः हयाएकादशलक्षाश्च पत्तयोऽष्टादशप्रमाः । सैन्यमेलापकप्रमाणं । साधर्मिकवात्सल्यात् त्रुटितधार्मिकस्य दिनारसहस्रदाने श्रेष्ठी आभडो नियुक्तः । वर्षे लेख्यके कृते एका कोटिलग्नाःयावत्तां दापयति तावता भडेनोक्तं । देव द्विधा कोशः स्थावरोजंगमश्च। वयं जंगमकोशस्थानीया इति जल्पन्निषिद्धः सर्व दत्तं ।
एकदा कर्णमेरुप्रासादाग्रे श्रीगुरवो गता तदा वामराशिभरडकेनोक्तं । "यूकालिक्षशतावली वलवलल्लोलल्ललत्कंबलः, दन्तानां मलमंडलीपरिचयाद्दुर्गधरुद्धाननः । नासावंशनिरोधनाद्गिणगिणत्पाठप्रतिष्ठास्थितिः, सोऽयं हेमडसेवडः पिलशल्लिः सोऽयं समागच्छति॥ . श्रीगुरुभिरुक्तमहो गालिरपि न शुद्धा । ददतु गाली गालिवंतो भवंतः तच्चरैः राज्ञा श्रुतं, तस्य वृतिछेद कृतः, प्रत्यहं शालायां समायाति ॥ श्रीयोगशास्त्रं पठति। अन्यदा राजा तच्छ्रुत्वा प्राह
"आतंककारणमकारणदारुणानां वक्त्रेषु गालिगरलं निरगात् तु येषां ।
तेषां जटाधरफटाधरमण्डलानां, श्रीयोगशास्त्रवचनामृतमुजिहीते ॥१॥ पुनः श्रीगुरुवचनात् । प्रसादः।
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"अन्यदासुखस्वप्तस्य भूपतेः क्वापि देवता । निश्यऽजनि प्रत्यक्षा, श्यामसर्वागमंडना ॥१॥ भूपृष्टाऽवदत् साऽपि भूताधिष्ठातृदेवता । स्वदंगे प्रविविक्षामि, पूर्वशापात्तवान्वये ॥२॥ गतायामथ तस्यां स चिंतार्तोऽभून्नृपः प्रगे । सूरिपृष्टोऽवदत् सर्व, तमूचे सूरिरप्यथ ॥३॥ भावीभावो भवत्येव नान्यथा सोमरैरपि । पूर्व कामलदेव्या यत्, शापितो मूलभूपतिः ||४|| परं पुण्यं कुरु यतः - दीपो हन्ति तमस्तोमं, रसो रोगभयं यथा, सुधाविन्दुर्विषावेगं धर्मः पापहरस्तथा ||५|| रात्रौ महाव्यथाऽभूत् पृष्टे राज्ञि काकणोपमः कीटः प्रादुरभूत् । प्रतिकारैरनुपशमने श्रीगुरवः समायाता । राजानं दुखा दृष्ट्वा प्राहु:--
"
"सृजति तावदशेषगुणाकरं पुरुषरत्नमलंकरणं भुवः ।
तदनु तत्क्षणभंगिकरोति, वद हह कष्टमपण्डितता विधेः " ॥१॥
राज्ञः श्रीगुरुदर्शनेन क्षणं सुखमभूत् । सूरिः सचिवं प्रत्याहुः, मंत्रिन् ! अपायानामुपायाः स्युः बहुरत्नावसुंधरा । मंत्री प्राह भगवन् ! अनुस्वर्ण धातवः अनुचंदनं काष्ठानि तथाऽनुपूज्यान् कलाकोविदाः ।
"यथा तमोंतको भानुः, सुधा सर्वविषापहा । जगत्संजीवनो मेघ स्तथा राज्ञो गुरुर्भवान्" ॥१॥
श्रीगुरुरभ्यधात् नात्र मंत्र तंत्र भैषज्य प्रभावप्रसरः किन्तु बुद्धिप्रकाराऽस्ति । यदि राज्यमन्यस्य कस्यापि दीयते तदा राज्ञः कुशलं स्यात् परं नायं धर्मः श्रीजिनतत्त्वविदां । यतः --
सव्वो न हिंसियव्वो, जह महीपालो तहा उदयपालो । न य अभयदाणवइणा, जणोऽवमाणेण होइव्वं ॥
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कुमार
॥५८॥
MEREKKERABARICKKA
प्रतिबोध ततोऽस्माकमेव राज्यमस्तु राजा तु की 'पिधायाऽभ्यधात् ।
प्रबंधः "को नाम कीलिकाहेतोः, प्रासादोच्छेदमिच्छति । भस्मने भस्मसात्कुर्यात् , को हि चंदनकाननं ॥१॥ राजन् ! महाऽयुक्तमेतत् यदि मम शक्तिर्न भवति । परं ।
"शक्तो हनुमान् यदबंधयत्स्वयं विष्णुर्दधौ यचशिवास्वरूपं ।
सैरंधिकाकारधरश्च भीमस्तथाऽहमप्यत्र कृतौ समर्थः" ॥१॥ कष्टमपीदं न मम मनसि । "या लोभाद् या परद्रोहाद्यः, पात्राद्यः परार्थतः।मैत्री लक्ष्मीय॑यः क्लेशः, सा कि सा किं स किं स किं" । - राजा शनैः शनैर्वाधया शून्यचित्तोऽमूत् । राजानं तथाभूतं विलोक्य सर्वः कोऽपि विधुरोऽभूत् । श्रीगुरुः सर्वसंमतेन । स्वयमुपविष्टो राज्ये । तत्क्षणं राज्ञों व्यथा सूरिशरीरे संक्रान्ता । श्रीगुरुव्यथां ज्ञात्वा राजा मनसि दूनश्चिन्तयति । . स्वाङ्गदाहेऽपि कुर्वन्ति, प्रकाशं दीपिकादशाः। लवणं दह्यते वहौ, परदोषोपशान्तये ॥१॥
श्रीगुरुरुवाच राजन् ! मा चिंतां कुरु । न मम शक्तिमतोऽसुखं मूलाचेन्नोन्मूलयाम्येनां तदा मम वंश्यानां स्यात् । ततः "पक्वं कूष्माण्डमानाय्य प्रविश्यांतः स्वयं गुरुः । तत्र न्याविशल्लूतां तदैवाऽभूत्तदन्यथा" ॥१॥ ॥ ८ ॥ "उत्पाट्यान्धप्रधौ क्षिप्तं कश्चिन्नोलंघते यथा । एवं स्वस्थमभूत्सर्व सूरेः शक्तिरहो स्फुटा" ॥२॥
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अथान्यदा श्रीमहावीरचरित्रे वाच्यमाने श्रीगुरुमुखेन देवाधिदेवप्रतिमासंबंध श्रुत्वा राज्ञा वीतभयपत्तनं गत्वा महातपःसाध्यदेवतासानिध्येन पूजिता । महोत्सवेनाऽऽनीता साऽधुना रामसेन्येऽस्तीति लोकोक्तिः।
कदाचित् पृथ्वीमानृण्याय नृपतिना स्वर्णसिद्धये श्रीहेमाचार्याणामुपदेशात् तद्गुरवः श्रीदेवचंद्राचार्याः श्रीसंघनृपतिविज्ञप्तिकाभ्यां आकारिताः। तीव्रतपरायणाः महत्संघकार्य विमृश्य विधिवतविहारेण केनापि अनुपलक्ष्यमाना निजामेव पौषBधशालामागताः राजा तु प्रत्युद्गमादिसामग्री कुर्वन् प्रभुओपितस्तत्राऽऽययौ ।
अथ गुरोः पुरो नृपतिप्रमुखैः समस्तश्रावकयुतैः प्रभुभिादशावर्त्तवंदनकं दत्वा तदुपदेशानंतरं गुरुभिः पृष्ट संघकार्ये सभां विसृज्य जवनिकांतरितौ श्रीहेमचंद्रनृपती तत्पादयोनिपत्य सुवर्णसिद्धिर्याचनां चक्राते । मम बाल्ये विद्यमानेऽस्य सतः ताम्रखंडं काष्ठभारवहकात् याचितवल्लीरसेनाऽभ्यक्तं युष्मदादेशाद्वह्निसंयोगात्सुवर्णी बभूव । तस्या बल्या नामसंकेतादि आदि| श्यतां । इति श्रीहेमाचार्यैरुक्ते कोपाटोपात्छ्रीहेमचंद्रं दूरतः प्रक्षिप्य न योग्योऽसीति । अग्रे मुद्रसपायप्रदत्तविद्यया त्वमजीर्णभाक कथमिमां मोदकप्रायां तव मंदाग्नेर्ददामि । इति तं निषिध्य नृपं प्रत्येतद् भाग्यं भवतां नास्ति येन जगदानंदकारिणी सुवर्णनिष्पतिर्विद्या सिध्यति । अपि च मारिनिवारणजिनमंडितमहीकरणादिपुण्यैः सिद्धे लोकद्वये किमधिकमभिलपसि ? इत्यादिश्य तदैव विहारक्रमं कृतवन्तः। . अथ श्रीकुमारपालदेवस्य भगिनी शाकंभरीशेन बाहुमानवश्येन राज्ञाऽनाकेन-अर्णोराजेन परिणीताऽस्ति । तयोमिथः सारिक्रीडां * कुर्वतोरन्यदा राज्ञा सारिं गृहे मुंचतोक्तं मारय मुंडिकान् पुनर्मारय मुंडिकान् एवं द्वित्रिः राजगुरवः श्वेताम्बरा मुण्डिता इति
हासगर्भोक्तिः। तदाकर्ण्य रानी कुपिता प्राह । रे जंगडक! किं जिह्वामालोक्य नोच्यते । किं वक्ष्यसि न पश्यसि मां । न
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कुमार०
