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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
प्राप्ति बतलाया गया है ।" वैदिक संस्कृति में भी अहिंसा को समस्त धार्मिक-कार्यों का श्रेष्ठ अनुशासन माना गया है । इस तरह
ती साधु को ऐसी कोई भी क्रिया या मानसिक संकल्प आदि न करना चाहिए जो दूसरों के लिए दुःख का हेतु यह बन सके। इसका कारण यह है कि सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन महाव्रतों के मूल में तथा अन्य आचारपरक साधु के जितने भी नियमोपनियम हैं उन सब के मूल में अहिंसा ही है ।
सत्य महाव्रत :
क्रोध, लोभ, हास्य, भय एवं प्रमाद आदि इन झूठ बोलने के कारणों के मौजूद रहने पर भी मन-वचन-काय तथा कृत-कारितअनुमोदना से कभी भी झूठ न बोलकर हमेशा सावधानीपूर्वक हितकारी, सार्थक और प्रिय वचनों को ही बोलना सत्य- महाव्रत है । 3 अतः निरर्थक और अहितकर बोला गया वचन सत्य होने पर भी त्याज्य है । इसी प्रकार सत्य महाव्रती को असभ्यवचन भी नहीं बोलना चाहिए । ४ इसके अतिरिक्त 'अच्छा' भोजन बना है', 'अच्छी तरह पकाया गया है' इस प्रकार की सावद्य वाणी ( दोषयुक्त वचन ) तथा 'आज मैं यह कार्य अवश्य कर लूंगा', 'अवश्य ही ऐसा होगा' इस प्रकार की निश्चयात्मक
१. पाणवह मिया अयाणंता मंदा नरयं गच्छति ।
२. अहिंसयैव भूतानां कार्य श्रेयोऽनुशासनम् ।
- मनुस्मृति २.१५६. ३. कोहा व जइ वा हासा लोहा वा जइ वा भया । मुसं न वयई जो उ तं वयं बूम माहणं ॥
उ० २५.२४. निच्चकालप्पमत्तेणं मुसावायविवज्जणं । भासिव्वं हियं सच्चं निच्चाउत्तेण दुक्करं ||
- उ० १६.२७.
४. वयजोग सुच्चा न असम्भमा ।
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- उ० ८.७,
-उ० २१.१४.
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