________________
प्रकरण ६ : मुक्ति
[३८६ मुक्ति की ओर ले जाना है। परन्तु मुक्त जीवों की क्या अवस्था होती है ? मक्ति की प्राप्ति कैसे होती है ? आदि विषयों में मतभेद होते हुए भी मूल उद्देश्य में समानता है। वह मूल उद्देश्य है-जीवों को दुःख से छुटकारा दिलाना।
प्रकृत ग्रन्थ में इस मुक्ति की दो अवस्थाएँ मिलती हैं : १. जीवन्मुक्ति तथा २. विदेहमुक्ति। जीवन्मुक्ति विदेहमुक्ति की पूर्वावस्था है। जीवन्मुक्ति संसार में वर्तमान रहने पर ही होती है और विदेहमुक्ति संसार से परे मृत्यु के उपरान्त होती है। जीवन्मक्ति के बाद विदेहम क्ति अवश्यम्भावी है। जीवन्मुक्त तथा विदेहमुक्त दोनों ही संसार में पुनः कभी भी जन्म नहीं लेते हैं। जीवन्मुक्तों को निष्क्रिय कुछ अघातिया कर्मों का फल भोगने के लिए कुछ समय तक संसार में रुकना पड़ता है परन्तु विदेहमक्त सब प्रकार के बन्धन से रहित होने के कारण लोकान्त में स्थिर रहते हैं। विदेहमक्त जीवों से मानव का साक्षात कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। उनकी स्थिति स्वान्तःसुखाय होती है जो ‘मानव की अल्पबुद्धि के परे है। विदेहमुक्त जीवों में सुख की कल्पना करीब-करीब उसी प्रकार की गई है जिस प्रकार गहरी निद्रा में सोए हुए व्यक्ति को जागने पर होने वाली सखानुभति । यहाँ मख्य अन्तर इतना है कि मक्तों की सखानुभति . जाग्रतावस्था की है तथा अविनश्वर है जबकि सोए हुए व्यक्ति
की सुखानुभूति सुषुप्ति अवस्था की है तथा क्षणिक है। - शरीर को कर्मजन्य स्वीकार करने के कारण विदेहमुक्त जीवों को 'अशरीरी' माना गया है। जीव ( आत्मा ) का स्वभाव ज्ञान और दर्शनरूप होने से मुक्त जीवों को ज्ञान एवं दर्शनरूप चेतना गुणवाला स्वीकार किया गया है। इन मुक्त जीवों के ज्ञान, दर्शन, सुख आदि सभी अलौकिक ही हैं क्योंकि उनके ज्ञानादि शरीर और इन्द्रियादि की सहायता के बिना ही होते हैं। इस तरह विदेहमुक्तों की यह अवस्था ज्ञान, दर्शन एवं सुखादि से युक्त होकरके भी
भावात्मक ही है । बौद्धों की तरह अभावात्मक, नैयायिकों की तरह . मात्र दुःखाभावरूप तथा वेदान्तियों की तरह ब्रह्मैक्यरूप नहीं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org