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प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति
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इन सभी अवस्थाओं में दो रूप देखने को मिलते है : १. पतित रूप तथा २. आदर्श रूप । दोनों अवस्थाओं में नारी प्रायः पुरुषाधीन रही है ।
पति रूप - संयम से पतित करने में प्रधान कारण होने से ब्रह्मचर्य महाव्रत के प्रसंग में साधु को स्त्रियों के सम्पर्क से सदा दूर रहने को कहा गया है । इसी उद्देश्य से वहां स्त्रियों को राक्षसी, पंकभूत, उरस्थल में दो मांस के लोथड़े धारण करनेवाली तथा अनेक चित्तवाली कहा गया है । ये पहले अपने हाव-भाव द्वारा पुरुषों को आकर्षित करती थीं और बाद में दासों की तरह व्यवहार करती थीं । पति के मर जाने पर कोई-कोई नारी अन्य दातार के साथ भी चली जाती थी ।' टीकाओं में तथा अन्य जैन आगम ग्रन्थों
नारी के इस पतित रूप का काफी वर्णन मिलता है । नारी का यह पतित रूप पुरुषों की सामान्य मनोवृत्ति का परिणाम है । यद्यपि नारी पुरुषाधीन थी तथापि अपने हाव-भावों के द्वारा पुरुषों को आकर्षित करने की शक्ति उसमें अधिक थी । अतः ये स्त्रियाँ अपने कूजित, रुदित, गीत, हास्य, स्तनित, क्रन्दित, विलाप आदि से युक्त वचनों के द्वारा पुरुषों को आकर्षित किया Dada | fari at प्राय: अलंकार प्रिय था । साधु इनमें आसक्त न हों इसीलिए स्त्रियों के इस पतित रूप को चित्रित किया गया है । ब्रह्मचर्य व्रत को सब व्रतों में दुष्कर बतलाने से स्पष्ट है कि उस समय पुरुषों की आसक्ति स्त्रियों में अधिक थी और उनमें आसक्त होकर वे अपना विवेक खो देते थे ।
आदर्श रूप - इस प्रकार की नारियाँ बहुत कम थीं । पातिव्रत्य इनका प्रमुख धर्म था । गृहस्थावस्था में अनाथी मुनि को जब असह्य चक्षुवेदना होती है तो उनकी पत्नी अत्यन्त स्नेह के कारण अपने पति की जाग्रत एवं मूच्छितावस्था में भी शरीर की
१. तओ तेrsज्जिए दव्वे दारे य परिरक्खिए ।
कति
नरा रा
तुट्ठमलंकिया ॥
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— उ० १८.१६.
२. जै० भा० स०, पृ० २४५ - २५०.
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