॥ ५९ ॥
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जानासि मम भ्रातरं राजराक्षसं । क्रुद्धो राजा पादघातेन तां जघान । साऽपि आह यदि रे ! तव जिह्वामवटमार्गेण नाकर्षयामि तदा राजपुत्रीं मां मा मंस्थाः । इति वदन्ती एव सा ससैन्येननिर्विलंचं श्रीपत्तनमागत्य श्री चौलुक्यायातं परिभवं स्वप्रतिज्ञां च व्यजिज्ञपत् । राजाऽपि अभाषत पश्य कौतुकमित्थमेव करिष्यामः ।
ततश्चानाकस्तस्यां तत्र गतायां गूर्जरनृपं दुर्धरं विदन् क्षुभितः कुलमायातं स्वसेवकं व्याघ्रराजं दीनारलक्षत्रयं दत्वा भरडकवेषधारिणं श्रीकुमारपालस्य मारणाय प्रैषीत् । एतत्स्वरूपं पूर्व आनाकप्रपंच परिज्ञानाय भूपतिप्रेषितप्रधानपुरुषः प्रीतिप्रीणिता नाकदासीमुखेन ज्ञात्वा विज्ञप्त्या श्रीकुमारपालायऽज्ञापयत् । सावधानैः स्थेयं भरटकविश्वासो न कार्य इति । ततो राजाऽन्यदा लोकव्यवहारेण कर्णमेरुप्रासादे नवीनं भरटकं प्रधानज्ञापितचेष्टया दृष्टमात्रमेवोपलक्ष्य निजपुरुषैर्बद्ध्वा व्याघ्रसंज्ञं प्रकटीकृत्योरुबद्धांक्षुरिकां प्राह रे वराक जंगड ! केन प्रेषितोऽसि १ । सेवकस्य विचाराविचारो नास्ति हिताहितस्य । स्वाम्यादेशवशंवदस्त्वं मा भैषीर्मुक्तोऽसि तमेव हनिष्यामि य एव द्रोहमकरोत् ।
ततः समस्तस्वसैन्यपरिवृतः सपादलक्षदेशसीम्नि गतः श्रीकुमारपाल भट्टेनानाकनृपः प्रोक्तः । “अये भेक ! छेको भव भवतु ते कूपकुहरं, शरण्यं दुर्मत्तः किमु रटसि वाचाटकटुकं ? । पुरः सर्पोदप विषमविषफुत्कारवदनो, ललज्जिहो धावत्यहह भवतो जिग्रसिषया" ॥१॥ एतदाकर्ण्यानाकोऽपि वाजिलक्षत्रयेण पदातिलक्षदशकेन अष्टशतगजैः संमुखमचलत् । स्वदेशतः पंचकोश्या अर्वाक् मेलापकः, तृतीयदिने युद्धं भविष्यतीति निर्णये बहुद्रव्यप्रदानेन परावर्त्तितं रात्रौ चौलुक्यसैन्यं, अर्थो हि परावर्त त्रिभुवनं यतः --
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॥ ५९ ॥
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RAKAR
"दधाति लोभ एवैको रंगाचार्य तां । आरंकशक्रं यत्राद्य-पात्राणि भुवनत्रयी" ॥१॥
तृतीयदिने रणकरणसमये श्यामलमहामात्रेण कलहपंचानने गजे पुरः प्रेर्यमाणे तटस्थान् स्वसामंतान् दुष्टानिरणपीत् , कुमारपालः प्रोवाच श्यामल ! किममी उदासीना इव दृश्यन्ते । तेनोक्तं देव! अरिकृतार्थदानादिति । तव का चेष्टा ? श्यामलोऽपि आललाप देव ! अहं कलहपंचाननो देवश्चेते त्रयः कदाचिदपि न परावर्त्यन्ते । तर्हि संमुखीने दृश्यमाने रिपौः गजं प्रेरय । अत्रान्तरे चारणः प्राह"कुमारपाल! मन चिंतिकरि, चिंतिउं किंपि न होइ । जिणि तुह रज समोपिउं चिंतकरेसिइ सोइ ॥१॥ अन्यस्तु--अम्हे थोडा रिउ घणा इय कारय चिंतिति । सुहनिहालउ गयणउल के उज्जोउ करंति ॥१॥ अपरः कश्चित्-साहसि जुतउं हल वहइ दैव हंतण इकपालि । खेडिम खुंटा टालि, खुंटा विणु खीखइ नही।
त्रयाणां लक्षं लक्षं ददौ । तेषां सुशब्दं लात्वा रणभूमौ द्वयोश्चिरं युद्धं । आनाकसैन्ये चारभटनाम्ना सुभटेन सिंहनादे कृते कलहपंचानने निवर्तमाने कुमारपालः सुबुद्धिमान् स्वमुत्तरीयं पाटयित्वा गजकर्णी पिधाय रणभुवि विधुदुक्षिप्तकरणं दत्वानाकगजस्कंधमारूढः करिगुडां छित्वा भूमौ पातयित्वा हृदि पदं दत्वा रे वाचाट ! स्मरसि वचो मे भगिन्याः १ । पूरयामि तत्प्रतिज्ञां छिनमि ते जिह्वामित्युवाच । ततः काष्ठपंजरे क्षिप्तः दिनत्रयं स्वसैन्ये स्थापितः, जयतोद्यानि उद्घोषितानि, ततः करुणया पुनः शाकंभरीपतिः कृतः उत्खातप्रतिरोपितव्रताचार्यो हि कुमारपालः । अवटजिह्वाकर्षणं टोप्यां पश्चात् जिह्वाकरणं, गंभीरतया स्वभटा नोपालब्धाः । त्यक्तजीविताशास्ते सर्वेऽपि सेवां कुर्वन्ति । मेडतकं सप्तवारं भग्नं । पल्लीकोटस्थाने रुषा
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कुमार०
प्रतिबोध प्रबंधः
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कपर्दकमुप्तं । पुरा मालवीयनृपैगुर्जरदेशे प्रासादाः पातिताः । पापमीरुणा श्रीकुमारपालेन तु रुषा मालवके तिलेक्षुपिषणपापाणयंत्राणि भग्नानि । भनास्ते घाणका अद्यापि संति स्थाने स्थाने दृश्यते । _ ततो ववले परराष्ट्रमर्दनः श्रीचोलुक्यनृपः समायातः श्रीपतने श्रीगुरूणां पादारविंदान् पर्युपास्ति सामायिकपौषधादि करोति । स्वपरदेशेषु नवीनजीर्णोद्धारप्रासादकरणेषु महाप्रयत्नमकरोत् ।
अथ सौराष्ट्रदेशीयेन मुरांकेन राज्ञा प्रच्छन्नं गृहमध्ये प्रविश्य अजा व्यापादिता । कंटेश्वर्या देव्या राज्ञे निवेदितं । तं नृपं विग्रहीतुं श्रीमानुदयनमंत्रिणं सेनानायकं कृत्वा सहस्रकटकबंधेन प्राहिणोद्राजा । स तु पादलिप्तपुरे श्रीवर्धमानं नत्वा श्रीयुगादिदेवं निनसुः पुरः प्रयाणकाय समस्तमण्डलेश्वरानादिश्य स्वयं श्रीशत्रुजयं जगाम । विशुद्धश्रद्धय स्नात्रपूजारात्रिकादिकं विधाय यावच्चैत्यवंदनां विधते । तावत् प्रदीपवतिमादाय मूषकः काष्टमयप्रासादबिले प्रविशन् देवाङ्गपूजकैस्त्याजितः। तदनु स मंत्री समाधिभंगात् काष्ठमयप्रासादविनाशसंभवात देवाशातनां विमृश्य जीर्णोद्धारं चिकीर्षुःश्रीदेवपादानां पुरतो ब्रह्मैकभक्तभूशयनतांबूलात्यागादिकानभिग्रहान् जग्राह । यतः
"एकोऽपि नियमो येन, गृहीतो गृहमेधिना । जिनाज्ञा पालिता तेन, भवाकूपारपारदा" ॥१॥
ततः कृतप्रयाणः स्कंधावारमुपेत्य सेन प्रत्यर्थिना समरेण सह संगरे संजायमाने स्वसैन्ये भग्ने स्वयं संग्रामं कुर्वाणो रिपुप्रहारजर्जरितशरीरो मंत्री रणभूमौ पतितः सकरुणं क्रंदन केनाऽपि बुद्धिमतांगरक्षकेण दुःखकारणं पृष्टः स्वमनसः शल्यचतुष्टयं प्राहा
१ आंबडस्य दंडनायकत्वदापनं। २ श्रीश@जयप्रासादपाषाणमयनिर्मापणं ।
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३ श्रीरवतनव्यपद्या निर्मापणं ।
४ नियामकगुरुं विना मम मृत्युः। .. इति चतुशल्यमस्ति मामिति श्रुत्वा स पाह-आद्यत्रयं तवांगजो बाहडदेवः कारायष्यति आराधनार्थ साधुमानयामीति मंत्रिणं विज्ञप्य स्वयमग्रे गत्वा साधुवेषधरं राजपुत्रमेकं लात्वा समायातः । तत्समक्षं दशधाराधनां विधाय समाधिधीरचितः स्वीकृतानशनः श्रीमानुदयनः परलोकमसाधयत् । साधुवेषधरोऽपि नेमिदृष्टौ अनशनपरो मृत्वा स्वर्ग गतः । ततोऽङ्गरक्षके
