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प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार
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भेद गिनाए हैं ।' एकाग्रचित्त से स्वाध्याय करना भी धर्मध्यान है | अतः ग्रन्थ में स्वाध्याय से संयुक्त गर्दभालि मुनि को धर्मध्यान करनेवाला कहा गया है ।
घ. शुक्लध्यान - शुद्ध आत्म-तत्त्व में चित्त को स्थिर करना शुक्लध्यान है । शोक ( शुच) को दूर (क्लामना) करनेवाला ध्यान शुक्लध्यान है । 3 तत्त्वार्थ सूत्र में इसके उत्तरोत्तर विकासक्रम के आधार पर चार भेद किए गए हैं । वे चार भेद इस प्रकार हैं :
१. पृथक्त्ववितर्क सवीचार - श्रुतज्ञान (वितर्क) का आलम्बन लेकर भेदप्रधान ( पृथक्त्व) चिन्तन करना 'पृथक्त्ववितर्क' कहलाता है | इसमें भेदप्रधान चिन्तन की अविच्छिन्न धारा के रहने पर भी विचारों का संक्रमण ( परिवर्तन ) होता रहता है । अत: इसे पृथक्त्ववितर्क सवीचार ध्यान कहते हैं । २. एकत्ववितर्क निर्वोचारश्रुतज्ञान ( वितर्क) का आलम्बन लेकर अभेद ( एकत्व या अपृथक्त्व ) प्रधान चिन्तन 'एकत्ववितर्क' कहलाता है । इसमें विचारों का संक्रमण नहीं होता है । अत: इसे एकत्ववितर्क निर्वीचार ध्यान कहते हैं । ३. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति - श्वासोच्छ्वास जैसी अत्यन्त सूक्ष्म क्रिया के वर्तमान रहने से तथा अपतनशील ( अप्रतिपाती ) होने से इसे सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति ध्यान कहते हैं । इसमें मनोयोग, वचनयोग एवं काययोग का क्रमशः निरोध होता है । इस ध्यान की प्राप्ति केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद आयु के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण शेष रहने पर होती है । इस ध्यान में श्वासोच्छ्वास को छोड़कर पूर्ण निश्चेष्टावस्था रहती है । ४. समुच्छिन्न क्रियाऽनिवृत्ति - श्वासोच्छ्वास
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१. आज्ञा पायविपाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य ।
- त० सू० ६.३७.
२. सज्झायज्झाणसंजुत्तो धम्मज्झाणं झियाय ।
३. शुचं शोकं क्लामयतीति शुक्लं ।
( ३०.३५ ) भावविजयटीका । ४. पृथक्त्व करव-वितर्क सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति व्युपरत क्रियानिवर्तीनि ।
५. उ० २६.७२
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- उ० १८.४.
- उ०
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- त० सू० १.३६.
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