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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
आत्मा में जो संकोच विकास माना गया है वह कर्मजन्य शरीर के फलस्वरूप माना गया है । मुक्तात्माओं के शरीर न होने से तज्जन्य संकोच - विकास का होना भी संभव नहीं है । अतः मुक्तात्माओं की आकृति ( अवगाहना ) आदि की कल्पना अन्तिम जन्म के शरीर के आधार पर की गई है । यद्यपि ये मुक्त जीव रूपादि से रहित होते हैं तथापि जो यह आत्मप्रदेशों के विस्तार की कल्पना की गई है वह आकाशप्रदेश में ठहरे हुए आत्मा के अदृश्य प्रदेशों की अपेक्षा से है । अमूर्त होने से एक आत्मा के प्रदेशों में अन्य आत्मा के प्रदेश भी रह सकते हैं ।
सुख - 'कर्म' के प्रकरण में बतलाया गया था कि सुख एवं दुःख का अनुभव अपने संचित वेदनीय कर्मों के अनुसार होता है । अतः शंका होती है कि जब ये मुक्तात्माएं कर्मरहित हैं तो फिर उन्हें सुख का अनुभव कैसे होता है ? सुख और दुःख के कर्मजन्य होने से कर्मरहित मुक्तात्माओं में दुःखाभाव की तरह सुख का भी अभाव मानना चाहिए । इसके उत्तर में यह कहना पर्याप्त है कि मुक्तात्माओं में जो सुख की कल्पना की गई है वह अलौकिक सुख है, न कि वेदनीय कर्मजन्य सांसारिक सुख । अतः ग्रन्थ में इस सुख को अनुपमेय सुख कहा गया है ।" मुक्तात्माओं के शरीर एवं इन्द्रियादि न होने से उनका सुख कर्मजन्य नहीं हो सकता है। आत्मा का स्वभाव सुखरूप मानने से तथा मानव की प्रवृत्ति सुखप्राप्ति की ओर होने से मोक्षावस्था में अविनश्वर एवं अनुपमेय सुख की कल्पना की गई है । यहाँ पर वस्तुतः सब प्रकार का दुःखाभाव ही अलौकिक सुखानुभव है क्योंकि जीव अपनी-अपनी अनुभूति के अनुसार ही सुख एवं दुःख की कल्पना करता है । जहाँ कोई इच्छा ही नहीं वहाँ दु:ख कहाँ ? जहाँ किसी विषय की इच्छा है वहीं दुःख है और जहाँ पूर्णता है वहाँ मानो तो अलौकिक सुख है और न मानो तो सुख एवं दुःख कुछ भी नहीं है । यह मुक्ति पूर्ण निष्काम की अवस्था है । दुःखाभाव होने से तथा जीव का स्वरूप सुखस्वभाव मानने से यहाँ अलौकिक सुख की कल्पना की गई है ।
१. देखिए - पृ० ३७७, पा० टि० ३-४.
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