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प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३३५ बिना आहार लिए सीधे लम्बी दूर तक चले जाना फिर लौटते समय भिक्षा लेना )।
ये सब भेद क्षेत्र-सम्बन्धी नियमों के आधार से बतलाए गए हैं। क्षेत्र-भेद की अपेक्षा से इनके कई अन्य भेद हो सकते हैं। इन सबका तात्पर्य इतना ही है कि आहार-प्राप्ति के क्षेत्र को सीमित (न्यून) कर लेना ताकि कम आहार मिले। क्षेत्र की न्यूनता होने पर भी कभी-कभी संभव है कि भरपेट भोजन मिल जाए अतः क्षेत्र की न्यूनता इतनी अवश्य रहनी चाहिए ताकि भरपेट भोजन न मिले ।
ग. काल ऊनोदरी-सामान्यरूप से दिन में १२ से ३ बजे के बीच ( ततीय पौरुषी ) भिक्षार्थ जाने का विधान है। भिक्षा ग्रहण करने के इस निश्चित समय के प्रमाण को कुछ कम करना काल ऊनोदरी है अर्थात ऐसा नियम लेना कि तृतीय पौरुषी के चतुर्थांश बीत जाने पर भिक्षा लूंगा या अन्य प्रकार से समय निश्चित करना जो सामान्यतया निश्चित समय के प्रमाण से कुछ कम अवश्य हो। भिक्षा ग्रहण करने के समय की न्यूनता होने पर भोजन की प्राप्ति में कमी होना संभव है। अतः इसे काल ऊनोदरी कहा जाता है।
घ. भाव ऊनोदरी-भावप्रधान होने से इसे भाव ऊनोदरी कहा जाता है। इसमें भिक्षार्थ जाते समय ऐसा नियम किया जाता है कि स्त्री के या पुरुष के, अलंकृत के या अनलंकृत के, युवा के या बालक के, सौम्याकृतिवाले के या अन्य किसी विशेष प्रकार की भाव-भङ्गिमावाले दाता के मिलने पर ही भिक्षा लँगा, अन्यथा नहीं लूंगा। इस प्रकार का नियम ले लेनेवाले साध को सब जगह से भिक्षा उपलब्ध न होने से सम्भव है उसे भरपेट भोजन न मिले । अतः इसे भाव ऊनोदरी कहा जाता है।
ङ. पर्यवचरक ऊनोदरी- उपर्यक्त चारों प्रकार से न्यून वत्ति का होना पर्यवचरक ऊनोदरी है अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चारों प्रकार से ऊनोदरी व्रत का पालन करना पर्यवचरक ऊनोदरी है।
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