णागत्योदयनस्वरूपे प्रोक्ते तज्ज्येष्ठपुत्रो बाहडोऽभिग्रहचतुष्टयं जग्राह निजपितुः, ततो बाहडः स्वभ्रातरांबडस्य दंडनाTOMयकत्वमदापयत् । स्वयं राजाऽऽदेशेन पैतृकवेरेण च ससैन्यः पुनः सुराष्दायांगत्वा वैरिणं समरनृपं रणाङ्गणे निर्जित्य श्रीपत्तने
श्रीकुमारपालनरेश्वराय गजाश्वभांडागारसहितं तन्मस्तकं समर्पयामास । तदनु राजा तन्मस्तकं वंशे बध्वा सर्वत्र देशमध्ये भ्रामितं च उक्तं 'यः प्रच्छन्नं जीववधं करिष्यति तस्य शिरच्छेदो भविष्यति ।
ज्ञामादाय श्रीरेवतके त्रिषष्टिलक्षद्रव्यव्ययेन नवीनां सुगमां पाद्यामकारयदंबिकाप्रक्षिप्तमार्गेण महतोपक्रमेण, वर्षद्वयेन श्रीशत्रुजयप्रासादे द्वारे निष्पन्ने वर्धापिनिकापुरुषस्य द्वात्रिंशत्स्वर्णजिह्वा दत्ता । यतः
"भवंति भूरिभिर्भाग्यै धर्मकर्ममनोरथाः। फलंति यत्पुनस्तेऽपि तत्सुवर्णस्य सौरभं" ॥१॥ - विद्युत्पाताद्विदीर्णे पुनः कथकपुरुषस्य द्विगुणा वर्धापनिका । अस्मासु जीवस्सु विदीर्णस्तदा भव्यं जातं पुनरपि द्वितीयमुद्धारं करिष्याम इति ।
"प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः, प्रारभ्य विघ्नभयतो विरमन्ति मध्याः। विघ्नैः सहस्रगुणितैः प्रतिहन्यमानाः, प्रारब्धमुत्तमगुणा न परित्यजन्ति" ॥१॥
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कुमार०
Develप्रतिबोध
प्रबंध:
॥६१॥
एवं विमृश्य भूपमापृच्छय महदिने तुरंगमाणां चतुर्भिः सहस्रैः श्रीशत्रुञ्जयं पाप । तत्र बाहडपुरनगरं न्याऽस्थत् । भ्रमतीयुते प्रासादे पवनप्रविष्टो न निर्यातीति स्फुटनहेतुं शिल्पिभिनिर्णीय भ्रमतीहीनेषु मासादेषु निरन्वयताकारणं ज्ञात्वा मदन्वयाभावे धर्मसंतानमेवस्तु । पूर्वोद्धारकारिणां श्रीभरतादीनां पंक्तौनामाऽस्तु यतः त्वरितं किंकर्तव्यं विदुषा संसारसंततिच्छेदः' इति दीर्घदर्शिन्या बुद्धया विमृश्य भ्रमतीभित्तौ अंतरालं शिलातिनिचितं विधाय वर्षत्रयेण निष्पन्ने प्रासादे कलशदंडप्रतिष्ठायां श्रीपत्तनसंघं निमंत्र्याऽऽनीय महता महेन संवत् १२११ वर्षे ध्वजाधिरोपो मंत्री कारयामास । शिलामयबिंबस्य सम्माणीसत्कपरिकरमानीय निवेसितवान् । श्रीबाहडपुरे नृपतिपितुर्नाम्ना त्रिभुवनपालविहारे श्रीपार्श्वनाथं स्थापितवान् । तीर्थपूजाकृते चतुर्विंशत्यारामान नगरपरितो व देवलोकस्य ग्रासवासमुख्यं सर्व कारयामास । अस्य तीर्थोद्धारस्य व्यये द्विकोटिसप्तनवतिलक्षयता व्ययिता वारद्वयं मेलयित्वा। पाठांतरे___"लक्षसप्तयुताकोटी व्ययिता यत्र मंदिरे । स श्रीवाग्भटदेवोऽत्र वर्ण्यते विबुधैः कथं" ॥१॥
॥इति तिर्थोद्धारप्रबंधः॥ अथ विश्वविश्वकसुभटेनांबडेन स्वपितुः पुण्यार्थं तु शकुनिकाविहारस्य भृगुकच्छे जीर्णोद्धारे कार्यमाणे रात्रौ नमः दादेवी मिथ्यादृष्टिर्दिननिर्मितं पातयति । सर्वः कोऽपि तत्र बिभेति । अन्यदाऽम्बडः स्वंबलिं प्रकलप्य तत्र रात्रौ स्थितः। समायाता देवी, तत्साहसेन तुष्टा सती प्रासादकरणे साहाय्यमकरोत् । ततः संपूर्णे निष्पन्ने प्रासादे कलशध्वजप्रतिष्ठासमये श्रीहेमसूरिः श्रीकुमारपालः सपरिकरः श्रीपत्तनादिबहुग्रामनगरश्रीसंघः समैयरुः अशनवसनभूषणादिभिर्दानैः श्रीसंघ सत्कृत्य
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ध्वजाधिरोपाय संचरन अर्थिभिः स्वयं मंदिरं भूषितं कारयित्वा सुमुहर्ते कलशारोपण-धजारोहणादि कृत्वा हर्षोत्कर्षात्तत्र लास्य विधायाऽऽरात्रिकं गृह्णन् राज्ञा कृतमंगलतिलकः स्वयं राज्ञा पुनः भेर्यमाणो द्वासप्ततिसामंतश्चामरपुष्पवर्षादिभिः कृतमहोत्सवः प्रदत्तं कंकणकुण्डलहारगजाश्वादिमहादानो बाहुभ्यां धृत्वा बलात्कारेण नृपेणावतार्यमाणाऽऽरात्रिकमंगलप्रदीपः । श्रीसुव्रतस्वामिनः श्रीगुरोश्चरणौ प्रणम्य साधार्मिकवंदनां कृत्वा नृपतिं सत्वरारात्रिकहेतुं पप्रच्छ राजा प्राह मंत्रिन ! यथा द्यूतकारो द्यूतरसातिरेकेण शिरःप्रभृतीन पदार्थान् पणीकुरुते तथा भवानपि सर्व दत्वा मा कस्मैचि दानातिरेकाशिरोऽपि पणीकरोतु । तद् मूल्यं मया सर्वस्त्रदानेऽपि न छुटयते इति । एतदाकर्ण्य सर्वेऽपि चमत्कृताः प्रमुदिताश्च केनापि पठितं कविना ।
"किं कृतेन न यत्र त्वं, यत्र त्वं किमसौ कलिः । कलौ चेद् भवतो जन्म, कलिरस्तु कृतेन किं" ॥१॥ लक्षदानमत्र ।
ततः श्रीसंघलोकाः स्वं स्वं स्थानं जग्मुः-यथोचिता बाहडमंत्रिणा सत्कृताः। कृतांबडप्रशंसौ श्रीगुरुक्ष्मापती यथागतं जग्मतुः।
अथ श्रीपत्तने समागतानां प्रभूणां श्रीमदांबडस्याकस्माद्देवीदोषात् पर्यंतदशांगतस्य विज्ञप्तिकाऽऽययौ । तां वाचयित्वा तत्कालमेव तस्य महात्मनः प्रासादशिखरे नृत्यतो मिथ्यादृशां देवीनां दोषः संजातः इत्यवधार्य प्रदोपसमये यशश्चन्द्रतपोधनेन समं विद्याबलात् गगनांगणेन भृगुपुरपरिसरिसमागत्य सैन्धवी देवीमनुनेतुं कृतकायोत्सर्गास्तया जिह्वाकर्षणादवगणिताः श्रीहेमसूरयः । उदूखले शालितन्दुलान् क्षिप्य यशश्चंद्रेण दीयमाने मुशलप्रहारे प्राक् प्रासादप्रकम्पोऽभूत् । द्वितीयप्रहारे देवी
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मूर्त्तिश्चकं । तृतीयप्रहारे स्वस्थानादुत्पत्य देवीमूर्तिमां रक्ष रक्षेति जल्पती श्रीगुरुचरणयोः पपात । इत्थमनवद्यविद्याबलान्मिथ्यादेवदोषं निगृह्य श्रीजिनशासनप्रभावनां कृत्वा श्रीसुव्रतजिनं नत्वा श्रीआं बडस्योल्लाघस्नाने जाते देवीमापृच्छय यथापथमगुः। श्री उदयनचैत्ये कर्णावत्यां श्रीशकुनिकाविहारे राज्ञो घटीगृहे कौंकणनृपतेः कनकमयं कलशत्रयं स्थानत्रये न्यास्थदांबडमंत्री राजपितामहः ।
