Book Title: Uttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Sohanlal Jaindharm Pracharak Samiti

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Page 424
________________ ३६८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन थे और इनका सर्वत्र निरादर ही होता था। कुछ शूद्र अपने गुणों के कारण उच्चपद को भी प्राप्त कर लेते थे। जैसे: चाण्डाल ( श्वपाक ) जाति में उत्पन्न हरिके शिबल ने जैनदीक्षा ग्रहण करके ऋद्धि आदि को प्राप्त किया था ।२ पूर्वभव में चाण्डाल कुलोत्पन्न चित्त और संभूत ने तपस्या करके देवलोक को प्राप्त किया था। हरिकेशिबल आदि कुछ शूद्र कुलोत्पन्न चाण्डाल भी तप के प्रभाव से अपना प्रभुत्व जमा लेते थे। परन्तु ऐसे लोग बहुत ही कम होते थे और इनका समादर प्रायः सर्वत्र नहीं होता था। विभिन्न जातियां एवं गोत्रादि-उपर्युक्त वर्ण-जातियों के अतिरिक्त उस समय अपने-अपने कार्यों के अनुसार अन्य अनेक उपजातियाँ भी थीं। जैसे : सारथि (रथ चलाने वाले), लोहकार (लुहार),५ बढ़ई (लकड़ी तरासने वाले ,६ गोपाल (गायों को पालने वाले), भण्डपाल (कोषाध्यक्ष ), भारवाहक (बोझा ढोने वाले ), १ तीसे य जाईइ उ पावियाए वुच्छासु सोवागनिवेसणेसु । सव्वस्स लोगस्स दुगंछणिज्जा......" -उ० १३.१६.' तथा देखिए-उ० १३.१८. २. सोवागकुल संभूओ गुणुत्तरधरो मुणी । -उ० १२.१. ३. उ० १३.६-७. ४. अह सारही विचितेइ । -उ० २७.१५. तथा देखिए-उ० २२.१५,१७. ५. कुमारेहिं अयं पिव । ताडिओ कुटिट् ओ"। -उ० १६.६८. ६. वडुईहिं दुमो विव । -उ० १६.६७. ७. गोवालो भंडवालो वा जहा तद्दन्वणिस्सरो। -उ० २२.४६. ८. वही। ६. अबले जह भारवाहए। -उ० १०.३३. तथा देखिए- उ० २६.१२. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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