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४३८] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन सामान्य आचार से सम्बन्धित कुछ सैद्धान्तिक मतभेद । परन्तु ग्रन्थ में आए हुए केशि-गौतम संवाद तथा अन्य कई स्थलों को देखने से ज्ञात होता है कि यह बाह्य सैद्धान्तिक मतभेद कोई महत्त्व नहीं रखता है। ग्रन्थ में सर्वत्र बाह्योपचार की अपेक्षा आभ्यन्तरिक उपचार एवं वीतरागता पर जोर दिया गया है जो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों को मान्य है। यह अवश्य है कि महावीर के परिनिर्वाण के बाद करीब १००० वर्षों के मध्य इसमें भी अन्य आगम-ग्रन्थों की तरह परिवर्तन और संशोधन होने पर भी यह अपने मूलरूप में सुरक्षित है।
जिस प्रकार 'मूलसूत्र' शब्द के अर्थ में मतभेद है उसी प्रकार उत्तराध्ययन के नामकरण के विषय में भी निश्चित मत नहीं है । नियुक्तिकार के अनुसार उत्तराध्ययन का अर्थ है-जिसका आचाराङ्गादि अंग-ग्रन्थों के बाद अध्ययन किया जाए। श्री कानजी भाई पटेल ने अपने लेख 'उत्तराध्ययन-सूत्र : एक धार्मिक काव्यग्रन्थ' में लायमन का मत उदधत करते हए 'Later Reading' का अर्थ 'अन्तिम रचना' किया है। यद्यपि Later Reading का यह अर्थ संदिग्ध है फिर भी यदि ऐसा एक विकल्प मान भी लें तो कोई आपत्ति भी नहीं है । ये दोनों ही मत सयुक्तिक प्रतीत होते हैं क्योंकि उत्तराध्ययन के अध्ययनों के अध्ययन की परम्परा आचाराङ्गादि अंग-ग्रंथों के बाद रही है तथा इसकी रचना भी भगवान महावीर के उत्तरकाल ( परिनिर्वाण के समय ) में हुई है । 'उत्तर' शब्द का 'बिना पूछे प्रश्नों का उत्तर' अर्थ करके अथवा 'उत्तरोत्तर अध्ययनों की श्रेष्ठता' अर्थ करके जिसमें बिना पूछे प्रश्नों का उत्तर दिया गया हो अथवा जिसके अध्ययन उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हों वह उत्तराध्ययन है, ऐसी मान्यता वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थ के आधार पर सही नहीं कही जा सकती है क्योंकि प्रकृत ग्रन्थ में ऐसा कोई संकेत नहीं है । ___ उत्तराध्ययन में ३६ अध्ययन हैं जिनमें मुख्यरूप से नवदीक्षित जैन साधुओं के सामान्य आचार-विचार के साथ जैनदर्शन के मूलभूत दार्शनिक सिद्धान्तों की सामान्य चर्चा की गई है। ऐसा होने पर भी हम इसे मात्र जैन साधुओं के आचार-विचार तथा शुद्ध दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादक नीरस ग्रन्थ नहीं कह सकते
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