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प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [३७१ अतिरिक्त ध्यान और समाधि के अन्य अवान्तर भेदों में किञ्चित् भिन्नता होने पर भी काफी समानता है तथा नामों में भी एकरूपता है जो स्वतंत्र चिन्तन का विषय है।
इस तपश्चरण में मुख्य रूप से जिन बाधाओं का सामना करना पड़ता है उन्हें ग्रन्थ में परीषह शब्द से कहा गया है। यद्यपि इनकी संख्या २२ बतलाई गई है परन्तु इनकी इयत्ता सीमित नहीं है क्योंकि परिस्थिति के अनुसार इनकी संख्या में अन्तर हो सकता है। इन सभी परीषहों के आने पर भी अपने कर्त्तव्य से च्यूत न होना परीषहजय है। साधना के पथ में प्रायः एक साथ कई परीषह आया करते हैं । इन पर विजय पाने पर ही तप की सफलता निर्भर करती है। यदि साधक इन पर विजय प्राप्त नहीं कर पाता है तो वह अपने तपं से च्युत हो जाता है और अभीष्ट फल को प्राप्त नहीं करता है । अतः ये तप की सत्यता की जांच के लिए कसौटीरूप हैं । ___ इस तरह जीवनपर्यन्त तपोमय जीवन-यापन करते रहने पर भी यदि साधु मृत्यु के समय एक निश्चित अनशनरूप तपविशेष ( समाधिमरण या सल्लेखना ) का अनुष्ठान नहीं करता है तो उसे अभीष्ट फल की प्राप्ति नहीं होती है । मृत्युसमय जोकि तपश्चर्या को फलप्राप्ति का चरमबिन्दु है, यदि साधु पूर्ववत् अडिग रहकर अनशन तपपूर्वक ( सल्लेखनापूर्वक ) शरीर का त्याग करता है तो अभीष्ट फल को प्राप्त कर लेता है। इसके द्वारा ग्रन्थ में 'अन्त भला सो सब भला' वाली कहावत को चरितार्थ किया गया है। मृत्यु के समय अनशन तप इसलिए आवश्यक है कि साधु पूर्ण विरति की अवस्था को प्राप्त कर ले । यह अनशन द्वारा शरीरत्याग आत्महनन नहीं है अपितु मृत्यु जैसे भयानक उपसर्ग के आने पर भी हंसते हुए वीरों की तरह प्राणों का त्याग कर देना है। साधु को इस समय अपने प्राणों से भी मोह नहीं रहता है और वह हंसते हुए मृत्यु का स्वागत करता है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वह मृत्यु की प्रार्थना करता है अपितु जीवन और मृत्यु की कामना न करता हुआ प्रसन्नतापूर्वक शरीर का उत्सर्ग कर देता है। इससे एक प्रकार के आत्मबल की प्राप्ति होती है । मृत्यु के समय भी अपने कर्त्तव्यपथ पर पूर्ण दृढ़ रहना और समस्त प्रकार के आहार-पान आदि का
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