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प्रकरण ६ : मुक्ति जीवन्मुक्तों के प्रकार-ग्रन्थ में उन सभी जीवों को जीवन्मुक्त कहा गया है जो मुक्ति के पथ की ओर अग्रसर हो चुके हैं। ये जीवन्मुक्त दो प्रकार के हो सकते हैं : १. जो जीवन्मुक्ति की ओर बढ़ रहे हैं और २. जो पूर्ण जीवन्मुक्त हो चुके हैं। __ पहले प्रकार के जीवन्मुक्त वे हैं जो अभी पूर्ण जीवन्मुक्त तो नहीं हुए हैं परन्तु मुक्ति की ओर बढ़ रहे हैं। इन्हें ग्रन्थ में अल्पसंसारी (परीतसंसारी-अल्प-पाशबद्ध) कहा गया है।' ये या तो इसी भव में या कुछ जन्मों के बाद अवश्य ही मुक्त हो जाते हैं । इस प्रकार ये वास्तव में पूर्ण जीवन्मुक्त तो नहीं हैं फिर भी जीवनमुक्ति के निकट होने से इन्हें उपचार से जीवन्मुक्त कहा जा सकता है। इस श्रेणी में वे सभी जीव आते हैं जो पहले बतलायी गई 'क्षपकश्रेणी' का आश्रयण करके मक्ति की ओर आगे बढ़ते हैं। इस क्षपकश्रेणी का अर्थ है-जो कर्मों को सदा के लिये नष्ट करता हुआ आगे बढता है। अतः इस श्रेणी को ग्रन्थ में 'अकलेवरश्रेणी' ( शरीररहित श्रेणी ), 'ऋजुश्रेणी' ( सीधी श्रेणी ) और 'करणगुणश्रेणी' (ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति की श्रेणी) कहा गया है। २ इसका आश्रय लेनेवाला जीव शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । अतः द्रुमपत्रक अध्ययन में गौतम को लक्ष्य करके कहा गया है कि 'हे गौतम ! अकलेवरश्रेणी को उच्च करता हुआ क्षेमकर, शिवरूप अनुत्तर सिद्धलोक को प्राप्त कर । इसमें क्षणमात्र का भी विलम्ब मत कर।'3
दूसरे प्रकार के जीवन्मुक्त वे हैं जिन्होंने चारों प्रकार के घातिया कर्मों को नष्ट करके केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर
असत्यर्हत्याप्तागमपदार्थावगमो न भवेदस्मदादीनाम्, संजातश्चैतत्प्रसादादित्युपकारापेक्षया वादावर्हन्नमस्कारः क्रियते।
-षट् खण्डागम, धवलाटीका, पृ० ५३-५४. १. ते होंति परित्तसंसारी।
-उ०३६.२६१. २. अकलेवरसेणि भूसिया।
-उ० १०.३५. तथा देखिए-पृ० २३३, पा० टि० १. ३. वही; उ० १०.३५
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