_ अथ कस्मिन्नष्यवसरे सपादलक्षं प्रति सैन्यं सज्जीकृत्य श्रीबाहडांबडानुजन्मा चाहडनामा मंत्री दानशौण्डतया दूषितोsपि भृशमनुशिष्य भूपतिना सेनापतिश्चक्रे । तेन द्वित्रिप्रयाणानंतरमस्तोकमर्थिलोकं मिलितमालोक्य कोशाध्यक्षात् द्रव्यलक्षत्रये याचिते सति नृपादेशात् तस्मिन्नददाने तं कशाप्रहारेणऽऽहत्य कटकानिवासयत् । स्वयं यदृच्छया दानैः प्रीणिता - थिंलोकः चतुर्दशशती संख्यासु करभीष्वारोपितैर्द्विगुणैः सुभटैः समं संचरन् शिघ्रं स्तोकप्रयाणैः रात्रौ मार्गिताऽदत्तैकप्रच्छादनवस्त्रकृते बिंबेरानगरप्राकारमवेष्टयत् । तस्मिन् नगरे तस्यां निशि सप्तशतीकन्यानां विवाहः प्रारब्धोऽस्ति इति नगरलोकादधिगम्य तद्विवाहार्थं तस्यां निशि स्थित्वा प्रातः प्राकारपरावर्त्तमकार्षीत् । तत्र गृहीताः सुवर्णकोट्यः सप्त । एकादशसह - स्राणि वडवानां प्राकारं घरद्वैवर्णीचकार । इति संपत्तिगर्भितां विज्ञप्तिकां वेगवत्तरैर्नरैनृपं प्राहिणोत् । स्वयं तत्र देशे कुमारनृपतेराझं दापयित्वा अधिकारिणो नियोज्य व्याघुटितः, सप्तशतीं कलावतां तंतुवायानां आदाय श्रीपत्तनं प्रविश्य राजसभामधिगम्य नृपं प्रणाम । श्रीकुमारपालस्तमावर्ज्य तदुचितालापावसरे तद्गुणरंजितोऽप्येवमवादीत् । तव स्थूललक्ष्यतैव महदूषणं । रक्षामन्त्रः नो चेच्चक्षुर्दोषेण एव विदीर्यसे । यद्वययं भवान् कुरुते तादृक् कर्त्तुमहमपि न प्रभुः । इत्यादि श्रुत्वा बाहडो नृपं प्रत्यवोचत् । तथ्यमेतद् यद् आदिष्टं देवेन यतः पितुः पुत्रः कोशबलेन व्ययं करोति । पिता तु कस्य बलेन करोति १ तेन
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प्रतिबोध प्रबंधः
॥ ६२ ॥
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मयैव साधीयान् द्रव्यव्ययः क्रियते इति वदन् प्रमुदितेन राज्ञा सत्कृतः। संसद्यनयंतां लभमानो राजघरट्टविरुदं लब्ध्वा नृपतिविसृष्टः स्वं पदं प्रपेदे, सप्तशतीतन्तुवायानां छत्राऽधःस्नानं काराप्य पवित्रीकृताः, तस्य भ्राता स्वकीयौदार्यावजितसमस्तराजवर्गः सोलाकः सामंतमण्डलीसत्रागारमिति विरुदं बभार ।
अथान्यदा राजा सप्ततिसामंतैः सहितः श्रीगुरूणां पार्श्वे धर्मदेशनामशृणोत् । "भवेह अणिञ्चत्तं जुब्वण, धणसयणअत्थदाराणां । देहस्स जीवियस्स य इक्कंपि न पिच्छहे निश्चं' ॥१॥ | ___ इत्यादि श्रुत्वा राजा संसाराऽसारतां विभाव्य भवभावविमुखपरिणामः संवेगरसरंगितांतःकरणः श्रीगुरून् प्रणम्य पप्रच्छ भगवन् ! अद्य का तिथिरिति ? श्रीगुरवः सहसाऽमावास्यादिने पूर्णिमेत्याहुः । अत्र वामराशिर्लब्धावकाशो मिथ्याग् बाह्यमित्रोऽप्यांतरशत्रुराह 'अहो ! कलिकालसर्वज्ञः श्रीहेमसूरिश्वेदद्य पूर्णिमां कथयति तदा लोकानां भाग्येन पूर्णिमैव भविष्यति । इत्युपहासगर्भ वचः श्रुत्वा श्रीगुरवः प्राहुः सत्यमेतद् भवद्वचः । तेनोक्तं कोत्र प्रत्ययः ? श्रीगुरुभिरुक्तमहो! केयं भवतश्चातुरी चंद्रोदय एव प्रत्ययः। इति श्रुत्वा सर्वेऽपि विस्मयस्मेराः परस्परमाहुः, किमित्थमपि भविष्यति? ततो राजा विस्मयगतस्वान्तवामराशिद्वासप्ततिसामंतादिवृतो राजसभामागत्य व चंद्रोदयो भविष्यतीति परिज्ञानाय घटीयोजनगामिकरभ्यारूढान् निजपुरुषान् पूर्वस्यां दिशि प्राहिणोत् ।
ततः श्रीहेमसूरिः पूर्वप्रदत्तवरसिद्धचक्रदेवप्रयोगेन पूर्ववत् पूर्वस्यां दिशि संध्यासमये चंद्र उदयं कृत्वा सकलां रात्रिं IM ज्योत्स्नामयीं विधाय चतुरो यामान् गगनतलमवगाह्य सर्वलोकसमक्षं प्रत्यूषे पश्चिमायां गतोऽस्तमगात् । प्रभाते प्रेषित
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कुमार
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पुरुषैरपि समागत्य तथैव प्रोचुः । सर्वेषां महान् विस्मयोऽभूत् अहो! श्रीगुरूणां काऽपि महती शक्तिः । अहो जैनानां कोऽपि महामहिमा लोकोत्तर इति जनोक्तिरभूत ।
अथ राजा तेषां विप्रादीनां च्छलवचनं स्मरन् श्रीगुरूणां पुरः प्रश्नमकरोत् भगवन् ! सत्स्वपि बहुदर्शनेषु ब्राह्मणानां कस्माजिनधर्मे महान् द्वेषः । तत्र श्रीगुरुः प्राह राजन् पुरा प्रथमजिनो युगादौ विहरन् विनीतासन्ने पुरिमताले पुरे सम| वसृतः । भरतचक्री जिनस्याष्टौनवतिभातृसाधूनामागमनं श्रुत्वा खादिमादिशकटानि भृत्वा तत्र गतः । प्रभुं प्रणम्य धर्मदेशनां श्रुत्वा भक्ताद्यर्थ साधूनां निमंत्रणामकरोत् । श्रीभगवान् प्राह राजन् ! आधाकर्मिकाभ्याहृतराजपिण्डादिदोषदूषितमिदं भक्तादि साधूनामकल्प्यमिति श्रुत्वा दूनं श्रीभरतं ज्ञात्वा शक्रः प्राह-मा विषादं कुरु सर्वज्ञशासने सप्तक्षेत्राणि सन्ति श्रीजिनभुवन-जिनबिम्ब-जिनागम-चतुर्विधसंघरूपाणि । तत्र ये साधर्मिका गृहारंभपराङ्मुखाः संयमपरिणामभाजः संवेगवैराग्यजुषस्तेषां वात्सल्यं कुरु । इति सुरेन्द्रवचः श्रुत्वा राजा भरतः पूर्वानीतवस्तुभिः साधर्मिकवात्सल्यमकरोत् । तेषां गृहारंभादिकं निवार्य वृत्तिमकार्षीत् । गृहस्थाचारविचारं चतुरध्यायनिबद्धं श्राद्धं श्रावकप्रज्ञप्तिग्रंथमर्थतो जिनप्रणीतं । देशविरतास्ते पठंति "मा हन मा हन" इति परेषां कथयन्ति ते माहना इति लोके प्रसिद्धिमगुः । कालेन तेषां वृद्धिरभूत् । ततः षष्ठे षष्ठे मास्याचारग्रंथपठनादिकां परीक्षां कृत्वाऽयं ज्ञानदर्शनचारित्राचारशुद्ध इति काकिण्या रत्नेन कण्ठे रेखात्रयं कृतं । ततः कालेन परीक्षापूर्व कनकसूत्रत्रयं क्रमेण रौप्यं जातं । ततः कालेन नवमदशमजिनयोरंतरे सकलसाधुव्युच्छेदे सति सर्वेषां लोकानामपरधर्मप्रकाशकाभावादेते गुरवः संजाता। क्रमेणाऽब्रह्मचारिणः कण्ठे सूत्रत्रयधारिणश्चाऽभूवन् । ततः क्रमेणोत्पन्न
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केवलज्ञाने दशमजिने धर्म प्रकाशयति गृहारंभे प्रवृत्तोऽब्रह्मचारी गुरुर्न भवति इत्युक्ते तेषां जिनधर्मे च महान् द्वेषोऽभूत् । लोकानामपि मूढमतीनां द्वेषमुत्पादयन्ति । ततः कालेन मिध्यात्वं गताः । यदुक्तं -
"समवसरण भत्त उग्गह, अंगुलिझय सक सावया अहिया । जं आवट्टइ कागिणि लंछण, अणुमज्जणा अट्ठ" ॥१॥ "अस्सावग पडिसो हो, छट्ठे छट्ठे य मासि अणुओगो । काले य मिच्छत्तं, जिणंतरे साहुवुच्छेउ" ॥२॥
इति द्वेषकारणं ब्राह्मणानां श्रुत्वा राजा चिंतयदहो चंद्रमण्डलादग्निः सुधाकुण्डाद्विपं प्रादुरभूत् । लोकानामभाग्योदयेन श्रीजिनधर्मान् मिथ्यात्वमभूदिति । श्रीगुरवः प्राहुः राजन् एते तु दर्शनांतरं प्रतिपन्नाः सन्ति । कालेन केsपि निवाः केsपि निवाभासाः श्रीजिनवचनान्यथावादिनः स्वमतिप्रकल्पितमतपक्षपातिनः साधुवेषधारिणोऽपि साध्याभासा प्रमादशीलत्वेनांलबनपराः परलोकनिरपेक्षा अनेकधा मतभेदानकार्षुः एवं राजन् स्वमतेऽप्यनेकमतिभेदा अभिमानाज्ञान परवशैः प्रकल्पिताः सन्ति ।
