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प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [३४५ (गुरु के आने पर खड़े होना ), २. अञ्जलिकरण ( हाथ जोड़कर नमस्कार करना), ३. आसनदान (उच्चासन देना), ४. गुरुभक्ति (गुरु के प्रति अनुराग ) और ५. भावशुश्रूषा (गुरु की अन्तःकरण से सेवा करना )। ये ही विनय तप के पाँच प्रकार हैं।' धर्मवृद्धि एवं ज्ञानप्राप्ति के लिए गुरु के प्रति की गई विनय ही यहां पर विनय तप है। धनप्राप्ति आदि के लिए की गई विनय यहां पर अभिप्रेत नहीं है । साध के लिए यह तप आवश्यक है। अतः छः आवश्यकों में 'वन्दन' नाम का एक आवश्यक भी माना गया है। इसका विशेष विचार विनीत शिष्य के प्रसंग में किया जा चुका है।
३. वैयावृत्य तप :
आहार-पान आदि के द्वारा (ग्लानि के बिना) गुरुजनों की यथाशक्ति सेवा-शुश्रूषा करना वैयावत्य तप है। गुरुजनों की सेवा करना साधु का प्रतिदिन का सामान्य कार्य है जैसाकि साध की दिनचर्या में बतलाया गया है। यद्यपि विनय तप के भाव-शुश्रूषा नामक पाँचवें भेद के अन्तर्गत ही यह तप आ जाता है परन्तु यहां पर जो इसका स्वतन्त्र तप के रूप में कथन किया गया है वह इस पर विशेष जोर देने के लिए है। दीक्षागुरु आदि सेवायोग्य पात्रों ( व्यक्तियों ) २ की अपेक्षा से इस तप के १० भेद गिनाए १. अब्भुटाणं अंजलिकरणं तहेवासणदायणं । गुरुभत्तिभावसुस्सूसा विणओ एस वियाहिओ ॥
__ -उ० ३०.३२. २. सेवायोग्य १० पात्र इस प्रकार हैं : १. दीक्षागूरु ( आचार्य ), २.
ज्ञान देनेवाला अध्यापक ( उपाध्याय ), ३. ज्ञानवयोवृद्ध साधु ( स्थविर ), ४. उग्र तप करनेवाला ( तपस्वी ), ५. रोगादि से पीड़ित साधु ( ग्लान ), ६, नवदीक्षित साधु (शैक्ष), ७. सहधर्मी ( साधार्मिक ), ८. एक ही दीक्षागुरु का शिष्य-समुदाय (कुल), ६. अनेक दीक्षा गुरुओं के शिष्यों का समुदाय ( गण ) और १०. साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविका का समुदाय ( संघ ) ।
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