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३६० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन परिस्थिति के अनुसार बढ़ाए गए परीषह हैं। वस्तुतः परीषहजय से तात्पर्य है-निन्दा-प्रशंसा, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, मान-अपमान आदि अनुकल और प्रतिकूल परिस्थितियों के आने पर भी समभाव रखते हुए अपने कर्तव्य-पथ में दृढ़ रहना। 'स्त्री' परीषह से उस समय के पुरुषों की प्रभुसत्ता का ज्ञान होता है, अन्यथा 'काम' ऐसा परीषह का नाम हो सकता था।
साधु की प्रतिमाएँ यहाँ 'प्रतिमा' शब्द का अर्थ है-एक विशेष प्रकार के तप का नियम लेना । ग्रन्थ में साधु की प्रतिमाओं का सिर्फ दो जगह उल्लेख हुआ है जिनका पालन करने से संसार में भ्रमण नहीं होता है।' बारह की संख्या के प्रसंग में इनका उल्लेख होने से इनकी संख्या बारह है । यद्यपि ग्रन्थ में इनके नामादि का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है तथापि टीका-ग्रन्थों से निम्न जानकारी प्राप्त होती है : प्रतिमा-अनशन तपविशेष का अभ्यास :
टीका-ग्रन्थों में दशाश्रुतस्कन्ध के सप्तम अध्याय ( उद्देश ) के अनुसार जिन १२ प्रतिमाओं का उल्लेख किया गया है उन्हें देखने से पता चलता है कि इन प्रतिमाओं के नाम समय की सीमा के आधार पर किए गए हैं तथा इनमें एक निश्चित क्रम के अनुसार अनशन और ऊनोदरी तप का अभ्यास किया जाता है। ये १. पडिमं पडिवज्जो ।
-उ० २.४३. भिक्खूणं पडिमासु य ।
-उ० ३१.११. २. साधु की बारह प्रतिमाएँ ये हैं : १. एकमासिकी-एक मास तक
एक दत्ति अन्न की एवं एक दत्ति जल की ग्रहण करना और आनेवाले सभी प्रकार के कष्टों को सहन करना, २. द्विमासिकी-दो मास तक दो दत्तियाँ जल की और दो दत्तियां अन्न की लेना, ३. त्रिमासिकी-तीन मास तक तीन दत्तियाँ लेना, ४. चतुर्मासिकी-चार मास तक चार दत्तियाँ लेना, ५. पञ्चमासिकी-पाँच मास तक
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