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३८८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन लिया है तथा इसी भव में पूर्ण मुक्त होने वाले हैं। ये 'केवली' या 'जिन' कहलाते हैं । यह उपाधि (डिग्री ) प्राप्त करने वाले स्नातक छात्र की तरह मुक्ति को प्राप्त करनेवाले स्नातक केवली की अवस्था है। ग्रन्थ में जीवन्मुक्तों के लिए 'स्नातक' शब्द का प्रयोग भी किया गया है।' ये जीवन्मक्त जीव संसार में रहकरके अवशिष्ट आयुकर्म का उपभोग करते हुए आकाश में स्थित सूर्य की तरह केवलज्ञान से सुशोभित होते हैं। इसके बाद आयु के पूर्ण होने पर अवशिष्ट सभी अघातिया कर्मों को एक साथ नष्ट करके नियम से उसी भव में पूर्ण मुक्त हो जाते हैं। इन जीवन्मक्तों की ग्रन्थ में दो अवस्थाएँ मिलती हैं : १. सयोगकेवली-मन, वचन एवं काय की क्रिया से युक्त तथा २. अयोगकेवली-मन, वचन एवं काय की क्रिया से रहित । इन दोनों प्रकार के जीवन्मुक्तों में 'सयोगकेवली' ही हितोपदेशादि से प्राणिमात्र का कल्याण करते हैं क्योंकि वे मन, वचन एवं काय की क्रिया से युक्त होते हैं। मन-वचन-काय की क्रिया से रहित 'अयोगकेवली' की अवस्था विदेहमक्त (सिद्ध) की तरह ही होती है। ये कुछ ही क्षणों में शरीर को छोड़कर अनुत्तर सिद्ध लोक ( मोक्ष ) को प्राप्त करके पूर्ण मुक्त हो जाते हैं। ___इस तरह ग्रन्थ में मुक्ति के दो रूप देखने को मिलते हैं : १. जीवन्मुक्ति तथा २. विदेहमुक्ति । जीवन्मुक्ति विदेहमुक्ति की पूर्वावस्था है तथा विदेहमुक्ति पूर्ण निश्चल चरमावस्था है। ग्रन्थ का प्रधान लक्ष्य जीवों को मुक्ति की ओर अभिमुख करना है।
ঋন্তহীন इस प्रकरण में उत्तराध्ययन के प्रधान लक्ष्य 'मुक्ति' का वर्णन किया गया है। इसकी प्राप्ति के लिए श्रद्धा, ज्ञान और चारित्ररूप रत्नत्रय की साधना की आवश्यकता पड़ती है। चार्वाकदर्शन को छोड़कर शेष सभी भारतीय दर्शनों का भी प्रधान लक्ष्य जीवों को १. जेहिं होइ सिणायओ।
-उ०२५.३४. २. अणु त्तरे नाणधरे जसंसी ओभासइ सूरि एवं तलिक्खे ॥
-उ० २१.२३. ३. उ० २६.७१-७३.
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