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प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार
[ ३३३ दिन का, चार दिन का, पाँच दिन का आदि क्रम से करना, २. प्रतर तप (सम-चतुर्भुजाकार )-समानाकार चार भुजाओं की तरह जब श्रेणी तप चार बार पुनरावृत्त होता है तो उसे १६ उपवास प्रमाण प्रतर तप कहते हैं, ३. घन तप-प्रतर तप ही जब श्रेणी तप से गुणित किया जाता है तो उसे (१६ x ४= ६४ उपवास प्रमाण) घन तप कहते हैं, ४. वर्ग तप-घन तप को जब घन तप से गणित किया जाता है तो उसे ( ६४४ ६४=४०६६ उपवास प्रमाण ) वर्ग तप कहते हैं, ५. वर्ग-वर्ग तप-वगं तप को जब वर्ग तप से गणित किया जाता है तो उसे (४०६६ x ४०६६=१६७७७२१६ उपवास प्रमाण ) वर्ग-वर्ग तप कहते हैं, ६. प्रकोण तप- श्रेणी आदि की नियत रचना से रहित जो अपनी शक्ति के अनुसार यथाकथञ्चित् अनशन तप किया जाता है उसे प्रकीर्ण तप कहते हैं ।
इस तरह इत्वं रिक अनशन तप के इन ६ भेदों में प्रथम पाँच भेद नियत क्रमरूपता की अपेक्षा से हैं और अन्तिम छठा भेद क्रमरूपता से रहित है। ऊपर जो श्रेणी तप को चार उपवासप्रमाण मानकर प्रतर तप आदि का स्वरूप बतलाया गया है वह नेमिचन्द्र की वृत्ति के आधार से दृष्टान्त रूप में उपस्थित किया गया है। अतः इसी प्रकार ५-६ उपवास-प्रमाण श्रेणी तप मानकर आगे के तपों का उपवास-प्रमाण समझ लेना चाहिए।
ख. मरणकाल अनशन तप (निरवकांक्ष-स्थायी) -यह आयुपर्यन्त के लिए किया जाता है। इसमें भोजन पान की आकांक्षा न रहने से यह निरवकांक्ष व स्थायी कहलाता है। यह तप मृत्यु के अत्यन्त सन्निकट ( अवश्यम्भावी ) होने पर शरीरत्याग ( सल्लेखना ) के लिए किया जाता है। ग्रन्थ में निम्नोक्त तीन अपेक्षाओं से इसके भेदों का विचार किया गया है :
१. शरीर की चेष्टा एवं निश्चेष्टता की अपेक्षा से 'सविचार' ( जिसमें शरीर की हलन-चलनरूप क्रिया होती रहती है ) और 'अविचार' ( शरीर की चेष्टा से रहित ) ये दो भेद हैं। १. उ० ने० वृ०, पृ० ३३७; से० बु० ई०, भाग-४५, पृ० १७५.
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