Book Title: Uttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Sohanlal Jaindharm Pracharak Samiti

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Page 479
________________ परिशिष्ट १ : कथा-संवाद इस समागम के बाद उन दोनों महर्षियों में जिनमें सूत्रार्थ का निर्णय तथा रत्नत्रय का [ ४५३ आगे भी समागम हुए उत्कर्ष हुआ 1 इस तरह इस परिसंवाद में वारह प्रश्न पूछे गए हैं जिनमें प्रारम्भ के दो प्रश्न ही मुख्य हैं और वे ही इस परिसंवाद के कारण हैं। शेष सभी प्रश्न और उत्तर उपस्थित जनता के कल्याणार्थ प्रतीकात्मक रूपक अलंकार की शैली में प्रस्तुत किए गए हैं । इस परिसंवाद से जिन महत्त्वपूर्ण बातों का संकेत मिलता है, वे इस प्रकार हैं : १. किसी भी विषय में मतभेद होने पर आपस में मिलकर उसका समाधान ढूँढ़ना और दुराग्रह किए बिना सम्यक् मार्ग का अनुसरण करना । २. बाह्य वेशभूषा आदि पर विशेष ध्यान न देकर अन्तरङ्गशुद्धि के साधनभूत रत्नत्रय की आराधना करना । ३. अपनी आत्मा को संयमित रखना । ४. ज्येष्ठकुल का ध्यान रखना । ५. अतिथि का समुचित सत्कार करना । ६. बिना अनुमति प्राप्त किए कोई प्रश्न न पूछना ७. समुचित उत्तर मिलने पर उसकी संस्तुति करना । ८. परिस्थितियों के अनुकूल धर्म में परिवर्तन करना । ६. श्वेताम्बर - दिगम्बर मतभेद का संकेत । १०. पार्श्वनाथ व महावीर के धर्मोपदेश का अन्तर । इन्द्र-नमि संवाद : ' देवलोक से च्युत होकर राजा नमि ने मिथिला नगरी में जन्म लिया। रानियों के साथ देवलोक सदृश भोग भोगने के बाद जब उन्हें एक दिन जातिस्मरण हुआ तो अपने पुत्र को राज्यभार सौंपकर दीक्षा लेने के लिए निकल पड़े। राजा नमि के दीक्षार्थ प्रस्थान करने पर सम्पूर्ण नगरी में शोक छा गया । इसी समय देवाधिपति इन्द्र ब्राह्मण का रूप धारण करके आया और उससे संयम १. उ० अध्ययन ६. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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