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४४२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन तक जीव संसारी अवस्था में रहता है चाहे वह देव ही क्यों न हो, तब तक वह अपने शुभाशुभ कर्मों के प्रभाव से सांसारिक सुख-दुःख का भोग करता हुआ जन्म-मरण को प्राप्त करता है। वास्तव में जीव संसार में जन्म-मरणजन्य नाना प्रकार के दु:खों को ही प्राप्त करता है। उसे जो क्षणिक सुखानुभूति होती है वह भी दुख:रूप ही है क्योंकि संसारी व्यक्ति का वह भौतिक सुख कुछ क्षण के बाद ही नष्ट हो जाने वाला है। अतः बौद्धदर्शन की तरह प्रकृत ग्रन्थ में भी संसार को दु:खों से पूर्ण बतलाया गया है। ___ इस दुःख का कारण है- व्यक्ति के द्वारा ( अज्ञानवश ) रागादि के वशीभूत होकर किया गया शुभाशुभ कर्म । यद्यपि ये कर्म अचेतन हैं फिर भी सजग प्रहरी की तरह ये प्रत्येक व्यक्ति की प्रत्येक क्रिया का अध्ययन-सा करते रहते हैं और समय आने पर उसका शुभाशुभ फल भी देते हैं। ये कर्म वेदान्तदर्शन में स्वीकृत स्थूल शरीर के भीतर वर्तमान सूक्ष्मशरीर स्थानापन्न हैं जो स्थल शरीर की प्राप्ति में कारण बनते हैं। कुछ रूपी अचेतन ( पुद्गल ) द्रव्य ही कर्म का रूप धारण करके यन्त्रवत् कार्य करते रहते हैं। इन कर्म-पुदगलों ( कामणवर्गणा ) का जीव के साथ सम्बन्ध कराने में लेश्याएं कारण बनती हैं। लेश्याएँ जीव के रागादिरूप परिणाम हैं । इस कर्म और लेश्याविषयक वर्णन के द्वारा ग्रन्थ में संसार के सुखों एवं दुःखों का स्पष्टीकरण किया गया है। इस तरह संसार के वैचित्र्य की गुत्थी को सुलझाने के लिए किसी ईश्वर आदि नियन्ता की कल्पना नहीं करनी पड़ती है। यद्यपि इन कर्मों का फल भोगे बिना कोई भी जीव बच नहीं सकता है फिर भी यदि जीव चाहे तो उपायपूर्वक पूर्वबद्ध कर्मों को शीघ्र ही बलात नष्ट कर सकता है और आगामी काल में कर्मों के बन्धन को रोक सकता है। ___ कर्मों का बन्धन न होने देने के लिए ग्रन्थ में जिस उपाय को बतलाया गया है वह जैनदर्शन में 'रत्नत्रय' के नाम से प्रसिद्ध है। जिनेन्द्रदेव प्रणीत ६ तथ्यों में दृढ़ विश्वास ( सत्-दृष्टि ), उन तथ्यों का सच्चा ज्ञान और तदनुसार सदाचार में प्रवत्ति ये तीन रत्नत्रय हैं जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के नाम से
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