Book Title: Uttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Sohanlal Jaindharm Pracharak Samiti

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Page 494
________________ ४६८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन अरिष्टनेमि भी इसी प्रकार सर्वगुणों से सम्पन्न थे । वे श्याम वर्ण के थे। संहनन 'वज्रवषभ' था। संस्थान 'समचतुरस्र' था। पेट मछली के पेट जैसा था। अरिष्टनेमि और राजीमती के युवा होने पर केशव ने भोगराज से उन दोनों के विवाह का प्रस्ताव रखा। भोगराज की अनुमति मिलने पर दोनों तरफ विवाह की तैयारियाँ की जाने लगीं। वृष्णिपुंगव अरिष्टनेमि को शुभ मुहूर्त में सौंषधियों से स्नान कराया गया । कौतुक एवं मंगल कार्य भी किए गए। दिव्य वस्त्र-युगल ( उत्तरीय और अधः ) पहनाए गए। आभूषणों से अलंकृत किया गया। वासुदेव के मतवाले ज्येष्ठ गन्धहस्ती पर बैठाया गया। गन्धहस्ती पर बैठे हुए वे मस्तक पर स्थित चूडामणि की तरह सुशोभित हुए। उनके ऊपर छत्र और चामर ढुले जा रहे थे। चारों ओर दशाह लोग बैठे हुए थे। गगनस्पर्शी दिव्य बाजे बज रहे थे। ऐसे शुभ मुहूर्त में अरिष्टनेमि वर के रूप में अपने भवन से निकले और चतुरंगिणी सेना के साथ भोगराज के 'घर प्रस्थान किया। द्वारका पहुंचने पर उन्होंने पिंजरों एवं बाड़ों में निरुद्ध तथा भय से पीड़ित पशु-पक्षियों को देखा । दयार्द्र होकर उन्होंने अपने सारथि से इसका कारण पूछा। सारथि ने कहा -'ये प्राणी तुम्हारे विवाह की खुशी में बहत से लोगों को खिलाने के लिए यहां निरुद्ध हैं।' सारथि के इन वचनों को सुनकर अरिष्टनेमि ने सोचा-'मेरे निमित्त से यदि इन बहुत से प्राणियों का बध होने वाला है तो यह मेरे लिए परलोक में कल्याणकारी नहीं होगा।' ऐसा विचारकर उन्होंने अपने सभी वस्त्राभूषण उतारकर सारथि को दे दिए और दीक्षा लेने का संकल्प किया। दीक्षा का संकल्प करते ही देवतागण अरिष्टनेमि का अभिनिष्क्रमण महोत्सव करने के लिए पधारे। इसके बाद हजारों देव और मनुष्यों से घिरे हए अरिष्टनेमि ने चित्रा नक्षत्र में अभिनिष्क्रमण किया। अभिनिष्क्रमण करते समय वे रत्ननिर्मित पालकी पर बैठकर गिरनार पर्वत पर गए। वहाँ शीघ्र ही अपने सुगन्धित बालों को अपने हाथों (पञ्चमुष्टि) से उखाड़ा। वासुदेव ने अभीष्ट सिद्धि का आशीर्वाद दिया। इसके बाद राम, केशव आदि सभी अरिष्टनेमि की बन्दना करके द्वारकापुरी लौट गए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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