अन्यदा कोsपि मत्सरी श्री हेमसूरेः तेजोऽसहिष्णुरेकांते राजानमिदमवादीत् देव ! प्रायः प्राकृतमेते पठन्ति सिद्धांतोऽप्येषां प्राकृतमयः तत्प्रभाते न श्रोतव्यमिदं, संस्कृतं स्वर्गीणां भाषा, सैव महतां प्रत्यूषे श्रोतव्या श्रेयस्करी चेति किमर्थं प्रथमं तच्छवणं विधीयते । एतदाकर्ण्य राजाऽविज्ञातभाषाभेदतच्चः किंचित् प्राकृते कृतादरः तत्स्वरूपं श्रीगुरूणामकथयत् । श्रीगुरवः प्राहुः अनुपासितसद्गुरुकुलस्य अविज्ञातवाङ्मयतत्त्वस्य कस्याऽपीदं वचः । राजन् ! अनेकधा भाषाभेदवैचित्र्येऽपि
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प्रबंध:
॥६४॥
परं युगादौ प्रथमपुरुषेण ज्ञातत्रैलोक्यस्वरूपेण प्रथमं चतुर्दशस्वराष्टत्रिंशद्वयंजनरूपा द्विपंचाशदक्षरप्रमाणा मातृकैवोपदिष्टा सा च प्राकृतस्वरूपा । सर्वप्रकृतिलोकानामुपकारिणीति । ततो बाह्या येऽष्टत्रिंशद्वर्णास्तैः संस्कारे कृते संस्कृतं जातं । ततश्च अनेकभाषाभेदाऽभूवन् । तेन सकलशास्त्रमूलं मातृकारूपं प्राकृतमेव प्रथमं । युगादौ सर्वज्ञैरिति लोकोपकाराय प्रथमं प्राकृतमुपदिष्टं । सर्वाक्षरसन्निपातलब्धीनां श्रीद्वादशांगीनिर्माणसूत्रधाराणां श्रीगणधराणां सिद्धांतप्राकृतकरणे कारणमिदं। बालस्त्रीमूढमूर्खाणां, नृणां चारित्रकांक्षिणां । अनुग्रहार्थ तत्त्वज्ञैः, सिद्धांतः प्राकृतः कृतः ॥१॥
राजन् ! भवतु भाषायामपि सापि परं परमार्थ एव लोक्यते। यत् पठन्ति लोकाःअत्थि निवे सा तत्थ य, सदा तत्थेव परिणमन्ति । विउत्ति विसे सोकतं, भासा जा होउ सा होउ ॥१॥
परं कस्यापि ज्ञानलवदुर्विदग्धस्य खंडखंडपाण्डित्यतुंडकंडूकरालितस्याऽयं प्राकृतनिदायां युक्तं'सा होई सुहावेइ उव, भुंजत्येलर्वे विलत्थीए । एसा सरस्सह पुण असमग्गा कं नवि नडेइ ॥१॥
इति श्रुत्वा राजादयः सर्वेऽपि प्राकृतप्रशंसां कुर्वन्तो विशिष्य तदर्थश्रवणप्रवणा बभूवुः । एवं श्रीहेमसूरिभिरनेके कुतीथिनः प्रवादाः सज्जनसभायां निरुत्तरीकृताः श्रीसर्वज्ञशासनस्यैकातपत्रं साम्राज्यं कारितं । राजप्रतिबोधश्च कृतः।
अथान्यदा राजा श्रीजिनशासनप्रभावनां कर्तुकामः संघाधिपतिमनोरथमकरोत् । प्रथमं श्रीतीर्थमहिमा श्रीगुरवः प्राहुः राजन् ! त्रिभुवनेऽपि श्रीजिनमयानि तीर्थानि सन्ति यदुक्तं-श्रीभद्रबाहुस्वामिना चतुर्दशपूर्वधरेण श्रीआचारांगनियुक्तो
॥६४॥ जम्माभिसेय निक्खमण, चवणनाणुप्पयाय। निव्वाणे दियलोयभवणमंदरनंदीसरभोमनगरेसु ॥१॥
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अट्ठावयमुज्जिंते, गयग्गपयए य धम्मचक्के य । पासरहावत्तनगं, चमरुप्पायं च वंदामि ||२||
परं राजन् ! संप्रति काले प्रत्यासन्नं महाप्रभावं च श्रीशत्रुंजयतीर्थ यदुक्तं श्रीअतिमुक्तमुनिना नारदस्य पुरः 'जं लहइ अन्न तीत्थे, उग्गेण तवेण बंभचेरेण । तं लहइ तित्थपुन्नं सित्तुज्जगिरिम्मि निवसतो' ॥१॥ 'केवलनाणुप्पत्ती, निव्वाणं आसि जत्थ साहूणं । पुंडरियं वंदित्ता, सव्वे ते वंदिया तित्था' ||२|| 'अट्ठावयसम्मेए, पावा चंपा य उजिंतनगे य । वंदित्ता पुन्नफलं, सयगुणं तं पि पुंडरीए ॥३॥ 'पूयाकरणे पूनं, एगगुणं सय गुणं च पडिमाए । जिणभवणेण सहस्संऽणंतगुणं पालणे होई ॥४॥ 'नवि तं सुवण्णभूमी, भूसणदाणेण अन्नतित्थेसु । जं पावइ पुन्नफलं, पूआन्हवणेण सित्तुंजे ' ॥५॥ 'जं नाम किंचि तित्थं, सग्गे पायालि तिरियलोगंमि । तं सव्वमेव दिट्ठ, पुंडरिए बंदिए संते' ॥६॥ श्रीविद्याप्राभृते तु श्रीशत्रुंजयस्यैकविंशतिनामानि प्रोक्तानि -
विमलगिरि १ मुक्तिनिलयः २ श्रीशत्रुंजयः ३ सिद्धक्षेत्रः ४ पुंडरीकः ५ सिद्धशेखरः ६ सिद्धपर्वतः ७ सिद्धराजः ८ बाहुबलिः ९ मरुदेवः १० भगीरथः ११ सहस्रपत्र : १२ शतपत्रः १३ अष्टोत्तरशतकूटः १४ नगाधिराजः १५ सहस्रकमलः १६ ढंकः १७ कपर्दिनिवासः १८ लौहित्य: १९ तालध्वजः २० कदम्बः २१ ।
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॥ इति देवमनुष्यकृतानि नामानि ॥
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कुमार
प्रतिबोध प्रबंधः
॥६५॥
श्रीभद्रबाहुस्वामिप्रणीतश्रीवज्रस्वामिनोद्धतः ततः श्रीपादलिप्ताचार्येण संक्षिप्तिकृते श्रीशत्रुञ्जयकल्पेऽप्युक्तं
योऽवसपिण्यां षट्सु अरकेषु अशीति-सप्तति-पष्टि-पंचाशत-द्वादशयोजन-सप्तकरप्रमोऽभूत् । उत्सपिण्यां पुनरुपचीयमानः यस्मिनसंख्याता ऋषभसेनाद्यास्तीर्थकराः समवसताः। श्रीपद्मनाभमुख्यास्तीर्थकराः समेष्यति । श्रीनेमिवर्जास्त्रयोविंशतिः ऋषभाद्याः समवसृताः। महाविदेहनिवासिनोऽपि सम्यग्दृष्टयो लोका मानसिकभावेन नित्यं स्मरणं कुर्वन्तीति । प्रथमं श्रीऋषभकेवलोदयाद्धरतेन प्रमाणोपेतं रत्नमयं हेम्यं रूप्यं च विम्बत्रयं कारितं । द्वाविंशतिदेवकुलिकाकलितं हेमचैत्यं च । ततोऽसंख्याता उद्धारा जाताः प्रतिमाश्च असंख्याताः कोटाकोट्यश्च सिद्धाः, पुंडरीकगणधरः पंचकोटिभिः सह मुक्तिगतो, द्राविडवारिखिल्लादयो दशकोटिभिः, नमिविनमी विद्याधरौ कोटिद्वयेन, श्रीऋषभसंताने भरतेश्वरराज्ये आदित्ययशाः, महायशाः, अतिबलः, महाबलः, बलभद्रः, बलवीयः, कार्तवीर्यः, जलवीर्यः, दंडवीर्यः, त्रिखंडभोक्तारः प्रथमसंघाधिपतिश्रीभरतेश्वरवत् प्राप्तसंघाधिपत्या आदर्शभवनप्राप्तकेवलज्ञाना बहुतरेक्ष्वाकुराजकुमारपरिवृताः श्रीशत्रुजये सिद्धाः । अन्येऽपीक्ष्वाकुवंशराजान आदित्ययशाद्याः सगरपर्यताः पंचाशतकोटिलक्षसागराणि यावत सर्वार्थसिद्धयन्तरित चतुर्दशलक्षादिश्रेणिभिरसंख्याताभिरत्र मुक्तिं गताः। श्रीरामादीनां कोटित्रयं सिद्धं, पाण्डवानां विंशतिकोट्यः, प्रद्युम्नशाम्बादीनां साधअष्टौ कोट्यः, नारदाद्याः एकनवति लक्षाः । अत्रैवाजितशांतिजिनौ वर्षाकालमवस्थितौ। मरुदेवीचैत्यं स्वर्णमयं पुरा बाहुबलिना कारितं । मरुदेवीसमीपे शान्तिचैत्यं पुरा सुवर्णमयं । तदने त्रिंशता हस्तैरधः पुरुषसप्तकेन सुवर्णरूप्यखानिद्वयं । ततो हस्तशतेन पूर्वद्वाररसकूपिका, श्रीशांतिचैत्यात् हस्ताष्टकेनोद्धारयोग्यं सुवर्ण पादलिप्ताचार्योपदेशेन नागार्जुनेन स्थापितमस्ति इति लोकोक्तिः।
अष्टमतपसा तुष्टः कपर्दियक्षः श्रीभरतकारितां प्रतिमां वंदापयति यदि कश्चित्सत्ववानेकावतारी भवति ।
॥६५
