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प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति
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जागरूक रहते थे । इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार के अस्त्रों-शस्त्रों आदि का निर्माण भी कराते थे ।
चोर व डाकू भी कई प्रकार के थे । उन्हें पकड़ने और दण्ड देने के लिए न्याय की व्यवस्था थी । अपराधी को मृत्यु - दण्ड भी दिया जाता था । अपराधी को वधस्थान ले जाते समय उसे एक निश्चित वेश-भूषा पहनाकर शहर में घुमाया जाता था ताकि अन्य लोग उसे देखकर वैसा काम न करें । शरणागत की रक्षा की जाती थी । राजाज्ञा को सभी लोग प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार नहीं करते थे ।
नाट्यकला, स्थापत्यकला, संगीतकला, चित्रकला आदि का विकास था और इनका विकास प्राय: राजाओं के द्वारा ही होता था ।
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जनसामान्य की प्रवृत्ति धर्म से हटकर भोग-विलास की ओर Safar थी । यद्यपि श्रेष्ठ साधुगण धर्म में स्थिर करने के लिए प्रयत्नशील थे फिर भी लोग अपने आचार से बहुत अधिक मात्रा में पतित हो रहे थे । आचार से पतित होनेवाले साधु लोग कुतर्क करके गुरु एवं आचार्य आदि की अवहेलना करते थे । धार्मिक तथा दार्शनिक साधुओं के कई सम्प्रदाय थे । इन सबमें जैन श्रमणों तथा ब्राह्मणों का आधिपत्य था । श्रेष्ठ साधुओं का सत्कार सर्वत्र होता था। राजा भी उनके कोप से भयभीत रहते थे । जैन श्रमणों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी जातियों के व्यक्ति थे । अधिकांश क्षत्रिय थे । जैनश्रमणों के भी दो सम्प्रदाय थे जिन्हें श्रावस्ती के उद्यान में हुए एक सम्मेलन द्वारा एक में मिला दिया गया था परन्तु कालान्तर में वे पुनः श्वेताम्बर और दिगम्बर के रूप में प्रस्फुटित हुए ।
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इस तरह उत्तराध्ययन में समाज और संस्कृति का जो सामान्य चित्रण मिलता है वह तत्कालीन अन्य ग्रन्थों का अवलोकन किए बिना पूर्ण नहीं कहा जा सकता है । इसके अतिरिक्त उत्तराध्ययन के मुख्यतः धार्मिक ग्रन्थ होने से तथा किसी एक काल-विशेष की रचना न होने से इसमें चित्रित समाज व संस्कृति से यद्यपि किसी एक काल - विशेष का पूर्ण चित्र उपस्थित नहीं होता है फिर भी तत्कालीन समाज एवं संस्कृति की एक झलक अवश्य मिलती है ।
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