________________
३३६ ]
उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन
३, भिक्षाचर्या तप:
भिक्षा द्वारा प्राप्त भोजन-पान से जीवन-यापन करना। ग्रन्थ में भिक्षाचर्या को विभिन्न स्थानों पर गोचरी ( गाय की तरह आचरण ), मृगचर्या ( मृग की तरह आचरण ) और कपोतवृत्ति (कबूतर की तरह आचरण ) भी कहा गया है। इससे भिक्षाचर्या के स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है । जैसे :
१. गोचरी-जिस प्रकार गाय तृणादि का थोड़ा-थोड़ा भक्षण करती हुई उसे जड़ से नहीं उखाड़ती है उसी प्रकार भिक्षाचर्यावाला साधु आहार की गवेषणा करते समय गृहस्थ को पुन: आहार बनाने के लिए मजबूर न करते हुए थोड़ा-थोड़ा आहार लेता है.' २. मृगचर्या-जिस प्रकार मृग नाना स्थानों में भ्रमण करके अपने उदर का पोषण करता है तथा रोगादि के हो जाने पर भी औषधि आदि का सेवन न करते हए अकेला ही सर्वत्र विचरण करता रहता है उसी प्रकार भिक्षाचर्यावाला साध किसी एक गहविशेष से सम्बद्ध न होकर अनेक घरों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा लाकर उदरपोषण करता है तथा रोगादि के हो जाने पर भी औषधोपचार की इच्छा न करते हुए एकाकी विचरण करता है और ३. कपोतवत्ति-जैसे कबूतर काँटों को छोड़कर परिमित अन्न-कणों को चुग लेता है उसी प्रकार एषणा समिति-सम्बन्धी दोषों को बचाकर साधु परिमित एवं शुद्ध ( एषणीय ) आहार ग्रहण करता है । ___इस तरह भिक्षा के द्वारा ही जीवन-यापन करने के कारण साध को 'भिक्ष' शब्द से भी कहा जाता है। इस भिक्षाचर्या तप के
१. जहा मिए एग अणेगचारी अणेगवासे धुवगोअरे य । एवं मुणी गोयरियं पविढे नो हीलए नोवि य खिसएज्जा ।।
-उ० १६.८४, २. वही; उ० १६.७७-८६. ३. कावोया जा इमा वित्ती ।
-उ० १६.३४.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org