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४५८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन कभी ऐसा रूप देखा है। पश्चात साधु-दर्शन तथा पवित्र चिन्तन से . उसे जातिस्मरण हो गया। जातिस्मरण होने पर उसे अपने पूर्व भव के श्रमणपने का स्मरण हुआ तथा उसका अन्तःकरण वैराग्य से भर गया। इसके बाद वह अपने माता-पिता के पास जाकर इस प्रकार बोला
मगापत्र-हे माता-पिता ! मैं भोगों को भोग चका हैं। संसार अनित्य व दुःखों से पूर्ण है। अतः अब मैं दीक्षा लेना.. चाहता हूँ। ___ माता-पिता-समुद्र को भुजाओं से पार करने की तरह दीक्षा अत्यन्त कठिन है। इसमें हजारों गुणों को धारण करना पड़ता है। जैसे : जीवनपर्यन्त अहिंसादि पाँच महाव्रतों का पालन, रात्रिभोजन का त्याग, शत्र -मित्र के प्रति समता, केशलोच आदि । हे पुत्र ! तू अभी सकुमार है। अतः अभी भोगों को भोग, बाद में दीक्षा लेना। ___ मृगापुत्र-हे माता-पिता ! आपका कथन यद्यपि सत्य है फिर भी जिसकी भौतिक सुखों की प्यास शान्त हो चुकी है उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है। इसके अतिरिक्त मैंने पूर्वभव में प्रत्यक्ष दृश्यमान दुःखों से कई गुने अधिक नारकीय कष्टों को भोगा है।
माता-पिता-हे पुत्र ! यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो प्रव्रजित हो जाओ परन्तु इतना ध्यान रखो कि प्रवजित होने के बाद रोगों का इलाज नहीं कराया जाता है जो अत्यन्त कठिन है।
मगापत्र-हे माता-पिता! यद्यपि आपका कथन ठीक है फिर भी जैसे मग रोगादि का इलाज किए बिना अकेले ही अनेक स्थानों से भक्त-पान लेनेवाला, अनेक स्थानों में रहनेवाला और गोचरी से जीवन यापन करनेवाला होता है वैसे ही साधु भी होता है। अत: आपसे दीक्षा के लिए अनुमति चाहता हूँ।
माता-पिता-जैसे में तुम सुखी रहो वैसा ही करो।
इस प्रकार माता-पिता के द्वारा नाना प्रकार से प्रलोभित किए जाने पर भी मृगापुत्र संयम में दढ़ रहा और माता-पिता को प्रबोधित करके दीक्षा ले ली। पश्चात् बहुत वर्षों तक कठोर श्रमणधर्म का पालन करके समाधिमरणपूर्वक मोक्ष प्राप्त किया।
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