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३८४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन देव, नरक एवं तिर्यञ्च गति से मक्त होने वाले जीवों की संख्या का विशेषरूप से उल्लेख न करके सामान्य रूप से पुरुष, स्त्री व नपुंसक लिङ्गी का उल्लेख किया गया है। इससे यह स्पष्ट है कि मनुष्यगति का जीव ही सीधा मुक्त हो सकता है, अन्य देवादि गतिवाले जीव मनुष्यपर्याय-प्राप्ति के बाद ही मुक्त हो सकते हैं। इसीलिए सर्वार्थसिद्धि वाले देव को भी मनुष्यपर्याय की प्राप्ति के बाद ही मुक्ति का अधिकारी बतलाया है । ऊर्ध्व लोक एवं अधोलोक . से मुक्त की संख्या का जो कथन किया गया है वह वहाँ पर वर्तमान मनुष्यगति के जीवों की स्थिति की अपेक्षा से ही है जो किसी कारणवश वहाँ पहुँच गए हैं । इस तरह मनुष्य को ही साक्षात् मुक्ति प्राप्त करने का अधिकारी बतलाया गया है। यद्यपि अन्य गति के जीव भी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं परन्तु इसके लिए उन्हें पहले मनुष्यगति में आना पड़ेगा। दिगम्बर-परम्परा में सिर्फ मनुष्यगति की पुरुषजाति को ही इसका साक्षात् अधिकारी बतलाया गया है, स्त्री एवं नपुंसकलिङ्गी को नहीं।' ___ गृहस्थ एवं जैनेतर साधु को जो मुक्ति का अधिकारी बतलाया गया है वह बाह्य उपाधि की अपेक्षा से है क्योंकि भावात्मना तो सभी को पूर्ण वीतरागी होना आवश्यक है। गृहस्थ और जैनेतर साधुओं में विरले ही कोई जीव होते हैं जो मुक्ति को प्राप्त करते हैं। अतः एक समय में अधिक से अधिक मुक्त होने वाले ऐसे जीवों की संख्या जैन साधुओं की अपेक्षा कम बतलाई गई है। यहाँ पर एक समय में अधिक से अधिक सिद्ध होने वाले जीवों की जो संख्या बतलाई गई है वह इस अर्थ में है कि यदि एक ही काल में जीव अधिक से अधिक संख्या में सिद्ध हों तो १०८ ही हो सकते हैं, इससे अधिक नहीं। कम से कम कितने सिद्ध होंगे इस विषय में कोई संख्या नियत नहीं है। अतः सम्भव है कि किसी समय एक भी जीव सिद्ध न हो, जैसा कि जैन-ग्रन्थों में माना गया है।
१. भुङ क्ते न केवली न स्त्रीमोक्षमेति दिगम्बरः । प्राहुरेषामयं भेदो महान श्वेताम्बरैः सह ॥
-जिनदत्तसूरि, उद्धत, भा० द० ब०, पृ० ११६. २. त० सू०, पं० कैलाशचन्द्रकृत टीका, पृ० २३८.
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