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परिशिष्ट ३ : साध्वाचार के कुछ अन्य ज्ञातव्य तथ्य [४६१ क्रोधादि कषाय व असमाधिस्थान आदि भी सदाचार को मलिन करने वाले हैं परन्तु यहां पर निम्नोक्त २१ दोषों को रूढ़ि से शबल दोष कहा गया है : १. हस्तमैथुन, २. स्त्रीस्पर्शपूर्वक मैथुन, ३. रात्रिभोजन, ४. साधु को निमित्त करके बनाए गए भोजन का ग्रहण, ५. राजपिण्ड लेना, ६. मोल लिया हुआ आहार लेना, ७. उधार लिया हुआ आहार लेना, ८. बाहर से उपाश्रय में लाया हआ आहार लेना, ६. निर्बल से छीनकर लाया हुआ आहार लेना, १०. त्यागी हुई वस्तु को व्रत भंग करके बार-बार खाना, ११. छः माह के भीतर एक गण छोड़ कर दूसरे गण में जाना, १२. एक माह में तीन बार जलप्रवेश तथा तीन बार मायास्थानों का सेवन, १३. हिंसा करना, १४. झूठ बोलना, १५. अदत्त का ग्रहण, १६. सचित्त भूमि पर बैठना, १७. सचित्त रज या घुनवाले काष्ठ आदि पर बैठना, १८. अण्डे. आदि से युक्त स्थान पर बैठना, १६. कन्दमूलादि हरित वनस्पतियों को खाना, २०. एक वर्ष में दस बार जलप्रवेश व दस बार मायास्थानों का सेवन करना और २१. सचित्त जल आदि से भीगे हुए हस्तादि के द्वारा दिए गए भोजन-पान का ग्रहण करना।
मोहस्थान' ( Causes of delusion )-मोह के ३० स्थान गिनाए गए हैं : १. सादि जीवों को पानी में डुबाकर मारना, २. हाथ आदि से मुखादि बन्द करके मारना, ३. मस्तक को बांधकर मारना, ४. शस्त्र से प्रहार करके मारना, ५. श्रेष्ठ नेता को मारना, ६ स्वाश्रित रोगी का इलाज न करना, ७. भिक्षादि के लिए आए हुए साधु को मारना, ८. मुक्ति के मार्ग में स्थित साधक को पथभ्रष्ट करना, ६. धर्मादि की निन्दा करना, १०. आचार्य आदि के प्रति क्रोध करना, ११. आचार्य आदि की समुचित सेवादि न करना, १२. पुन: पुनः विकथाओं का प्रयोग करना, १३. जादूटोना आदि की विद्याओं का प्रयोग करना, १४. विषयभोगों का त्याग करके पुनः उनकी प्राप्ति की प्रार्थना करना, १५. अबहुश्रुत होने पर भी बार-बार अपने को बहुश्रुत कहना, १६, तपस्वी न होने पर भी स्वयं को तपस्वी कहना, १७. अग्नि के धएँ १. उ० ३१.१६; श्रमणसूत्र, पृ० १६४.
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