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कल्किपुत्रो दत्तोनाम तीर्थं सपूजं कारयिष्यति, तत्पुत्रो मेघघोषवोद्धारं ततः २२१४ अनंतरं । 'नंदीसूरी अज्जे सिरिष्यभे, माणिभद्द जसमित्ते । धणमित्त धम्मवियडे सुमंगले सुरसेणे य' ॥१॥ 'एए होइ उद्धारकारया, जाव सूरिदुप्पसहो । पश्चिम उद्धारकरो होइ, इह विमलवाहण उ' ||२|| 'च्छिन्ने तिय तित्थे, होही कूडं तु उसहसा मिस्स । जायउ सनाहतित्थं, सुराइकयपूयसंज्जुतं' ॥३॥ इति तीर्थमहिमा ।
अथ राजन् ! रैवतकतीर्थमपि महासुप्रभावं प्रत्यासन्नं च वर्तते । अस्य महिमा श्रीविद्याप्राभृते तीर्थमाहात्म्यं गणधरैरुक्तं । श्रीभारत्या कांचनबलानके श्रीनेम्यादिमूर्तिं नमस्करणाय गतया नारदस्य पुरः प्रोक्तस्तेन च लिखितः, इदं तीर्थमनादियुगीनमाहुः । अवसर्पिण्यामयं शैलः षट्विंशति- विंशति - षोडश - दश - द्वियोजन - धनुःशतोच्चशिराः । अनादिकाले यस्मि - ननन्तार्हतो सिद्धाः । यस्याकारं सुरासुरनरेशास्त्रिभुवनेऽपि पूजयन्ति । अनंततीर्थकृतामत्र कल्याणकत्रयमभूत् । अतीतचतुर्विंशतिकायां नमीश्वरादीनामष्टजिनानां कल्याणकत्रयमभूत् अस्यां श्रीनेमिनाथस्य च भाविकाले श्रीपद्मनाभाद्या द्वाविंशतिजिना इह सेत्स्यन्ति । इयं मूर्तिर्ब्रन्द्रकृताऽस्या विंशतिसागरोपमकोट्योऽभूवन् । श्रीऋषभादेशात् भविष्यतो नेमेर्मूर्तिर्हेमीरूपा च भरतेन पूर्वं स्थापिता । रत्नमयी चेंद्रार्पिता अस्यतः कांचनबलानके शक्रनिर्मिता रत्नमूर्तिरस्ति शक्रकृतं गजेंद्रपदकुंडं, सर्वर्तुकं भद्रशालवनं, पूजार्थं पंचमारपर्यंते श्रीनेमिमूर्त्तिः स्वर्गे सुरेन्द्रपूज्या भविष्यति । उत्सर्पिण्यां पुनरत्र यस्य ध्यानेनाऽन्यत्रापि स्थिता भव्या भवचतुष्केन मोक्षं यांति । इदं तीर्थं सर्वदा सुरासुरार्च्य श्रीभद्रबाहुप्रणीतं श्रीव्रजस्वामिनोद्धृतं स्वरूपमिदं 'छत्तसिलाऐ' (सिलासाण ) दिक्खं पडिवनो नेमी, सहसंबवणे केवलनाणं, लक्खारामे देखणा, अवलोयणं
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कुमार
प्रतिबोध प्रबंधः
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उच्चसिहरे, निव्वाणं रेवईयमेहलाए । कन्हो तत्थ कल्लाणतिगं नाऊण सुवण्णरयणपडिमालंकीयं चेईयतिनं अंबादेविच कारावेइ । इंदो वि गिरि कोरिऊण सुवनवन्नं बलाणयं रूप्यमयं चेइयं रयणमया पडिमा पमाणवनोपवेया सिहरे । अंबारंगमंडवे अबलोयणसिहरं बलाणयमंडवे संघो सिहविगायगो पडिहारो तहा सत जायधा दामोदरागुरुवा । कालमेह १ मेहनाद २, गिरिविदारण ३, एकपाद ४, सिंहनाद ५, खोडिक ६, रेवत ७, नामानः तिव्वतवेणं कीडणेणं खिन्नवाला उववन्ना । तत्थ य मेहनादो सम्मद्दिट्ठी नेमिकमभत्तो । मेहलाए गिरिविदारणो । कंचणवलाणए चउद्दारे तत्थ अंबाएसेण पवेसो नन्नहा तहा अंबापुरउ हत्थवीसाए विवरं तत्थ य अंबाएसेणं उववासतिगेणं सिलुग्घडणं हत्थवीसाए । सट्ठसत्तगं समुग्गयपंचयं अहो रसकूविआ । अमावाए अमावाए उघडेइ गिन्हज्जइ । अंबाएसेण तहा पजन्नकूडे उववासतिगं काउण सरलमग्गेण बलिपूअणेणं सिद्धिविणायगो लहइ । तत्थ य चिंतिया सिद्धी जिंदिणमेगं हाइयव्वं । जइ पञ्चक्खो हवइ तउ राइमईए गुहाए कमसएण गोदोहियाए पवेसे रसकूपिया किसिणचित्तवल्ली राइमईए पडिमा रयणमया अंबा रूपमया वदंति । तहाछत्तसिलाघंटसिलाकोडिसिला तिगं पनत्तं । छत्तसिलामझ मज्झेणं कणयवल्ली सहसंबवणमझे रययसुवण्णमय चउवीसं लक्खारामे धावत्तरि चउवीसं जिणाण गुहा पन्नत्ता कालमेहस्स पुरउ सुवर्णवालुयाए नईए सट्टकमसयतिएणं उसरदिसाए गमिता गिरिगुहं पविसित्ता न्हवणं उदएण काऊण उपवासपंचहि दुवारमुग्घडइ मज्झे पढमद्वारे सुवन्नखाणी अए रयणखाणी, तत्थ एगो कन्हभंडारो अन्नो दामोदरसमीवे अंजणसिलाए अहोभागे रययसुवण्णधली पुरिसबावीसेहिं पन्नत्ता।
६६॥
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| 'तस्सद्ध माणमंगल य, देवदालीय संतु रससिद्धी । सिरिवयरोववक्खोऽयं, संघसमुद्धरण कजंति' ॥१॥ A 'सस्स कडाहमज्झे, गिण्हित्ता कोडिबिंदुसंजोए। घंटसिला बुन्नय जोयणाउ, अंजणग वरसिद्धी' ? ॥२॥
... रत्नजातिमहौषध्यादिकं यद्विश्वत्रये वर्त्तते तत्सर्वमत्राऽस्ति । अन्यान्यपि चित्ताहदकानि पुण्यानि श्रीजिनमयानि तीर्थानि ग्रामपुरपत्तनपर्वतादिषु संति । तेषु सर्वत्र शासनप्रभावकाः सुश्रावका दर्शनविशुद्धयर्थ तीर्थयात्रां कुर्वन्ति । करणी
यमेतत् कृतं पुरा श्रीभरतेश्वरादिभिर्भूपतिभिः। एतत् श्रीतीर्थद्वयमाहात्म्यमाकर्ण्य राजा सपरिकरस्तीर्थयात्रासामग्रीमकारयत। EMI महता महेन श्रीदेवालयप्रस्थाने संजायमाने देशांतराऽऽयातपुरुषयुग्मेन त्वां प्रति डाहलदेशीयः श्रीकर्णनृपतिरुपैति इति विज्ञप्तः। स्वेदबिंदुतिलांकितं ललाटं दधानो मंत्रिवाग्भट्टेन साकं साध्वसं वस्तसंघाधिपत्यमनोरथः प्रभोः पदांते स्वं निनिंद । 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि, भवन्ति महतामपि । अश्रेयसि प्रवृत्तानां क्वाऽपि यान्ति विनायकाः॥१॥
अथ नृपते तस्मिन् महाभये समुपस्थिते किंचिंदवधार्य द्वादशे यामे भवतो निवृत्तिभविष्यति इति आदिश्य विसृष्टो नृपः किंकर्तव्यता मूढो यावदास्ते तावत् निर्णीतवेलासमागतनरयुग्मेन श्रीक) दिवं गत इति विज्ञप्तः । तांबुलमुत्सृज्य कथमिति पृष्टौ तौ ऊचतुः कुंभिकुंभस्थलस्थः श्रीकर्णो निशि प्रयाणं कुर्वन् निद्रामुद्रितलोचनः कण्ठपीठप्रणयिना सुवर्णशृंखलेन प्रविष्टवटशालपादेन उल्लंबितः पंचत्वमंचितवान् । तस्य संस्कारानंतरमावां चलितौ इति ताभ्यां विज्ञप्ते तत्कालं द्वासप्रतिमहासामन्तैः समं राजा श्रीतीर्थयात्राभेरीमवादयत् । सर्वदेशेषु कुंकुमपत्रिकां प्रैषीत् । तत्र श्रीसंघमेलापके स्वगजाश्व| रथपत्तिपरिवृत्ताः सप्ततिः सामंताः, मंत्रिवागभटरथप्रासादकारकाः, नृपमान्यो नागश्रेष्ठिसुतआभउः, षड्भाषाकविचक्रचक्रवर्ति श्रीपालस्तत् पुत्रः सिद्धपालः, कवीनां दातृणां च धूर्यो भांडागारिकः कपर्दा, प्रह्लादपुरनिवेशकारणकः प्रह्लादनः, ९९ लक्षसुवर्ण
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कुमार०
॥ ६७ ॥
