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परिशिष्ट १ : कथा-संवाद
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जब राजीमती ने अपने होनेवाले पति की प्रव्रज्या का समाचार सुना तो वह अपनी हंसी व खुशी को खो बैठी । पश्चात् उसने भी विचार किया - 'मुझ पति-परित्यक्ता के जीवन को धिक्कार है । अत: मेरा भी प्रव्रजित होना उचित है।' इसके बाद कृतनिश्वया धृतिमती राजीमती ने भी अपने सुवासित बालों को अपने हाथों से उखाड़ दिया और स्वयं प्रव्रजित होकर अन्य बहुत से स्वजनों को भी प्रव्रजित किया । यह देख वासुदेव ने बहुश्रुता राजी - ती को भी अभीष्टसिद्धि का शुभाशीर्वाद दिया ।
प्रव्रजित होने के बाद जब राजीमती एक दिन रैवतक पर्वत पर जा रही थी कि मार्ग में अचानक वर्षा होने से वह भीग गई । वर्षा व घोर अन्धकार देख राजीमती ने समीपस्थ गुफा में जाकर वस्त्रों को उतारा और उन्हें सुखाने लगी । इसी बीच पहले से वहाँ वर्तमान रथनेमि ने राजीमती को यथाजात ( नग्न ) रूप में देख लिया । उसे देख रथनेमि अस्थिर चित्त वाला हो गया । राजीमती भी वहाँ रथनेमि को देख भयभीत हो गई और कांपती हुई उसने अपने गुह्याङ्गों को छिपा लिया । पश्चात् भयभीत राजीमती से रथनेमि ने सान्त्वना भरे शब्दों में प्रणय निवेदन किया । इस तरह रथनेमि को संयम से च्युत होते हुए देख राजीमती अपने शरीर को वस्त्रों से ढकती हुई दृढ़तापूर्वक बोली- 'यदि तू रूप में वैश्रवण और लालित्य में नलकूबर है या साक्षात् इन्द्र ही है तो भी मैं तुझे नहीं चाहती हूँ । हे यशः कामिन् ! तुझे धिक्कार है जो तू वमन की हुई वस्तु को पीने की अभिलाषा रखता है । इससे तो मरना अच्छा हैं।' इसके बाद उसने दोनों के कुलों की श्रेष्ठता आदि को बतलाते हुए पुन: कहा - 'यदि तू स्त्रियों को देखकर रागभाव करेगा तो अस्थिरात्मा ( चञ्चल चित्तवृत्तिवाला ) होकर श्रमण बनने के फल को प्राप्त न कर सकेगा ।"
इस तरह संयमिनी राजीमती के सुभाषित वचनों को सुनकर रथनेमि संयम में उसी प्रकार दृढ़ हो गया जिस प्रकार अंकुश से मदोन्मत्त हाथी । इसके बाद दोनों ने निश्चलभाव से आजीवन दृढ़ संयम का पालन करके मुक्ति प्राप्त की ।
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