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२९८] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन मध्य भाग में वस्त्र को रखकर प्रतिलेखना करना ), ७. प्रशिथिल ( वस्त्र को शिथिलता से पकड़ ना ), ८. प्रलम्ब (वस्त्र के एक कोने को पकड़कर शेष भाग को प्रलम्बमान रखना ), ६. लोल ( वस्त्र का जमीन पर लटकते रहना ), १०. एकामर्षा ( वस्त्र को घसीटना ), ११. अनेकरूपधूना ( अनेक प्रकार से वस्त्र को हिलाना ), १२. प्रमाण-प्रमाद ( प्रतिलेखना के प्रमाण में प्रमाद करना ), १३. शङ्किते गणनोपयोगः ( कितनी बार प्रतिलेखना, हो चकी है इस प्रकार के प्रमाण में शङ्का हो जाने पर पुन: अंगुलियों पर गिनने लगना ), १४. अदत्तचित्त ( प्रतिलेखना करते समय वार्तालाप, कथा, नित्यकर्म, पठन-पाठन आदि में ध्यान को लगाना ) और १५. न्यूनाधिक ( किसी अंश में कम व अधिक बार प्रतिलेखना करना )।
इस तरह कम, अधिक एवं विपरीत प्रतिलेखना न करते हुए शास्त्रोक्त विधि से ही प्रतिलेखना करना प्रशस्त है और अन्य सब अप्रशस्त हैं। अतः प्रशस्त प्रतिलेखना के लिए सब प्रकार की सावधानी जरूरी है जिससे न तो जीवों की हिंसा हो और न शास्त्रोक्त विधि में प्रमाद हो ।'
५. उच्चारसमिति-मल ( उच्चार ), मूत्र ( प्रस्रवण ) आदि ( मुख का मैल, नाक का मैल, शरीर की गन्दगी, फेंकने योग्य आहार, उपयोगहीन उपकरण, मृत शरीर आदि ) फेंकने योग्य पदार्थों को विधिपूर्वक फेंकने योग्य ( व्युत्सर्जन योग्य ) एकान्त भूमि में त्यागना उच्चारसमिति है ।२ अर्थात् मल-भूत्रादि त्यागने योग्य घणित पदार्थों को ऐसे स्थान पर छोड़ ना जिससे न तो जीवों की हिंसा हो और न किसी को उससे घृणा हो ।
१. अणूणाइरित्तपडिलेहा अविवच्चासा तहेव य । पढमं पयं पसत्थं सेसाणि उ अप्पसत्थाई॥
--- उ० २६.२८. २. उच्चारं पासवणं खेलं सिंघाणजल्लियं । आहारं उवहिं देहं अन्नं वावि तहाविहं ।।
--उ० २४.१५.
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