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उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन . में लगे हुए दोषों की प्रायश्चित्त-विधि का वर्णन है। इस तरह इन ग्रन्थों के अध्ययन में यत्नवान् होने से उपयुक्त चारित्र मलिन नहीं होता है । अतः ग्रन्थ में साधु को इनके विषय में भी यत्नवान् रहने को कहा गया है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि इनका ही अध्ययन करना चाहिए, अन्य का नहीं अपितु एतत्सदृश अन्य ग्रन्थों का भी अध्ययन करना चाहिए और तदनुकूल प्रवृत्ति भी करनी चाहिए।
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