स्वामी श्रेष्ठछाडाकः, राजदौहित्रिकः प्रतापमल्लः, १८०० व्यवहारिणः, श्रीहेमसुरयः, अन्येपि लोका ग्रामनगरस्थाननिवासिनो बहवः, षड्दर्शनानि, बहवो बंदिजनाः, स्थाने स्थाने प्रभावनां जिनछत्रचामरादिप्रदानं, स्थाने स्थाने स्नात्रपूजाः, याचकानां मनोवांछिता सिद्धिः एवं परिवृतः प्रभ्रुणा द्विधोपदिश्यमानवर्त्मना धंधुकपुरे प्राप्तः प्रभ्रूणां जन्मगृहभूमौ स्वयंकारित स दशहस्तप्रमाणे झोलिकाविहारे प्रभावनां विधित्सुर्जातिपिशुनानां द्विजातीनां उदितमुपसर्ग वीक्ष्य तान् विषयताडितान् कुर्वन् श्रीशत्रुंजयतीर्थं प्राप । पादचारेण पर्वताधिरोहणं श्रीजिनेन्द्रप्रासादद्वारे सपादसतिकामोक्तिकैः प्रासादद्वारवर्धापनकं मध्ये प्रदक्षिणाश्रयं । प्रथमपूजायां नवांगेषु नवरत्नानि लक्षमूल्यानि अष्टाविकामहोत्सवः । सुवर्णरूप्यादिसप्त ध्वजाप्रदानं चैत्य परिपाट्यां वामहस्तः श्रीगुरुणां हस्ते लग्नो वीक्ष्य कपर्दी प्राह
"श्री चौलुक्य ! स दक्षिणस्तवकरः पूर्व समासूत्रितः - प्राणिप्राणविघातपातकसखः शुद्धो जिनेंद्रार्चनात् । वामोप्येष तथैव पातकसखः शुद्धिं कथं प्राप्नुयात्, न स्पृश्येत करेण चेत् यतिपतेः श्रीहेमसूरिप्रभोः ॥ १ ॥ प्रमुदितो राजा । अवारितान्नदानयाचकसत्काराः प्रवर्त्तते ।
मालोद्घट्टनप्रस्तावे उदयनसुतादिमहापुरुषसंघश्रेणिभृति धर्मशिलायां महं वागभटः प्रथमं लक्षचतुष्कमवदत् प्रच्छधार्मिकः कश्चित्कथापयति अष्टौलक्षाः एवमन्योऽन्येषु ईश्वरेषु वर्द्धयत्सु कश्चित्सपादकोटीं चकार । चमत्कृतो राजोवाच उत्थाप्यतां स यो गृह्णाति । उत्थितः स यावत् दृश्यते बादरमलिनवसानो वणिगुरूपो विलोकितः । राज्ञा वाग्भटो भाषितः द्रव्यप्रगुणीकृत्वा देहि, श्रीवाग्भटो वणिजा सहोत्थाय द्रव्यसुस्थं पप्रच्छ । वणिजा सपादकोटिमूल्यं माणिक्यं दर्शितं । मंत्रिणा पृष्टं कुत इदं ते । वणिगाह महूअकवास्तव्यो मत्पिता हांसाख्यः सौराष्ट्रिकः प्राग्वटान्वयः अहं तद्भूर्जगडः माता मेधा
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प्रतिबोध प्रबंधः
॥ ६७ ॥
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नाम्नी मत्पित्रा निधनसमयेऽहं भाषितः वत्स! चिरंकृताः प्रवहणयात्राः फलिताश्च मे मिलितं धनं, तेन च प्रत्येकं सपादकोटिमूल्यं माणिक्यपंचकं । अधुना ऋषभप्रभुचरणौ शरणं मे अनशनं प्रतिपनं क्षमिताः सर्वे जीवाः । एकं माणिक्यं श्रीऋषभाय, एकं नेमिनाथाय, एकं चंद्रप्रभवे देयं । माणिक्यद्वयाऽत्मनोंतिके दध्याः मामिति निगद्य गतः परलोकं पिता । तज्जनकवचनसमर्थनाय जनन्याः सहाऽहमागतः । सा कपर्दिभुवने मुक्तास्ति । तामष्टषष्टितीर्थाधिका माला परिधापयिष्यामि श्रुत्वा रुष्टो राजा मंत्री संघश्च मालापरिधानं कृतं । तेन जगडेन वणिजा तन्माणिक्यं हेम्ना खचित्वा ऋषभाय कण्ठाभरणं राजा कारयामास । महापूजावसरे चारणः पपाठ'इकह फुल्लह माटि देइ जु नरसुरसिव सुहइ एहि करइ कुसाटि, वपु भोलिम जिणवरतणी" ॥१॥
नवकृत्वः पठनेन च लक्षदानं द्रम्माणां, आरात्रिकावसरे महादानं ततो राजा स्वं कृतार्थ मन्यमानः कृत्वा अमानमहिमानं श्रीरैवतदैवतं मनसा ध्यायन सपरिकरस्तद्दिशं प्रति प्रयाणमकरोत् । पथि च वृक्षानपि पट्टकूलपरिधापनिकया सन्मानयन रैवतासन्ने समायाते अकस्मादेव पर्वतकंपे संजायमाने श्रीहेमचंद्राचार्या नृपं प्राहु-इयं छत्रशिला युगपदुपेतयो
योः पुण्यवतोरुपरि पतिष्यति इति वृद्ध परंपरा । तदावां पुण्यवंतौ यदियं गीः सत्या भवति तदा लोकापवादः । नृपतिरेव देवं नमस्करोतु न वयमित्युक्ते नृपतिनोपरुध्य प्रभव एव संघेन सह प्रेषिताः । न स्वयं छत्रशिला मार्ग । परस्मिन् मार्गे जीर्णप्राकारपक्षेन श्रीवाग्भटकारितपद्यां चटितः। तत्र स्नात्रविधिपूर्वकं स्नात्रपूजादानसर्वस्थानेषु लक्षारामसहस्राम्रवनचंद्रगुफांविकावलोकन-शिखरशांबप्रद्युम्नादिषु चैत्येषु चैत्यपरिपाटीं कृत्वा महाप्रभावनां चारात्रिकावसरे चारण: पपाठ ।
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कुमार०
॥ ६८ ॥
'च्छ्विाणि मुहूकाणी सा, पई भागी तुह मह मरउं । हेमसूरि अत्थाणि, जे इसर ते पंडिआ ॥१॥ वंदनकसमये नृपस्य पृष्टो हस्तप्रदाने चारणः
'हेमतुहारा करमर, जिह अच्चुष्भुअरिद्धि । जे चंपह हिट्ठा मुहा, तीह उपहरी सिद्धि ||१|| द्वयोखिः पाठेन लक्षत्रयमौचित्यमदात् । ततः परमेश्वरं तुष्टाव ।
'आजन्मकलिताजिह्म- परब्रह्ममयात्मने । चिदानंदपदस्थाय, श्रीनेमिस्वामिने नमः ॥ १ ॥
अथोभयतीर्थयात्रयात्मानं पवित्रीकृत्य राजा सपरिकरः पथि प्रभावनां कुर्वाणः श्रीपत्तनमाजगाम । प्रौढमहिम्ना नित्यं धर्मध्यानपरो दिनानि सफलयति । अथ श्रीकुमारपालेन द्वासप्ततिसामंता भूपालाः स्वाज्ञां ग्राहिताः अष्टदशदेशेषु अभारिप हो दापितः, चतुर्दशसु देशेषु अर्थबलेन मैत्रीबलेन च विनयेन च जीवरक्षा कारिता । १४४४ नवीनप्रासादेषु कलशाधिरोपणं कारितं, १६००० जीर्णोद्धारेषु कलशध्वजारोपोऽकारि । सप्तश्रीतीर्थयात्राभिरात्मा पवित्रितः । एकविंशतिश्रीज्ञानकोशलेखनं । द्वासप्ततिलक्षमृतकद्रव्यपत्रं पाटितवान् । ९८ लक्षप्रमाणं द्रव्यमौचित्ये दत्तं । परमाईतबिरुदं लब्धं । आजन्मपरनारीसहोदरबिरुदं च । सप्तव्यसनानि निवारितानि । श्रीसंघभक्तिसाधर्मिकवात्सल्यजिनाचद्विरावश्यकपर्वदिनपौषधदानशासनप्रभावनादीनोद्धारपरोपकारादिपुण्यकृत्यान्येकधा कृतानि ।
कुमारपाल भूपस्य किमेकं वर्ण्यते क्षितौ । जिनेन्द्र धर्ममासाद्य यो जगत्तन्मयं व्यधात् ॥१॥ अत्रांतरे च निर्व्यूढराजव्यापारौ विहितानेकनवीनप्रासादजीर्णोद्धारपरोपकारदीनोद्धारादिपुण्यकृत्यौ कृतश्रीजिनशासनप्रभावको मंत्रिबाहडदेवांबडौ स्वर्ग जग्मतुः । अथैवं काले श्रीकुमारपालभूपालः श्रीहेमसूरिश्व कृतकृत्यौ महता तपसा
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प्रतिबोध प्रबंध
॥ ६८ ॥
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वयसा च वृद्धौ जातौ । परं श्रीहेमसूरिंगच्छे विरोधः रामचंद्रगुणचंद्रदमेकतः एकतो बालचंद्रस्तस्य तु राजभातृव्याऽजयपालेन सह मैत्री। अन्यदा राजा श्रीगुरुं पृच्छतिस्म भगवनपुत्रोऽहं कं स्वराज्यपदे स्थापयामि श्रीगुरुमिरुक्तं राजन्नयं भागिनेयः प्रतापमल्लः प्रजापियो न्यायधर्मनिष्ठो बहुराजवर्गीयसंमतो राज्यभारधुराधुरिणोऽस्ति अजयपालोप्यस्ति परं न सत्संगरंगः । न न्यायनिष्ठो न धर्मप्रियः प्रजानुरागः यदुक्तं'धर्मशीलः सदा न्यायी, पात्रे त्यागी गुणादरः। प्रजानुरागसंपन्नो, राजा राज्यं करोति सः ॥१॥
