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३३८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन करने को भिक्षाचर्या कहा गया है।' टीकाग्रन्थों को देखने से पता चलता है कि ये गोचरी और एषणाएँ आदि कुछ नियमविशेष हैं जिन का संकल्प करके साध भिक्षा के लिए जाता है। यदि उन लिए गए संकल्पों के अनुकूल भिक्षा मिलती है तो साधु उसे ग्रहण कर लेता है और यदि उन संकल्पों के अनुकूल भिक्षा नहीं मिलती है तो वह अनशन तप करता है ।
इस तरह भिक्षाचर्या और ऊनोदरी तप में बहुत स्थलों पर समानता दिखलाई पड़ती है क्योंकि नियमविशेष लेने से भोजन का कम मिलना स्वाभाविक है। ऐसा होने पर भी भिक्षाचर्या सामान्य तप है और ऊनोदरी विशेष । ऊनोदरी में भख से कम खाने की प्रधानता है जबकि भिक्षाचर्या में भिक्षा लेने सम्बन्धी नियमविशेष की। अतः भिक्षाचर्या में साधु भरपेट भोजन कर सकता है। इस में जो नियमविशेष हैं वे अपनी इन्द्रियों की स्वच्छन्द प्रवत्ति को रोकने के लिए हैं। भिक्षाचर्या साधु का सामान्य तप है जिसका वह प्रतिदिन पालन करता है और ऊनोदरी विशेष तप है, जिसका वह कभी-कभी पालन करता है। अतः ग्रन्थ में साधु के जीवन को भिक्षाचर्या के रूप में प्रदर्शित किया गया है। भृगु पुरोहित की पत्नी भिक्षाचर्या की कठोरता का वर्णन करते हुए कहती है कि धैर्यशील एवं तपस्वी ही इस ( भिक्षाचर्या ) को धारण कर सकते हैं। इसी प्रकार भद्रा ( सोमदेव की स्त्री) राजकुमारी भिक्षार्थ आए हुए हरिके शिबल मुनि के ऊपर क्रोधित होनेवाले ब्राह्मणों से कहती है कि भोजनार्थ उपस्थित हुए साधु का तिरस्कार करना या मारना उसी प्रकार उपहासास्पद है जिस प्रकार नखों से पर्वत को खोदना, दांतों से लोहे को चबाना, आग को पैरों से
१. अट्ठविहगोयरग्गं तु तहा सत्तेव एसणा। अभिग्गहा य जे अन्ने भिक्खायरियमाहिया ॥
-उ० ३०.२५. २. वही, टीकाएँ। ३. धीरा हु भिक्खारियं चरति ।
-उ० १४.३५.
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