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प्रकरण ६ : मुक्ति
[ ३८१ मुक्तात्माओं में चेतना के वर्तमान रहने से उनकी दुःखाभाव एवं सुखाभावरूप पाषाणवत् स्थिति नहीं कही जा सकती है। अतः इन्हें शान्त, शिवरूप एवं सुख की अवस्थावाला कहा गया है। इस अवस्था का कभी भी न तो विनाश होता है और न परिवर्तन । अतः इस अवस्था को अविनश्वर कहा गया है। अविन श्वर होने पर भी स्वाभाविकरूप से द्रव्य में होनेवाला उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्यरूप परिणमन तो होता ही रहता है क्योंकि यह तो द्रव्य का स्वभाव है जो प्रत्येक द्रव्य में होता है, परन्तु वृद्धि-ह्रासरूप असमानाकार परिणमन नहीं होता है। मुक्तों के ३१ गुण :
ग्रन्थ के चरणविधि नामक इकतीसवें अध्ययन में सिद्ध जीवों के ३१ अतिशय गुण बतलाए गए हैं। परन्तु वहाँ उनके नामों को नहीं गिनाया गया है। टीका-ग्रन्थों में दो प्रकार से इनकी संख्या गिनाई गई है जिन्हें देखने से प्रतीत होता है कि ये सभी गुण अभावात्मक हैं। मुक्त जीव सब प्रकार के कर्मों तथा रूपादि से रहित होते हैं। अतः प्रथम प्रकार में अमूर्तत्व की अपेक्षा से तथा द्वितीय प्रकार में कर्माभाव की अपेक्षा से मुक्त जीवों के गुणों की गणना की गई है। इन दोनों प्रकारों में कोई खास अन्तर नहीं है क्योंकि मुक्त जीव सब प्रकार के कर्मों से तथा रूपादि से रहित होते हैं। कर्मादि से रहित होने के कारण उनके पुनर्जन्म आदि का भी प्रश्न नहीं उठता है। १. सिद्धाइगुणजोगेसु ........ ।
- उ० ३१.२०. २. सिद्धों के ३१ गुणों के दो प्रकार ये हैं :
प्रथम प्रकार-पांच संस्थानाभाव, पांच वर्णाभाव, दो गन्धाभाव, पांच रसाभाव, आठ स्पर्शाभाव, तीन वेदाभाव (पुरुष, स्त्री और नपुंसकलिंग से रहित), अकायत्व, असंगत्व तथा अजन्मत्वरूप ।
द्वितीय प्रकार -पाँच ज्ञानावरणीय, नव दर्शनावरणीय, दो वेदनीय, दो मोहनीय, चार आयु, दो गोत्र, दो नाम तथा पांच अन्तराय कर्माभावरूप।
-वही, टीकाएँ।
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