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४४० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन का विवेचन किया गया है उसे एक मुमुक्षु व तत्त्वजिज्ञासु की दृष्टि से निम्नोक्त प्रकार से अभिव्यक्त किया जा सकता है :
यह प्रत्यक्ष दृश्यमान विश्व असीम है। हमारे द्वारा इसकी कल्पना कर सकना संभव नहीं है। इस असीम विश्व में सर्वत्र सृष्टि नहीं है अपितु इसके बहुत ही स्वल्प भाग में सृष्टि है, उसमें भी मानव की सृष्टि बहुत ही अल्प भाग में है। फिर भी मानव का सृष्टि-स्थल हमारे लिए बहुत विशाल है। सामान्यतः जहां मानव का निवास है उसके ऊपर देवों का और नीचे नारकियों का निवास है। तिर्यञ्चों का सर्वत्र सद्भाव है। इस तरह यह विश्व एक सुनियोजित शृंखला से बद्ध है। इसका संचालक कोई ईश्वर आदि सर्वशक्तिमान् तत्त्व नहीं है। इस विश्व में कुल छः द्रव्य हैं जिनमें से सिर्फ आकाश ही एक ऐसा द्रव्य है जिसका सर्वत्र सद्भाव पाया जाता है, शेष पाँच द्रव्य आकाश के एक सीमित प्रदेश में ही पाए जाते हैं। आकाश के जिस भाग में जीवादि छः द्रव्यों की सत्ता है अथवा सृष्टि है उसे लोक या लोकाकाश कहा गया है तथा जिस भाग में सृष्टि का अभाव है, सिर्फ आकाश ही आकाश है उसे अलोक या अलोकाकाश । अलोकाकाश में पृथिवी. अप, तेज, वायु आदि किसी की भी सत्ता नहीं हैं। वहाँ आकाश मात्र होने से उसे अलोकाकाश कहा गया है। .
इस लोक में जिन ६ द्रव्यों की सत्ता स्वीकार की गई है उनके नाम ये हैं : १. जीव (आत्मा-चेतन), २. पुद्गल (रूपी अचेतन), ३. धर्म (गति का माध्यम), ४. अधर्म ( स्थिति का माध्यम), ५. आकाश और ६. काल । चैतन्य के सदभाव और असदभाव की दष्टि से इन्हें जीव और अजीव (पुद्गल आदि पाँच द्रव्य) के भेद से दो भागों में भी विभक्त किया गया है। यह विभाजन चैतन्य नामक गुण के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा से किया गया है । इसी प्रकार अन्य गुण-विशेष के सद्भाव-असद्भाव की अपेक्षा से भी ग्रन्थ में द्रव्य को रूपी-अरूपी, अस्तिकाय-अनस्तिकाय, एकत्वसंख्याविशिष्ट-बहुत्वसंख्याविशिष्ट आदि प्रकार से विभाजित किया गया है। चेतन ( आत्मा ) जीव है । पृथिवी आदि समस्त दृश्यमान वस्तुएँ पुद्गल रूपी अचेतन हैं। जीवादि की गति का अप्रेरक
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