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४६६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन
२. तपस्वी की महिमा। ३. दान का माहात्म्य व दान का सुपात्र । ४. भावयज्ञ की श्रेष्ठता।
५. मुनि का स्वरूप। जयघोष-विजयघोष आख्यान :
जयघोष और विजयघोष नाम के दो वेदविद् ब्राह्मण थे। उनमें से जयघोष श्रमण बन गया और विजयघोष वैदिक यज्ञों को करते हए वाराणसी में रहने लगा। एक समय इन्द्रियनिग्रही व कर्मविनाशक यमयज्ञ को करनेवाला महायशस्वी जयघोष श्रमण ग्रामानुग्राम विचरण करता हुआ वाराणसी आया। वहाँ वह शहर के बाहर प्रासुक शय्या व संस्तारक लेकर 'मनोरम' उद्यान में ठहर गया। उस समय वहां पर विजयघोष वैदिक यज्ञ कर रहा था। जयघोष मुनि एक मास के अनशन तप की पारणा के लिए विजयघोष के यज्ञमण्डप में गया। वहां पहुंचने पर यज्ञकर्ता विजयघोष ने कहा
विजयघोष-हे भिक्षो ! मैं तुझे भिक्षा नहीं दूंगा। तुम अन्यत्र जाकर भिक्षा मांगो। यह यज्ञान सिर्फ उन्हीं ब्राह्मणों के लिए है जो वेदविद्, यज्ञविद्, ज्योतिषाङ्गविद्, धर्मशास्त्रविद् और स्व-परकल्याणकर्ता हैं।
जयघोष ( विजयघोष का कल्याण करने के लिए न कि अन्न-पानादि की अभिलाषा से समतापूर्वक )-आप लोग वेदादि के सम्यक् अर्थ को नहीं जानते हैं। यदि जानते हैं तो हमें बतलाएँ।
विजयघोष ( उत्तर देने में असमर्थ हो हाथ जोड़कर )-आप स्वयं वेदादि का सम्यक् अर्थ बतलाएँ।
यह सुन जयघोष मुनि ने वेदों का मुख, यज्ञों का मुख, नक्षत्रों का मुख, धर्मों का मुख, स्व-पर का कल्याणकर्ता, सच्चे ब्राह्मण का स्वरूप, बाह्यलिङ्ग की अपेक्षा आभ्यन्तरलिङ्ग की श्रेष्ठता, जन्मना जातिवाद का खण्डन, कर्मणा जातिवाद की स्थापना आदि विविध विषयों का स्पष्टीकरण किया। १. उ० अध्ययन २५.
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