Book Title: Uttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Sohanlal Jaindharm Pracharak Samiti

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Page 469
________________ प्रकरण ८ : उपसंहार [४४३ प्रसिद्ध हैं। भगवद्गीता का भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग का सम्यक् समुच्चय ही यहाँ रत्नत्रयरूप है। इन तीनों की पूर्णता होने पर साधक कर्मों से पूर्ण छटकारा प्राप्त करके संसार से मुक्त हो जाता है। इन तीनों की पूर्णता क्रमशः होती है। इनमें आपस में कारणकार्य सम्बन्ध भी है। तथ्यों में श्रद्धा होने पर ही उनका सच्चा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और सच्चा ज्ञान होने पर ही सदाचार में प्रवृत्ति सम्भव है क्योंकि कर्मों के बन्धन का कारण अज्ञान होने से उनसे मुक्ति का उपाय भी ज्ञान होना चाहिए था परन्तु सदाचार की पूर्णता होने पर जो मुक्ति स्वीकार की गई है उसका कारण है पूर्वकृत कर्मों का फल भोगना। अतएव पूर्ण ज्ञान (केवलज्ञान ) हो जाने पर जीव को जीवन्मुक्त माना गया है। सदाचार पर विशेष जोर देने का दूसरा भी कारण था-लोगों में फैले हुए दुराचार का शमन करना । सदाचार की पूर्णता अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (धनादि-संग्रह की प्रवृत्ति का त्याग ) रूप पाँच नैतिक व्रतों का पालन करने से होती है। इन पाँच नैतिक व्रतों का पालन करने के अतिरिक्त साधक को कुछ अन्य नैतिक व्रतों का भी पालन करना पड़ता है जो अहिंसादि मूल नैतिक व्रतों के ही पोषक हैं। इन अहिंसादि पाँच व्रतों के भी मूल में अहिंसा है और उस अहिंसा की पूर्णता अपरिग्रह की भावना पर निर्भर है। सदाचार के उत्तरोत्तर विकासक्रम के आधार पर चारित्र को सामायिक आदि पाँच भागों में विभक्त किया गया है। सदाचार का पालन करनेवाले गहस्थ और साधु होते हैं। अतः उनकी अपेक्षा सदाचार को दो भागों में भी विभक्त किया गया है• गृहस्थाचार और साध्वाचार । गहस्थाचार साध्वाचार की प्रारम्भिक अभ्यासावस्था है। इसमें गृहस्थ गार्हस्थ्यजीवन यापन करते हुए स्थूलरूप से अहिंसादि पाँच नैतिक व्रतों का यथासंभव पालन करता है तथा धीरे-धीरे आत्मविकास करते हुए साधु के आचार की ओर अग्रसर होता है। अत: गहस्थाचार पालन करने का उपदेश उन्हें ही दिया गया है जो साध्वाचार पालन करने में असमर्थ हैं। गृहस्थाचार के सम्बन्ध में यहां एक बात विशेष दृष्टव्य है कि ग्रन्थ में गृहस्थाचार पालन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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