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प्रकरण १ : द्रव्य-विचार
[७५ सत्ता की केवल कल्पना कर सकते हैं। इन चारों द्रव्यों का न तो कभी विनाश होता है और न उत्पत्ति । अतः इन्हें सन्तति-प्रवाह की अपेक्षा अनादि-अनन्त स्वीकार किया गया है। अपेक्षा-विशेष की दृष्टि से इनमें सादि-सान्तता (उत्पत्ति-विनाश . भी है।' यद्यपि ग्रन्थ में सिर्फ काल-द्रव्य के विषय में सादि-पान्तता का कथन है परन्तु उपाधि की अपेक्षा धर्मादि द्रव्यों में भी सादिसान्तता अभीष्ट है।२ धर्म और अधर्म द्रव्य का स्थिति-क्षेत्र लोक की सीमा-प्रमाण (असंख्यात-प्रदेशी) माना है। आकाशद्रव्य के लोक और अलोक में वर्तमान होने से उसे लोकालोकप्रमाण (अनन्त प्रदेशी) माना है। मनुष्य-लोक में ही घड़ी, घंटा आदि रूप से काल की गणना की जाने के कारण काल-द्रव्य को ढाई-द्वीपप्रमाण (समयक्षेत्रिक) कहा है। अन्यथा अन्य द्रव्यों की तरह यह भी लोक-प्रमाण ही है। क्योंकि ऐसा न मानने पर ढाई-द्वीप के बाहर कालद्र व्यकृत परिवर्तन कैसे संभव हो सकेगा? अतः अन्यत्र जैन-ग्रन्थों में काल-द्रव्य को भी लोक
१. धम्माधम्मागासा तिन्नि वि एए अणाइया ।
अपज्जवसिथा चेव सव्वद्धं तु वियाहिया ।। समए वि संतई पप्प एवमेव वियाहिए । आएसं पप्प सईए सपज्जवसिए वि य ।
-उ० ३६.८-६. २. वही। ३. धम्माधम्मे य दो चेव लोगमित्ता वियाहिए। लोगालोगे य आगासे समए समयखेत्तिए ।
-उ० ३६.७.
समयावलिकापक्षमासवयनसञ्जिताः। नृलोक एव कालस्य वृत्तिन्यित्र कुत्रचित् ।।
-उद्धृत उ० घा० टी०, भाग-५, पृ० ६६४. तथा देखिए-पृ० ५७, पा० टि० ५. ४. देखिए-पृ० ५५, पा० टि० १.
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