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३६४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन वाला, कालिमा से रहित स्वर्ण की तरह राग-द्वेष व भय आदि दोषों से रहित, तपस्वी, कृश, दमितेन्द्रिय, सदाचारी, निर्वाणाभिमुख, मन-वचन काय से त्रस एवं स्थावर जीवों की हिंसा से रहित, क्रोधादि के वशीभूत होकर मिथ्या वचन न बोलने वाला, सचित्त अथवा अचित्त वस्तु को थोड़ी अथवा अधिक मात्रा में बिना दिए ग्रहण न करने वाला, मन-वचन-काय से किसी भी प्रकार के मैथुन का सेवन न करने वाला, जल में उत्पन्न होकर भी जल से भिन्न कमल की तरह कामभोगों ( धनादि के परिग्रह ) में अलिप्त, लोलुपता से रहित, मुधाजीवी (भिक्षान्न जीवी), अनगार, अकिंचन वत्तिवाला, गहस्थों में असंसक्त, सब प्रकार के संयोगों ( माता-पिता आदि के सम्बन्धों) से रहित तथा सब प्रकार के कर्मों से मुक्त ( जीवन्मुक्त) है वह ब्राह्मण है।'
इस तरह सच्चे ब्राह्मण का स्वरूप बतलाते हुए जैन साध के सामान्य सदाचार को प्रकट किया गया है। इससे स्पष्ट है कि उस समय ब्राह्मणों का प्रभुत्व था तथा वे जनता में पूज्य भी थे परन्तु वे अपने कर्त्तव्य से पतित हो रहे थे। इसीलिए सदाचार-परायण व्यक्ति को ब्राह्मण कहा गया है। ग्रन्थ में ब्राह्मण के लिए 'माहण' शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ है-'मत मारो'।' ब्राह्मण के पास जो भी धन होता था वह राजा आदि के द्वारा दानदक्षिणा में दिया गया होता था। अतः उसके धन को ग्रहण करना वमन किए हुए पदार्थ को ग्रहण करने के तुल्य था ।२ ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों का उच्चकुलों में समावेश था । अतः ब्राह्मण और क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होने वाले इषकार देशवासी छः जीवों को उच्चकुलोत्पन्न कहा गया है। नमिराजर्षि के दीक्षित होने पर १. वही। २. वंतासी पुरिसो रायं न सो होइ पसंसिओ। महणेण परिच्चत्तं धणं आयाउमिच्छसि ।।
-उ० १४.३८. तथा देखिए-उ० ६.३८. ३. सकम्मसेसेण पुराकएणं कुलेसुदग्गेसु य ते पसूया।
-उ०१४.२. तथा देखिए-उ० १४.३०
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