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परिशिष्ट १: कथा-संवाद
[ ४६५ ब्राह्मण-ओ निर्ग्रन्थ ! वकवास मत कर। यह अन्न नष्ट भले ही हो जाए मगर हम तुझे नहीं देंगे।
यक्ष-यदि मुझ जितेन्द्रिय को यह अन्न नहीं दोगे तो इस यज्ञ से तुम्हें क्या लाभ होगा?
इसके बाद ब्राह्मण की आज्ञा पाकर उसके बहुत से शिष्य मुनि को पीटने लगे। यह देख राजा कौशलिक की पुत्री भद्रा ( ब्राह्मण की पत्नी ) शिष्य कुमारों को शान्त करते हुए बोली-'यह ऋषि उग्र तपस्वी तथा ब्रह्मचारी है। यह राजाओं और इन्द्र आदि से भी पूजित है। एक बार देवता की प्रेरणा से स्वयं मेरे पिता द्वारा दी गई मुझे इसने मन से भी नहीं चाहा था। यह अचिन्त्यशक्तिवाला है। इसकी अवहेलना करने पर यह तुम सब को तथा समूचे संसार को भी भष्म कर सकता है। यदि तम जीवन और धन की अभिलाषा रखते हो तो इसकी शरण में जाकर क्षमा मांगो।' इसी बीच मुनि की सेवा करने वाले यक्ष ने अपने साथियों के साथ मिलकर शिष्य कुमारों को क्षत-विक्षत कर डाला। यह सब देख उस ब्राह्मण ने अपनी पत्नी भद्रा के साथ मिलकर मुनि से क्षमा मांगी। उसने कहा- 'भन्ते ! मूढ़ बालकों ने अज्ञानवश आपका जो अपराध किया है उसे क्षमा करें क्योंकि मुनि किसी पर कोप नहीं करते हैं, वे हमेशा प्रसन्न रहते हैं । आपके सभी अङ्ग पूजनीय हैं। यह प्रभूत अन्न-पान ग्रहण करके हमें अनुगहीत करें।' यह सुन मुनि ने उत्तर दिया'मेरे मन में न तो पहले कोई द्वेष था, न अभी है और न आगे होगा। कुमारों को जो प्रताड़ित किया है वह मेरी सेवा करने वाले यक्ष का कार्य है।' इसके बाद मुनि ने एक मास के उपवास के बाद उन पर अनुग्रह करने की इच्छा से अन्न-पान ग्रहण किया। यह देख देवों ने पुष्पवृष्टि की और 'आश्चर्यकारी दान' कहते हए दुन्दुभि बजाई। पश्चात् मुनि ने ब्राह्मणों के कल्याण के लिए भावयज्ञ का व्याख्यान किया।
इस आख्यान से निम्न विषयों पर प्रकाश पड़ता है :
१. श्रेष्ठ जाति में पैदा होना श्रेष्ठता का सूचक नहीं है अपितु कर्म से श्रेष्ठता होती है।
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