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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
१८. जल्ल परीषहजय - पसीना, कीचड़, धूलि आदि के शरीर पर इकट्ठे हो जाने पर भी शरीर भेद पर्यन्त उसे दूर करने का प्रयत्न न करना जल्ल परीषहजय है ।' अर्थात् घृणित वस्तुओं का सम्पर्क होने पर उनसे घृणादि न करना तथा शरीर के संस्कार (स्नान) आदि की अभिलाषा न करना जल्ल परीषहजय है ।
१६. सत्कार पुरस्कार परीषहजय- अभिवादन, नमस्कार, निमन्त्रण आदि से किसी अन्य साधु का सम्मान होते देखकर तथा स्वयं का सम्मानादि न होने पर ईर्ष्याभाव न करते हुए वीतरागी रहना सत्कार-पुरस्कार परीषहजय है ।
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२० प्रज्ञा परीषहजय - ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी यदि किसी के पूछने पर उत्तर न दे सके तो 'कर्मों का यह फल है' ऐसा विचार करना प्रज्ञा परीषहजय है । 3
२१. अज्ञान परीषहजय - सब प्रकार से साधु-धर्म का पालन करने पर भी अज्ञानता के दूर न होने पर यह न सोचना - 'मैं व्यर्थ
भोगों से निवृत्त हुआ और ज्ञान की प्राप्ति भी नहीं हुई' अज्ञान परीषहजय है । अर्थात् ज्ञान की प्राप्ति न होने पर भी धर्म में दृढ़ रहना अज्ञान परीषहजय है ।
१. जाव सरीरभेओत्ति जल्लं कारण धारए ।
.- उ० २.३७.
तथा देखिए - उ० २.३६; १९.३२. २. अभिवायणमब्भुट्ठागं सामी कुज्जा निमंतणं । जे ताइं पडिसेवंति न तेसि पीहए मुणी ॥
- उ० २.३८.
तथा देखिए - उ० २.३६; २१.२०. ३. से नूणं मए पुव्वं कम्माऽणाणफलाकडा | जेणाहं नाभिजानामि पुट्ठो केणइ कण्हुई ||
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- उ० २.४०.
तथा देखिए - उ० २.४१. ४. निरट्ठगम्मि विरओ मेहुणाओ सुसंवुडो । जो सक्खं नाभिजानामि धम्मं कल्लाणपावगं ॥
तथा देखिए - उ० २.४३.
- उ० २.४२.
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