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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार
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५. कायोत्सर्ग आवश्यक-इसमें दो शब्द हैं -काय और उत्सर्ग। इनका अर्थ है-शरीर का त्याग करना अर्थात शरीर से ममत्व को छोड़कर तथा स्व-स्वरूप में लीन होकर निश्चल होना कायोत्सर्ग है। यह भी एक प्रकार का तप है जिसका आगे वर्णन किया जाएगा। कायोत्सर्ग से साधक प्रतिक्रमण की तरह अतीत एवं वर्तमान के दोषों का शोधन करता है, फिर प्रायश्चित्त से विशुद्ध होकर कर्मभार को हल्का कर देता है। तदनन्तर वह चिन्तारहित होकर शुभ ( प्रशस्त ) ध्यान में लगा हुआ सुखपूर्वक विचरण करता है। अतः इस कायोत्सर्ग को सब प्रकार के दुःखों से छुड़ानेवाला भी कहा गया है। सामायिक और कायोत्सर्ग में यह अन्तर है कि सामायिक में साधु हलन-चलनादि क्रिया कर सकता है परन्तु कायोत्सर्ग में हलन-चलन नहीं कर सकता है।
६. प्रत्याख्यान आवश्यक-प्रत्याख्यान शब्द का अर्थ है-परित्याग करना। यद्यपि साधु सर्वविरत होता है फिर भी आहारादि का अमुक समयविशेष के लिए त्याग करना प्रत्याख्यान आवश्यक है । इसके करने से मन, वचन और काय की दूषित प्रवृत्तियाँ रुक जाती हैं और फिर कर्मों का आस्रवद्वार भी बन्द हो जाता है। ग्रन्थ के 'सम्यक्त्व-पराक्रम' अध्ययन में कुछ प्रत्याख्यानों के पालन करने का फल बतलाया गया है। जैसे :
क. संभोग प्रत्याख्यान - साधुओं के द्वारा एकत्रित किये गए भोजन को एकसाथ मण्डलीबद्ध बैठकर खाने का त्याग करना।
१. काउस्सग्गेणं तीयपड़प्पन्नं पायच्छित्तं विसोहेइ। विसुद्धपायच्छित्ते य .. जीवे मिव्वुयहियए ओहरियभरुव्व भारवहे पसत्थज्झाणोवगए सुहं - सुहेणं विहरइ ।
-उ० २६.१२. २. काउस्सग्गं तओ कुज्जा सव्वदुक्खविमोक्खणं ।
-उ० २६.३६. तथा देखिए-उ० २६.४२. ३. पच्चक्खाणेणं आसवदाराई निरु भइ।
-उ० २६.१३.
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