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३४० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन खण्डन हो जाता है जो ऐहिक विषयाभिलाषा या क्रोधादि के कारण किए जाते हैं। साध को जो केशलौंच करना पड़ता है वह भी . एक प्रकार का कायक्लेश तप ही है।' केशलौंन साधु के लिए आवश्यक भी बतलाया गया है क्योंकि केशों के रखने से उनमें जं आदि जीवों की उत्पत्ति संभव है। अतः एक निश्चित समय के भीतर इन्हें उखाड़ना पड़ता है। दिगम्बर-परम्परा में साधु के २८ मूलगुणों (प्रधान गुणों) में केशलौंच भी एक मूलगुण (प्रधान गुण) .. माना जाता है।२ केशों को उखाड़ना बड़ा कठिन भी है। इस तरह वीरासन आदि में स्थिर होने से शरीर को बड़ा कष्ट होता है। अतः इसे कायक्लेश तप कहा गया है। सामान्य भाषा में इसे ही तप कहा जाता है। इससे शरीर में निश्चलता एवं अप्रमत्तता आती है। ६. प्रतिसंलीनता (संलीनता या विविक्तशयनासन) तप : : . स्त्री-पशु आदि की संकीर्णता से रहित एकान्तस्थान (गुफा, शून्यागार आदि) में निवास (शयन और आसन) करना विविक्तशयनासन तप है अर्थात् अरण्यादि एकान्तस्थान (विविक्तस्थान) में निवास करना। साधु को सामान्यतौर से एकान्तस्थान में ही रहने का विधान है। यहां पर उसे ही तप के रूप में वर्णित किया गया है। इस विविक्तशयनासन को ही संलीनता या प्रतिसंलीनता तप के नाम से कहा गया है। यद्यपि ग्रन्थ में
१. स्थानानि वीरासनादीनी, लोचाधुपलक्षणं चैतत् ।
- वही, ने० वृ०, पृ० ३४१. २. वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेल मण्हाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च । एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता ।।
-प्रवचनसार, ३.८-६. ३. केसलोओ अंदारुणो।
-उ० १६.३४. ४ एगंतमणावाए इत्थीपसुविवज्जिए । सयणासणसेवणया विवित्तसयणासणं ।।।
-उ०३०.२८.
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