नचाऽयमेवंविधगुणवान् , अजयपालात्तु त्वत्कारितधर्मस्थानक्षयः कियानस्ति । एवं मंत्रे कृते बालचंद्रेण स्वरूपमेतदजयपालाय न्यवेदि । तस्य रामचंद्रादिषु श्रीचौलुक्ये च महान् द्वेषः समजनि । अत्रावसरे चतुरशीतिवषायुषः श्रीहेमसूरिवराः परिज्ञातनिजावसानसमयाः समयोचित्तं चिकीर्षवः समस्तश्रीसंघ स्वकीयगच्छं श्रीकुमारपालनृपतिं चाहूय तवापि षण्मासशेषमायुरस्तीतिप्रज्ञापनां दत्वा दशधाऽऽराधनां विधाय समधियोगसाधितस्वकृत्याः।
'निरंजनं निराकारं, सहजानंदनंदितं । निरूप्य मनसा नित्यं, स्वरूपं पारमेश्वरं ॥१॥ 'कृत्वा तन्मयमात्मानं, त्यक्त्वा सर्व स्वतः परं । स्वात्मावबोधसंभूत-ज्योतिषेति व्यभावयन् ॥२॥
यथा-आत्मन् देवस्त्वमेव त्रिभुवनभवनोद्योतिदीपस्त्वमेव,
ब्रह्मज्योतिस्त्वमेवा-खिलविषयसमुज्जीवनायुस्त्वमेव । 'कर्ता भोक्ता त्वमेव व्रजसि जगति स्थाणुरूपस्त्वमेव । स्वस्मिन् ज्ञात्वा स्वरूपं, किमु तदिहबहिर्भावमाविष्करोषि ? ॥३॥
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प्रतिबोध
प्रबंधः
इति संचित्य चरमोच्छवाससमये दशमद्वारेण प्राणोत्क्रांतिमकार्षः । तदनंतरं प्रभोः शरीरस्य कृते संस्कारे तद्भस्मपवित्रमिति कृत्वा राज्ञा तिलकव्याजेन नमश्चक्रे, ततः समस्तसामंतैस्तदनु नगरलोकैश्च तत्रत्यमृत्स्नायां गृह्यमाणायां हेमखडु इति अद्यापि सा प्रसिद्धाऽस्ति लोके ।
अथ राजा श्रीगुरुपादानां विरहेणाऽस्तोकशोकाश्रुजलाविललोचनः श्मशाननिभा राजसभा मन्यमानस्तत्र नायाति । दुर्गतिचिह्नान्येतानि इति राजचिह्नानि न धारयति, अयमपारं संसारं प्रापयतीति राजव्यापारं चापि न करोति । भोगान् संसाररोगानिव मन्यते । लास्यहास्यादिविमुखः हेमसूरिगुणं विना किमपि न पश्यति सकलकलाकलापकुशलैरपि अनेकधा विनोद्यमानोऽपि न वाऽपि रतिं प्राप । सचिवैविज्ञप्तः इदमवादीत् स्वपुण्यार्जितोत्तमलोकान् प्रभून् न शोचामि किंतु निजमेव सप्तांगराज्यं सर्वथाऽपरिहार्यराजपिण्डदोषक्षितं यन्मदीयमुदकमपि जगद्गुरोरंगे न लग्नं यस्मात्तदेव शोचामि । अथान्यदा सांध्यविधिविधानाय संध्यासमयं निवेदयितुं केनापि विदषाऽवसरपाठन पठितं--
'ध्वांतं ध्वस्तं समस्तं विरहव्यपगमं चक्रवाकेषु चक्रे, संकोचं मोचित द्राक् किल कमलवने धाम लुप्तं ग्रहाणां । प्राप्तो पूजा जनेभ्य-स्तदनु च निखिला येन भुक्ता दिनश्रीः,
संप्रत्यस्तंगतोऽयं हतविधिवशतः शोचनीयो न भानुः ॥१॥ इत्याकर्ण्य राजा शोकं किंचित् स्तोकं कृत्वा श्रीगुरूणां गुणान् लोकंपृणान् स्मारं स्मारं सुचिरमिदमवादीत-- 'श्रीसूरीश्वर ! हेमचंद्र ! भवतः प्रक्षाल्य पादौ स्वयं स्वर्धेनोः पयसा विलिप्य च मुहुः श्रीखंडसांद्रद्रवैः।
॥६९॥
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'अर्चामोऽबुदमौक्तिकैयदि तदाऽप्यानृण्यमस्तु क्य नो । विश्वैश्वर्यदजैनधर्मविविधाऽम्नायाप्तिहेतूह्यम्' | 'श्रीहेमसूरिप्रभुपादपद्मं वंदे भवाब्धेस्तरुणैकपोतं। ललाटपट्टान्नरकांतराज्याऽक्षरावली येन मम व्यलोपि ।
ततः श्रीगुरुविरहातुरो राजा यावद्दौहित्रं प्रतापमल्लं राज्ये निवेशयति तावद् राजवर्गभेदोऽजयपालो भातृव्यः श्री | कुमारपालदेवस्य विषमविषमदात् । तेन विधुरितगात्रो राजा ज्ञातभ्रातृव्यप्रपंचः स्वाधीनां विषापहारशुक्तिका पुरा कोशे स्थापितां शीघ्रमानयतेति निजपुरुषानादिदेश, ते च तां पुरा अजयपालेन गृहीतां ज्ञात्वा तूष्णींस्थिताः । अत्रांतरे व्याकुले समस्तराजकुले विषापहारिशुक्तिकाया अनागमनहेतुं ज्ञात्वा कोऽपि चारणः पपाठ-- 'कुमर कुमर विहार एता काई करावीया। ताहं तु करिसइ सार, सीपन आवई सई धणी ॥११॥
इत्याकर्ण्य राजा यावद्विमर्श करोति । तावत् कोऽपि अवसरवेदकः पपाठ-- 'कृतकृत्योऽसि भूपाल! कलिकालेऽपि भूतले । आमंत्रयति तेन त्वां, विधि स्वर्गे यथाविधि ॥१॥
इति श्रुत्वा राजा शुक्तेरनागमनकारणं ज्ञात्वा सर्वसमक्षमित्युवाच-- 'अर्थिभ्यः कनकस्य दीपकपिशा विश्राणिता कोटयो, वादेषु प्रतिवादिनां प्रतिहताः संस्कारगर्भा गिरः॥ उत्खतप्रतिरोपितैर्नृपतिभिः सारैरिव क्रीडितं । कर्त्तव्यं कृतमर्थना यदि विधेस्तत्रापि सज्जा वयं ॥१॥ 'इत्युदीर्य स्वधैर्येण भूपतिभूरिभाग्यवान् । लक्षं लक्षं ददौ तोषादनयोः पारितोषिकम् ॥२॥
ततो राजा त्रिंशद्वर्षान् अष्टौमासान् सप्तविंशतिदिवसान् साम्राज्यं कृत्वा कृतार्थी कृतपुरुषार्थः सर्व विरसावसानं विज्ञाय विज्ञशिरोमणिः प्राणांते दशधाराधनां विधाय चित्ते श्रीएंचपरमेष्टिप्रतिस्मरणनष्टकष्टः समाधिस्वाधीनसाध्यः परमविधिना
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________________ कुमार प्रतियोग प्रबंधः // 70. चरमोच्छवासे त्यक्तशरिरादिममत्वस्तत्वपरिज्ञानवान् प्राणानत्याक्षीत् / ततो लोके हहाकारो महानभूत सर्वत्र लोकानामिति गिरः पादरासन / Wआकर्ण्य प्रति काननं पशुगणाश्चौलुक्यभूपव्यथां / क्रदतः करुणं परस्परमदो वक्ष्यंति निःसंशयं / / / KI योऽभून्नः कुलवर्धनः स सुकृती, राजर्षिरस्तं ययौ / यूयं यात दिगंतरं झटिति रे ! नो चेन्मृता व्याधतः / 'नाभवद्भविता चात्र हेमसूरिसमो गुरुः / श्रीमान् कुमारपालश्च जिनभक्तो महीपतिः // 2 // 2 'आज्ञावर्तिषु मण्डलेषु सकलेष्वष्टादशेष्वादरात्, अब्दान्येव चतुर्दश प्रसृमरी मारिं निवायाँजसा'। कीर्तिकुंभनिभांश्चतुर्दशशतीसंख्यान विहारांस्तथा। कृत्वा निर्मितवान् कुमारनृपतिजैनो निजो नो व्ययं // 'कर्णाटे गूर्जरे लाटे, सौराष्ट्रे कच्छसैंधवे / उच्चायां चैव भंगेभे, मारवे मालवेस्तथा // 4 // 'कौंकणे तु महाराष्ट्र, कीले जालंधरे पुनः। सपादलक्षे मेवाडे दीपे जालंधरेऽपि च // 5 // 'जंतूनाभयं सप्त व्यसनानां निषेधनं / वादनं न्यायघंटाया, रुदतीधनवर्जनं // 6 // 'किंचित् गुरुमुखाच्छ्रुत्वा किंचिदक्षरदर्शनात् / प्रबंधोऽयं कुमारस्य भूपतेर्लिखितो मया' // 7 // // श्रीकुमारपालदेवप्रबंधः समाप्तः // संवत् 1495 वर्षे वैशाखशुदि गुरुदिने लिखितं // 7 // Jan Interational For Personal & Private Use Only